बुजुर्गों ने दी समाज को ‘पर्यावरण की सीख’

 

 

मुंबई के उपनगर सांताक्रूज में प्राकृतिक वायु पर आधारित अनोखा शवदाह गृह बनाया गया है। देश में यह अपने किस्म का पहला प्रयोग है। हिंदुओं के अलावा कैथलिक, ईसाई और पारसी भी अब इसे स्वीकार कर रहे हैं, ताकि पर्यावरण की रक्षा हो। समय के साथ बदलने की यह सीख सांताक्रूज के बुजुर्गों ने पूरे देश को दी है।
गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं-
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युधुर्रवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि॥
संक्षेप में समझने का प्रयास करें तो, ‘‘जो भी जीव पैदा हुआ है, उसे मरना है इसलिए शोक न करो।’’
यह तो हो गई मानवीय भावनाओं तथा नजदीकी आत्मीयता की बात पर मानव सभ्यता की शुरुआत से ही तमाम समस्याओं की ही भांति एक समस्या खड़ी रही है, मृत हुए मनुष्यों अथवा पालतू पशुओं के अंतिम संस्कार की। ज्ञात शोधों के आधार पर कह सकते हैं कि सर्वप्रथम शवों को गाड़ने की प्रथा आरंभ हुई पर वैदिक काल में, जबकि हमारी पुनर्जन्म के प्रति आस्था प्रबल हुई तो जीव के नवजीवन प्राप्ति हेतु (खासकर मनुष्यों के लिए) दाह संस्कार की पद्धति अपनाई जाने लगी। यहां तक कि यूनान के महाकवि होमर के महाकाव्य ‘इलियड’ में भी दाह संस्कार पद्धति का ही उल्लेख मिलता है।
पर समय के साथ, खासकर वर्तमान समय में, तमाम परेशानियां आने लगीं क्योंकि जगलों की अंधाधुंध कटाई तथा बढ़ती जनसंख्या ने समाज के अगुओं का ध्यान लकड़ी के विकल्प की ओर लगाया। परिणामतः शवों के दाह संस्कार के लिए कई नई तकनीकें सामने आईं तथा कुछ हद तक प्रचलन में भी आईं। मुंबई के सांताक्रूज(पश्चिम) उपनगर के कुछ अवकाश प्राप्त बजुर्गों के मन में भी यह बात आई, जिसका परिणाम है एशिया की इकलौती ‘वायु दहन श्मशान’ जो अपने निम्नतम प्रदूषण स्तर के लिए सहिष्णु हिंदुओं (सहिष्णु शब्द का प्रयोग इसलिए कर रहा हूं क्योंकि जितना राजनीतिक प्रयोग इस बहुसंख्यक समुदाय के रीति-रिवाजों के साथ यहां हुआ, उतना शायद कहीं पर अल्पसंख्यकों के साथ भी नहीं हुआ होगा।) के साथ ही साथ अपने संस्कारों को लेकर काफी रूढ़िवादी माने जाने वाले कैथलिक ईसाई तथा पारसी समुदाय में भी काफी लोकप्रिय हो रहा है।
सेवानिवृत्ति के बाद के खाली समय के सार्थक व समुचित उपयोग हेतु देश के तमाम हिस्सों में बनाई गई ‘वरिष्ठ नागरिक संस्थाओं’ की ही भांति मुम्बई के सांताक्रूज उपनगर में बने सीनियर सिटिजन सांताक्रूज (पश्चिम) संस्था के सदस्यों ने आपस में विचार किया कि चूंकि अकेले सांताक्रूज (पश्चिम) स्थित श्मशान में शवों के दाह संस्कार के लिए ही हर साल १८०० से अधिक पेड़ों की कटाई हो जाती है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह आंकड़ा और भयानक स्तर पार कर ८० लाख हो जाता है। तत्कालीन वृहन्मुंबई अधिकारियों के सामने वे सब एक लिखित प्रस्ताव लेकर गए कि, ‘क्यों न सांताक्रूज (पश्चिम) के लिंक रोड और दत्तात्रेय रोड के किनारे पर स्थित हिंदू श्मशान भूमि में ‘वाहिनी युक्त प्राकृतिक वायु’ की व्यवस्था की जाए ताकि उस इलाके में वायु प्रदूषण की मात्रा नगण्य की जा सके तथा बिजली की भी बचत की जा सके।
यह पूरा प्रकल्प लगभग साढ़े तीन करोड़ का है तथा पांच हजार वर्ग फुट में फैला हुआ है जबकि इसकी ऊंचाई १८फुट है। इसमें दाह कार्य के लिए वाहिनी युक्त प्राकृतिक वायु की दो भट्टियां बनी हुई हैं तथा १७० लोगों के बैठने के योग्य ‘मातोश्री कुमुदबेन न्यालचंद वोरा (मोरबी निवास) शांति स्थल’ हॉल भी बनवाया गया है। आधुनिक तकनीकियों से सबक लेते हुए आडियो सिस्टम, वाइफाइ सिस्टम, सीसीटीवी कैमरे, और वीडियो रिकार्डिंग की व्यवस्था भी की गई है ताकि मृतक के वे संबंधी जो शहर अथवा देश के बाहर होने के कारण दाह संस्कार में भाग न ले पाए हों वे भी सारी प्रक्रियाएं देख सकें।
इतना ही नहीं, यहां पर अस्थियों को रखने की जगह, वातानुकूलित शवपेटी और फोल्डिंग स्ट्रेचर की व्यवस्था भी की गई है। २३ अक्टूबर २०१६ को महाराष्ट्र के माननीय राज्यपाल श्री विद्यासागर राव के हाथों उद्घाटित इस प्रकल्प ने ठीक २३ दिन बाद १४ नवम्बर को कार्य करना भी शुरू कर दिया था। यह पूरी प्रक्रिया भरतभाई शाह, नगिनभाई शाह (पूर्व मंच संचालक) जैसे प्रखर समाज प्रहरियों की मेहनत का परिणाम है, साथ ही बृहन्मुम्बई महानगरपालिका के अधिकारी भी धन्यवाद के पात्र हैं कि उन्होंने इस तरह की उच्च व नवीन प्रणाली पर भरोसा जताया। इतना ही नहीं, सुबह ८ बजे से लेकर शाम ८ बजे तक मोक्षवाहिनी द्वारा बांद्रा (पश्चिम) और अंधेरी (पश्चिम) के मध्य के नागरिकों के शवों को लाने के लिए निःशुल्क सेवा भी शुरू की गई और उन क्षेत्रों के मध्य के नागरिक इस सेवा को ८१०८८४६८४६ तथा ८१०८८४१८४१ पर फोन कर प्राप्त कर सकते हैं।
बहुधा एक बात कही जाती है कि, सोचना जितना सरल है पर उस सोच को अमल में लाना उतना ही कठिन होता है। पर कभी-कभी आपके कार्य उतनी ही तेजी से आकार पाते जाते हैं, जितनी गहराई और शिद्दत से आप उसके प्रति सृजनशील भाव रखते हैं। कुछ ऐसा ही हुआ था इस मामले में भी। दरअसल शुरुआत में उनके प्रस्ताव पर मुंबई की महानगरपालिका ने तीन हजार वर्गफुट की जगह दी थी पर जब वे उस क्षेत्र की सहायक आयुक्त मनीषा म्हैसकर के सामने बैठे तो उन्होंने उसे और विस्तार दे दिया। संस्था के महासचिव नगिनभाई शाह बताते हैं –
‘‘मनीषा म्हैसकर मैडम ने बताया कि, चूंकि आपके प्रस्ताव में एक ही वायु भट्टी का प्रस्ताव है इसलिए यह पास नहीं हो पाएगा। हमने उनके सामने अपनी समस्या रखी कि, हमें केवल तीन हजार वर्गफुट ही जगह दी गई है। ऐसी स्थिति में हम दो वायु भट्टियां कहां से बना पाएंगे? उन्होंने उसी समय अपने इंजीनियरों को बुलाया तथा कहा कि, इनके प्रस्ताव पर आबंटित भूमि को बढ़ाकर पांच हजार वर्गफुट किया जाए तथा उस स्थान पर जाकर इनके लिए सारी व्यवस्था की जाए। जब हम अंतिम योजना लेकर उनके पास गए तो उन्होंने स्वयं आयुक्त के पास जाकर सारी कागजी कार्यवाही पूरी की तथा बार-बार हम सबको प्रोत्साहित करती रहीं। वे बार-बार एक ही बात कहती थी कि, यह शवदाह गृह मुंबई मात्र ही नहीं बल्कि पूरे महाराष्ट्र राज्य में एक आदर्श और मानक के तौर पर स्थापित होना चाहिए, ताकि प्रदेश के दूरदराज के इलाकों के भी लोग इसे देखने आएं तथा इससे प्रेरणा ले सकें। यदि राज्य अथवा राष्ट्रीय स्तर पर इस तरह के शवदाह गृह बनने की शुरुआत होती है तो पर्यावरण की सजगता के प्रति एक बेहतरीन कदम साबित हो सकता है।’’
हमारा पूरा लक्ष्य यह रहा कि पर्यावरण संतुलन तथा आधुनिक सुविधाओं के साथ वैश्विक पटल पर छाप छोड़ने वाला एक शवदाह गृह बने। अगर हम पूरे विश्व के ऐसे प्रकल्पों की बात करें तो इसके अलावा इकलौता प्रकल्प आस्ट्रेलिया में है। महानगर पालिका ने हमसे ८५ लाख का डिपॉजिट, स्क्रूटनी फीस, निर्माण शुल्क जैसे शुल्क नहीं लिए तथा वहां का बिजली बिल, प्राकृतिक वायु बिल, मालमत्ता कर, पानी का बिल वगैरह का शुल्क महानगर पालिका ही देगी। जब हम सबने कार्य शुरू किया तो हमारे पास मात्र ७० लाख रुपए ही थे। उनमें से ३५ लाख रुपए ठेकेदार को ही देने थे। हमारे सामने समस्या आई कि इसे कैसे किया जाए? कुछेक स्थानीय समाचार पत्रों में समाचार आने के बाद हमें काफी दानदाता मिले तथा आगे चलकर हमने एक समन्वय एवं परिचय सत्र रखा तथा उसके सार्थक परिणाम देखने को मिले।
इसके निर्माण के दौरान आध्यात्म, पर्यावरण, श्रद्धा एवं मृतक श्राद्ध के दौरान किए जाने वाली रीतियों का पूरा खयाल रखने की कोशिश की गई है। यहां आने वालों की परंपराओं का ध्यान रखते हुए अपनी तरफ से १० ग्राम देशी घी तथा लकड़ी के पांच छोटे टुकड़े भी दिए जाते हैं ताकि लोग अपनी परंपराओं से भी जुड़ाव महसूस करते रहें। हमारी संस्था द्वारा मृत व्यक्ति के परिवार को एक पौधा निःशुल्क दिया जाता है, जिसे उनके द्वारा योग्य स्थान पर लगाकर उनके द्वारा उस वृक्ष पर समुचित ध्यान दिए जाने की अपेक्षा रखते है। पारंपरिक तरीके से शव जलाने पर सामान्यतः पंद्रह से बीस किलोग्राम तक राख और अस्थियां निकलती हैं जो कि अधजली अवस्था में होती हैं जबकि इस पद्धति में मात्र सवा किलो राखमय अस्थियां निकलती हैं जो पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाएगी। यह शवदाहगृह ISO: १४००१: २०१५ के अंतर्गत पंजीकृत है।
यह प्रकल्प जिस इलाके में कार्य कर रहा है, वह मुंबई के उपनगरीय क्षेत्र में काफी धनाढ्य माना जाता है। अतः यहां पर बहुत सारे शवों पर कीमती शालें भी डालकर लाई जाती हैं। क्रियाकर्म के बाद लोग उन्हें छोड़ जाते हैं। संस्था के लोग उन शालों को धोकर रख लेते हैं ताकि ठंड के मौसम में उनका उपयोग गरीब लोगों के बीच किया जा सके। ज्ञात हो कि संस्था अब तक लगभग २०० शालों का वितरण फुटपाथ पर रहने वाले गरीब लोगों के बीच कर चुकी है। सबसे बड़ी बात है कि किसी कार्यक्रम का आयोजन किए बिना ही रात में फुटपाथ पर सो रहे बेघरों के ऊपर चुपके से शाल ओढ़ा कर यह सारा शाल वितरण किया जाता है। यहां पर बहुत ज्यादा मात्रा में निर्माल्य भी निकलता है, जिसे परिष्कृत कर खाद बनाकर उपयोग लाने का कार्य भी किया जाता है। अर्थात् यहां पर हर संभव प्रयास किया जाता है कि दाह क्रिया को कितना अधिक से अधिक प्रदूषण रहित बनाया जाए! ऊंची चिमनियों से निकलने वाले गंधहीन, रंगहीन और थोड़ी मात्रा में निकलने वाला धुआं इसका बेहतरीन उदाहरण है।
यह तो रही इस शवदाह गृह में आने वाले परंपरागत हिंदू शवों की बात, पर यहां कुछ अन्य चमत्कार भी हुए हैं। चमत्कार इसलिए क्योंकि यदि हम शवों के अंतिम संस्कार की बात करें तो हिंदुओं में जलाने के अलावा कहीं-कहीं गाड़ने तथा वैरागी साधुओं को नदी की तेज धारा में प्रवाहित करने की भी परंपरा है। पर बाकी के समुदाय अपने अंतिम संस्कार के नियमों व पद्धतियों को लेकर काफी रूढ़िवादी हैं। पर जैसा कि हम शुरुआत में ही बता चुके हैं कि यह श्मशान गृह कैथलिक, ईसाई तथा पारसी लोगों के बीच भी चर्चा का विषय बना हुआ है। ज्ञात हो कि एक तरफ जहां कैथलिक, ईसाई शवों को गाड़ने तथा रोमन पोप के बताए गए रूढ़िवादी नियमों को सीमा की अति तक मानते हैं जबकि पारसी समुदाय में घी का लेप लगाकर शव को कुएं में डाल दिया जाता है, जहां पर उस शरीर को गिद्ध खा जाते हैं। पर उस क्षेत्र के बिशप ने बाकायदा घोषणा की कि यहां पर पर्यावरण प्रेमी ईसाई अपनी अंतिम विधि शव जलाकर कर सकते हैं। अब तक लगभग १५ कैथलिक ईसाइयों के दाह संस्कार भी किए जा चुके हैं। पिछले एक वर्ष में इस पद्धति द्वारा यहां पर अब तक लगभग ६७० शवों का अंतिम संस्कार किया जा चुका है।
यहां के कर्ताधर्ताओं ने आर्य समाजियों के बीच भी अपनी बात रखी, ताकि वे भी अपने नियमों को ढील देे शवदाह कर सकें तथा वारकरी समुदाय के लोगों से अपील की है कि वे अपने परंपरागत अभंगों के माध्यम से लोगों को इसके बारे में जागरूक करें ताकि लोग पर्यावरण की रक्षा के प्रति सजग हों तथा ज्यादा से ज्यादा स्थानों पर इस तरह की व्यवस्था की जा सके। किसी के घर पर मृत्यु होने की दशा में उन्हें इस शवदाह गृह में निःशुल्क दाह संस्कार के प्रति प्रेरित भी किया जाता है तथा लोगों के बीच अंगदान जैसे पुनीत कार्य के प्रति भी जागरुकता फैलाई जाती है। यह पहल हमारे समाज के लिए अति अनुकरणीय है क्योंकि इसकी शुरुआत करने से लेकर समन्वय तथा परिसंचालन का पूरा दायित्व अवकाश प्राप्त बुजुर्गों द्वारा निर्वहन किया जा रहा है। समाज के अन्य वर्गों तथा देशभर की तमाम स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा इनका अनुसरण किया जाना चाहिए तथा समाज इस प्रदूषण मुक्त प्रकल्प से सीख ले और देशभर में इस विकल्प का प्रयोग किया जाए ताकि भविष्य का भारत प्रदूषण मुक्त होने की दिशा में सार्थक कदम बढ़ा सके।
और आखिर में चलते-चलते, कुछ दिनों पूर्व ही बालीवुड के मेगास्टार स्व.शशि कपूर तथा लोकप्रिय गुजराती व हिंदी फिल्म अभिनेता नीरज वोरा का अंतिम संस्कार भी इसी श्मशान भूमि में वायु वाहिनी द्वारा ही किया गया था जो कि एक अनुकरणीय पहल है।
मोबा. ८२८६२०५०६५

 

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