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स्वच्छ भारत: अभियान नहीं, आदत बने

by अमोल पेडणेकर
in पर्यावरण, सामाजिक, स्वच्छ भारत अभियान पर्यावरण विशेषांक -२०१८
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सभी नागरिक व्यक्तिगत तौर पर कार्योन्मुख हों, कार्यतत्पर हों तभी सार्वजनिक या राष्ट्रीय क्षेत्र में परिवर्तन की किसी योजना का आरंभ बेहतर माना जा सकता है। स्वच्छता एक धर्म है। राष्ट्र के विकास का मार्ग स्वच्छता भी है। इसे ध्यान में रख कर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने तीन वर्ष पूर्व ‘ स्वच्छ भारत अभियान ’ आरंभ किया था। इस अभियान में वे भारत के हर नागरिक की सहभागिता की इच्छा रखते हैं। श्री मोदी ने इस अभियान का महत्व विशद करते हुए कहा है कि, ‘‘ एक हजार गांधी आए, एक लाख मोदी आए, सभी मुख्यमंत्री और सरकारें आए, फिर भी स्वच्छता का स्वप्न तब तक पूरा नहीं होगा जब तक सव्वा सौ करोड़ जनता सहयोग की भावना से इस अभियान से नहीं जुड़ती।’’ मा . मोदीजी का कहना सही है। देश का हर नागरिक इस स्वच्छता अभियान से अपना कार्योन्मुख रिश्ता स्थापित करें तो हमारे समक्ष एक अलग चित्र उपस्थित होगा।

प्रधान मंत्री मोदी स्वच्छता के प्रति जागरुक हैं। इसलिए उन्होंने स्वच्छ भारत अभियान आरंभ किया। स्वच्छता देश को विकास की ओर ले जाने वाली प्रक्रिया है। इस भावना को जगा कर आने वाले समय में देश को स्वच्छ करने का उनका मानस है। लेकिन मूल समस्या देश के लोगों की मानसिकता बदलने की है। स्वच्छता नहीं है इसलिए एक ओर नाक – भौं सिकोड़ना और दूसरी ओर स्वयं ही गंदगी फैलाना, यह भारतीय मानसिकता बन चुकी है। जब तक वह दूर नहीं होती तब तक इस देश को पिचकारी मारने वालों, थूंकने वालों के देश के रूप में उलाहने सुनने ही पड़ेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं है। हमारा यह सार्वजनिक दर्द और किसी को नहीं, हमें ही दूर करना होगा इसकी अनुभूति हमें होनी चाहिए। कोई व्यक्ति विदेशों में जाकर आए तो वहां की स्वच्छता, अनुशासन की भारी सराहना करता है। विदेशों में स्वच्छता हो सकती है, फिर हमारे यहां क्यों नहीं यह उन्हें निरंतर सालता है। विदेशों में स्वच्छता के नियमों का पालन करने वाला व्यक्ति भारत में आए तो उसे रास्ते पर कहीं भी पिचकारी मारने का मानो लाइसेंस मिल जाता है। विदेशों में ही क्यों, भारत के हवाई अड्डों पर भी ये लोग जाए तो वहां के साफसुथरे माहौल से अपने को समायोजित कर लेते हैं, वहां के अनुशासन का पालन करते हैं। लेकिन रेल्वे स्टेशन या बस स्टेशन पर जाए कि बंदगी करने की मानो उन्हें छूट मिल जाती है।

कोई भी परिवर्तन लादा नहीं जा सकता। वह स्वयं आत्मसात करना होता है। हम कचरा फैलाएंगे और प्रशासन को उसे उठाना होगा इस मानसिकता से बाहर निकलना होगा। कचरा फैलाना ही मूलतया गलत है यह बात हमारे ध्यान में आनी चाहिए। अमेरिका में प्रति व्यक्ति उत्पन्न होने वाला कचरा भारत के हर व्यक्ति द्वारा पैदा किए जाने वाले कचरे से दुगुना होता है। फिर भी अमेरिका गंदा देश है और भारत स्वच्छ देश है, यह कहने का साहस हम नहीं कर सकते। इसका कारण यह है कि अमेरिका में कचरा इकट्ठा होता है और भारत में वह फेंका जाता है। इसे ही ध्यान में रख कर सभी स्तरों पर स्वच्छता मुहिम आरंभ करने वाले प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के स्वच्छता अभियान को तीन वर्ष की अवधि पूरी हो चुकी है। अतः यह विचार ध्यान में आना स्वाभाविक है कि स्वच्छता अभियान जैसी अच्छी संकल्पना किस दिशा में जा रही है ? वह दिशा यह है कि स्वच्छता के बारे में पूरा देश जागरुक हो रहा है। स्वच्छता का माहौल देश में बन रहा है। इस संदर्भ और कुछ करने की इच्छा जाग्रत हो रही है। कचरा इकट्ठा करने की प्रक्रिया, ठोस कचरे का प्रबंध, शौचालयों का निर्माण, स्वच्छता की रणनीति के बारे में नागरिक हमेशा के बर्ताव में एक संवाद स्थापित होने का अनुभव कर रहे हैं। छोटे बच्चे, जो देश के भविष्य के विकास में योगदान देने वाले हैं, स्वच्छता की वर्णमाला शिशु अवस्था से ही रट रहे हैं। फलस्वरूप उनके बर्ताव में स्वच्छता के नियमों का पालन होते दिख रहा है। हम निजी स्वच्छता को जितना महत्व देते हैं, उतना सार्वजनिक स्वच्छता को नहीं देते। अपना घर साफ रखना और घर का कचरा रास्ते पर लाकर फेंकना, यह हमारा स्वभाव था, जो अब कुछ मात्रा में बदलता दिखाई दे रहा है। स्वच्छता के सिक्के के भी दो पहलू हैं – एक प्रशासकीय व्यवस्था और दूसरा नागरिकों की सहभागिता। स्वच्छता में अपने परिसर की स्वच्छता से लेकर शौचालयों के निर्माण तक और ठोस कचरे के प्रबंध से लेकर नदियों की स्वच्छता तक हमें और कई मील के पत्थर पार करने हैं, यह भी सच है।

‘ परि ’ और ‘ आचरण ’ इस शब्द की संधि याने ‘ पर्यावरण ’। अपने आसपास का वातावरण और उसके संवर्धन के लिए हमारा आचरण कैसा होता है ? मानवी जीवन पर जिस तरह उसके आसपास का वातावरण प्रभाव डालता है वैसा ही प्रभाव मानवी जीवन भी अपने आसपास के वातावरण पर डालता है। मेरे आसपास जो है वह केवल मेरे उपयोग के लिए ही है और मुझे अपने बुनियादी अधिकारों की तरह ही इसका मनचाहा इस्तेमाल करना चाहिए, यह मानसिकता अत्यंत खतरनाक है। मेरे आसपास जो है उसकी सीमाएं हैं। इसकी अनुभूति विचार करने वाले जीव ‘ मनुष्य ’ के रूप में मैं पूरी जिम्मेदारी से निभाऊंगा, इस विचार की आज बड़ी आवश्यकता है। दुर्भाग्य से, आज वैसी स्थिति नहीं है। प्रति दिन के दिनक्रम में अपना कामकाज, भोजन और नींद के साथ ही एक बात हम निश् ‍ चित रूप से करते होते हैं और वह है कचरा ! जाने – अनजाने हर व्यक्ति घर – द्वार, कार्यस्थल, स्कूल – कॉलेज, मनोरंजन के स्थल, यात्रा में हर जगह कचरा पैदा करता होता है। कचरा छोड़ते चलते हैं। इस कचरे का बाद में क्या होता है यह विचार अधिसंख्य लोगों के मन में आता ही नहीं। इससे आम आदमी का कोई सम्बंध नहीं होता और इसी कारण कचरा एक बड़ी समस्या बन गया है, इस तरह का विचार नहीं किया जाता।

सच पूछें तो विकास की परिभाषा स्पष्ट करने का अब समय आ गया है। वास्तव में व्यक्ति के विकास से ही परिवार का विकास होता है और इस तरह सम्पूर्ण परिवार व्यवस्था के विकास के माध्यम से सामाजिक विकास होता है। सामाजिक विकास से राष्ट्र विकास होता है। ऐसा होने पर भी हाल में केवल औद्योगिक विकास की ही चर्चा होती है। ढांचागत विकास की चर्चा होती है। इससे लोगों के लिए रोजगार निर्मिति होती है और लोगों का आर्थिक जीवनस्तर सुधरने में मदद मिलती है। यह सच है, लेकिन इस तरह के विकास से कुछ नए प्रश् ‍ न भी निर्माण होते हैं, इसे समझना चाहिए। विशेष रूप से बढ़ते औद्योगिकीकरण से प्रदूषण में होने वाली वृद्धि चिंताजनक बन गई है। बदलते और आधुनिक समय की आवश्यकता ध्यान में रख कर भविष्य में औद्योगिक विकास जरूरी होगा। वह निरंतर जारी ही रहने वाला है ; लेकिन यहीं से मानक के जीने का संघर्ष आरंभ होता है यह भी ध्यान में रखना होगा। इसलिए कि विकास का परिणाम मानव के जीने पर भी होता है।

अब तक भारत जिस प्रकृति को मोक्ष का माध्यम मानता आया है उसका अतिदोहन कर हम विकास कर रहे हैं। प्रकृति को नष्ट करने वाला यह विकास लंगड़ा है। वह अतिरेकी भोगवाद से उत्पन्न हुआ है। पर्यावरण की एक समस्या हल करने लगे कि अन्य समस्याएं भी उत्पन्न हो जाती हैं। पर्यावरण की गुत्थी उलझ गई है। गुत्थी सुलझाने लगे कि गांठें और पक्की होती जाती हैं। क्योंकि, हम केवल सतही गांठ खोलने में लगे रहते हैं और भीतर की उलझन नहीं सुलझती है। सारी समस्याएं एक दूसरे से जुड़ी हैं। यह अंदर की उलझन याने हमारी भोगवादी संस्कृति की कृति है। पुराणों में एक कथा आती है रक्तबीज राक्षस की। शुंभ और निशुंभ नामक राक्षसों का दुर्गा देवी से युद्ध जारी था। उस समय रक्तबीज राक्षस भी शुंभ और निशुंभ के साथ था। रक्तबीज राक्षस के खून की हर बूंद से नया राक्षस पैदा होता था। हमारी अतिरेकी भोगवादी प्रवृत्ति उस रक्तबीज राक्षस की तरह है। जो हर क्षेत्र में नये नये पर्यावरण से जूडी समस्या निर्माण कर रहा है।

स्वच्छता अभियान हमारे लिए कोई नया नहीं है। हर बार बरसात में एक ही स्थान पर वृक्षारोपण करने जैसी यह आदत बन चुकी है। अभियान के दरम्यान किए गये स्वच्छता की सभी संकल्पनाओं को तिलांजलि देकर फिर शहर भर में कूड़े का ढेर बनाने में हम माहिर हैं। नरेंद्र मोदी की स्वच्छ भारत अभियान की पुकार सुन कर आरंभ – वीरों जैसे हमने हाथ में झाडू लेकर स्वच्छता आरंभ की है कचरा उठाने की अपेक्षा कचरा न फेंकना यही अभियान का असली आरंभ है, यह भी हमारें स्मरण में नहीं रहा। यह भी सच है कि महापुरुषों की पराजय उनके अनुयायी ही करते हैं। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी भारत स्वच्छ चाहते हैं। आप और हमें भी चाहिए। लेकिन घर के सामने आने वाली कचरा गाड़ी में कचरे की थैली डालने के अलावा और कुछ करने की हमारी इच्छा नहीं होती, न हम कुछ करने को तैयार होते हैं। यदि ऐसा ही होता रहे तो कैसा होगा भारत स्वच्छ ? मोदीजी ने ‘ स्वच्छ भारत अभियान ’ के आरंभ में ही कहा है कि हजार गांधी और लाखों मोदी आए तब भी यह अभियान सफल नहीं होगा। जब तक १२५ करोड़ भारतिय जनता इस अभियान को सफल बनाने के लिए प्रत्यक्ष कार्योन्मुख नहीं होगी तब तक स्वच्छता का सपना पूरा नहीं होने वाला है। भारत की जनता सहभागिता की आंतरिक भावना से जब ‘ स्वच्छ भारत अभियान ’ में सहभागी होगी तभी इस अभियान की यशोगाथा लिखी जाएगी। लेकिन अब तक तो यह अधूरी ही है, यह भी उतना ही सच है।

मोबा . ९८६९२०६१०६

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