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जाने वो कौन सा देश, जहां तुम चले गए

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by सुधीर जोशी
in दिसंबर- २०११, व्यक्तित्व
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पंजाब के रोपड़ जिले के दल्ला गांव के लाल जगमोहन का नाम पिता सरदार अमरसिंह धमानी ने क्या बदला, बेटे ने मानो अपने पिता से वादा ही कर डाला। पापा मैं एक दिन जगजीत कर दिखाऊंगा और हुआ भी वही, अपने गुरु के कहने पर अमर सिंह ने अपने बेटे का नाम बदल कर जगजीत सिंह कर दिया और बेटे ने अपनी गायिकी से इतना नाम कमाया कि गजल सम्राट बन गया। गालिब, मीर, मजाज, जोश और फिराक जैसे शायरों की शायरी को अपनी आवाज देने वाले उम्दा गज़लकार जगजीत सिंह आज हमारे बीच नहीं है, गज़लरूपी अंतरिक्ष में ऐसा उम्दा कलाकार फिर शायद ही पैदा हो, पर उनकी धीर-गंभीर आवाज जब भी कानों पर पड़ेगी तो यूं लगेगा कि जगजीत सिंह बिलकुल करीब ही हैं।

उनकी गज़लें हमेशा उनकी उम्दा गायकी का आगाज करती रहेंगी और कहेंगी‡ वो कागज की कश्ती‡ जगजीत सिंह का यूं उनके चाहने वालों को छोड़ कर जाना किस को नहीं हो रहा गवारा। अपनी मख़मली आवाज से उम्दा गज़लों का आगाज कराने वाले अमरसिंह धीमन और बचन कौर के लाडले पुत्र जगनमोहन धीमन उर्फ जगजीत सिंह की हर गज़ल मील का पत्थर बन गई। 70 वर्ष की आयु में लगभग पांच दशक की कालावधि में जगजीत सिंह ने जो भी गज़ल्ें गाईं, वे यादगार हो गईं। संगीत को स्पर्धा से दूर रखने की पैरवी करने वाले सिख परिवार के इस संगीत प्रेमी युवक ने जब गज़ल गायिकी को ही अपनी जीविका का आधार बनाया तो पहले पहल इस क्षेत्र में स्थापित नामों ने खासा विरोध दर्शाया। इस विरोध के कारण जालंधर से मुंबई आए जगजीत सिंह को फिर अपने वतन वापस जाने के लिए मजबूर कर दिया।

मुंबई में रहकर ही अपनी गायिकीं को ऊंचा मकाम दिया जा सकता है, इस बात का दृढ़ विश्वास रखने वाले जगजीत सिंह ने मायानगरी में अपने प्रारंभिक दिन बेहद मुश्किल में निकाले। आज की परेशानी कल का सुख है। इस विचारधारा को अपने जीवन का लक्ष्य समझकर जगजीत सिंह ने वरली के एक अतिसामान्य से होटल में काफी कठिन दिन व्यतीत किए। उन्हें दादर के गुप्ता रेस्टोरेंट के मालिक की कृपा से दो निवाले तो मिल जाते थे, पर जीवन के संघर्षों के झंझावात से उन्हें कभी मुक्ति नहीं मिली। राजस्थान के श्रीगंगानगर में 8 फरवरी, 1941 को जन्मे जगजीत सिंह की गज़लों में खुद के दर्दिले जीवन का अक्स तो नजर आता ही था। साथ ही उनकी गज़लें औरों के दर्द को भी बहुत करीब से अनुभव करती थी। पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा, वो कागज की कश्ती, कभी फुरसत में कर लेना हिसाब, तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो, झुकी-झुकी सी नजर बड़ी नाजुक है ये जैसी गजलों के लब्ज इश्क की गहराइयों को बयां तो करते ही हैं, साथ ही-इश्क टूटने के दर्द को भी बड़े ही उम्दा तरीके से प्रदर्शित करती रहीं हैं।

मुंबई में लंबी जद्दोजहद के बाद गजल गायकी में खुद को स्थापित करने के बाद जगजीत सिंह ने धारा के विरोध में जाकर कुछ ऐसी गज़लें श्रोताओं के समक्ष रखीं तो वे झूमे बगैर नहीं रह सके। 1970 से 1980 की कालावधि में तो हर किसी के जुबान पर जगजीत सिंह का गज़लें ही हुआ करती थीं। लाखों की भीड़ में एकाध ही कोई ऐसा होगा जो यह कहता होगा कि जगजीत सिंह की गज़लों में दम नहीं है। युवाओं की आशिकी का मुख्य आधार बनी जगजीत सिंह की गज़लों में इश्क के हर अंदाज का बड़ी बारीकी से चित्रण किया गया है। अपनी प्रेमिका से प्यार का एजहार, विरह को अपनी आवाज से जगजीत सिंह ने खुद ऐसा बयां किया कि हर प्रेमी युगुल की पहली पसंद जगजीत सिंह की गज़लेें ही बन गईं। ऐसा नहीं कि जिस दौर में जगजीत सिंह गज़ल गायकी के क्षेत्र में उतरे थे, उस वक्त गजल गायकी की कमी थी, उस दौर में नूरजहां, मलिका मुखराज, बेगम अख्तर, तलत मेहमूद, मेंहदी हसन जैसे पाकी गजलकारों का दबदबा था, पर जगजीत सिंह इसलिए हर दिल अज़ीज़ गज़लकार बन गए, गज़ल सम्राट की उपाधि से नवाजे गए, क्योंकि वे सामाजिक बदलाव को अपनी गज़लों का हिस्सा बनाते चले गए। शास्त्रीय संगीत की परंपरागत मान्यताओं की महत्ता को बरकरार रखते हुए अपनी गज़लो में प्रेम, वेदना, व्याकुलता, विरह के भाव को जिस जीवंतता के साथ प्रस्तुत किया है, सचमुच यही भाव उन्हें अन्य गज़ल गायकों से अलग अंतरिक्ष में खड़ा करते हैं। राजस्थान तथा पंजाब की संस्कृति की पारिवारिक पृष्ठभूमि से निकल कर जब जगजीत सिंह ने अपनी गायकी का हुनर दिखाने दूसरी बार मायानगरी में पांव रखा तो उन्होंने पक्का इरादा कर लिया था कि अब चाहे जो हो जाए, मुुंबई से वापस नहीं जाऊंगा। अपने संकल्प पर कायम रह कर जगजीत सिंह ने गज़ल गायिकी की जो दूसरी पारी शुरू की, वह काफी लंबी चली।

भारतीय संगीत के इतिहास में एक बेजोड़ कलाकार का स्तर बनाने वाले जगजीत सिंह की गज़ल यात्रा का सिलसिला 1961 से शुरू हुआ, पर अपनी पहचान बनाने में वे सन् 1976 में पहली बार सफल हुए और उसके बाद से वे आम जनता के मन में कुछ ऐसे रचे बसे कि लोग उन्हें कभी भूल नहीं पाए। ‘द अनफर मॉटेबल्स (1976), बिरहाद सुल्तान (1978), लाइव इन पाकिस्तान (1979), मैं और मेरी तन्हाई (1981), द लेटेस्ट (1982), ऐ मेरे दिल (1983), लाइव एट रॉयल अल्बर्ट हॉल (1983), एमटिसज (1984), ए साउंड अफेयर (1985), एकोज (1986), बियांड टाइम (1987), मिर्ज़ा गालिब भाग एक और दो (1988), गजल फ्रॉम फिल्म्स (1989), मनजीते जगजीत (1990), मेमोरेबल गजल्स ऑफ जगजीत एंड चित्रा (1990), समवन समवेअर (1990) सजदा (लता मंगेशकर के साथ गाई गईं गज़लें) (1991-92), विजन्स भाग एक दो (1992), इनसर्च (1992), रेयर जेम्स (1992), फेस टू फेस (1993), युवा चॉइस (1993), चिराग (1993), डिजायर्स (1994), इनसाईट (1994), क्राय फॉर क्राय (1995), युनिक (1996), कम अलाइव इन ए कॉन्सर्ट (1998), लव इज ब्लांइड (1998), सिलसिले (गीत-जावेद अख्तर) (1998), मरसिम (गीत-गुलजार 1999), जाम उठा (1999), सहर (2000), संवेदना (भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की कविताओं पर आधारित). सोझ (गीत-जावेद अख्तर 2002), फॉरगॉट मी नॉट (2002), मुंतजिर (2004), जीवन क्या है? (2005), तुम तो नहीं हो (गीत-बशीर बद्र) 2005), लाइफ स्टोरी (2006), बेस्ट ऑफ जगजीत एंड चित्रा सिंह, कोई बात चले (गीत- गुलजार), जज्बात (2008), इंतेहा (2009), आईना (2009), वक्रतुंड महाकाय (2009), फिल्मी गायन- प्रेम गीत (1981), अर्थ (1982), साथ-साथ (1987), पिंजर दुश्मन।

दु:खो भरा रहा जीवन का सफर

‘तुम इतना क्यों मुस्कुरा रहे हो’ के विपरीत जगजीत सिंह का जीवन काटों, दु:खो में व्यतीत हुआ। जगजीत सिंह की गज़लें सुनने वालों को मोहित, आनंदित काती रहीं हों, पर उनकी गज़लें अपने दर्द का भी बयां करती नजर आती हैं।

दरबारी परंपरा से निकल कर जगजीत सिंह ने जब अलग राह पकड़ी तो लगा कि यह गायक अलग प्रवाह का है, उन्होंने अपनी पहचान इसी प्रवाह के कारण बनाई, पर लगता है कि भगवान ने इस उम्दा कलाकार के लिए परेशानियों का विशाल पहाड़ ही बना रखा था, तभी तो उनका 18 वर्षीय बेटा विवेक 1990 में एक सड़क दुर्घटना में मारा गया और 2009 में जगजीत सिंह की मानस कन्या मोनिका चौधरी (चित्रा को पहले पति से हुई संतान) ने आत्महत्या कर ली और इन सभी दु:खों को सहन करते हुए दर्दिली गज़लें सुनाने वाले जगजीत सिंह मन ही मन इतने दु:खी हुए और उन्हें ब्रेन हैमरेज जैसा भयंकर रोग हो गया और इस रोग ने गज़ल सम्राट की सांसें रोक लीं। 10 अक्टूबर को जैसे ही इस महान कलाकार की मौत की खबर आई तो बरबत उनकी गज़ल की येे पंक्तियां याद आ गईं कि-

चिट्ठी न कोई संदेश, जाने वो
कौनसा देश, जहां तुम चले गए
‡‡‡‡‡‡‡‡‡‡‡‡‡‡‡‡‡‡

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