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सिंहस्थ मेला ऐतिहासिकता एवं उपादेयता

सिंहस्थ मेला ऐतिहासिकता एवं उपादेयता

by डॉ. दिनेश प्रताप सिंह
in अगस्त-२०१५, सामाजिक
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धर्मप्राण भारत के जनजीवन में कुम्भ, अर्धकुम्भ तथा सिंहस्थ का एक विशिष्ट स्थान है। ये पर्वहमें हजारों साल प्ाुरानी स्मृति और परम्परा से जोड़ते हैं। विविध विशेषताओं से तथा पौराणिक गाथाओं से संबंधित और श्रीमद्भागवत, विष्णु प्ाुराणतथा अन्य प्ाुराणों के अंतर्गत कथा-दृष्णांतों द्वारा प्ाुष्ट कुम्भ महापर्व प्रत्येक बारह वर्षों के उपरांत प्रयाग, उज्जैन, नासिक तथा हरिद्वार में आयोजित होता है। इसी तरह हरेक छह वर्षों के अंतराल पर हरिद्वार तथा प्रयाग में अर्धकुम्भ और उज्जैन तथा नासिक में सिंहस्थ का आयोजन किया जाता है।

कुम्भ का अर्थ है- कलश। भारतीय संस्कृति में कलश को अत्यंत मंगलकारी माना जाता है। इसका तात्विक अभिप्राय है-जगत कल्याण की भावना से प्रेरित होकर दोषों को दूर करना। इसे सृष्टि का प्रतीक भी माना जाता है। कुम्भाकार पांच तत्वों में इसकी रचना करता है। उन्हीं पांच तत्वों से ब्रह्मा सृष्टि की संचरना करते हैं। कुम्भ के बारे में कहा गया है कि उसके मुख में विष्णु, कण्ठ में रुद्र, मूल में ब्रह्मा, मध्य में मातृगण, अंतवस्था में समस्त सागर, पृथ्वी में निहित सप्तद्वीप तथा चारों वेदों का समन्वयात्मक स्वरूप विद्यमान होता है।

देश के लोक जीवन में संस्कृति और परम्परा से जुड़े हुए पर्व और मेले अपना विशिष्ट महत्व रखते हैं। कुम्भ, अर्धकुम्भ और सिंहस्थ इसी परम्परा की एक कड़ी हैं। पौराणिक कथाओं में इनको अत्यन्त मांगलिक और कल्याणकारी पर्व के रूप में निरुपित किया गया है। कुम्भ के विषय में प्ाुराणों में कई कथाएं हैं। उनमें से एक कथा के अनुसार देव और दानवों ने अपने प्ाुराने वैमनस्य को त्याग कर सागर की अतल गहराइयों में स्थित वैभवशाली वस्तुओं की प्राप्ति की कामना से समुद्र-मंथन करने का संकल्प लिया। सागर का अन्वेषण कोई साधारण कार्य नहीं था। विलक्षण शक्ति से देवों और दानवों के संगठन कौशल, श्रम एवं तपश्चर्या की परीक्षा थी। उन्होंने अदम्य साहस के साथ मन्दराचल पर्वत को मथनी और सर्पराज वासुकि को रस्सी के उपयोग हेतु आमंत्रित किया। भीषण मंथन के उपरांत सागर से रत्नों का बाहर आना शुरू हुआ। लक्ष्मी, कौस्तुम मणि, पारिजात, सुरा, धन्वन्तरि वैद्य, चन्द्रमा, कामधेनु, सुरेश्वर, रम्भादि देवांगनाएं, सप्तमुखी उच्चैःश्रवा अश्व, विष, हरि धनु, पाञ्चजन्य शंख और अंत में अमृत भरा कुम्भ प्रकट हुआ। अमृत कुम्भ पर अधिकार पाने के लिए देव-दानवों में य्ाुद्ध शुरू हो गया। यह य्ाुद्ध बारह दिनों (मनुष्य लोक के बारह वर्षों) तक चला। संग्राम के बीच इन्द्र का प्ाुत्र जयंत कुम्भ लेकर भागता रहा और दानव उसे पकड़ने का यत्न करते रहे। संग्राम में जयंत और दानवों में चार स्थानों में पर छीना-झपटी हुई, जहां पर अमृत की कुछ बूंदें कुम्भ से छलक कर गिर गईं। ये स्थान तीर्थ के रूप में प्रतिस्थापित हुए और इन्हीं तीर्थों में कुम्भ, अर्धकुम्भ और सिंहस्थ का आयोजन किया जाता है।

कुम्भ तथा सिंहस्थ का आयोजन सूर्य के विशेष राशि में प्रवेश करने के अनुसार किया जाता है। विष्णु प्ाुराण के अनुसार –

सिंहे गुरौ तथा सूर्यः चन्द्रश्चन्द्रक्षयस्तथा।
गोदाकर्मा तथा कुम्भः जामतेडकनिमण्डले॥

अर्थात बृहस्पति, सूर्य और चन्द्र तीनों ग्रह जब सिंह -राशि में संचरित होते हैं, तो गोदावरी के तट पर स्थित नासिक में इस महापर्व का आयोजन होता है। नासिक अत्यंत पवित्र क्षेत्र है, किन्तु सिंहस्थ (कुम्भ) त्र्यंबकेश्वर में आयोजित किया जाता है। प्ाुराणों के अनुसार-

सिंहस्थे तु समायाते नचस्तीभीनी देवता।
तीर्थराजे कुशावर्तेस्नानुमायांति यत्नतः॥
त्र्यंबकंक्षेम भेकातः तु विशिष्टते।
यत्र गोदा सभुतभूता सर्व पाप प्रणाशिनी॥

अर्थात सिंहस्थ काल में तीर्थराज कुशावर्त में देवता भी स्नान करने की कामना करते हैं। त्र्यंबक का विशेष महत्व है। यहीं पर गौतमी गंगा को गोदा नामकरण किया गया था।

कुम्भ, अर्धकुम्भ और सिंहस्थ का आयोजन अति प्राचीन काल से होता आ रहा है। इसकी प्राचीनता के साथ ही महत्ता को स्पष्ट करने वाला यह श्लोक प्रायः उद्धृत किया जाता है –

अश्वमेध सहस्त्राणि वाजपेयशतानि च।
लक्षम् प्रदक्षिणाः पृथव्याः कुम्भस्नानेनताफलम्॥

एक हजार अश्वमेध, सौ वाजपेय यज्ञ करने और पृथ्वी की एक लाख बार प्रदक्षिणा करने से जो प्ाुण्य प्राप्त होता है, वही प्ाुण्य कुम्भ में स्नान करने से मिलता है।

कुम्भ पर्व के समय प्ाूरे विश्व से आए हुए आस्थावान व्यक्तियों, साधु-संन्यासियों का महामिलन, आध्यात्मिक चेतना को जगाता है। परम्परा के अनुसार शाही स्नान के दिन साधु-संतों के अखाड़े पहले स्नान करते हैं। कुल तेरह अखाड़ें हैं, जो क्रमानुसार स्नान करते हैं- दसनामी संन्यासियों के सात अखाड़े- निरंजनी, जूना, महानिर्वाणी, आनन्द, आग्न, आह्वान, अटल, वैष्णवों के तीन अखाड़े – निर्वाणी अनी अखाड़ा, दिगम्बर अनी अखाड़ा, निर्मोही अनी अखाड़ा। (इसके अन्तर्गत छोटे-बड़े कुल अठारह अखाड़ें हैं) उदासीन के दो अखाड़े – बड़ा उदासीन पंचायत अखाड़ा, नया उदासीन अखाड़ा और एक सिखों का निर्मल अखाड़ा है। स्नानपर्वों के साथ ही लगभग एक महीने तक चलने वाले इस आध्यात्मिक मेले में हजारों की संख्या में बने आश्रमों, शिविरों, पण्डालों में कथा-प्रवचन, साधना, सत्संग, संकीर्तन देश के नाना जाति-वर्ण-भाषा-संस्कृति – साहित्य का अद्भुत दृश्य उपस्थित होता है। पर्व की फलश्रुति के रूप में श्रद्धालु सत्संग प्राप्त करके धन्य हो जाते हैं। भारत वर्ष के विशाल भू-भाग से आने वाले स्नानार्थियों का संमेकित स्वरूप इस पर्व की विशिष्टता को बढ़ा देता है। विभिन्न पारम्परिक वेश-भूषा, बोली-बानी, खान-पान के साथ सामाजिक समन्वय का अद्भुत दृश्य उपस्थित होता है। कुशावर्त में एक डुबकी लगाकर मोक्ष पाने की कामना लेकर आने वालों में बड़े-छोटे, धनी-निर्धन, शहरी-ग्रामीण, शिक्षित- अशिक्षित होने का भाव तिरोहित हो जाता है।

त्र्यंबकेश्वर में सिंहस्थ काल सोमवार, आषाढ़ तृतीया शक संवत् १९३७ तदनुसार १२ जुलाई, सन् २०१५ से गुरूवार श्रावण शुक्ल अष्टमी शक संवत १९३८ तदनुसार ११ अगस्त, सन् २०१६ तक रहेगा। इस कालखण्ड में सभी पर्वों पर कुशावर्त में स्नान का प्ाुण्य प्राप्त होगा।
गौतमी (गोदावरी) तट पर स्थित त्र्यंबकेश्वर का महात्म्य बताते हुए महर्षि कश्यप ने भगवान श्रीराम से कहा –

राम राम महाबाहो यदकाश्यम कुरू यत्नतः।
सिंहस्थे सुरगुरी दुर्लेभम् गौतमी जलम॥
यत्र कुभापि राजेन्द्र कुशावर्त विशेषतः।
तव भाग्येन निकट वर्तने ब्रह्मभुघर॥
सिंहस्मोपि समामातस्त गत्वा सुखी भव।
भाकद्भ्मोंति सिंहस्थस्ताकनिष्ट ममाशमा॥
सिंहस्थे तु समाकते राम कश्यप संभुतः।
त्र्यम्बक क्षेत्र मागम्य तीर्थायात्रा चकार॥

डॉ. दिनेश प्रताप सिंह

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