मेरे स्वर्गीय पिता श्री शिवनाथ मिश्र न्यायाधीश तो थे ही, जिन्होंने १९३६ से १९५६ तक मध्य प्रांत और विदर्भ को, और १९५६ से १९६७ तक नवगठित मध्य प्रदेश राज्य को अपनी सेवाएं दी। वे कानून के अलावा संस्कृत, हिंदी, अवधी, मराठी तथा उर्दू पर अच्छी पकड़ रखते थे। खुश मिजाज होने के कारण उन्होंने अदालत के शुष्क माहौल को सदैव हल्का व जीवंत बनाए रखा। प्रस्तुत है उनके ३१ वर्षीय सेवा काल की कुछ रोचक घटनाएं।
उनकी पहली पोस्टिंग खामगांव (जिला बुलढाना ) में हुई। तब वे मराठी नहीं समझते थे, जबिक अदालत की कार्यवाही मराठी में ही होती थी। किंतु २ -३ महीनों में ही वे धारा प्रवाह मराठी बोलने लगे। एक बार ऐसा प्रकरण सामने आया, जिसमें अभियोजन व बचाव पक्ष के वकील क्रमश : सोमकांत रावजी भाटे और काशीनाथ रावजी ब्रम्ह थे। उनके मुवक्किल क्रमश : पंढरी रावजी तथा नानाजी रावजी थे। बहस चल रही थी। एकाएक मिश्र जी ने कहा, ‘ही केस माझ्या कोर्टात नाहीं चालू शकत, आणी माझ्या अधिकार क्षेत्रातून बाहेर आहे। ’ सभी लोग हैरान रह गए और कहने लगे, इसमें ज्यूरिडिक्शन का प्रश् न ही कहां है। परंतु मिश्र जी ने पूरी गंभीरता से कहा कि यह केस जलगांव की कोर्ट में ही चल सकता है। वकीलों को लगा कि मिश्र जी का दिमाग तो नहीं चल गया है। तब श्री मिश्र ने कहा, भाई, इस मुकदमे से संबंधित प्रत्येक व्यक्ति के बाप का नाम रावजी है। मैं ही अकेला ऐसा हूं, जिसके पिता का नाम रावजी नहीं है। अत : केस जलगांव में फाइल करो जहां न्ययाधीश श्री आत्माराम रावजी देशपांडे हैं। ’ इस पर हंसी के फव्वारे छूट प़डे। श्री देशपांडे मराठी के ख्यात साहित्यकार हुए और ‘अनिल कवि ’ के नाम से जाने जाते हैं।
१९४३ में मिश्र जी हरदा में पदस्थ थे, जहां तगड़ी साहित्यिक मंडली थी। एक बार वहां के चार वकील सर्वश्री धोंडू भैया खेखड़कर, लक्ष्मीनारायण जोशी, बाडू भैया बंकवार और चंद्रगोपाल मिश्र, जिन्हें लोग दरबार कहते थे, वकालत के सिलसिले में होशंगाबाद गए। इटारसी तक रेल से गए और वहां से होशंगाबाद के लिए तांगा किया। घोड़ी मरियल थी और तांगा खटारा। कुछ दूर चलते ही निवार टूटने से घोड़ी व तांगा उलट गए और चारों अधिवक्ता जहां -तहां गिरे। पता चलने पर मिश्र जी ने यह छंद लिखा जो बहुत सराहा गया –
‘जो भी मिला, लोभी कोचवान ने बिठाया उसे,
मरियल तांगे पे सवारी चार गंवार की।
घोड़ी थकी थोड़ी दूर जाने हांङ्गने जो लगी,
चाबुक की चोट से करारी फटकार की।
देखकर दंग रंग -ढंग, दंग थे तमाशबीन,
मचा हु़डदंग, तंग टूटी जो निवाड की।
जोर गिरे ‘जोशी ’, बदहोश ‘बंकवार ’हुए,
धक्क हुए ‘धोंडू ’ दशा देख ‘दरबाकी की। ’
मुल्ला हसन अली भी हरदा के वकील थे। एक बार उन्हें चंद्रगोपाल मिश्र के मालगुजारी गांव सकतापुर जाना पड़ा, जहां मिश्र जी ने उन्हें दूध, दही, रबड़ी, मलाई से तर कर दिया। इसका वर्णन उन्होंने हरदा लौटने पर प्रभावशाली ढंग से किया तो मिश्र जी व उनकी मित्र मंडली ने भी समतापुर जाने का कार्यक्रम बनाया। इसी बीच मुल्ला ने सबको दूसरे गांव पानतलाई चलने का न्योता दिया, पर सभी ने पहले सकतापुर जाने का तय किया। मिश्र जी ने इस पर लिखा –
‘जादू के चंद्रगुपाल के गांव में, मुल्ला ने खाई जो दूध -मलाई,
आई सुनाइ कथा हरदा में, भली विधि नोन व मिर्च लगाई।
सो सुनि कै हम लोगन के मुख, लार बही इतनी अधिकाई,
जो लौं न नैन लखैं सकतापुर, तौं लगि दूरि है पानतलाई। ’
हरदा में एक वकील थे नंदलाल तिवारी, जिनके बड़े भाई टीकाराम तिवारी, वकील न होते हुए भी प्रतिदिन बार रूम में आते थे। लोग उन्हें छेड़ते और मजा लेते थे। जब भी कविता या साहित्य की बात चलती, तब वे एक समस्या रख कर चुनौती देते थे कि बड़े कवि हो, तो इसकी समस्या – प्ाूर्ति करो। समस्या थी, ‘रौबत श्रगाल जात नभ में देखात है। ’ वकीलों ने मिश्र जी से आग्रह किया कि वे समस्या पूर्ति कर दें। उन्होंने इस शर्त पर पूर्ति की कि टीकाराम जी को न बताया जाए कि यह छंद उन्होंने रचा है। मिश्र जी का छंद बहुत लोकप्रिय हुआ, जो इस प्रकार है –
‘बेला ना सारंगी है, विचित्र भावभंगी है,
न साज है न संगी है, अकेलो अल्लात है।
सम औ बिसम को, बतावै भेद कौन इहां,
बाएं मुख मानौ, वह धरि धरि खात है।
सप्तम के रासम को, मानौ मिले पंख,
तापै हवें के असवार, उ़डयो सरपट जात है।
लेत है अलाप, तब भासत है ऐसो,
मानौ रौबत श्रगाल जात नभ में देखात है। ’
हरदा में एक अन्य वकील सरदार विपत थे। उनके बारे में मिश्र जी को बताया गया कि वे अच्छे कवि हैं परंतु शर्मीले हैं, और फरमाइश करने पर कहते ‘भूल गया हूं ’ उन पर मिश्र जी ने यूं कलम चलाई –
‘हम आतुर हैं सुनने के लिए
कुछ तो निज काव्य सुनाया करो।
तुम भूल के भूल नहीं सकते,
मत ऐसा बहाना बनाया करो।
मन प्यासे में पास से प्रेम भरे,
प्रिय प्याले को ऐसे हटाया करो।
हम जान चुके हैं भले तुम को,
मत दाई से पेट छिपाया करो। ’
निपट जी प्रसन्न भी हुए, और परेशान भी किए जाते रहे।
हरदा से मिश्र जी का तबादला दमोह हुआ। वहां भी बढ़िया साहित्यिक वातावरण था। वहां के सरकारी वकील गणेश प्रसाद श्रीवास्तव के विषय में प्रसिद्ध था कि वे अभियुक्तों को फांसी पर टंगवा सकते थे। बचाव पक्ष के ख्यात वकील दया शंकर श्रीवास्तव थे, जो कैसे भी अपराधी को छुड़वा सकते थे। एक दिन चाय के समय जब श्री मिश्र बार रूम पहुंचे, तब दोनों श्रीवास्तवों में जंग छिड़ी हुई थी। दयाशंकर जी ने गणेश प्रसाद जी पर तंज कसा –
‘कर कर के ट्यूटर, गवाहों को जीभर,
तबीयत में आया, सो कहला लिया।
तारीफ तब थी, जो एक्विट कराते,
बड़ा तीर मारा जो टंगवा दिया। ’
इस पर गणेश प्रसाद जी ने पलटवार किया –
‘कर कर के खाली, मुवक्किल की थैली,
गवाहों को फोड़ा, बदलवा लिया।
तारीफ तब थी, जो ‘जस्टिस ’ कराते,
बड़ा तीर मारा जो, धड़वा लिया। ’
अच्छा -खासा अदबी माहौल बन गया था। वकीलों ने मिश्र जी से, जिनका उर्दू शायरी हेतु तखल्लुस ‘मुंसिफ ’ था, कहा कि आप तो जज (मुंसिफ ) हैं, अत : उचित निर्णय दीजिए। तब मिश्र जी ने कहा –
‘उसी थैली में हैं, दोनों चट्ट -बट्ट
फंसा दोनों के बीच, मुलजिम निखट्टू
ख्याल आएगा किसको जस्टिस का मुंसिफ,
कि दोनों यहां पर हैं भा़डे के टट्टू। ’
इस पर जबर्दस्त कह कहे लगे। कुछ समय बाद जब पूर्व उप राष्ट्रपति श्री हिदायतुल्ला तक यह नोक -झोक पहुंची तो वे खूब हंसे और वकीलों तथा मिश्र जी की प्रशंसा की।
जब मिश्र जी जांजगीर (जिला -बिलासपुर ) में पोस्टेड थे, तब वहां एक वकील श्री जगदीश चंद्र तिवारी थे। वे बड़े सज्जन, साहित्यानुरागी, रामायणी और कट्टर ब्राम्हण थे। वे मस्तक पर सफेद राख के बीच लाल चंदन की बिंदी लगाते, तथा रेडियो के एरियल की तरह ख़डी काली चुटिया रखते थे। उन दिनों द्वितीय महायुद्ध समाप्त ही हुआ था, अत : कई जगहों पर एंटी एयर क्राफ्ट गंस लगी हुई थीं, जिन्हें लोग हवाई तोप कहते थे। तिवारी जी पर श्री मिश्र ने दो अति सुंदर छंद लिखे थे –
‘शुभ्र चांदनी के बीच मंगल की ज्योति है,
कि वीर की बहूटी हिमशैल पर खेली है।
मूंगे का बटन लंकलाट की कमीज पर,
केक पै विराजी या कि जेली अलबेली है।
शंकर के माल पर, लाल है तृतीय नेत्र,
राख पै, दिखाती, चिनगारी या अकेली है।
भस्म बीच बिंदी है, तिवारी के ललाट पै,
किविल ने नजर की करारी चोट झेली है। ’
और
‘आई है हवाई तोप काली बिकराली,
या कि पूंछ है उठाई श्री गणेश की सवारी ने।
कलि धर्म केतु फहराया आसमान में,
कि छबि दिखलाई धूमकेतु ध्वंसकारी ने।
छूटी काल कूट धार, कज्जल के कूट से,
कि सोते से जगाया, नाग को है त्रिपुरारी ने।
अटकी बिरचि की कलम केशजाल में,
कि चोटी फटकारी जाजगीर के तिवारी ने। ’
जब मिश्र जी जगदलपुर में ए .डी .जे . थे तब श्री आर . सी . नरोन्हा कलेक्टर थे। न्यायालय और कलेक्टरेट एक ही परिसर में थे। नरोन्हा साहब एक ही चीज़ थे। एक दिन मिश्र जी उनके कक्ष में गए, तब वे अपने किसी कनिष्ठ अधिकारी पर झुंझलाए हुए थे। मिश्र जी से उन्होंने कहा, ‘आप तो हिंदी के विहान हैं। मेरी इच्छा हो रही है कि फाइल पर लिख दूं – गधी की …..में जाओ। क्या इसे शुद्ध हिंदी में लिखा जा सकता है ? ’ श्री मिश्र ने तत्काल इस गाली का हिंदीकरण इस प्रकार किया – ‘कहीं से एक गर्द भी प्राप्त कीजिए। उसकी पुच्छ का उच्चाटन करने पर जो गव्हर द्वार द्रष्टिगत हो, उसमें प्रविष्ट हो जाइए। ’ नरोन्हा साहब हंस -हंस के दोहरे हो गए। उनका मूड ठीक हो गया।
ऐसे अन्य कई रोचक प्रसंग हैं, परंतु सभी को समाविष्ट करूं तो लेख बहुत लंबा हो जाएगा।