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प्रायश्चित

प्रायश्चित

by रेखा बैजल
in नवम्बर २०१४, साहित्य
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लेना न लेना अपने वश में नहीं होता। हमारे हाथों जो कृति होती है उसका वह अटल परिणाम होता है। लेकिन जब व्यक्ति अपनी गलती मानता नहीं तब वह परिणाम भगवान को कोसते हुए सहन करता रहता है।

ग्रीष्म की धधकती धूप थी। उस धूप को झेलता हुआ विस्तृत जंगल। वृक्ष पतझड़ में अपने सभी पत्तों का त्याग कर, विरक्त होकर अपनी टहनियों की बाहें आकाश की ओर फैलाये शांत भाव से खड़े थे। दो नगरों को जोड़नेवला वह जंगल था। कच्चे रास्तों पर लोगों की आवाजाही चल रही थी। उनके कदमों तले दबने से पत्तियों की सरसराहट सुनाई दे रही थी। वह, उस जंगल से गुजर रहा था। जंगल का विरक्त रूप उससे देखा नहीं जा रहा था। हर पेड़ की पहचान उसके पत्तों से हुआ करती है, पर वही पहचान पेड़ गवां बैठे थे। उसका संवेदनक्षम मन पेड़ों के ढांचों को देखकर अस्वस्थ होने लगा। वह अचानक ठिठक गया। किसी के कराहने की आवाज सुनाई दे रही थी। खोजते हुए वह एक स्थान पर पहुंचा जहॉं एक वृद्धा असहाय और गलितगात्र हो पड़ी थी।

निकट खड़े लोगों से पूछने पर उत्तर मिला – ’’मां को धूप लग गयी है। जमीन भी तपी हुई और उस पर धूप का यह प्रताप। उन्हें तेज ज्वर भी है। उन्हें कहां लेटाया जाये इसी चिंता में हम सब लोग हैं। काश ! कहीं थोड़ी छांव होती। ’’

वृद्धा का हाल वह देख रहा था। उसकी दयनीय अवस्था देख उसका मन द्रवित हो गया। उसे एक सिद्धि प्राप्त थी लेकिन उसका उपयोग न करने के लिए वह वचनबद्ध था। वह असमंजस में पड गया। एक तरफ वृद्धा की असहाय अवस्था और दूसरी तरफ गुरु का उपदेश। बहुत देर तक वह द्विधा मनःस्थिति में रहा। अंत में उसने निर्णय लिया। अपनी बांसुरी निकाली, उसे होठों पर रखा और उसमें प्राण फूंकने लगा। बांसुरी से दैवीय स्वर निकालकर सारे जंगल में गूंजने लगे। उन स्वरों ने सारे जंगल में हलचल मचा दी। पेड़ों में उथल -पुथल होने लगी। अंदर ही अंदर वे खिलने लगे जैसे नींद से जग रहे हों। धीरे -धीरे पेड़ पल्लवित होने लगे और कुछ क्षणों बाद सभी पेड़ अपने हरे -भरे पत्तों के साथ झूमने और लहराने लगे। उनकी छांव तपी हुई धरती पर पड़ने से वृद्धा को भी धीरे -धीरे चैन आने लगा।

सभी ने राहत की सांस ली। वृद्धा की सुधरती हालत देख सभी को अच्छा लगा। पर अगले ही क्षण इस चमत्कार से वे अचंभित भी हो गए। एक व्यक्ति जंगल में आता है और उस सूखे जंगल को अपनी बांसुरी के स्वरों से हराभरा कर देता है। यह कैसे संभव है ? सभी लोग स्तब्ध होकर और आश्चर्यचकित होकर उसे निहारने लगे। उसकी बांसुरी के स्वरों ने सभी को मोहित कर दिया।

अब उसकी चेतना लौटी। उसने पूरे जंगल को निहारा और अनायास उसके मुंह से निकल पड़ा ‘ओह ! यह मुझसे क्या हो गया ? मैं यह क्या कर बैठा ? मैंने अपने गुरु की आज्ञा का उल्लंघन कर दिया। प्रकृति का संतुलन तहस -नहस कर दिया। वह संज्ञाशून्य हो गया।

उसपर प्रश्नों की बरसात होने लगी। कौन हो तुम ? कहॉं से आये ? यह अद्भुत चमत्कार तुमने कैसे किया ?

लेकिन अब उसने गुरु की आज्ञा का पालन करना ही उचित समझते हुए प्रस्थान किया। लोग उसके पीछे -पीछे आने लगे। कुछ दूर तक पीछा करने के बाद वे चले गए। उसका मौन अबाधित था। जाते समय उनकी प्रतिक्रिया थी ‘बड़ा ही विचित्र इंसान है पर है विलक्षण …… ‘

किन्तु एक व्यक्ति उसका पीछा करता रहा। उसने जिद करके उससे पुछा ‘तुम कौन हो ? तुम्हारा नाम क्या है ?

‘नाम का कोई महत्त्व नहीं है ‘ उसने उत्तर दिया।

‘तुम्हारे गुरु का नाम ……. ‘

‘वह बताने की मुझे आज्ञा नहीं है। ‘

‘तुमने यह साधना कितने वर्षों तक की ? ‘

‘साधना में मैं दिन और रात सब कुछ भूल गया तो वर्ष कहॉं से याद रखूंगा। मैं केवल बांसुरी ही नहीं बजा रहा था अपितु उसमें प्राण फूंक रह था। ‘ पहली बार उसने इतना बड़ा उत्तर दिया।

अब पूछनेवाला चिढ गया ‘हे अनामिक तुम्हे अपनी सिद्धि पर गर्व है, अभिमान है। ‘

‘कदापि नहीं। मेरी सिद्धि को षडरिपु का स्पर्श भी न हो इसलिए मैं सबसे दूर रहता हूँ। अपना बड़प्पन जब शब्दों की बाढ़ में बहन लगता है तब उस पर मौन का बांध डालना पड़ता है। यह बड़प्पन मेरा नहीं अपितु परमेश्वर का है। उसी ने मेरी सांसों को यह वरदान दिया है, सामर्थ्य दिया है। इसी कारण मैं जनसम्पर्क टालना उचित समझता हूं। वरना अपने पैरों पर झुके शीश देखकर अपना शीश आसमान पर पहुँचने में समय नहीं लगता। किन्तु गुरु की आज्ञा का उल्लंघन करने का पाप तो मैंने किया ही है। पर मैं क्या करता ? उस वृद्धा को धूप में तड़पता हुआ मैं देख न सका और मैंने छॉंव के लिए पेड़ों को पल्लवित किया। अर्थात प्रकृति को उसके स्वाभाव के व्यतिरिक्त मैंने उकसाया। इसका प्रायश्चित तो मुझे करना ही होगा।

‘तुम्हे प्रायश्चित का डर नहीं लगता ? ‘

‘मित्र …. ‘ बॉंसुरीवाला

‘मेरा नाम योगराज है। तुम्हारी तरह मुझे अपना नाम छुपाने की आवश्यकता नहीं है। ‘

‘योगराज यदि गलती हुई यह मान लिया है तो प्रायश्चित से कैसा डर ? प्रायश्चित लेना न लेना अपने वश में नहीं होता। हमारे हाथों जो कृति होती है उसका वह अटल परिणाम होता है। लेकिन जब व्यक्ति अपनी गलती मानता नहीं तब वह परिणाम भगवान को कोसते हुए सहन करता रहता है। ‘

अनामिक की कला से, उसकी साधना से प्रभावित तो था ही। उसके साथ चलते -चलते योगराज कुछ सोचने लगा। मन में कुछ धधक रहा था। अनामिक को किसी तरह समझाबूझाकर कोई बात उसके गले में उतारना चाह रहा था। सम्भाषण को बढ़ाते हुए योगराज ने कहा ‘तुम्हारी सिद्धि से पेड़ जीवित हो गए। ‘

‘मित्र, पेड़ तो जीवित ही थे। मेरी सिद्धि ने उन्हें हराभरा कर दिया। ‘

‘इसका अर्थ यह हुआ की सजीवों को जिंदगी देने की शक्ति इन सुरों में है। ‘

‘हॉं जहां सजीवता है वहीँ इन सुरों की शक्ति काम कर सकती है अन्यथा पत्थरों को भी पत्ते फूट जाते। पत्थर भी हम जैसी बातें करने लगते। लेकिन वह काम प्रकृति का है जो परमेश्वर उनसे करवा लेता है। ‘

‘वह कैसे ? ‘

‘पत्थर के हर कण को विलग करते हुए और उस मिटटी को सृजनत्व का वरदान देकर। ‘

‘अनामिक, एक प्रश्न पूछूं ? ‘

‘हॉं ‘

‘क्या शापग्रस्त होकर पत्थर बने इंसानों को तुम जीवित कर सकते हो ? उनकी आत्मा जीवित है। पाषाण के कवच में उनका दम घुट रहा है। केवल कुछ व्यक्ति या कुछ परिवार ही नहीं, पूरा का पूरा नगर शापित होकर पत्थर के कवच में बंदिस्त है।

‘क्या कहा ? पूरा नगर ? ‘अनामिक

‘हॉं अनामिक, उसी नगर का मैं अमात्य हूँ। दैववश मैं उस दुर्घटना से बच गया। आज जब तुमहारे सामर्थ्य को देखा तो मुझे मेरा नगर याद आ गया। आंगन में फुदफुदक कर खेलते बच्चे मुझे यााद आ गये। नगर की गतिविधियां आंखों के सामने घूमने लगीं। उस नगर को फिर से जीवनदान दे दो अनामिक़। ‘‘

योगराज अनामिक के पैरों पर झुक गये और गिडगिडाने लगे।अनामिक ने उन्हें उठाया।

‘‘यह क्या कर रहे हो योगराज, उठो। तुम्हारी तिलमिलाहट और नगर के प्रति स्नेह को देखकर मैं प्रभावित हो गया। मैं अवश्य प्रयत्न करूंगा। ये बताइये कि किसने उस नगर को शापग्रस्त किया। ’’

‘‘ अनामिक, दुर्भाग्य का एक क्षण ही शाप होता है। वह क्षण कैसे और कब जीवन को दबोच लेगा यह हमारी सोच के परे होता है। ’’

‘‘ नहीं योगराज दुर्भाग्य ऐसे अही अचानक नहीं आ धमकता। उसके पीछे परिणामों की मालिका होती है। ’’

‘‘ यदि ऐसा होता तो वह नन्हे -नन्हे मासूम बच्चे और औरतें क्यों शिकार हुई ? उनका क्या दोष था ?

‘‘ तुम सच कह रहे हो अमात्य। उस शाप देनेवाले व्यक्ति को मैं धिक्कारता हूं।

‘‘केवल धिक्कारने से कुछ नहीं होगा अनामिक। उन्हें शाप मुक्त करो। तुम यह कर सकते हो। उन बच्चों की मुस्कान लौटा सकते हो। स्त्रियों के कंठों में अटकी आवाज को मुक्त कर सकते हो। कृति के लिये उत्सुक युवकों के हाथों को गतिशील कर सकते हो। चलो अनामिक देर न करो। ’’अमात्य आवेघ से कह रहे थे। अनामिक का मन करुणा से भर उठा।

‘‘चलिये अमात्य। आज मेरे सुरों के लिये यह चुनौती है। मैं अपनी ओर से भरसक प्रयत्न करूंगा। पाषाण में बद्ध व्यक्तियों को क्या मैं मुक्त कर सकूंगा ? मेरी सिद्धी यदि यशस्वी होती है और किसी को जीवनदान दे सकती है तो इससे बढकर उपयोग और सम्मान क्या हो सकता है, चलो अमात्य। ’’

वे दोनों नगर आ पहुंचे। अनामिक आवाक होकर देख रहा था। सब कुछ दिल हिला देनेवाला था। घोडे पर सवार युवक उसी अवस्था में शीलरूप हो गया था। मार्ग से जानेवाली युवति जो धीरे से अपने घूंघट से झांक रही थी वह भी शील बन गयी थी। उस परिसर में खेल रहे एक बालक के दोनों हाथ पत्थर बन गये थे। उन हाथों द्वारा उछाली गयी गेंद हाथ में ही घूम रही थी। गेंद पर लगे घुंघरुओं का नाद उस परिवेश को और भी भयावह बना रहा था।

‘‘अमात्य, कौन था वह निर्दयी ? किसने किया यह सब और क्यों किया ? अनामिक ने पूछा .

‘‘यह एक सिरफिरे का काम है। तुम्हारे क्यों का मैं क्या उत्तर दूं ? अहंकार से क्यूं यह प्रश् न नहीं पूछ सकते। अब मेरी सारी आशाएं तुम पर लगीं हैं अनामिक। तुम ही इन्हें पूर्ववत कर सकते हो। ’’ वे दोनों नगरी में घूमते हुए वार्तालाप कर रहे थे। अंतत : अनामिक से रहा न गया। अपने गुरू की सलाह भूलकर उसने फिर से बांसुरी अपने हाथों में ले ली। उसने अपनी अंखें मूंद लीं, प्राणों को खींचकर अपने होंठों में एकत्रित किया और पूरी एकाग्रता से बांसुरी में उन्हें फूंकने लगा। बांसुरी से धीरे -धीरे स्वर्गाीय सुर निकलने लगे। उस वातावरण में गूंजने लगे। उन स्वरों की गूंज पाषाणों से टकराने लगी। धीरे -धीरे अभेद्य कवच पिघलने लगे। शाप की एक -एक श्रृंखला टूटने लगी और उस स्तब्ध जीवन में वह स्वर्गीय स्वर चैतन्य भरने लगे। अमात्य के कंपित हाथों के स्पर्श से वह चेतना में आया। उसने अमात्य की ओर देखा। उनकी आखों में अपार आनंद और स्नेह उमड रहा था। अब धीरे -धीरे उसने उस परिवेश पर नजर डाली। पूरा परिवेश चैतन्यमय हो चुका था। बालक की फेंकी हुई गैंद उसके हाथों में आ गिरी और वह हर्ष से चिल्लाया। घूंघट से झांक रही युवती जो पाषाण में परिवर्तित हो चुकी थी अब उत्सुकता से अमात्य और अनामिक की ओर देख रही थी। घोडे पर सवार होनेवाला युवक अब घोडे की लगाम खींचकर उनकी तरफ बढ रहा था। सभी लोग होश में आकर अमात्य के इर्द -गिर्द इकट्ठा होने लगे। उनके भाव ऐसे थे जैसे उनके साथ कोई दुर्घटना हुई ना हो। सारा परिसर ‘‘अमात्य की जय हो ’’ इस घोषणा से गूंज उठा। अमात्य भी अपनी जयजयकार से प्रसन्न होने लगे और इसी बीच उनका मूल स्वभाव भी उभरने लगा। अब तक शांत और विनयशील दिखाई देने वाले अमात्य का चेहरा बदलने लगा। अपने हाथ उठाकर और उन्हें फहराकर वह सबका अभिवादन स्वीकारने लगे। अब अमात्य ने कुछ निर्णय अपने मन ही मन लिये और अपने दोनों हाथों को उठाकर नगरजनों को शांत होने का अनुरोध किया।

‘‘नगरवासियों, अज मेरे लिये बडी प्रसन्नता का दिवस है। आज मैं इतना खुश और भावविभोर हो गया हूं कि मेरे होंठों से शब्द नहीं निकल रहे। आप सभी का जीवन अब शापमुक्त हो गया है। बडे ही परिश्रम से तथा इस बांसुरीवाले की सहायता से आप पूर्ववत हुए हैं। ’’ अमात्य ने अनामिक के हाथों से बांसुरी ले ली और उसे नगरवासियों को दिखाते हुए कहने लगे ‘‘इस बांसुरीवाले की खोज में मैं दर -दर भटकता रहा, धूप -छांव की परवाह किये बिना, समय की चिंता किये बिना मैं इसे खोजता रहा और अंतत : इसे खोज ही लिया। मेरे परिश्रम सफल हुए। ’’

अनामिक आश् चर्य से अमात्य की ओर देख रहा था। उसके पैरों पर गिरकर गिडगिडानेवाले अमात्य और इस समय गर्व से नगरजनों को संबोधित करनेवाले अमात्य इन दोनों में मेल ही नहीं था। कोई समानता ही नहीं थी। अपितु इस समय अमात्य की आंखों से आत्मगौरव, अहंकार और विजयी भाव फूटफूटकर टपक रहे थे। उन्होंने फिर से कहा ‘‘मेरे परिश्रम के फलस्वरूप ही आप लोगों की अवस्था पूर्ववत हुई है। आज मैं धन्य हो गया। ’’

‘‘अमात्य …. विजयी हो ….लोग नारे लगाने लगे। अमात्य की नजर अनामिक की ओर गयी। उन्होंने वह बांसुरी अपने हाथ में कसकर पकड रखी थी। उन्हें यह आशंका थी कि यदि यह बांसुरी फिर से अनामिक के हाथ लगी तो कहीं वह इस नगरी को फिर से पाषाण में न परिवर्तित कर दे।

अमात्य मन ही मन सोच रहे थे। आज मुझे मान सम्मान मिल रहा है, सर्वोच्च स्थान मिल रहा है। नगरजनों की दृष्टि में आदरभाव मैं स्पष्ट रूप से देख पा रहा हूं। किंतु यदि अनामिक ने अपना मुंह खोला तो वह आदर सम्मान उसे मिल जायेगा। छल और कपट से भरे अमात्य उस बांसुरी को हाथ में लिये जनसमुदाय के बीच तक पहुंचे। सब लोग उनके इर्दगिर्द इकट्ठा हो गये। धीमी लेकिन स्पष्ट आवाज में वह नगरजनों से चर्चा करने लगे। उनका संभाषण अनामिक तक नहीं पहुंच रहा था।

‘‘नगरजनों बांसुरीवाले के पास जादुई विधा है। उसी विधा से बांसुरी बजाकर आज उसने तुम सब को शापमुक्त कर जीवित किया है। आप सभी जानते है कि हमारे पटोस में शत्रुपक्ष की दो नगरियां हैं, जिनके साथ हमें सदैव युद्ध करना पडता है। उनके आक्रमण से जूझना पडता है। वे दोनों नगर भी हमारे नगर की भांति ही शापित हैं। मैं इस बात से चिंतित हूं कि अपनी विद्या से कहीं वह बांसुरी वाला उन नगरों को जीवित न कर दे। अगर ऐसा हुआ तो फिर से वही आक्रमण, वही रक्तपात ……….और उन पापों के कारण फिर से सबका शापित होना।

‘‘नहीं नहीं हम ऐसा कदापि नहीं होने देंगे। हम वह बांसुरी उसे कभी नहीं देंगे।

‘‘जादू उस बांसुरी में नहीं अपितु उसे बजानेवाले उस व्यक्ति की सासों में है। ’’ अमात्य ने कठोर होकर कहा।

‘‘फिर क्या किया जाय अमात्य ? ’’ एक व्यक्ति

‘‘तुम सबको मेरा साथ देना होगा। मैं देखना चाहता हूं उसमें कितना देवत्व है। ’’

‘‘वह आप कैसे परखोगे अमात्य ? ’’एक व्यक्ति

‘‘ उसके कारण तुम पूर्ववत हुए हो अत : पहले उसका सत्कार करते हैं, आभार मानते हैं। ’’ अमात्य

‘‘हां हां चलिये, उसकी पूजा करते हैं। ’’ पूजा के आदेश दिये गये। स्त्रियां पूजा की तैयारी में जुट गयीं। अमात्य के चेहरे पर गूढ भाव दिखाई दे रहे थे। अमात्य के निर्देश पर लोग आगे बढे। ’’

‘‘हे अनामिक इस नगर को तुमने शााप मुक्त किया। सबको जीवित किया। तुम्हारे उपकार यह नगर कभी नहीं भूल सकता। ये सब तुम्हारी पूजा करना चाहते हैं। इनकी पूजा स्वीकार करो। ’’

‘‘नहीं अमात्य अपनी पूजा करवाना मुझे उचित नहीं लगता। जो हुआ वह तो दैवगति थी, बस और कुछ नहीं। ’’

सब कह उठे ‘‘लेकिन हमारी यह इच्छा है कि आप इस पूजा का स्वीकार करो अनामिक। अमात्य आप आइये, यह मान और अधिकार आपका ही है। ’’

अमात्य प्रसन्नता से हंसे किंतु उनकी आंखों में हिंस्र भाव था। विषैले स्वर में उन्होंने कहा ‘‘अनामिक जीवित अवस्था में पूजा जाना बहुत कम लोगों के भाग्य में होता है। इनकी भावनाओं का आदर करो। इन्हें तुम्हारी पूजा करने दो। अपने पांव आगे करो। ’’ कठोर शब्दों में अमात्य बोले।

अनामिक के आगे कोई चारा नहीं था। उसने अपने पांव आगे किये। अपना मान और अधिकार जानकर अमात्य ने गुनगुने पानी से पांव धोये। पावों की षोडशोपचार पूजा की। तभी थाली लिये एक स्त्री आगे आई। थाली में एक सफेद फूलोंवाला और एक लाल फूलोंवाला ऐसे दो हार थे। सब उत्सुकता से देख रहे थे। अमात्य ने लाल फूलों वाली माला अनामिक के गले में डाल दी। एक पडघम बजने लगा जिसकी लय धीरे -धीरे बढने लगी। उस वातावरण में अनामिक का दम घुटने लगा। ‘‘कुछ अनहोनी हो रही है ’’ ऐसे संकेत उसे आने लगे।

उसने अमात्य से कहा ‘‘मुझे जाने दीजिये अमात्य मेरा काम हो चुका है। ’’

‘‘परंतु हमारा काम अभी शेष है अनामिक। ’’ अमात्य झटके से उठे और लोगों को संबोधित करने लगे ‘‘प्रजाजनों, आपका अमात्य होने के नाते आपकी रक्षा करना और चिंता करना मेरा कर्तव्य है। इस कर्तव्य के आगे इस बांसुरीवाले का जीवन मेरे लिये कोई मायने नहीं रखता। इसकी सिद्धी ने सबको जीवनदान दिया। मगर करुणा इसका मनोधर्म है। इसी करुणा के कारण इसने सूखे पेडों को पल्लवित किया जिसका मैं स्वयं साक्षी हूं। यदि इस करुणा के वश होकर इसने हमारे पडोसी नगरों को भी शापमुक्त कर दिया तो हमारी स्वतंत्रता फिर से बाधित हो सकती है। इस जादूगर में देवत्व छिपा है। यह हमें ताडना चाहिये। ’’

अनामिक ने कहा ‘‘देखिये, मैं न तो जादूगर हूं ना ही देव। मुझे जाने दीजिये। ’’

‘‘हमें देवत्व परखने तो दो। ’’ नगरजनों को संकेत दिया ‘‘प्रारंभ करो ’’

‘‘यह मान भी आपका ही है अमात्य। ’’ – नगरजन

अनामिक समझ नहीं पा रहा था किंतु अमात्य की अगली कृति से वह हतप्रभ हो गया। अमात्य ने एक पत्थर उठाया और उसकी ओर फेंका। अनामिक वेदना से तिलमिलाया ‘‘यह क्या कर रहे हैं आप लोग ? मैंने आपको जीवन दिया है। ’’

‘‘वही जीवन हम सुरक्षित कर रहे हैं। तुम्हें पुनर्जीवित कर रहे हैं। तुम्हारा अंत होगा पर तुम लोगों के स्मरण में हमेशा अमर रहोगे। ईश् वर के रूप में हम सब तुम्हें पूजेंगे, तुम्हारा मंदिर बनायेंगे। ’’ अमात्य जहरीले स्वर में बोले।

‘‘किंतु मेरा अपराध क्या है ? ’’-अनामिक

अमात्य उसके समीप आये। वह बोले ‘‘ तुम्हारे पास यह जो विधा है वही तुम्हारा अपराध है। इस विधा के बल पर तुम सब पर राज कर सकते हो। ’’

‘‘किसी पर राज करने की, अधिकार जमाने की लालसा मुझमें न कभी थी और न कभी भविष्य में होगी। ’’-अनामिक

‘‘अधिकार की लालसा मन में अकल्पित रूप से निर्माण होती है। हमें उसकी आहट भी सुनाई नहीं देती। ’’- अमात्य

‘‘लेकिन …लेकिन मैं जीवित रहना चाहता हूं। मुझे यहां से जाने दो। ’’ अनामिक गिडगिडाया।

‘‘ तुम्हारा जीवित रहना मेरे लिये धोकादायक है। यदि तुम जीवित रहे तो मुझसे आगे निकल जाओगे। जो मान सम्मान मुझे मिलता है वह तुम्हें मिलने लगेगा। आज लोग तुम्हें भगवान मान रहे हैं। परंतु जीवित रहते तुम्हारे हाथों कोई अनिष्ट कर्म हो गया तो तुम्हारे देवत्व को हानि पहुंचेगी। अत : तुम्हारा मरना ही ठीक होगा। ईश् वर पृथ्वीलोक में नहीं रहा करते। अमात्य का हेतु स्पष्ट हो चुका था।

‘‘लेकिन यह पाप …….. ’’ अनामिक कुछ कहना चाहता था।

‘‘पाप। ’’ विषली हंसी के साथ अमात्य बोले ‘‘पाप हमारे लिये नई संकल्पना नहीं है। पाप तो हम करते ही आ रहे थे। पापों का अतिरेक होने से ही नगर शापित हुआ था। संयोगवश केवल मैं बच गया था। यदि पाप न करें तो हमारे जीवन में उजाला ही उजाला रहेगा, रात आयेगी ही नहीं। और हम रात के भोगों के शौकीन हैं, आदी हो चुके हैं। एक संभावना यह भी हो सकती है कि तुम्हारा अंत जिस तरह से हो रहा है वह तुम्हारे बुरे कर्मों का ही परिणाम है। ’’-अमात्य

‘‘मैंने कोई पाप नहीं किया। ’’- अनामिक ने त्वेष में कहा।

‘‘पाप कर रहे व्यक्ति को उसकी प्रचीति नहीं होती। अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिये वह कई ऐसे कार्य करता है जो पाप कहलाते हैं। पर तुम क्यों चिंतित हो रहे हो ? क्यों घबरा रहे हो ? तुम्हारी तो समाधी बनेगी। तुम्हारा नाम अमर हो जायेगा। तुम्हारे संदेश मैं लोगों तक पहुंचाता रहूंगा। ’’

लेकिन मैंने तो कोई संदेश नहीं दिया। अनामिक ने कहा

‘‘ तो क्या हुआ ? ’’ ….संदेश मैं तैयार करूंगा। वह भी ऐसे बानाऊंगा कि परिस्थिति के अनुरूप उसमें परिवर्तन किया जा सके। इतना लचीला …….लेकिन वास्तव में खोखला।

‘‘भगवान के लिये ….. ’’अनामिक

‘‘नहीं मैं कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहता। हमें एक परमेश् वर चाहिये था ….चेतना विरहित ….सो तुम्हारे रूप में मिल गया। ’’- अमात्य

अनामिक ‘‘लेकिन …किंतु ’’ पर वह जान चुका था कि अब तर्क का कोई अर्थ नहीं रहा। अनामिक से ध्यान हटाकर अमात्य ने घोषणा की ‘‘ अनामिक की जय हो। ’’ अमात्य ने इशारा किया और वे दूर हट गये। लोगों के हाथों के अधीर पत्थर चारों ओर से आघात करने लगे।

अनामिक के गले में पडी रक्तवर्णित पुष्पमाला के रंग के अनेक घाव उसके शरीर पर उभरने लगे।

 

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