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संघ द्वेष से पुष्पवर्षा तक  बदलता मुस्लिम मानस

संघ द्वेष से पुष्पवर्षा तक बदलता मुस्लिम मानस

by pallavi anwekar
in देश हित में मतदान करें -अप्रैल २०१९, साक्षात्कार
1

भारतीय मुस्लिम मुल्ला-मौलवियों के शिकंजे से त्रस्त हो चुके हैं और देश की मुख्य धारा में आना चाहते हैं, आने की कोशिश भी कर रहे हैं। संघ के प्रति उनके नजरिये में अब बहुत बदलाव आ गया है। संघ से उनकी दूरी घटती जा रही है। ऐसे एवं रामजन्मभूमि, पाकिस्तान, मदरसे की शिक्षा आदि ज्वलंत प्रश्नों पर मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के संयोजक इंद्रेश जी से हुई विशेष भेंटवार्ता के महत्वपूर्ण अंशः-

पुलवामा की घटना पर भारतीय मुसलमानों का मानस क्या है?
विभाजन के बाद जब से पाकिस्तान बना है, तब से लेकर अब तक कोई भी ऐसा सप्ताह नहीं है जब सीमा पर गोलीबारी न हुई हो। पाकिस्तान ने जब भी कभी सीधा हमला किया उसे हार का मुंह देखना पड़ा। अत: उसने प्रॉक्सी वॉर शुरू किया। इसे ही आतंकवाद कहा जाता है। धीरे-धीरे पाकिस्तान ने भारत की जनता को सॉफ्ट टार्गेट करना शुरू कर दिया। भारत ने काफी सहन किया परंतु पाकिस्तान सुधरा नहीं। अंतत: पुलवामा की घटना ने भारत के सब्र का बांध तोड़ दिया। देश की 125 करोड़ जनता यह मांग कर रही थी कि हमारी सहनशीलता को पाकिस्तान कायरता मान रहा है, इसका जवाब देना आवश्यक है। इस 125 करोड़ जनता में मुसलमान भी शामिल हैं।
यहां एक बात ध्यान देना आवश्यक है कि जिस तरह देश के कुछ राजनैतिक नेता इस अवसर पर भी पाकिस्तान की ओर से बात कर रहे थे, उसी तरह कुछ मुसलमान सियासी नेता और मजहबी नेता भी पाकिस्तान के समर्थन में बात कर रहे थे। उन्होंने सेना की तारीफ करते-करते उसकी एयर सर्जिकल स्ट्राइक पर ही प्रश्न खड़ा कर दिया। वे पाकिस्तान की निंदा करने के बजाय अपनी ही सरकार की निंदा करने लगे। परंतु एक बड़ा समूह ऐसा भी था जिसके मन में इस घटना के प्रति रोष था और वह चाहता था कि इस घटना का बदला लिया जाए। ऐसी सोच रखने वाले मुसलमानों ने यह भी विचार किया कि अब अजमेर शरीफ दरगाह पर आने वाले पाकिस्तानियों पर पाबंदी लगा दी जानी चाहिए। भारत के अन्य क्षेत्रों में भी मुसलमानों ने पाकिस्तान के पुतले जलाकर भी हिंदुस्तानियत को उजागर किया।

कश्मीर के मुसलमानों तथा देश के अन्य प्रदेशों के मुसलमानों की मानसिकता में अंतर क्यों दिखाई देता है?
सन 1947 के बाद जब संविधान बन रहा था, तब धारा 370 के सम्बंध में भी दो मुस्लिम मानसिकताएं सामने थीं। एक गुट ने पं. जवाहरलाल नेहरू से कहा कि यह अस्थायी धारा 370 भारत की एकता और अखंडता को ग्रहण लगाएगी। रफी अहमद किदवई ने पं. नेहरू को यह प्रस्ताव दिया था कि एकतरफा युद्ध विराम के कारण जिस पाक अधिकृत कश्मीर का निर्माण हो गया है, वहां के हिंदुओं को कश्मीर में बसाया जाए और जनमत संग्रह कराया जाए। परंतु पं. नेहरू ने यह बात नहीं मानी। यहां से पाकिस्तान की हिम्मत बढ़ी। उसने जम्मू-कश्मीर में और मुख्यत: कश्मीर घाटी के मुसलमानों में एक अलगाववाद की भावना का बीज बो दिया। इसलिए वहां के मुसलमानों की भावना भारत-भारती-भारतीयता की बनने के बजाए भारत से अलगाववाद और हिंसा की बनती गई। कश्मीर के लोगों का मानस इस प्रकार से बनाने के लिए जितना पाकिस्तान जिम्मेदार है, कश्मीर के अलगाववादी जिम्मेदार हैं उतनी ही पं. नेहरू की नीतियां भी जिम्मेदार हैं।

कश्मीर के लोगों को अन्य प्रदेशों से अलग दिखाने में अनुच्छेद 370 ने भी बड़ी भूमिका निभाई है। इसका सम्पूर्ण देश पर क्या असर हुआ है?
अगर कश्मीर का कोई व्यक्ति देश के किसी भी स्थान पर जा सकता है, जमीन खरीद सकता है, व्यापार कर सकता है, पढ़ाई कर सकता है, वोट डाल सकता है, तो अन्य राज्यों के लोग कश्मीर में यह सब क्यों नहीं कर सकते? वहां पर इतनी पाबंदियां क्यों? जब संविधान में यह कहा गया है कि देश एक ध्वज, एक नागरिकता, एक संविधान से चलेगा तो कश्मीर के लिए यह सब अलग क्यों? इसका मुख्य कारण है अनुच्छे 370। यह अनुच्छेद एक विषबीज था जिसने अलगाववाद को, पत्थरबाजी को, हिंसा को, आतंकवाद को, अलग झंडा उठाने की बात कहने को लोगों को प्रवृत्त किया।
अत: अब आवश्यक है कि इस विषबीज को हटाकर सुंदर बीज का रोपण किया जाए। जिससे देश की सुरक्षा और अखंड़ता को अबाधित रखा जा सके। कश्मीर के लोगों को भी यह सोचना आवश्यक है कि इस हिंसक, आतंकवाद की छाया में इतने दिन रहने के बाद उन्हें क्या प्राप्त हुआ। इस अनुच्छेद 370 ने उन्हें केवल और केवल नुकसान ही पहुंचाया है। मैं हमेशा कहता हूं कि कश्मीर-कश्मीरी-कश्मीरियत को सुरक्षित और सुंदर बनाए रखने का जो कवच है वह हिंदुस्तान-हिंदुस्तानी-हिंदुस्तानियत है।

आपके दृष्टिकोण से राष्ट्रीयता या भारतीयता क्या है?
एक वैश्विक सत्य और भारतीय सत्य यह है कि समाजों की पहचान जाति, उपजाति, भाषा, बोली, पंथों से नहीं होती वरन वे जिस देश में होते हैं उसी से होती है। अमेरिका के लोग अमेरिकी कहलाते हैं, ईसाई नहीं। चीन के लोग चीनी कहलाते हैं, बौद्ध नहीं। तुर्कीस्तान और अरब के लोग तुर्की या अरबी ही कहलाते हैं, मुसलमान नहीं। अमेरिकन, चीनी, अरबी, तुर्की होना देश के संदर्भ में राष्ट्रीयता है और विश्व के संदर्भ में मानवता है। इसी प्रकार भारतीय, हिंदू, हिंदुस्तानी, इंडियन, होना भारत के संदर्भ में राष्ट्रीयता है और विश्व के संदर्भ में मानवता है। इसमें से कोई भी शब्द संकुचित या साम्प्रदायिक नहीं है।
कुछ दिनों पहले तो लखनऊ में आर्कबिशप भी बोले थे कि मैं देश के संदर्भ में हिंदू भारतीय हूं, रिलीजन के संदर्भ में ईसाई हूं और ईसाईयत के संदर्भ में कैथोलिक हूं। यही सत्य है कि इस देश के सभी 125 करोड़ लोग हिंदू, भारतीय, हिंदुस्तानी और इंडियन हैं। यही उनकी नागरिकता और मानवता है।

क्या आर्कबिशप के इस कथन को ईसाइयों का हृदय परिवर्तन कहा जा सकता है?
मुसलमानों और ईसाइयों इन दोनों मतावलम्बियों में अब एक आंदोलन चल पड़ा है। रा.स्व.संघ के द्वारा जब मुसलमानों और ईसाइयों के विभिन्न लोगों से चर्चा करना प्रारंभ किया गया तो कई बातें सामने आईं। वे लोग स्वयं ये मानने लगे हैं कि अभी तक उन लोगों को मजहबी नेताओं ने, राजनैतिक नेताओं ने और मीडिया ने अत्यधिक भड़काया था। हमारे अंदर गलतफहमियां रखीं। रा.स्व.संघ को जैसा है वैसा समझने का मौका ही नहीं दिया। अत: अब जब वे संघ को नजदीक से जान रहे हैं तो उनकी गलतफहमियां दूर हो रही हैं। हमें यह विश्वास है कि भविष्य में मुस्लिम, ईसाई और अन्य मत पंथों का प्रवाह देश की मुख्य धारा के साथ बहता हुआ दिखाई देगा।

राजनीति में एक आम चित्र यह दिखाई देता है कि जब भी देश में चुनाव होते हैं, मुस्लिम तुष्टीकरण बढ़ जाता है। इसकी शुरुआत कैसे हुई और लोकसभा चुनावों में इसका कितना प्रभाव रहेगा?
यह सच्चाई सभी जानते हैं कि 1947 से पहले कांग्रेस एक पार्टी नहीं आंदोलन थी। पं.नेहरू की जिद के कारण विभाजन सहन करके जब हमें 1947 में स्वतंत्रता मिली तो म.गांधी काफी दुखी हुए थे। स्वतंत्रता के बाद जब कांग्रेस एक पार्टी के रूप में सत्ता के शिखर पर बैठी तो उसने भी कांगे्रस की तरह फूट डालो, लड़वाओ और शासन करो की नीति अपनाई।
उस समय जब यह चर्चा चली कि अल्पसंख्यक समुदाय कौन से हैं तो मुसलमानों और ईसाइयों ने कहा कि हमारे यहां जाति-उपजाति नहीं हैं अत: हम अल्पसंख्यक नहीं हैं और न ही हम आरक्षण के दायरे में आते हैं। अत: कांग्रेस ने अनैतिक रूप से उन्हें मजहबी अल्पसंख्यक का रूप दे दिया और देश की मुख्य धारा के प्रति उनके मन में भय निर्माण कर दिया। यहां से भारतीय राजनीति में मुस्लिम तुष्टीकरण की शुरुआत हुई। जिसके दुष्परिणाम आज भी भोगने पड़ रहे हैं।

राष्ट्रीय मुसलमान शब्द की मूल संकल्पना क्या है? क्योंकि विपक्ष हमेशा कहता है कि भाजपा या संघ की दृष्टि में जो उसके पक्ष में हो वे राष्ट्रीय मुसलमान और जो न हों वे अराष्ट्रीय मुसलमान हैं?
मेरे हिसाब से तो यह उनका भाजपा या संघ को अपशब्द कहने का एक तरीका मात्र है। जिसमें कोई सच्चाई नहीं है। जिस तरह जो कांग्रेस के साथ हैं वे ही सेक्युलर हैं तो बाकी क्या अनसेक्युलर हैं? लेकिन एक बात तो तय है कि बाकी दलों से जुड़े लोग प्राय: भारत माता की जय का नारा नहीं लगाते हैं। समाज में अगर देखें तो भाजपा या संघ से जुड़े लोग या जिनमें राष्ट्रीयता की भावना है वे बेझिझक पूरे सम्मान और श्रद्धा के साथ भारत माता की जय का नारा लगाते हैं। अब आप स्वयं समझ सकते हैं कि राष्ट्रीय कौन हैं और अराष्ट्रीय कौन हैं।
पहले तो विपक्षियों को हिंदू और मंदिरों से कोई सरोकार नहीं होता था। परंतु आज का राजनैतिक परिदृश्य इस प्रकार से बदला है कि उन्हें जनेऊ दिखा दिखा कर यह प्रचारित करना पड़ रहा है कि वे हिंदू हैं। समाजवादियों को भी कलश यात्रा में शामिल होकर बताना पड़ता है कि हम इस देश के हैं, हिंदू हैं।

सन 1947 से लेकर अभी तक 71 वर्षों में मुसलमानों के देश के मुख्य प्रवाह से न जुड़ने के पीछे क्या राजनैतिक कारण भी हैं?
1947 में जब विभाजन हुआ तो वह हिंदू-मुस्लिम का आधार लेकर हुआ, जबकि कांग्रेस की मांग तो पूर्ण स्वतंत्रता की थी, विभाजन की नहीं। परंतु अंग्रेजों की कूटनीति और तात्कालिक स्वार्थ के कारण विभाजन हो गया और भेदभाव का एक बीज हमेशा के लिए बो दिया गया। मुसलमानों को अल्पसंख्यक बना कर एक अलग राह पर धकेल दिया गया। उस समय मुस्लिम नेता यह समझ नहीं पाए और कांग्रेस को भी इसका अनुमान नहीं लगा कि यह अल्पसंख्यक बनाने की क्रिया कितनी महंगी पड़ सकती है। संविधान में तो समान कानून, समान झंडा, समान नागरिकता का प्रावधान था। इस अल्पसंख्यक विचारधारा का प्रवेश जब राजनीति में हुआ तब वह जातिगत और पंथगत हो गई। इसके कारण जिन अन्य जातियों का भी मूल प्रवाह में विलय होना था, वह भी रुक गया।
इस वातावरण से तुष्टीकरण और नफरत दो मार्ग निकले। परंतु दोनों से ही संतोषजनक रास्ता न निकलने के कारण एक तीसरे विचार की आवश्यकता महसूस हुई। यह तीसरा विचार क्या हो, उसका नेतृत्व कौन करें ये प्रश्न उठने लगे। परंतु आज यह प्रश्न नहीं हैं। इस समस्या से निकलने के कई मार्ग दिखाई देने लगे हैं।

‘मुस्लिम राष्ट्रीय मंच’ के कार्य का विस्तार मुसलमानों में किस तरह हो रहा है?
देखिए, मुस्लिम कभी रा.स्व.संघ के पक्ष में नहीं थे। जब हम उनके परिवारों में जाते थे तो यह मुद्दा लेकर जाते थे कि हमारे पूर्वज एक हैं, देश एक है, परम्पराएं एक हैं। अगर हम आपस में मिलजुलकर नहीं रहेंगे तो हमारी सुरक्षा कैसे होगी? विकास कैसे होगा? हमारे निरंतर प्रयत्नों ने हमें काफी अच्छी सफलता दिलाई है और लोग हमसे जुड़ने लगे हैं। आज लगभग 25 प्रांतों के 335 जिलों में इसकी इकाइयां काम कर रही हैं। लगभग 4 से 5 हजार मौलाना, इमाम, मौलवी और हाफिज हमारे सम्पर्क में हैं। सात से आठ लाख लोगों के साथ कुछ अखबार भी हमारे सम्पर्क में हैं। 20-25 मुस्लिम राष्ट्रों से हमारा सम्पर्क हो चुका हौ। धीरे-धीरे संघ के प्रति जो मुसलमानों का दृष्टिकोण था वह बदलने लगा है।

मंच के इस प्रयास को मुस्लिम महिलाएं किस दृष्टि से देखती हैं?

उनका दृष्टिकोण बहुत ही सकारात्मक है; क्योंकि जहां भी मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के कार्यकर्ता जाते हैंं, महिलाएं उनसे मिलकर शुक्रिया अदा करती हैं। मुझे भी कई महिलाओं ने आकर धन्यवाद दिया और कहा कि आपने इस्लाम में जो गंदगी आ गई थी उसे खत्म कर दिया है। साथ ही एक बात और और दिखाई देती है कि इतने वर्षों तक राजनीति से प्रेरित होकर जिन नेताओं ने, पार्टियों ने मुस्लिम महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों का समर्थन किया उनके प्रति भी मुस्लिम महिलाओं के मन में रोष आने लगा है और वह प्रत्यक्ष दिखाई भी देता है। परंतु मंच के प्रति उनका रवैया सकारात्मक है।

संघ अब 100 वर्षों का होने जा रहा है। मुसलमानों का संघ की ओर देखने का दृष्टिकोण कितना बदला है?
सामान्यत: जब हम देखते थे कि जब भी संघ का पथ संचलन निकलता था या कार्यक्रम होता था, तो कई बार दंगे और अस्वस्थता की स्थिति निर्माण होती थी। परंतु अब ऐसा नहीं होता। आज हम देखते हैं कि जब संचलन होता है या कोई कार्यक्रम होता है कहीं कोई दंगे नहीं होते कोई अप्रिय घटना नहीं होती। अब तो हम कई जगहों पर देखते हैं कि मुसलमान संचलनों पर पुष्प वर्षा तक करते नजर आते हैं।

अयोध्या में राम मंदिर बनाने को लेकर मुस्लिम समाज में सहमति कैसे बनेगी?
मुसलमान समझ गए हैं कि जिस तरह चर्च तो दुनिया भर में बहुत हैं परंतु वेटिकन एक ही है। मस्जिदें बहुत हैं परंतु मक्का-मदीना एक ही है। उसी प्रकार मंदिर बहुत हैं परंतु रामजन्मभूमि एक ही है। यहां मूल विवाद या प्रश्न केवल मंदिर का भी नहीं वरन रामजन्मभूमि का है। लोग ये जानने लगे हैं कि कुरान में जिन एक लाख चौबीस हजार पैगंबरों का उल्लेख किया गया है राम उन्हीं में से एक हैं। राम को अरब में ‘इमामे हिंद’ कहा गया है। फिर बात निकली कि बाबर कौन था, तो जवाब आया कि बाबर तो आक्रमणकारी था।
मस्जिद बनाने के संदर्भ में भी कुरान में जिन पांच बातों का आधार लिया जाता है उन पर भी तथाकथित बाबरी मस्जिद खरी नहीं उतरती। पहला आधार है जमीन पाक-साफ अर्थात दान में मिली होनी चाहिए, दूसरा है वह अपने पैसों से खरीदी होनी चाहिए, तीसरा आधार है कि वह अन्य किसी मत सम्प्रदाय के अधिकार में नहीं होनी चाहिए, चौथा आधार यह कि किसी अन्य मत-सम्प्रदाय की इमारत को तोड़कर नहीं बनाई जानी चाहिए और पांचवां है कि मस्जिद कभी भी इंसान या बादशाह के नाम पर नहीं बनाई जाएगी। इनमें से किसी भी आधार पर यह मस्जिद खरी नहीं उतरती। ऐसी मस्जिद के बारे में कहा गया है कि इस प्रकार की मस्जिद में अगर नमाज की गई तो वह अल्लाह को कबूल नहीं होती।
यह बात आम मुसलमानों को भी समझ में आने लगी है कि वे लोग खुदा को छोड़कर बादशाह के नाम को रट रहे थे। कोर्ट में भी इस केस का नाम अब ‘रामजन्मभूमि बनाम विवादित ढांचा’ हो गया है। सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान जब रामजन्मभूमि की खुदाई शुरू हुई तो केरल के मलयालम मुसलमान भूगर्भशास्त्री के.के. मोहम्मद उसके इंचार्ज बने। सभी ने उन्हें स्वीकार किया। हिंदू तथा मुसलमान दोनों पक्ष के लोगों के सामने खुदाई का काम शुरू हुआ। मुसलमानों ने यह कहा है कि अगर खुदाई में कोई भी इस्लामी चिह्न नहीं मिलेगा तो हम केस वापस ले लेंगे। काफी गहराई तक खुदाई करने के बाद भी कोई इस्लामिक चिह्न नहीं मिला। अत: के.के. मोहम्मद ने भी कहा कि चूंकि कोई चिह्न नहीं है अत: केस वापस लिया जाए। अत: जमीन रामजन्मभूमि की ही रहेगी और इसका बंटवारा भी नहीं हो सकता।

आप विगत तीन दशकों से अधिक समय से मुस्लिम समाज में परिवर्तन लाने हेतु प्रयत्नशील हैं। इतने वर्षों में मुलसमानों में हुए किन मुख्य परिवर्तनों का आप उल्लेख करना चाहेंगे?
पहले वहां सुधारवाद की कोई गुंजाइश नहीं थी। अब लोग इसका समर्थन करने लगे हैं। पहले उनकी कट्टरता या हिंसा का विरोध नहीं होता था, परंतु अब विभिन्न माध्यमों से उनका विरोध होने लगा है। एक महत्वपूर्ण परिवर्तन शिक्षा में दिखता है कि वे अब मदरसा शिक्षा की चौखट से निकलकर आधुनिक शिक्षा की ओर भी प्रवृत्त हो रहे हैं। भारत से तथा अपने पूर्वजों से जुड़ने और विदेशियों को पहचानने की प्रवृत्ति जागृत हुई है।
मुस्लिम महिलाएं अब तक हर तरह के अन्याय को चुपचाप सह रहीं थीं। अगर कोई महिला इसके विरुद्ध आवाज उठाती तो उसे चुप करा दिया जाता था। परंतु अब वे सामूहिक रूप से संगठित होकर अपने ऊपर हो रहे अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने लगी हैं।
अत: अब यह परिवर्तन देखा जा सकता है कि मुसलमान समाज भी कट्टरपंथी सोच कम करके अन्य भारतीयों की तरह जीवन जीना चाहता है।

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Comments 1

  1. Amol pednekar says:
    6 years ago

    खुद पढे और शेयर करे।

    Reply

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