गंगा की अस्मिता को बचाइए

गंगा साक्षात नारायण स्वरूपा है। उनका अमृतरूपी जल असंख्य वर्षों से समस्त जीवधारियों का पोषण कर रहा है। गंगा जल की शक्ति, तत्व व महत्व अनंत है। मां गंगा मानव के जन्म से मृत्यु तक जुड़ी हुई है। कोई भी पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन, अनुष्ठान, अभिषेक गंगाजल बगैरे कदापि संभव नहीं है। गंगा जल में ऑक्सीजन व अन्य पोषक तत्वों की मात्रा अधिक होने के कारण वह मानव शरीर को पुष्ट करने में अत्यधिक गुणकारी व औषधि स्वरुपा है। मां गंगा गोमुख से पश्चिम बंगाल तक लगभग २५०० कि.मी की यात्रा करती है। गंगा के बेसिन में लगभग ४० करोड़ मानव व ३० करोड़ पशु पोषित होते हैं। यह हमारी राष्ट्रीय धरोहार है। भारतीय संस्कृति में गंगा माता के रूप में और गंगा जल मुक्तिदाता के रूप में प्रचलित है। यह हमारी आस्था है और आस्था का स्थान बौद्धिक, वैज्ञानिक तर्कों व आर्थिक हितों से कहीं ऊपर होता है। क्योंकि वह मुक्तिदायिनी व जीवनदायिनी होने से इसे मैय्या कह कर संबोधित किया जाता है। आदि महाकवि बाल्मीकि, तुलसीदास, कालिदास व वेदव्यास आदि ने गंगा को परम पवित्र, सुखदायिनी, पीड़ा शमन करने वाली व स्वर्ग दिलाने वाली माना है। भारतीय सनातन पौराणिक कर्मकाण्डों में गंगा जल को अमृत के समान माना गया है। वस्तुत: गंगा जल भी एक-एक बूंद अमृततुल्य है। पुराणों के अनुसार जिस संस्कार में गंगा जल का वास नहीं होता है वह निस्फल हो जाते हैं। भगवान राम, वशिष्ठ, विश्वमित्र, राजा सगर, राजा हरिश्चन्द्र आदि के अलावा असंख्य ऋषियों व मर्हार्षयों को ज्ञान, ध्यान, योग व मुक्ति का पथ दिखाने वाली मां गंगा ही तो है।

विडम्बना है कि आज हम सभी की आराध्य गंगा नदी में जल दिन -प्रतिदिन कम होता चला जा रहा है। क्योंकि गंगा के किनारे बांध बना कर अनेक जल विद्युत परियोजनाएं संचालित की जा रही हैं। गंगा से जुड़ी आस्था के साथ छेड़छाड़ करने की हिम्मत ब्रिटिश शासन तक नहीं कर पाया था परन्तु गंगा की गोद में पली-बढ़ी हमारी सरकारें इसकी किंचित भी परवाह नहीं कर रही हैं। इसके अलावा पिछले लगभग ५० वर्षों से गंगा नदी में जबरदस्त प्रदूषण फैलाया जा रहा है। धोबी घाटों की भरमार, मानव मल-मूत्र, कल कारखानों का केमिकलयुक्त जहरीला जल, शवों को जल में प्रवाहित करना अथवा अंत्येष्ठि के पश्चात अस्थियां व भस्म आदि डालना गंगा जल को विषाक्त बना रहा है। जिससे जलचरों का जीवन खतरे में है। इसके लिए न केवल हमारी सरकारें अपितु हम सभी भी दोषी हैं। आखिर यह किसने, किसको अधिकार दिया है कि हजारों वर्षों की हमारी पौरोणिक विरासत को हमसे छीन कर सदा- सर्वदा के लिए नष्ट कर दिया जाए और हम अवाक्, मौन और निष्कर्म होकर देखते भर रहे। गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए सन् १९८५ में बनी गंगा कार्य योजना की शुरूआत वाराणसी से हुई थी। प्रारम्भ में यह सोचा गया था कि आगामी छह – सात वर्षों में हम अपने निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे परन्तु सात वर्ष बीत जाने पर भी गंगा की स्थिति में जब कोई सुधार नहीं हुआ तो सन १९९३ में गंगा एक्शन प्लान का दूसरा चरण इस संकल्प के साथ घोषित किया गया कि हम सन २००० तक गंगा को प्रदूषणमुक्त कर देंगे, परन्तु जब यह नहीं हो पाया तो योजना सन् २००८ तक बढा दी गई। साथ ही नवम्बर सन् २००८ को गंगा को राष्ट्रीय नदी भी घोषित कर दिया गया। अब तक गंगा कार्य योजना पर लगभग २००० करोड़ रुपये से भी अधिक खर्च हो चुका है परन्तु गंगा जल स्वच्छ होने के बजाय और अधिक प्रदूषित होता जा रहा है। वस्तुत: आज गंगा कार्य योजना संदेह के घेरे में आ गई है। लोगों ने गंगा के नाम पर करोड़ों रुपयों का खर्च कागज पर दिखाकर और बार-बार जो अपराध किया है उसे मां गंगा कदापि माफ नहीं करेंगी। विभिन्न राजनैतिक दल वोटों की राजनीति के चलते फोटो खिंचवाने एवं अखबारों में संबधित समाचार प्रकाशित करने तक सीमित है। स्वयंसेवी संस्थाएं भी अपने दायित्वों का सही निर्वाह नहीं कर रही हैं। सभी मां गंगा के नाम पर धन व नाम कमाने में लिए हैं। संसद की लोक लेखा समिति ने अपनी रिपोर्ट में यह स्पष्ट लिखा है कि गंगा कार्य योजना से गंगा और अधिक प्रदूषित हुई है और गंगा जल तेजाब बन गया है।

पूर्व प्रधान मंत्री मा. मनमोहन सिंह जी ने यद्यपि गंगा को राष्ट्रीय नदी अर्थात राष्ट्रीय धरोहर घोषित कर दिया था, फिर भी इससे मकसद पूरा होता दिखाई नहीं दे रहा है। क्योंकि इसके संपोषण में पुरातत्व विभाग के नियमों का गंभीरता के साथ पालन नहीं किया जा रहा है। जबकि गंगा हमारी सांस्कृतिक विरासत है और इस विरासत को सहेजना हमारी नैतिक जिम्मेदारी है। पहले लोग गंगा की कसमें खाते थे, परन्तु अब गंगा के संबंध में लोगों की संवेदनशीलता कम होती जा रही है। सच तो यह है कि गंगा को प्रदूषित करने वाले व्यक्ति न केवल स्वयं पर अपितु समूची प्रकृति, मानवता व आस्था पर अत्याचार करते हैं।

एक समय ब्रिटेन की टेम्स नदी को मरी हुई नदी माना जाता था। सन् १८५८ में इससे ऐसी दुर्गन्ध आती थी कि हाउस ऑफ कॉमन्स की बैठकें तक रद्द करनी पड़ती थीं। तब ब्रिटिश सरकार के प्रयासों से इसे नवजीवन मिला। इसी तरह सन् १९६० में अमेरिका की पोटामैक नदी को खुला सीवर कहा जाता था। अमेरिका के राष्ट्रपति लिंडन जानसन ने इसे देश के मस्तक पर काला धब्बा कहा और इसे बचाने के लिए महत्वाकांक्षी योजनाएं क्रियान्वित की गईं। आज यह नदी अमेरिका की प्रमुख विरासत है। ५० वें दशक में राइन नदी में मछलियां मरने लगी थीं लेकिन यूरोप के कई देशों ने मिलकर इस नदी को नया जीवन प्रदान किया। ऐसी ही कुछ कहानी फ्रांस की सीन नदी की भी है। यदि ये सभी देश अपनी अपनी नदियों को नवजीवन दे सकते हैं तो गंगा को मां मानने वाला भारत उसे नया जीवन क्यों नहीं दे सकता?

आवश्यकता है, हम सभी गंगा में व्याप्त प्रदूषण को दूर करने और उसकी अस्मिता की रक्षा करने का संकल्प लें।

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