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अद्भुत गोवा

अद्भुत गोवा

by गिरिश बापट
in पर्यटन, प्रकाश - शक्ति दीपावली विशेषांक अक्टूबर २०१७
1
गोवा के समुद्री किनारे तो अद्भुत हैं। मीरामार समुद्री तट यानी सुनहरी रेत का समुद्री किनारा। यहां के सनबाथ का अनुभव अवर्णनीय है। गोवा की सैर हमेशा सैलानियों की स्मृतियों में छायी रहती है। गोवा का नाम सुनकर ही मन चर्च और समुद्र किनारों की छवि बनाने लगता है परंतु गोवा के मंदिर भी अद्भुत हैं और इन मंदिरों ने ही गोवा की संस्कृति की रक्षा करने का कर्य किया है।
भारत १५ अगस्त १९४७ को स्वतंत्र हुआ फिर भी गोवा में पराधीनता कायम रही। उसके बाद कुछ काल शांति रही परंतु बाद में सन् १९५६ में गोवा लिबरेशन आर्मी की स्थापना हुई। सन १९६१ में भारतीय सेना ने गोवा को चारों ओर से घेर कर १९ दिसंबर १९६१ को पुर्तगालियों से मुक्त कराया। तब से गोवा भारत का अभिन्न अंग है।
पहले गोवा कोंकण का ही एक भाग समझा जाता था। दक्षिण के पठार के बेसाल्ट पत्थरों वाला यह गोवा राज्य सह्याद्री पर्वत का ही एक भाग है। कोंकण जैसा जांभा पत्थर जिसे ‘चिरा’ भी कहते हैं, गोवा में भी मिलता है। सह्याद्री पर्वत का करीब ६०० किमी का फैलाव गोवा में है। गोवा का कुछ भाग पठारी है। इसे ‘हरित पट्टा’ भी कहते हैं। जुआरी एवं मांडवी नदी के किनारे का भाग अच्छी फसल वाला है।
इस राज्य का यदि ध्यान से अध्ययन किया जाए तो ध्यान में आता है कि यह अरब सागर का तटवर्ती राज्य है। इसलिए इसके एवं कोकण के मौसम में कोई फर्क नहीं है। मार्च से जून में कड़ी धूप परंतु समुद्री हवा के कारण वातावरण में पर्याप्त नमी एवं जून से सितंबर तक भरपूर वर्षा से गोवा में होती है। इसके कारण हवा में भरपूर नमी रहती है।
गोवा में पर्यटन ग्रीष्म की अपेक्षा शीत में करना ज्यादा अच्छा है। परंतु हरियाली एवं पानी का मजा लूटना है तो फिर अगस्त- सितंबर माह अच्छा है।
जब गोवा पर पुर्तगालियों का शासन था उस समय वहां बड़े पैमाने पर जंगल था। उसके बाद कुछ कारणवश वहां के जंगल काटे गए। फिर भी गोवा में अभी भी दो प्रकार के जंगल देखने को मिलते हैं। एक यानी हमेशा हरे रहने वाले एवं दूसरे कम हरे रहने वाले। इन जंगलों में सागौन, जांभ, बकुल, बांस, आम, कटहल, काजू, बेर, पीपल समेत अनेक वृक्ष मिलते हैं। गोवा के काजू की प्रसिद्धि आपने सुनी ही होगी। गोवा में काजू की बागवानी बड़े पैमाने पर होती है। इसी कारण गोवा को काजू का घर या ‘काजू घर’ कहते हैं। सन १५५८ से १५७८ के बीच पुर्तगालियों ने ब्राजील से काजू के पौधे लाकर गोवा में काजू की खेती प्रारंभ की एवं वह आजतक जारी है।
गोवा के घने जंगलों में हाथी, काली बिल्लियां, शेर, बंदर, हिरण, जंगली सूअर जैसे प्राणी मिलते हैं तो मैना, तोता, कबूतर और चमगादड़ जैसे पक्षी भी विहार करते हुए मिलते हैं।
गोवा की दो मुख्य भाषाएं हैं, कोंकणी एवं मराठी। इन दोनों भाषाओं का सुंदर संगम हम गोवा में देख सकते हैं। प्राचीन काल में मराठी साहित्य की तथा कोंकणी बोलचाल की भाषा थी। सन १७४५ में पुर्तगालियों ने पुर्तगाली भाषा बोलने की जबरदस्ती की थी परंतु वे यह जबरदस्ती अंत: तक नहीं कर सके। उच्च वर्गीय हिंदू एवं ईसाई लोगों ने पुर्तगाली भाषा सीखी परंतु जैसे ही पुर्तगाली गोवा छोड़ कर गए उनकी भाषा भी उनके साथ चली गई। आज गोवा में कोंकणी, मराठी, हिन्दी एवं अंग्रेजी ये ही चार भाषाएं बोली जाती हैं। गोवा के कोंकणी लोगों द्वारा बोली जाने वाली कोंकणी भाषा सुनने में बहुत ही मीठी लगती है।
गोवा पर्यटन में पुराने गोवा (ओल्ड गोवा) की सैर अद्भुत ही है। गोवा की पुरानी यादें एवं प्राचीन अवशेषों का जतन करने वाले इस चिरशांत प्रदेश को ‘पूर्व दिशा का रोम’ कहा जाता है। रोमन साम्राज्य में चर्च की जो धीर गंभीर शांति होती है बिलकुल वैसी ही धीर गंभीर शांति हम पुराने गोवा में अनुभव करते हैं। एकदम पुरानी कैथालिक ईसाई संस्कृति पुराने गोवा में नजर आती है।
पंद्रहवी एवं सोहलवीं सदी में पुर्तागालियों ने गोवा में वास्तुकला का विकास किया। ‘वास्को- द-गामा’ यहां व्यापारिक प्रवृत्ति के साथ ही मिशनरी भावना भी लेकर आया। भारत में ईसाई धर्म का पौधा सर्वप्रथम गोवा में ही लगा एवं पला-बढ़ा। गोवा में इतालवी एवं रोमन वास्तुकला की छाप प्रत्येक निर्माण पर दिखाई देती है। उदाहरण के तौर पर रोम के सेंट पीटर चर्च का डिजाइन गोवा के सेंट फैजटन चर्च में दिखाई देता है। ‘बॉम्ब जिरजस’ चर्च में कोरिथियन तथा रोमन पद्धति का उपयोग किया है। ‘गोथिक’ वास्तुकला की छाप सभी चर्चों की इमारतों पर देखी जा सकती है। पुराने गोवा में चर्च में स्थानीय वस्तुओं का ही उपयोग किया गया है। चर्च की पेंटिंग लकड़ी पर बनाई गई है एवं ये लकड़ियां दीवारों में फिक्स की गई है।
पुर्तगालियों द्वारा निर्मित चर्चों में ‘सी कैथेड्रल’ सब से बड़ा व पुराना है। इस चर्च की भव्यता देखते बनती है। गोवा की यह सबसे सुंदर इमारत गोथिक पद्धति से बनाई गई है। बाहर का भाग ‘टस्कन’ तो अंदर का भाग ‘कारिथियन’ पद्धति का है। इसके बाद ‘बेसलिका’ दूसरा सबसे प्राचीन चर्च है जिसमें १५वीं सदी से ईसाई धर्म प्रचारक सेंट जेवियर का मृत शरीर अभी भी चांदी की पेटी में रखा गया है। इसलिए ईसाई लोग इस चर्च को अत्यंत पवित्र मानते हैं। सन १५५५ में वह चीन में ईसाई धर्म का प्रचार करने निकला तो रास्ते में ही उसकी मृत्यु हो गई। इनके अलावा सेंट फ्रांसिस चैपल चर्च, सेंट फ्रांसिस दि अरसिसी चर्च, सेंट केजेेटन चर्च इत्यादि भी प्रमुख हैं।
अब हम पणजी की ओर चलें। शांत, शाीतल, स्वच्छ वातावरण में निसर्ग के गहने पहन कर, मांडवी के सफेद शुभ्र वस्त्र परिधान कर, ऐतिहासिक एवं संस्कृति का कुंकुम तिलक लगा कर स्वत: का एक अलग अस्तित्व प्रदर्शित करने वाली गोवा की यह राजधानी। एक बार से मन संतुष्ट नहीं होता। जैसे ही वहां से हटे पणजी की याद फिर सताने लगती है। शहर के मध्य में चर्च ऑफ अवर लेडी की इमारत व घंटा लगा हुआ टॉवर देखने को मिलता है।
यहां का महालक्ष्मी मंदिर शहर के मध्यभाग में अल्टीनो हिल की तलहटी में है। इस मंदिर का संपूर्ण गर्भगृह काले पत्थरों से निर्मित है। उसमें चांदी के देवालय में लक्ष्मी जी की मूर्ति विराजमान है। बगल में ही हनुमान मंदिर है। इस मंदिर में चैत्र पूर्णिमा एवं रथ सप्तमी (वसंत पंचमी के दो दिनों के बाद) को दो बड़े उत्सव मनाए जाते हैं एवं उस समय यहां बड़ा मेला लगता है। पणजी शहर के मध्यवर्ती भाग में जामा मस्जिद है। यह करीब २०० वर्ष पुरानी है। सन १९३५ में इसका पुननिर्माण किया गया। इस प्रकार राजधानी के मध्य भाग में तीनोें धर्मों का त्रिवेणी संगम देखने को मिलता है।
गोवा के समुद्री किनारे तो अदभुत हैं। नीला हरा पानी! मीरामार समुद्री तट यानी सुनहरी रेत का समुद्री किनारा। यहां के सनबाथ का अनुभव अवर्णनीय है। पणजी से दक्षिण की ओर ७ कि मी दूर दोना पावला है। यह तीन ओर से समुद्र से घिरा है। महाकाय अरबी समुद्र मन को रिझाता है। प्रदेश के मध्य में स्थित मडगाव महत्वपूर्ण रेल्वे स्टेशन है। यहां से संपूर्ण गोवा बसों के माध्यम से ज़ुडा है। मडगांव शहर यानी लाल रंग के कवेलू के घर जो लैटिन कालोनी या स्पेनिरी मेक्सिकन वास्तुशास्त्र का नमूना है।
सामान्यतः गोवा का नाम लेते ही लोगों के दिमाग में गोथिक शैली के खुबसूरत चर्च, उसके समुद्री किनारे और उन्मुक्त जीवन शैली की छवि अंकित हो जाती है पर वास्तविक तौर पर इतना ही नहीं है। जैसा कि ऊपर ही उल्लेख किया जा चुका है कि वहां के लोग अति धार्मिक हैं तथा कई बड़े सनातनी मंदिरों से विभूषित गोमांतक क्षेत्र किसी देवालय की तरह ही है। सन् १९०० तक गोवा का अधिकांश भाग ग्रामीण था। परंतु उसके बाद गांवों का शहरों में रूपांतर शुरू हुआ। दक्षिण की ओर विशेषत: कोंकण से केरल तक की पश्चिम किनारपट्टी पर तीर कमान के जोर पर सत्ता स्थापित करने वाले महापुरुष यानी परशुराम। आर्य संस्कृति की स्थापना गोवा में परशुराम ने ही की। उसके बाद विध्य पर्वत को लांघ कर भृगु एवं अगस्त्य ऋषि दक्षिण में आए। विश्वामित्र द्वारा राम को दंडकारण्य में लाना भी आर्यों का वहां प्रवेश का कारण बना।
समय के साथ इसमें कई परिवर्तन हुए। देश के अन्य हिस्सों की ही भांति यहां पर भी कई बड़े शासकों ने अपनी सत्ता स्थापित की जिनमें भोज, चालुक्य, शिलाहार, कदंब आदि प्रमुख हैं। इस क्षेत्र में बौद्ध स्तूपों,विहार और मंदिरों का निर्माण बड़े पैमाने पर हुआ। किसी समय गोमंतक दक्षिण का काशी कहा जाता था। पुर्तगालियों ने हिंदू संस्कृति को समाप्त करने हेतु भरपूर सत्ता बल प्रयोग किया जिसके अंतर्गत बड़े पैमाने पर धर्मांतरण, मंदिरों का विध्वंस, हिंदुओं की पोशाक और विभिन्न आचारों पर प्रतिबंध तथा धार्मिक समारोहों पर कड़ी पाबंदी जैसे तमाम हथकंडे अपनाए तथा कर-बल-छल से भरपूर धर्मांतरण किए गए पर पुर्तगाली पूरी तरह हमारी सनातन संस्कृति को समाप्त करने में असफल रहे। आखिरकार राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में शुरू किए गए स्वाधीनता संग्राम के कारण १९६१ में गोवा स्वाधीन हुआ तथा १९७७ में भारत का घटक राज्य बन गया।
प्राचीन काल से हिंदू धर्म के अस्तित्व में होने के कारण यहां के लोग विविध देवी देवताओं को मानने वाले श्रद्धालु हैं। यहां के लोगों का दिन भगवान की पूजा से ही प्रारंभ होता है। प्रत्येक मंदिर में वर्ष में कम से कम एक बार तो मेला लगता ही है। गोवा की स्त्रियां पुरुषों की अपेक्षा अधिक श्रद्धालु हैं। गोवा में हिंदू तथा ईसाई बड़े पैमाने पर होने के कारण पारंपारिक त्यौहार एवं उत्सव बड़े पैमाने पर मनाए जाते हैं। सभी पारंपारिक उत्सव मनाते समय सामुदायिक गायन व नृत्य होते हैं। बैंडबाजे का बड़े पैमाने पर उपयोग होता है। सब से ज्यादा मजेदार यानी उत्साह, आनंद, शोभायात्रा, रंगबिरंगी परिधान पहनना, विचित्र वेशभूषा में सड़कों पर नाचना, ये सब विशेषताएं गोवा में देखने को मिलती हैं।
पहले गोवा में देवदासी प्रथा प्रचलन में थी। भगवान की सेवा करने वाली यानी देवदासी। आगे चल कर इस पर कानूनी प्रतिबंध लगाया गया। गोवा में जातिवाद नजर नहीं आता। गोवा में रहने वाला प्रत्येक नागरिक इस गोवा की भूमि का घटक है ऐसा मान कर यहां के लोग सामंजस्य के साथ जीवन व्यतीत करते हैं। इसे गोवा के लोगों का बड़प्पन कहना ज्यादा श्रेयस्कर होगा।
यदि यहां के देव मंदिरों की बात करें तो शांतादुर्गा तथा श्री मंगेशी प्रमुख हैं। १५८३ में जेसुइट पादरियों द्वारा किए जा रहे धर्मांतरण के परिणामस्वरूप श्री शांतादुर्गा, खंडेराय एवं अन्य मूर्तियां कुंकल्ली स्थित मूल मंदिर से हटाकर उदयामल के हरे-भरे जंगलों के बीच नए मंदिर का निर्माण कर स्तापित की गईं। १९८४ में मंदिर के निर्माण को विस्तार देते हुए दोबारा शिलान्यास हुआ। कालांतर में नवीन मंदिर से पुराने शातादुर्गा कुंकल्लीकरीण तक किए जाने वाले जत्रोत्सव एवं छत्रोत्सव की शुरुआत हुई जो अभी तक निर्बाध जारी है। कुछ ऐसी ही कथा मंगेश देवस्थान की भी है। भगवान परशुराम द्वारा त्रिहोत्रपुर से लाए गए दशगोत्री ब्राह्मणों तथा उनके ६४ कुलों ने श्री मंगेश, श्री शांतादुर्गा, श्री महालक्ष्मी, श्री सप्तकोटेश्वर, श्री महालसा आदि कुलदेवताओं की प्रतिमाएं लाकर गोमांतक क्षेत्र में विभिन्न स्थानों पर स्थापित की थी। पुर्तगाली राज में कुशस्थली में बसे श्री मंगेश देवता का लिंग फोंडा तहसील के प्रियोल गांव में ले जाकर स्थापित करना पड़ा। वर्तमान मंदिर का निर्माण १८९० में मराठाशाही द्वारा किया गया तथा १७ फरवरी १९७३ को मंदिर के शिखर पर स्वर्ण कलश की स्थापना की गई।
राज्य के दक्षिणी छोर पर डिचोली तहसील में मांडवी नदी के किनारे न्हावेली गांव में स्थित श्री लक्ष्मीनारायण भी प्रमुख मंदिरों में से एक है। राज्य का यह भाग कृषिप्रधान है। कुछ समय पूर्व यहां पर काफी मात्रा में खनिज मिला है। यहां पर स्वामी नारायण के साथ ही साथ मूलमाया, सातेरी, कुणबी अंश, घाडी अंश, महादेव लिंग, नंदी, दुर्गादेवी, गणपति आदि देवता विराजमान हैं। थोड़ी ही दूरी पर है ‘भातग्राम सुर्ल’ नाम का गांव जहां हरे-भरे प्राकृतिक वन प्रदेश, नारियल-सुपारी के बगीचे दूर-दूर तक फैले हर-भरे खेतों से आच्छादित वातावरण के बीच स्थित है श्री देव सिद्धेश्वर मंदिर। श्रम एवं विद्या की निरंतर उपासना करने वाले इस गांव को विद्वानों का मायका भी कहा जाता है। इस शिवलिंग के ऊपर मंदिर का निर्माण कार्य कब हुआ, इसकी जानकारी उपलब्ध नहीं है। पर लोग अनुमान लगाते हैं कि इसका निर्माण कार्य लगभग एक हजार साल पहले हुआ होगा। इस मंदिर से सटकर ही एक पांडवकालीन शिवलिंग और गुफा भी है।
रावणफोड-मडगाव में महाराष्ट्र व गोवा का इकलौता गणपति-मुरुगन मंदिर है। गणेश के बड़े भाई कार्तिकेय को षडानन, अग्निभू, महासेन, स्कंद, कुमार, विशाख,षण्मुख तथा मुरुगन भी कहते हैं। यहां गणेश चतुर्थी बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। इस उपलक्ष्य में रथोत्सव होता है जबकि फरवरी महीने में गणेश पालकी निकाली जाती है।
महर्षि कण्व की पुनीत कर्मभूमि रहा काणकोण क्रौंचेद क्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है। यहां भगवान शिव का प्रसिद्ध मल्लिकार्जुन देव का प्रचीन मंदिर स्थित है। मंदिर का जीर्णोद्धार १७०० शक संवत में किया गया था। देवालय के अंदरूनी चौक में खड़े लकड़ी के खंभों पर उकेरे गए शिल्प प्रेक्षणीय हैं। इस तरह का शिल्प समूचे गोमांतक क्षेत्र में और कहीं नहीं दिखाई पड़ता है। जीर्णोद्धार के समय शिल्पों के काम के लिए दक्षिण भारत से कारीगरों को आमंत्रित किया गया था। इसका भोगमंडप अथवा चौक छः खम्भों का है तथा हर खंभे पर पुराणों तथा महाकाव्यों की घटनाएं शिल्पों के रूप में देखी जा सकती हैं। गर्भागार के प्रवेशद्वार पर दोनों ओर चतुर्भुज द्वारपाल हैं तथा प्रवेशद्वार की चांदी की चौखट पर दोनों ओर यक्ष, किन्नरों के शिल्प हैं। इसके अतिरिक्त गर्भगृह के प्रवेश द्वार के ऊपर लटकाया हुआ समुद्र मंथन का लकड़ी का रंगीन शिल्प भी ध्यान आकर्षित करता है तथा छत पर भी चित्रकृतियां हैं।
अब वर्तमान समय की आवश्यकता है कि ये धार्मिक स्थल अपने कर्तव्यों को विस्तार देते हुए सामाजिक व सांस्कृतिक आंदोलन का केंद्र बनें ताकि भगवान परशुराम तथा महर्षि कण्व की कर्मभूमि रहा गोमांतक क्षेत्र यानी गोवा एक बार फिर से अपने पुराने सांस्कृतिक स्वर्ण काल की राह पर अग्रसर हो सके।

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Comments 1

  1. Khushiram says:
    7 years ago

    गुड

    Reply

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