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धोखेबाज चीन को सबक सिखाने का मौका

धोखेबाज चीन को सबक सिखाने का मौका

by अवधेश कुमार
in जून - सप्ताह चार, ट्रेंडींग, देश-विदेश
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चीन लिखित वचन में कुछ और अंतर्मन में कुछ का चरित्र रखता है, इसलिए वह कभी भी पलट सकता है। गलवान घाटी में झड़प इसी का नतीजा है। इस झड़प में हमारे 20 सैनिकों ने अपनी जान देकर इतिहास का ऐसा अध्याय लिख दिया है, जिससे चीन जान चुका है कि यह 2020 का भारत है, दब्बू भारत नहीं।

यह भारत और चीन के बीच कूटनीतिक संबंध स्थापित होने का 70वां वर्ष है। इसे मनाने के लिए दोनों देशों के बीच 70 कार्यक्रम तय हुए थे। ऐसा नहीं है कि भारत चीन की दुर्नीतियों को नहीं समझता है, लेकिन पूरी तरह सतर्क एवं अपनी भूमि की सुरक्षा के प्रति गंभीर रहते हुए अपनी ओर से संबंधों में शांति और विश्वास कायम करना भारत का चरित्र है और यही हम हमेशा प्रदर्शित करते हैं। चीन ने गलवान में जिस तरह से असभ्य व गुण्डागर्दी सदृश खूनी जंग को अंजाम दिया उसका तात्कालिक निष्कर्ष तो यही है कि उसके साथ संबंधों में स्थायी शांति एवं स्थिरता की कल्पना व्यर्थ है।

वास्तव में गलवान घाटी में जो कुछ चीन ने किया उस तरह की झड़प की दो सभ्य देशों की सेनाओं के बीच कल्पना तक नहीं की जा सकती। चीन से वास्तविक नियंत्रण रेखा और सीमा पर निपटते हुए भी भारतीय राजनीतिक नेतृत्व बयानों मे ंहमेशा संयत रुख अपनाता रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चीन के खिलाफ पहली बार इस तरह का सार्वजनिक वक्तव्य दिया है जिसका संदेश बिल्कुल साफ है। उन्होंने कहा कि जवा नों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। देश की संप्रभुता सर्वोच्च है। देश की सुरक्षा करने से हमें कोई भी रोक नहीं सकता। इस बारे में किसी को भी जरा भी भ्रम या संदेह नहीं होना चाहिए। उन्होंने भारत की नीति स्पष्ट करते हुए कहा कि भारत शांति चाहता है, लेकिन भारत उकसाने पर हर हाल में यथोचित जवाब देने में सक्षम है। हमारे दिवंगत शहीद वीर जवानों के विषय में देश को इस बात का गर्व होगा कि वे मारते-मारते मरे हैं।

इस तरह प्रधानमंत्री ने चीन के सामने अपना विकल्प स्पष्ट कर दिया है कि शांति के प्रयास को हमारी कमजोरी न समझें, हम आपसे हर स्तर पर निपटने में सक्षम हैं और आप नहीं माने तो निपटेंगे। साथ ही इससे सेना को भी स्पष्ट संकेत मिल गया है कि नियंत्रण रेखा एवं सीमा पर परिस्थितियों के अनुरुप व्यवहार के लिए जो आप करेंगे सरकार को उसका पूरा समर्थन होगा।

प्रधानमंत्री के इस स्पष्ट बयान के बाद अन्य किसी के बोलने की आवश्यकता नहीं रह जाती। चीन को भी समझ में आ गया है कि उसने जो कुछ किया वह उसके लिए आगे ज्यादा महंगा पड़ सकता है। उनकी ओर से बातचीत की पेशकश की गई। चीनी विदेश मंत्री वांग यी के साथ फोन पर बातचीत के दौरान भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने बिना किसी लाग-लपेट के कहा कि जो कुछ हुआ उसके लिए दोषी आप हैं। विदेश मंत्रालय की तरफ से जारी बयान में कहा गया है कि एस. जयशंकर ने अपने चीनी समकक्ष को यह साफ तौर पर कह दिया है कि इस अप्रत्याशित कार्रवाई का द्विपक्षीय संबंधों पर गंभीर असर होगा।

इसके बाद यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि भारत किस स्तर पर जाने को मानसिक रुप से तैयार हो चुका है। देश में संदेह प्रकट करने वाली ‘महान विभूतियों’ को भी समझ लेना चाहिए कि यह बदला हुआ भारत है। वैसे भी मई से जारी विवाद के बीच चीन द्वारा सैन्य लामबंदी को देखते हुए भारत ने अरुणाचल से लेकर लद्दाख तक पूरे क्षेत्र में सैनिकों की संख्या बढ़ा दी थी।

     वास्तव में अब तक जितनी जानकारी सामने आ चुकी है उसके अनुसार गलवान घाटी में चीनी सैनिकों ने कब्जे का षड्यंत्र रचकर अंजाम देने की कोशिश की तथा धोखे से भारतीय सैनिकों पर हमला किया। हालांकि हमारे जवानों ने चीनी सैनिकों के साथ बिना किसी हथियार के संघर्ष किया और वीरतापूर्वक लड़ते हुए उनको भी मारा तथा वीरगति को प्राप्त हुए। निस्संदेह, 20 जवानों का बलिदान सामान्य घटना नहीं है। वह भी उस चीन के साथ संघर्ष में जिसने स्वयं किसी तरह के हथियार का प्रयोग न किए जाने का वायदा किया हुआ है। यह साफ हो रहा है कि वार्ता में चीनी फौज पीछे हटने पर सहमत दिख रही थी लेकिन अंदर ही अंदर उन्होंने गलवन और श्योक नदी के संगम के पास प्वाइंट-14 चोटी पर कब्जे की साजिश रच रखी थी। चीनी सैनिक पहले से पत्थरों, हथौड़ियों, लोहे की छड़ों, कंटीले तारों आदि के साथ तैयार थे। जितनी बातें सामने आई हैं उनमें से हम आराम से पूरी घटना कैसे घटी होगी इसे समझ सकते हैं।

सोमवार यानी 15 जून को दोपहर से भारतीय सेना के कमांडिंग ऑफिसर के साथ 10 सैनिक पेट्रोल पॉइंट-14 के पास चीनी सैनिकों के लौटने की निगरानी कर रहे थे। चीनी सैनिकों को यहां से हटना था, लेकिन जब वे अपनी जगह से नहीं हटे तो झड़प शुरू हो गई। यह भी देखा गया कि चीनी सैनिक कब्जे के लिए तारबंदी कर रहे हैं। इसे रोकने की कोशिश स्वाभाविक थी। चीनी सैनिकों ने अचानक भारतीय कमांडिंग ऑफिसर कर्नल संतोष बाबू पर लोहे की रॉड से हमला बोल दिया। अगर आठ घंटे तक खूनी भीड़ंत चलती रही तो इसका मतलब साफ है कि चीनी सेना ने हर हाल में कब्जा करने की योजना बना रखी थी जिसे वे किसी भी कीमत पर साकार करना चाहते थे। आखिर भिडंत के कुछ मिनट बाद ही चीन की दूसरी गश्त वहां कैसे पहुंच गई? शाम छह बजे तक दोनों ओर के सैनिकों के बीच घमासान द्वंद्व युद्ध होने लगा था। एक छोटे सी पतली व ढालू चोटी पर कितनी भयावह स्थिति पैदा हुई होगी इसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है। रात के अंधेरे में कई सैनिक चोटी से गालवन नदी में गिर गए। पतली चोटी टूटने की वजह से चीन के भी 40 से 50 जवान खाई में गिर गए।      यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि 14 हजार से ज्यादा फुट की ऊंचाई पर और शून्य से भी कम तापमान के बीच जहां ठीक से खड़ा होने की भी जगह नहीं, वहां पहले से योजना बनाकर तैयार चीनी सैनिकों का भारतीय सैनिकों ने बिना पूर्व तैयारी के किस तरह सामना किया होगा कि अपनी से दोगुनी संख्या में उनको मारा तथा घायल भी किया। विदेशी एजेंसियों की खबरें बता रही हैं कि 20 भारतीय जवानों के मुकाबले चीन के 43 सैनिकों को जान गंवानी पड़ी और कुछ घायल भी हुए। अब तो अमेरिका ने भी पुष्टि कर दी है कि चीन के कम से कम 35 सैनिक अवश्य मारे गए हैैं। अगर हताहतों की संख्या ज्यादा नहीं होती तो चीनी सैन्य हेलिकॉप्टरों को मृत जवानों के शवों व घायल जवानों को एअरलिफ्ट करने की नौबत नहीं आती। एअर एंबुलेंस की सक्रियता वहां लंबे समय तक देखी गई है। जो लोग बिना सोचे-समझे अपनी सरकार और देश को कोस रहे हैं उन्हें यह समझना चाहिए कि चीन ने हमारे करीब 45 किलोमीटर क्षेत्र पर कब्जा करने की कोशिश की थी जिसे हमने नाकाम किया है। याद हो कि 1962 में हमने 38 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन गंवाई थीं।

अपने जवानों के खोने का गम हमारे अंदर अवश्य है, पर सच कहा जाए तो 2017 में डोकलाम के बाद चीन को भारत की ओर से यह दूसरा करारा जवाब दिया गया है। जून, 2017 में जब चीन ने जबरन वहां सड़क निर्माण का काम शुरू किया तो भारतीय सैनिकों ने उसे रोक दिया था। चीन को कल्पना भी नहीं थी कि भारत इस सीमा तक अपने जवानों के साथ डट जाएगा। भारत ने उनकी एक न चलने दी। दोनों ओर की सेनाएं 75 दिन से ज्यादा वक्त तक आमने-सामने डटी रहीं और चीन को पीछे हटना पड़ा। चीन को उसी समय समझ में जाना चाहिए था कि यह बदला हुआ भारत है जो उसकी धौंस-पट्टी में ंतो नहीं ही आएगा, आवश्यकता पड़ने पर सीधा सैन्य मुकाबला भी कर सकता है। इसके बावजूद उसने गलवान में गलती कर दी। ऐसा कर चीन ने अपने ही समझौतों को तोड़ा है।

   1993 में भारत और चीन के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर शांति और स्थिरता बनाए रखने के लिए समझौता हुआ था। इसमें दोनों पक्षों ने किसी तरह एलएसी के चिह्नित क्षेत्रों के उल्लंघन न करने का वायदा किया था। 1993 के बाद से दोनों देशों के बीच कई दौर की बातचीत हुई, द्विपक्षीय समझौते हुए, प्रोटोकॉल तय हुआ जिनका एकमात्र उद्देश्य सीमा पर शांति एवं विश्वास कायम करना था। चीन अगर उसको मानता तो कभी झड़प या तनाव की नौबत ही नहीं आती।

1993 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिंह राव चीन दौर पर गए थे और इसी दौरान उन्होंने चीनी प्रधानमंत्री ली पेंग के साथ ‘मेंटनेंस ऑफ पीस एंड ट्रैंक्विलिटी’ समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। उसके बाद जब 1996 में तत्कालीन चीनी राष्ट्रपति जियांग जेमिन भारत के दौरे पर आए तब भी एलएसी को लेकर एक समझौता हुआ। तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री एच. डी. देवगौड़ा ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने सीमा विवाद को लेकर विशेष प्रतिनिधि स्तर की बातचीत का मैकेनिज्म तैयार किया था। मनमोहन सिंह सरकार ने भी 2005, 2012 और 2013 में चीन के साथ सीमा विवाद के समाधान पर बातचीत और आपसी व्यवहार के लिए तीन समझौते किए थे। 2013 के समझौते में ंतो साफ तय हुआ था कि जहां भी सीमा विवाद पर भ्रम है वहां कोई एक दूसरे का पीछा नहीं करेगा। कहने का तात्पर्य यह कि जिस तरह की लिखित व्यवस्थाएं दोनों देशों की सहमति से बनी थीं उनमें बार-बार घुसैपठ, कब्जा, झड़प आदि की कोई गुंजाइश ही नहीं है। किंतु जो देश वचन में कुछ और अंतर्मन में कुछ का चरित्र रखता हो वह कभी भी पलट सकता है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 में सत्ता में आने के बाद से चीन के साथ संबंधों को बेहतर करने की जितनी कोशिश हो सकती थी की है। वे पांच बार चीन की यात्रा कर चुके हैं। अलग-अलग मौकों पर चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से उनकी 18 बार मुलाकात हो चुकी है। अपनी ओर से मोदी ने पूरी कोशिश की कि एशिया के दो सबसे बड़े देशों के बीच विश्वास कायम रहे ताकि हम शांति से विकास के रास्ते अग्रसर हों। मोदी के सार्वजनिक संबोधन में दिखी आक्रामकता इसी कारण है कि शि जिनपिंग अपने वायदे के अनुरुप व्यवहार नहीं कर रहे हैं। हालांकि ऐसा नहीं था कि मोदी उनके भुलावे में आ गए। मोदी को मालूम है कि चीन से एक-एक इंच जमीन लेने का संसद का संकल्प है और स्वयं भाजपा के घोषित सिद्धांतों में यह शामिल है। किंतु तत्काल विवादों पर बातचीत का एक मैकेनिज्म चलाते हुए अन्य अंतःक्रियाएं चलती रहें यह भारत की नीति थी जिसे थोड़े परिवर्तन के साथ मोदी ने आगे बढ़ाने की पहल की। इसका एक परिणाम यह तो है ही कि दुनिया के प्रमुख देश मान रहे हैं कि भारत ने चीन के साथ शांति, विश्वास एवं सहयोग की हर संभव कोशिश की है लेकिन चीनी नेतृत्व हर हाल मेंं भारत के उत्थान को बाधित करने तथा सीमा क्षेत्रों के सामरिक रुप से महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर धोखे से कब्जा कर अपनी स्थिति ज्यादा मजबूत करने की गंदी नीति पर चल रहा है।

चीन चाहे भारत को दोषी ठहराने का जितना प्रोपोगंडा चला लें लेकिन दुनिया में पाकिस्तान या नेपाल जैसे कुछ देशों को छोड़कर कोई उस पर विश्वास करने वाला नहीं है। विश्व समुदाय को भी समझ नहीं आ रहा है कि आखिर चीन ऐसा कर क्यों रहा है? 5 मई को खबर आई कि पूर्वी लद्दाख की पैंगोंग झील के पास दोनों देशों की सेनाओं में भिडंत हुई है। वास्तव में चीन के सैनिक उस दिन शाम के समय इस झील के उत्तरी किनारे पर फिंगर-5 इलाके में आकर जम गए थे। स्वाभाविक ही भारत की ओर से चीन के सैनिकों की वहां उपस्थिति पर पर ऐतराज जताया गया, पर वे वहां से हटने को तैयार नहीं थे। कहते रहे कि यह आपका इलाका है ही नहीं। चीनियों की उदण्डता के कारण पूरी रात टकराव के हालात बने रहे और सुबह होते-होते गुत्थम-गुत्थी की नौबत आ गई। हालांकि दोनों तरफ के उच्चाधिकारियों की बातचीत से मामला तत्काल शांत हुआ।

उसके बाद 9 मई को उत्तरी सिक्किम में 16 हजार फीट की ऊंचाई पर मौजूद नाकू ला सेक्टर में फिर चीन के 150 से ज्यादा जवान चहलकदमी करने लगे। भारत ने इसका विरोध किया तो झड़प हो गई। इस झड़प में 10 सैनिक घायल हुए। यहां भी अधिकारियों के साथ बातचीत से तनाव को तत्काल रोका जा सका। जिस दिन उत्तरी सिक्किम में भारत-चीन के सैनिकों में झड़प हो रही थी, उसी दिन चीन ने लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर अपने हेलिकॉप्टर भेजे थे। चीन के हेलिकॉप्टरों ने सीमा तो पार नहीं की, लेकिन जवाब में भारत ने लेह एयरबेस से अपने सुखोई 30 एमकेआई लड़ाकू विमानों का बेड़ा और बाकी लड़ाकू विमान रवाना कर दिए। हाल के बरसों में ऐसा पहली बार हुआ जब चीन की ऐसी हरकत के जवाब में भारत ने अपने लड़ाकू विमान सीमा के पास भेजे।

जिस प्वाइंट-14 पर वर्तमान संघर्ष हुआ वह गलवान नदी और श्योक दरिया के संगम के पास एक चोटी है। गलवान घाटी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर स्थित है। यह अक्साई चिन इलाका है। गालवन नदी काराकोरम रेंज के पूर्वी छोर समांगलिंग से निकलती है और पश्चिम में बहते हुए श्योक नदी में मिल जाती है। गलवान घाटी का पूरा इलाका रणनीतिक रूप से भारत के लिए काफी महत्वपूर्ण है। 1962 के युद्ध में भी गलवान उन प्रमुख जगहों में था, जहां भारतीय-चीनी सेना के बीच युद्ध हुआ था। गलवान घाटी के पश्चिम इलाके पर 1956 से चीन दावा करता आ रहा है। भारत-चीन युद्ध 20 अक्टूबर 1962 को शुरू हुआ। चीन ने अक्साई-चिन पर कब्जा कर लिया। उसे पता है कि भारत अक्साई चिन को कभी न कभी वापस लेने की कोशिश करेगा। इसलिए वह उस क्षेत्र में किसी कीमत पर भारत को मजबूत होते नहीं देखना चाहता। उसने तो अपने क्षेत्र में सड़क और पुल आदि बनाकर अपनी स्थिति मजबूत कर ली लेकिन भारत ने यही काम लद्दाख से दौलतबेग ओल्डी तक करीब 323 किलोमीटर सड़कें और पुल बनाए तथा वहां पूरी आधारभूत संरचना मजबूत कर रहा है तो उसे स्वीकार नहीं है। चीन झूठ बोल रहा है कि उसने गलवान घाटी के विवादित इलाके के पास सैन्य जमाव़ नहीं किया है। उपग्रह तस्वीरों से साफ है कि अपने क्षेत्र में उसने भारी सैन्य लामबंदी की हुई है। आखिर क्यों? मतलब साफ है कि उसने योजना बनाकर सब कुछ किया है ताकि गलवान घाटी में भारत की सामरिक स्थिति के मुकाबले स्वयं को मजबूत करे। मोटामोटी आकलन है कि वहां 6 हजार के करीब सैनिक, आर्टिलरी गन, टैंक आदि तैनात किए हैं।

  चीन का बयान है कि वह तनाव कम करने के लिए बातचीत कर रहा है लेकिन दोष भारत पर मढ़ रहा है। वह पूरे गलवान क्षेत्र पर दावा कर रहा है। चीनी सेना के पश्चिमी थिएटर कमांड के प्रवक्ता कर्नल झांग शुइली ने कहा कि भारतीय सेना ने कमांडर स्तर वार्ता के दौरान बनी सहमति और आपसी संबंधों को नुकसान पहुंचाया। चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता झाओ लिनजियान ने कहा कि हमारे सैनिकों की उच्चस्तरीय बैठक हुई थी और सीमा पर स्थिति को सामान्य बनाने के बारे में महत्वपूर्ण सहमति बनी थी लेकिन आश्चर्यजनक रूप से 15 जून को भारतीय सैनिकों ने हमारी सहमति का गंभीर रूप से उल्लंघन किया। उनके अनुसार भारतीय सैनिकों ने अवैध गतिविधियों के लिए दो बार सीमा रेखा लांघी और चीन के कर्मियों को उकसाया एवं उन पर हमले किए जिससे दोनों पक्षों के बीच गंभीर रूप से मारपीट हुई।

इतना बड़ा झूठ। यही चीन का चरित्र है। हालांकि पूरे विश्व को सच का पता चल चुका है कि चीन बिल्कुल झूठ बोल रहा है, पूरी कारस्तानी उसी की है। भारत का पक्ष अब साफ है- आप अगर शांति नहीं चाहते हैं तो आपकी भाषा में जवाब दिया जाएगा। चीन की सेना और हथियारों की संख्या पर मत जाइए। जब भारतीय जवानों ने बिना हथियार के उनकी साजिश को विफल कर दिया तो आगे उनको सफल होने दिया जाएगा ऐसी कल्पना मूर्ख ही कर सकते हैं। यह मत सोचिए कि चीन के साथ यदि संघर्ष हुआ तो भारत कमजोर पड़ जाएगा। 1962 की जंग हम अपनी गलतियों से हारे थे। अगर वायुसेना का उपयोग किया जाता तो संभव था युद्ध का परिणाम दूसरा होता। किंतु उसके पांच वर्ष बाद 1967 में ही भारतीय जवानों ने चीन को बुरी तरह पराजित किया। सिक्किम में सितंबर-अक्टूबर 1967  में भारत और चीन सेना के बीच दो झड़पें हुईं। इसमें चीन के 340 सैनिक मारे गए और 450 घायल हुए। भारत के 88 जवान वीरगति को प्राप्त हुए।

वैसे तो चीन की विस्तारवादी नीति भारत के संदर्भ में पहले से कुटिलता भरी है। वह हमेशा भारतीय क्षेत्रों पर दावा कर हमें दबाव में रखने की नीति पर चलता आ रहा है। भारत ने जबसे जम्मू कश्मीर से धारा 370 खत्म कर उसकी प्रशासनिक स्थिति में बदलाव किया वह ज्यादा परेशान है। उसे लगता है कि मोदी पाक अधिकृत कश्मीर से लेकर अक्साई चिन पर कभी भी दावा कर सकता है। हमने चीन की 370 पर बौखलाहट देखी है। उसकी रणनीति है कि अपनी सामरिक स्थिति मजबूत करने के लिए किसी सीमा तक जाओ, भारत को दबाव में रखो, उसके पड़ोसियों से विवाद बढ़ाओ ताकि वह इसी में उलझा रहे एवं जरूरत पड़े तो छोटा-मोटा टकराव भी कर लो।

दूसरे, कोरोना संकट में चीन की भूमिका से विश्व की नाराजगी के बीच भारत का कद तेजी से ऊपर उठा है। इससे चीन को तत्काल एशिया तथा बाद में विश्व की महाशक्ति बनने के सपने के ध्वस्त होने की स्थिति पैदा हो गई है। उसके लाख विरोध के बावजूद विश्व स्वास्थ्य संगठन में कोरोना फैलाव में उसकी भूमिका की जांच का फैसला हो गया। उसकी आर्थिक ताकत का आधार निर्यात तथा चीन में विदेशी कंपनियों के कारखाने हैं। अमेरिका एवं यूरोप ने उससे आयात बंद करने तथा अनेक देशों ने उसके यहां से कारखाने हटाने पर काम करना आरंभ कर दिया है। इससे भी वह परेशान है, क्योंकि अनेक कंपनियां भारत आने पर विचार कर रही हैं।

चीन ने कोरोना संकट में निवेश कर विदेशी कंपनियों पर कब्जा करने की रणनीति पर काम करना आरंभ किया जिसे पहला धक्का भारत ने अपने यहां विदेशी निवेश का नियम बदलकर किया। इसमें वह भारत के खिलाफ हर वह अस्त्र इस्तेमाल कर रहा है जिससे उसका दबदबा कायम रहे। किंतु वर्तमान भारत दबाव में आकर हिचकिचाहट वाली कूटनीति करने वाला देश अब नहीं है। यह जैसे को तैसा वाला देश है। सच कहा जाए तो चीन ने गलवान से अपनी महिमा कमजोर होने तथा पतन की शुरुआत स्वयं कर दी है।

विश्व में किसी सभ्य देश के सैनिक इस तरह कील लगे डंडे, लोहे की छड़ों, कंटीले तारों, पत्थरों से असभ्य और बर्बर द्वंद्व नहीं करते। एक महाशक्ति के लिए यह शर्म का विषय होना चाहिए। भारत की कूटनीतिक सक्रियता से चीन की थू-थू होने लगी है। 1962 के बाद हमने जितने युद्ध लड़े सबमें विजय पाई है जबकि चीन ने एक भी सीधा युद्ध लड़ा नहीं है। वास्तव में हमारे 20 सैनिकों ने जान देकर इतिहास का ऐसा अध्याय लिख दिया है जहां से चीन की विश्व शक्ति के उदय के दौर पर विराम लग सकता है। भारत चीनी कंपनियों को मिले बड़े ठेकों पर पुनर्विचार कर रहा है, आपसी व्यापार में उसके 75 अरब डॉलर के लाभ को खत्म करने के रास्ते अब तलाशे जा रहे हैं। यह चीन के लिए कितना बड़ा धक्का होगा इसकी आसानी से कल्पना कर सकते हैं। भारत आर्थिक, कूटनीतिक एवं सैन्य तीनों स्तरों पर चीन का सामना करने के लिए कमर कस चुका है। चीन को सबक सिखाने में हमारे सामने जितनी भी परेशानियां और चुनौतियां आएं उनको सहने तथा झेलने की तैयारी हर भारतीय की होनी चाहिए। चीन से सीमा विवाद वैसे भी बातचीत से सुलझने वाला नहीं है यह साफ हो चुका है। भारत को भविष्य का ध्यान रखते हुए आक्रामकता के साथ तीनों मोर्चा पर आगे बढ़ना चाहिए।

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