साहूकार का फंदा

छले कुछ महीनों से यूनान के वित्तीय संकट ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को गहरे झटके दिए हैं। खासकर, यूरोप की
अर्थव्यवस्था में ये आघात महसूस किए गए। यह संकट भले ही यूनान के लिए परेशानी का सबब हो, लेकिन इससे यूरोप की अर्थव्यवस्था पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा। इसका कारण यह है कि यूरोपीय यूनियन के देशों से यूनान का व्यापार कम ही है। हां, इससे यूरोपीय यूनियन की एकीकृत मुद्रा यूरो के लिए अवश्य संकट पैदा हो सकता है और फलस्वरूप यूरोपीय यूनियन की कल्पना को ठेस पहुंच सकती है। भारत भी इन आघातों से लगभग अछूता ही रहेगा। क्योंकि, भारत की अर्थव्यवस्था मजबूत है और यूरोपीय देशों से भारत का व्यापार भी बहुत कम है। यूरोप के कुल व्यापार में भारत का हिस्सा महज २ फीसदी से कुछ अधिक है। इसमें भी यूनान से व्यापार तो नगण्य ही है।

संकट क्या है?

याद रहे कि अमेरिका के सब-प्राइम संकट ने २००८ में वैश्विक अर्थव्यवस्था को झकझोर दिया था। अमेरिका में आवास समेत अन्य उपभोक्ता वस्तुओं के लिए वहां की वित्तीय संस्थाओं एवं बैंकों ने जो ॠण दिए थे, उसकी वसूली असंभव हो जाने से वहां के बैंक एवं वित्तीय संस्थाएं संकट में पड़ गईं। मार्गन स्टैनली बैंक तो डूब ही गया। लोगों पर इतना ॠण चढ़ गया कि लोग दे नहीं पा रहे थे और किश्तें न आने से बैंकों के पास पैसे का टोटा पड़ गया। किश्तें न चुका पाने के कारण लोग अपने घर बैंकों को जब्ती में दे रहे थे, लेकिन इन घरों का लेवाल ही नहीं बचा था और मंदी का भीषण संकट पैदा हो गया। अमेरिकी फेडरल बैंक ने इन संस्थाओं की मदद के लिए धन मुहैया कराया और अमेरिका की अर्थव्यवस्था पटरी पर आ गई।
यूनान को २००९ में इसके आघात सहने पड़े। उस पर अंतरराष्ट्रीय कर्ज इतना चढ़ गया कि वह चुकाने की स्थिति में नहीं रहा। उसके दीवालिया होने की स्थिति पैदा हो गई तब उसके धनको देशों ने २०१० में पहली बार उसे राहत पैकेज के नाम पर और ॠण दे दिया। फिर भी यूनान की अर्थव्यवस्था पटरी पर नहीं आई और २०१२ में उसे और एक राहत पैकेज दिया गया। लेकिन राहत के नाम पर मिला यह ॠण कर्ज चुकाने और अन्य खर्चों में ही खत्म हो गया और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की जुलाई की किश्त १.६ बिलियन यूरो चुकाने में वह अक्षम हो गया। धनको देशों ने तीसरे पैकेज के लिए कड़ी शर्तें रखीं और इससे यूनान का दम और घुटने वाला था।

राजनीतिक दांवपेंच

प्रधान मंत्री अलेक्सी सिपरस की सरकार इस समय सत्ता में है। उनकी पार्टी पिछले वर्ष इस आश्वासन के बाद सत्ता में आई कि यूनानी लोगों को इस संकट से बाहर निकाला जाएगा और कोई कठोर कदम नहीं उठाए जाएंगे। सिपरस की सरकार वामपंथी विचारधारा की समर्थक हैं और वह धनको देशों की इन कठोर शर्तों को मानने से इनकार करती रही। सिपरस का इरादा था कि इससे यूरोपीय यूनियन और एकीकृत मुद्रा यूरो के संकट को देखते हुए ॠणदाता यूरोपीय देश झुक जाएंगे। सिपरस ने इस मुद्दे पर अपने यहां जनमत संग्रह करवाया और उनकी अपेक्षा के अनुरूप जनता ने कठोर शर्तों को ठुकरा भी दिया। यूनानी वित्त मंत्री यानीस वेरौफकीस इस तरह के जनमत संग्रह के खिलाफ थे। जनमत का निर्णय ‘कठोर शर्तें अस्वीकार’ के पक्ष में आते ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया। लेकिन जर्मनी के नेतृत्व में यूरोपीय नेता भी कच्ची गोटियां नहीं खेले थे। उन्होंने अपना रुख और शर्तें और कड़ी कर दीं। दो हफ्ते तक यूनानी बैंक बंद रहे, खजाना खाली था। बैंकों में जिनकी रकम जमा थी, उन्हें भी उनके पैसे नहीं मिल रहे थे। बैंकों के समक्ष कतारें लग गईं, लेकिन लोग खाली हाथ लौटते थे। अफरातफरी का माहौल पैदा हो गया। अब यूनान के समक्ष झुकने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा। साहूकार के समक्ष कर्जदार कब तक खैर मनाएगा। जिन शर्तों के खिलाफ जनमत ने निर्णय दिया, उन्हीं या उनसे भी अधिक कठोर शर्तों को प्रधान मंत्री सिपरस को स्वीकार करना पड़ा। निष्कर्ष यह कि जनमत संग्रह के जरिए दबाव लाने का सिपरस का राजनीतिक दांव विफल हो गया। जिन शर्तों के खिलाफ उन्होंने आवाज उठाई, उनसे भी अधिक कठोर शर्तों को स्वीकार करने के लिए उन्हें अब अपनी संसद के समक्ष जाना होगा। आर्थिक क्षेत्र में राजनीतिक दांवपेंच किस तरह महंगे पड़ते हैं, यह एक बार फिर साबित हो गया। आश्वासन के बल पर चुनाव जीते जा सकते हैं, लेकिन राजनीतिक उठापटख कर आर्थिक क्षेत्र नहीं जीता जा सकता।

इतिहास का दुहराव

इतिहास अपने को दुहराता है, यह इतिहास का एक सिद्धांत है। जर्मनी और यूनान के संबंध में इतिहास ने अपने को ६० साल बाद फिर दुहराया है। यह किस्सा एक सदी पहले से आरंभ होता है। १९१४ में प्रथम विश्व युद्ध के बाद जर्मनी की अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो गई थी। उस पर भारी कर्ज चढ़ गया था। वर्ष १९१९ में वर्सेल में शांति समझौता हुआ और जर्मनी को १९३० तक कर्ज चुकाने की मोहलत दी गई। लेकिन जर्मनी ने यह कर्ज नहीं चुकाया। इसी बीच वैश्विक मंदी और बाद में दूसरे विश्व युद्ध ने हालात बदल दिए। जर्मनी युद्ध में एक बार फिर हार गई और मित्र देशों ने कर्ज चुकाने के लिए तगादा शुरू कर दिया। प्रथम और दूसरे विश्व युद्ध की ३० साल की अवधि में जर्मनी कर्ज के कारण लगभग दीवालिया हो गया था। १९५३ में लंदन में धनको देशों की बैठक में समझौता हुआ और जर्मनी का ५० फीसदी कर्ज माफ कर दिया गया। यह लंदन समझौता १९५३ के रूप में जाना जाता है। इस समझौते का यहां जिक्र करने का कारण यह है कि जर्मनी का ५० फीसदी कर्ज माफ करने वाले इन २० धनको देशों में यूनान भी एक देश था। विडम्बना देखिए कि जिस यूनान ने जर्मनी का कर्ज कभी माफ किया था, उस जर्मनी के आगे यूनान को अब हाथ फैलाने पड़ रहे हैं और जर्मनी है कि कर्ज माफी तो क्या आसान शर्तें तक स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। १९५३ के समझौते में अमेरिका का जर्मनी पर सर्वाधिक कर्ज था, लेकिन अब जर्मनी का यूनान पर सर्वाधिक कर्ज है। अपने यहां अब तक साहूकार की जो छवि रही है, उससे भी अधिक राक्षसी साहूकार जर्मनी बन गया है। यूनानी लोग उसे ‘आधुनिक शायलॉक’ कहते हैं। शायलॉक शेक्सपियर के नाटक का एक साहूकार पात्र है, जो कर्जदार के प्रति बर्बरता की मिसाल है।

कठोर शर्तें

यूनान पर करीब ३२० बिलियन यूरो का कर्ज है। इसके अलावा २०१० से अब तक राहत पैकेज के रूप में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक व अन्य यूरोपीय देशों ने उसे करीब २३३ बिलियन यूरो का कर्ज दिया है। एक यूरो की कीमत करीब ८० रुपये के आसपास है। इससे रुपयों में गणित कर लें तो हमें तुरंत समझ में आएगा कि यूनान कर्ज के गर्त में कितना डूब चुका है। कर्ज की किश्त चुकाने के लिए और कर्ज, इस तरह कर्ज का एक दुष्टचक्र बन चुका है, जो भारत जैसे विकासशील देश के लिए चेतावनी का सबब है।

जर्मनी के नेतृत्व में १९ यूरोपीय देशों ने यूनान पर जो कठोर शर्तें लादी हैं वे संक्षेप में इस तरह है-

-जर्मनी को आर्थिक सुधार करने होंगे। सरकारी क्षेत्र का निजीकरण करना होगा। वैश्वीकरण के इस दांव के पीछे धनकों देशों की कम्पनियों को खुली छूट देना ही इसका मकसद है।

-यूनान को अपने निर्यात की १५ से २० प्रतिशत राशि ॠण की किश्त के रूप में चुकानी होगी। मतलब यह कि निर्यात से यूनान के हाथ कुछ नहीं बचेगा। १९५३ के लंदन समझौते में जर्मनी को मात्र ३ प्रतिशत राशि चुकाने की छूट दी गई थी, वह भी निर्यात आधिक्य की राशि से रकम देनी थी। निर्यात आधिक्य का मतलब है आयात से निर्यात अधिक होने पर बची लाभ की राशि। यह छूट यूनान को नहीं है। उसे आधिक्य से नहीं, निर्यात की रकम से ही किश्त चुकानी है। यह अति हो गई।

-अर्थव्यवस्था को उदार बनाना है। बिजली उद्योग को निजी हाथों में सौंपना हैं। अन्य सरकारी प्रतिष्ठान भी बेचकर निजी कम्पनियों को सौंपने हैंं। विमान सेवा, हवाई अड्डे, आधारभूत उद्योग, बैंकों को निजी हाथों में सौंपना है। इसका मतलब यह कि अमीर देशों की कम्पनियों को खुली छूट देनी है।

-आयकर, मूल्यवर्धित कर (वैट) और अन्य करों में बढोतरी करनी है। बजट को कठोर बनाना है और लोगों की जेबें खाली करनी है। देश के कर्ज में डूबने का यह आम आदमी पर सीधा प्रभाव है।

-रोजगार के क्षेत्र में सुधार करना है। व्यक्ति को काम पर रखने और निकालने की छूट होगी। फिलहाल यूनान में तीन में से एक व्यक्ति बेरोजगार है। इन सुधारों से बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की बन आएगी।

-पेंशन व्यवस्था में सुधार करने हैं। फिलहाल १२ माह काम और १४ माह के वेतन की वहां परंपरा है। अर्थात साल में दो माह का बोनस मिलता है और अन्य सुविधाएं बेहिसाब हैं। व्यक्ति काम पर एक बार लग गया कि उसका पेंशन का हक बनता है, चाहे माह भर काम करने के बाद उसे निकाल क्यों न दिया जाए। यह पेंशन भी सालाना १० हजार यूरो की होती है। वह आजीवन मिलती है। निवृत्ति की उम्र भी पुरुषों के लिए ५५ एवं महिलाओं के लिए ५० वर्ष है। इसके बाद आजीवन पेंशन मिलती है। शर्त यह है कि पेंशन पाने वाला मेहनतकश वर्ग का होना चाहिए। लोगों ने ऐसे जुगाड़ कर लिए कि रेडियो एनाउंसर एवं नाइयों ने भी अपने नाम मेहनतकश वर्ग में दर्ज करा लिए और मुफ्त में मोटी रकम पेंशन के रूप में पा रहे हैं। सेवा क्षेत्र के कर्मचारी भी इसी तरह पेंशन के रूप में सरकारी खजाना लूट रहे हैं। यह सब अब खत्म करना होगा। निवृत्ति की उम्र भी ६७ वर्ष करनी है, ताकि लोग मुफ्त की रोटी तोड़ने के बजाय राष्ट्रीय आय में अपना योगदान कर सके। पेंशन में भी कटौती होनी है।

-अब तक दुकानें या अन्य प्रतिष्ठान बहुत समय तक खुले नहीं रहते। शनिवार और रविवार को छृट्टी तो है ही। वह कम करना है। दुकानें एवं प्रतिष्ठान लम्बे समय तक खुले रखने हैं। रविवार को भी वे अब खुले रहेंगे।

-कर्ज चुकाने के लिए यूनान को अपने कुछ द्वीप या ऐतिहासिक धरोहरें बेचनी होंगी। इस तरह यूनानियों की विरासत की भी धनको देश खुले आम बिकवाली करने पर उतारु हैं।

-सरकारी खर्चों में भारी कटौती करनी है। इससे सामाजिक, शैक्षणिक व अन्य विकास योजनाएं बुरी तरह प्रभावित होंगी।
यूनानी कभी कर चुकाना जानते ही नहीं थे। गुलछर्रे उड़ाना उनका राष्ट्रीय चरित्र बन गया था। सरकारी बजट का काम केवल धन बांटना रह गया था। आमदनी अठन्नी और खर्च रुपैया हो गया। खर्च को पूरा करने के लिए कर्ज लेना और वित्तीय घाटा बढ़ना आम बात हो गई। उपभोक्तावाद के कारण यूनानी अपनी समृद्ध प्राचीन संस्कृति भूल चुके हैं। भारत के लिए भी यह नसीहत है कि अपनी संस्कृति को भूल कर पश्चिम की अंधी नकल कर उपभोक्तावाद में फंसने के क्या परिणाम होते हैं। यूनानियों के यूरोपीय संगी-साथी ही अब उनकी नकेल कस रहे हैं। ‘गार्डियन’ पत्र की टिप्पणी है, ‘इस समझौते से कुछ नहीं होने वाला, बल्कि उसने और नए खतरों को जन्म दिया है।’

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