यदि देश में, समाज में समृद्धि, संपन्नता आती है, आर्थिक विकास और टेक्नॉलजी के प्रभाव से समाज के रहन-सहन के स्तर में बढ़ोत्तरी होती हैं और उसके फलस्वरूप में समाज में मर्यादाओं, परंपराओं तथा मूल्यों का स्खलन होता है, तो क्या समाज विकास न करें, हमेशा मानवीय मूल्यों की कीमत पर स्वयं को परंपराओं की सीमा में कैद रखें?
‘मेरा देश बदल रहा है, देश आगे बढ़ रहा है’, आजकल यहनारा बहुत लोकप्रिय हो रहा है। सच है कि इक्कीसवीं सदी के दो दशकों में देश में काफी परिवर्तन हुआ है। विज्ञान और टेक्नॉलजी ने देश की कायापलट कर दी है और सूचना क्रांति से समाज का चेहरा बदल गया है, इसमें भी कोई संदेह नहीं है। आज भारत को वैश्विक स्तर पर जो सम्मान और प्रतिष्ठा मिली है, उसमें भी किसी प्रकार के दो मत नहीं हैं। किन्तु विकास और आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में हमारे सामाजिक मूल्यों, सम्बंधों, संवेदनाओं तथा पारिवारिक मान्यताओं की क्या कीमत चुकानी पड़ रही है, उस पर हम शायद गंभीर नहीं हैं।
देश जरूर बदला है, लेकिन कैसा बदला है इसकी एक तस्वीर यह भी है कि आक्सफैम की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत के नौ सबसे अमीर लोगों के पास देश के 50 प्रतिशत अर्थात 65 करोड़ लोगों के बराबर की संपत्ति के बराबर धन है। 10 प्रतिशत आबादी अर्थात 135 लाख लोगों के पास देश की कुल संपत्ति की 77.4% हिस्सेदारी है जब कि 1% लोगों के पास देश की कुल संपत्ति का 51.53% संग्रहित हैं। एक और चौंकाने वाली जानकारी यह भी आई कि पिछले वर्ष दुनिया भर के अमीरों की संपत्ति में जहां हर दिन 2.5 अरब डालर की वृद्धि हुई, वहीं दुनिया के सबसे गरीब लोगों की सम्पत्ति में 11-12% को गिरावट दर्ज की गई। इस प्रकार हमारे विश्व का आर्थिक विकास हो रहा है जिसमें भारत भी शामिल है।
हम कैसे विश्व और भारत का विकास कर रहे हैं, यह उसका एक नमूना है। विकास का यह माडल ठीक है या गलत है, इस पर कोई टिप्पणी न करते हुए आइए अपने देश के सामाजिक दृष्टि से बदलते हुए संदर्भों और मान्यताओं पर भी नजर डालें। देश कैसे बदल रहा है और उसकी दिशा कौन सी है उसकी एक दिलचस्प तस्वीर पिछले दिनों प्रकाशित रिपोर्ट से मिलती है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि भारत इस समय सबसे जवान देश है। भारत की 54% जनता की उम्र 35 वर्ष से कम है और इसलिए टिंडर कास्टिंग फर्म, मोरार एचपीआई ने देश के युवा वर्ग के बीच एक सामाजिक सर्वेक्षण किया और उनसे परिवार, सामाजिक सम्बंध तथा स्त्री पुरूष व्यवहार आदि के बारे में प्रश्न पूछे। युवाओं से पूछे गए इन प्रश्नों में 86% लोगों ने कहा कि वे जीवन में अकेले रहना अधिक पसंद करेंगे। घर बसाने में उनकी कोई रूचि नहीं है, क्योंकि अकेले रहना अधिक आसान है, इसमें न तो कोई जिम्मेदारी होती है और न ही कोई प्रतिबद्धता होती है इसलिए अकेले रहना अधिक आसान है। एक और सवाल के जवाब में 90% लोगों ने कहा कि वे सप्ताह में एक-दो बार डेटिंग पर जाते हैं और मौज-मस्ती करते हुए जिंदगी को आराम से जीने में विश्वास रखते हैं।
विवाह के बारे में और घर बसाने के सम्बंध में आज का युवा या युवती बहुत रूचि नहीं रखते। उन्हें अपने करियर और अधिक से अधिक धन कमाने में अधिक रुचि है। यही आज की युवा पीढ़ी का एजेंडा है। सामाजिक दायित्वों तथा सम्बंधों से अधिक आज का युवा अपनी स्वतंत्रता तथा व्यक्तिगत उपलब्धि को महत्व देता है।
इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के अंत में यह बदलते और आगे बढ़ते भारत की तस्वीर है, जिस पर ध्यान जाना आवश्यक है। यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि आर्थिक समृद्धि और विज्ञान की उपलब्धियों से सम्पन्न समाज में, मानवीय मूल्यों और मान्य परंपराओं में लाजमी बदलाव आता है। जिन्हें हम सामाजिक मर्यादा या आदर्श मानते हैं, उनके प्रति विश्वास घटता है और विद्रोह बढ़ता है। अमेरिका तथा अन्य यूरोपीय देश इस बदलाव से पहले से ही पीड़ित तथा त्रस्त हैं और हम भारतीय लोग इस विकास के फलस्वरूप होने वाले सामाजिक परिवर्तन से भयग्रस्त हैं। सुप्रसिद्ध चिंतक-पत्रकार श्री सूर्यकांत बाली मानते हैं कि “किसी भी समाज में जब-जब आर्थिक और प्रौद्योगिकी (टेक्नालाजी) अपने शिखर पर होती है, वित्त तथा विज्ञान का वैभव उच्चतम होता है, समृद्धि और टेक्नालाजी जनित महारतें अपनी पूरी छटा पर होती हैं, ऐसे समाज में सामाजिक और मानवीय मूल्यों में हर प्रकार की व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामूहिक मर्यादा टूटती और बिखरती हैं और उसका प्रभाव अब बदलते और विकसित भारत की युवा पीढ़ी पर स्पष्टत: देखा जा सकता हैं। यही कारण है कि इक्कीसवीं सदी के भारत के युवाओं की मन-स्थिति बदल रही है और वे अपने भविष्य, करियर तथा अधिक से अधिक कमाने के चक्कर में परिवार, विवाह सम्बंध तथा मानवीय कर्तव्यों के प्रति धीरे-धीरे उदासीन हो रहे हैं तथा उसके विपरित व्यक्तिगत स्वतंत्रता और व्यक्तिगत अधिकारों के प्रति अधिक सजग हैं। यही कारण हैं कि पिछले दो दशकों में भारत के महानगरों तथा अन्य शहरों में तलाक की संख्या तेजी से बढ़ रही हैं। किसी ने समाज में इस बदलाव पर चुटकी लेते हुए ठीक ही कहा कि सरकार सभी लोगों को पक्के मकानों को देने के लिए अपनी प्रतिबद्धता अवश्य दिखा रही है लेकिन जो बने बनाए घर टूट रहे हैं, उसकी भरपाई कौन करेगा?
वर्तमान समाज परिवार का नहीं बाजार का समाज है। बच्चे अब परिवार में नहीं बल्कि बाजार के परिवेश में बड़े हो रहे हैं। इसलिए उनका स्वभाव भी बाजार के मोल भाव से प्रभावित हुआ है। व्यक्ति के द्वारा निर्मित वस्तुओं से भरे बाजार में सब कुछ बिकाऊ हैं, टिकाउ कुछ भी नहीं और इसलिए आज की युवा पीढ़ी संवेदना और सम्बंधों के स्तर पर बिलकुल रिक्त हो रही है और इसलिए उसकी अंतर्वेदना समाज में हिंसा, अनाचार तथा भाव शून्यता के रूप में परिलक्षित हो रही हैं। भौतिक आग्रहों और दुराग्रहों से भरी और आधुनिकता की चमक से लकलक युवा पीढी का एकमेव लक्ष्य है अधिक से अधिक धन और समृद्धि; चाहे उसके लिए कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। यही कारण है कि युवा पीढ़ी की विवाह संस्था और परिवार के सम्बंध में धारणाएं बदल रही हैं और वे अपने आपको इन सभी से अलग रखने में अधिक अच्छा मानती है। शायद इसलिए कि इससे उनको अपने करियर बनाने और स्वतंत्र रूप से रहने में कोई अड़चन नहीं आती। किन्तु क्या इससे समाज में, व्यक्ति में प्रसन्नता, आनंद और स्नेह का भाव पैदा हो रहा है? क्या इस प्रकार की मनःस्थिति से रहने वाले व्यक्ति वाकई अच्छी और शांतिपूर्व जिंदगी जीने में सफल होते हैं? यह एक यक्ष प्रश्न है, जिसका उत्तर आवश्यक है। तथापि इस संदर्भ में एक प्रसंग का उल्लेख यहां समीचीन प्रतीत होता हैं।
स्त्री मुक्ति तथा महिला सशक्तीकरण और स्वातंत्र्य के सम्बंध में सुप्रसिद्ध कथाकार मधु कांकरिया के एक लेख में उन्होंने एक बहुत ही आधुनिक-अभिजात्य, उच्च शिक्षा प्राप्त महिला से लिए गए साक्षात्कार का वर्णन किया है। अपने प्रारंभिक साक्षात्कार में उस भद्र महिला ने बताया कि उनकी विवाह में कोई रूचि नहीं है क्योंकि वे मां नहीं बनना चाहती। अंग्रेजी में उन्होंने कहा कि “आइ एम नाट अ मदर मेटेरियल” बाद में वे अमेरिका चली गई, वहां माइक्रोसाफ्ट कम्पनी से उनका टाई-अप हो गया। सफलता के शिखर को उन्होंने छू लिया था, उपलब्धियों के आकाश में वे उड़ रही थी।
कुछ वर्षों के बाद पुन: उनसे लेखिका ने फोन पर संपर्क किया तब वे फोन पर ही सुबक पड़ी थीं। फोन पर ही उन्होंने बताया कि ‘नथिंग टू लुक फार्वर्ड अर्थात आगे अब कुछ नहीं बचा है।’ हताशा में उन्होंने अपनी कम्पनी बेच दी थी। अब वे निपट अकेली अपने जीवन को किसी तरह जी रही है। योग और अध्यात्म से अपने दिल को बहलाने के अलावा उनके पास कुछ भी नहीं है। विवाह के सम्बंध में उनका कहना था कि उम्र के इस पड़ाव में अब कौन उनसे शादी करेगा। लेखिका लिखती हैं कि इसकी वजह सफलता और अत्याधुनिकता है जो प्रारंभ में बताई गई हैं।
ऐसी स्थिति में हमारा क्या कर्तव्य बनता है? क्या हम सब हाथ पर हाथ धरे अपने सनातन समाज के संस्कार और संस्कृति को इसी प्रकार तिरोहित होते देखते रहें अथवा उसके सामने एक बड़ी लकीर खींचने का प्रयास करें। अब एक सवाल यह भी है कि यदि देश में, समाज में समृद्धि, संपन्नता आती है, आर्थिक विकास और टेक्नॉलजी के प्रभाव से समाज के रहन-सहन के स्तर में बढ़ोत्तरी होती हैं और उसके फलस्वरूप में समाज में मर्यादाओं, परंपराओं तथा मूल्यों का स्खलन होता है, सामाजिक सम्बंधों में गिरावट आती है या समाज उच्छृंखल होता है तो क्या समाज विकास न करें, संपन्न न हों और हमेशा मानवीय मूल्यों की कीमत पर स्वयं को परंपराओं की सीमा में कैद रखे? क्या ऐसा हो सकता है कि समाज में आर्थिक विकास भी हो, समृद्धि और वैभव भी हो, साथ हो साथ मर्यादाएं, सात्विकता, स्त्री का सम्मान और सामाजिक गरिमाएं भी बनी रहे। परिवार में सब प्रेम से रहें, एक दूसरे के पूरक बनकर स्वस्थ समाज का निर्माण करें। इसका उत्तर हमें वैदिक ऋषियों और सनातन भारत की परंपराओं में मिल सकता है, बशर्ते हम उनका सही दृष्टि से अध्ययन, चिंतन, मनन करके उसका निर्वहन करने का संकल्प लें।
भारत की विगत 10 से 12 हजार वर्ष की सुदीर्घ परंपरा में ऐसे कई क्षण आए जब ऐसा लगा कि भारत अब समाप्त होने की कगार पर है। उसकी संस्कृति, मूल्याधारित जीवन पद्धति, सभ्यता को समाप्त होने से अब कोई नहीं बचा सकेगा। किन्तु फिर कुछ ऐसा चमत्कार होता है कि भारत का समाज अपनी अन्तर्शक्ति से पुन: जाग्रत होता है। ‘उतिष्ठ जाग्रत प्राप्यवरान्निबोधत’ का जयघोष होता है और किसी महापुरूष के नेतृत्व में भारत का सनातन समाज पुन: अपने खोए हुए वैभव और समृद्धि को प्राप्त करके विश्व में अपनी विजय पताका फहराता है।
अविश्वास और आस्थाहीनता के वर्तमान संकट से मुक्त होने के लिए भी हमें भारतीयता का आवाहन करना होगा, क्योंकि उसके पास जीवन मूल्यों की समृद्ध विरासत है, परंपरा है और वैश्विक कल्याण के चिंतन की सुदीर्घ धारा है। हमारे पास गंगा है, गाय है और गोविंद है, गांधी और विवेकानन्द हैं, रामतीर्थ और अरविन्द हैं जो भारत के नौजवानों को जीवन जीने की नई दिशा दे सकते हैं। विचार के स्तर पर हमारे पास विषय के सामने वैराग्य है। हमारे यहां विवाह का संस्कार, परिवार का आधार है, समाज निर्माण का विशुद्ध व्यवहार है। इसीलिए विवाह न तो मैरिज है अर्थात मौज और भोग के लिए किया गया अनुबंध है और न ही वेडिंग है अर्थात भोग के लिए किसी को पटाना है। हमारे यहां विवाह स्त्री और पुरूष को जीवन पर्यन्त एक दूसरे को निभाने, सुख, दु:ख में, लाभ में, हानि में, रोग में, आरोग्य में एक दूसरे के साथ प्रेम पूर्ण व्यवहार करते हुए संतान उत्पन्न करते हुए आनंद के साथ स्वस्थ समाज के निर्माण की इकाई के रूप मेें अपना योगदान देना है। वैदिक वाङ्मय में जिस परिवार की कल्पना की गई है, वह आदर्श है। हजारों वर्ष पहले भारतीय मनीषियों और वैदिक ऋषियों ने परिवार के सम्बंध में गृहस्थ लोगों को जो संदेश दिया है, वही हमारा अभीष्ट होना चाहिए।
सहृदयं सामनस्यविद्वेषं कृणोमि व:
अन्योऽन्यमभिहृर्यत वत्स जातमिवाध्न्या।
अनुव्रत: पितु पुत्रो मात्रा भवतु सम्मना:।
जाया प्रत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शान्तिवाम॥
मा भ्राता भ्रातर द्विक्षन मा स्वसारसुत स्वसा
सम्यश्व: सव्रता भूत्वा वचं वदत भद्रया॥
अर्थव वेद 3-30,1,2
हे गृहस्थजन, तुम्हारे परिवार में परस्पर ऐक्य, सौहार्द्र एवं सदैव सद्भावना रहे। द्वेष का गंध भी न हो, जिस प्रकार गाय अपने नवजात बछड़े को प्रेम करती है, उसी प्रकार आप भी परस्पर प्रेम करें। पुत्र अपने माता-पिता के आज्ञाकारी रहें। पति-पत्नी परस्पर प्रेमपूर्वक रहें, भाई-भाई से बहन-बहन से प्रेम करें। सभी लोग प्रेम से मधुर संभाषण करें, यही आदर्श परिवार की व्याख्या है। आइए वर्तमान संकट की इस चुनौती को हम सहर्ष स्वीकार करें।