गोयन्का गुरुजी का धम्मदान

भगवान बुद्ध कहते हैं, ‘सब्बदानं धम्मदानं जिनासि’। इसका अर्थ है, सब दानों में धर्म का दान श्रेष्ठतम है। दान की महिमा का वर्णन अपने धर्मशास्त्रों में बहुत प्रकार से किया गया है। दानशूर व्यक्तियों की, महात्माओं की कथायें भी अनेक हैं। महारथी कर्ण को महादानी माना गया है। राजा शिबि कें स्वशरीर के दान का किस्सा भी हम सबको मालूम है। अनेक धनवान लोक अपनी सम्पत्ति का दान श्रेष्ठकार्य के लिए करते हैं। भगवान बुद्ध के जीवनकाल में ऐसे अनेक महादानी हुए। उनमें अनाथपिंडक का नाम बुद्ध साहित्य में बारबार आता है। अनाथपिंडक अत्यंत धनवान व्यापारी था। उसने राजपुत्र से जैतवन खरीद लिया। राजपुत्र ने जितनी जमीन चाहिए उतनी जमीन सोने से ढंकने के लिए कहा। अनाथपिंडक ने वैसा ही किया। दूसरी महादानी थी, मिगारमाता विशाखा। विशाखा बौद्ध संघ के लिए वस्त्र, अन्न की व्यवस्था करती थीं। संपत्तिदान, अन्नदान, वस्त्रदान श्रेष्ठ तो हैं ही, लेकिन भगवान बुद्ध कहते हैं, धर्मदान श्रेष्ठतम दान है। भगवान बुद्ध ऐसा क्यों कहते हैं? प्रश्न के उत्तर के लिए पू. सत्यनारायण जी गोयन्का और उनके धम्मदान के कार्य को जानना पड़ेगा।

हम सब जानते हैं कि, प्रत्येक जीवमात्र की यह स्वाभाविक प्रेरणा होती है कि उसे सुख मिले। सुख प्राप्ति के लिए प्राणी जगत के सभी जीव प्रयत्न करते रहते हैं। मनुष्य भी सुख प्राप्ति के लिए प्रयत्न करते रहता है। कोई भी मनुष्य दु:ख प्राप्ति के लिए प्रयास नहीं करता। लेकिन क्या मनुष्य सुख प्राप्त करने में सफलता हासिल करता है?

पू. गोयन्काजी अपने जीवन के उदाहरण से बताते हैं, वे ब्रह्मदेश में एक सफल व्यापारी थे। व्यापार के कारण विश्व में उनका प्रवास होता रहता था। ब्रह्मदेश में वे एक गणमान्य व्यक्ति थे। ऐसे में उन्हें ‘माइग्रेन’ की बीमारी हो गई। उपचार के लिए ‘मॉर्फिया’ जैसे नशीले पदार्थ की सुई दी जाती है। एक बार बर्मी सरकार के एटर्नी जनरल ऊ छा ठून से उनकी मुलाकात हुई। उन्होंने कहा कि माइग्रेन की बीमारी साइकोसोमेटिक है यानी शरीर और चिंता के संयुक्त विकारों से संबंधित है और विपश्यना साधना से यह बीमारी ठीक हो सकती है। उन्होंने गोयन्का जी की मुलाकात विपश्यना के आचार्य ऊ बा खिन जी से करवाई। ऊ बा खिन जी के मार्गदर्शन में दस दिवसीय विपश्यना शिविर गोयन्का जी ने किया। उनकी सिरदर्द की बीमारी समाप्त हो गयी। धीरे‡धीरे विपश्यना का अभ्यास करते‡करते पूज्य श्री गोयन्का गुरुजी को धर्मज्ञान हो गया। आगे का हाल उन्ही के शब्दो में‡
‘‘शिविर समापन पर आश्चर्यजनक लाभ तो यह हुआ कि वर्षों पुराने माइग्रेन के रोग से और उसके लिए ली जाने वाली मॉर्फिया की सुई से सदा के लिए छुटकारा मिल गया। मैं सोचता ही रह गया कि यह सब कैसे हुआ? क्या यह जादू था या चमत्कार? परंतु साधना का अभ्यास करते-करते यह सच्चाई समझ में आने लगी कि जब-जब मन किसी भयंकर विकार से अभिभूत हो उठता था, तब-तब माइग्रेन का आक्रमण होता था। अब जबकि ऐसे विकारों से मुक्ति मिल गयी, तब भला माइग्रेन का आक्रमण क्यों होता, कैसे होता?

केवल माइग्रेन से छुटकारा पाने के कारण ही मैंने सदा के लिए विपश्यना स्वीकार नहीं की, बल्कि जब काम, क्रोध और अहंकार जैसे मेरे भयावह दुश्मन शनै: शनै: दूर होते गये, तब इस बड़ी उपलब्धि के कारण मैं सदा के लिए विपश्यना साधना से जुड़ गया।

थोड़े शिविर करने के बाद ही आगे जाकर सौभाग्य से मुझे 14 वर्षों का सुअवसर मिला जिसमें मैं गुरुदेव के चरणों में बैठ कर विपश्यना के गहरे समुद्र में डुबकियां लगता रहा। साथ-साथ उनके आदेशों के अनुसार भगवान बुद्ध की मूलवाणी का भी अध्ययन करता रहा।

विपश्यना करने के बाद जब गुरुदेव ने भगवान बुद्ध की वाणी पढ़ने का आदेश दिया, तब श्रद्धेय आनन्दजी द्वारा दी गयी धम्मपद पुस्तक पहली बार पढ़ कर देखी। उसे पढ़ते-पढ़ते मेरे मानस में प्रसन्नता की लहरें उठने लगीं। मैंने देखा कि धम्मपद का एक-एक पद अमृत ही अमृत से भरा हुआ है।’’

पूज्य श्री गोयन्का गुरुजी के पूज्य गुरु ऊ बा खिन ने उन्हें आदेश दिया कि विपश्यना विद्या को भारत में सिखाया जाए। भारत से यह विद्या बर्मा में आयी। भारत से यह विद्या कुछ कारणों से लुप्त हो गई। भगवान बुद्ध की यह विद्या पुन: भारत को लौटानी चाहिए। गुरुदेव, सयाजी, ऊ बा खिन यह बार-बार कहा करते थे कि, सदियोंं पहले भारत ने हमें विपश्यना साधना के अनमोल रत्न का दान किया है। उसे हमें आदरपूर्वक लौटाना है। गुरुदेव का आदर्श शिरोधार्य मानकर धर्मदान देने के लिए गोयन्का गुरुजी भारत आए। साल था 1969। अब उसे 44 साल बीत चुके हैं।

पूज्य श्री गोयन्का गुरुजी के मार्गदर्शन में कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। 1969 के पहिले शिविर मेंं केवल 13 लोग थे। वर्तमान स्थिति ऐसी है कि, ‘‘आज भारत तथा विदेशों में लगभग 1,600 शिविरों से 80,000 लोग प्रति वर्ष लाभान्वित हो रहे हैं। यह संख्या प्रति वर्ष बढ़ रही है।’’ यह अपने आप में एक महान कार्य है।’’

मनुष्य सुख चाहता है। लेकिन उसे सुख की प्राप्ति नहीं होती। ऐसा क्यों होता है? साधारणत: मनुष्य सुख की खोज बाहरी पदार्थों में करता है। उसे देखकर मन में अनुकूल प्रतिकूल भावनाएं उत्पन्न होती हैं। अनुकूल भावना से आनंद होता है। प्रतिकूल भावना से दु:ख होता है। हर व्यक्ति का यह स्वभाव बन जाता है। और, यही दु:ख का मूल कारण है। मन के भावों को शुद्ध करना सुख के लिए आवश्यक है। हम देखते हैं कि असंख्य प्रकार के भौतिक सुखों को प्राप्त करते हुए भी मनुष्य आत्महत्या करता है। मर्लिन मुन्रो विश्व की अत्यंत सुंदर अभिनेत्री थी। सभी प्रकार के भैतिक सुख उसके पास थे। पैसा था, कीर्ति थी, और लोग उसकी एक झलक पाने के लिए पागल हो उठते थे। लेकिन एक दिन अचानक खबर आयी मर्लिन मुन्रो ने आत्महत्या कर ली है। इस प्रकार की आत्महत्या की घटनाएं अपने देश के भीतर भी होती हैं। आत्महत्याओं का सिलसिला स्कूली बच्चों तक पहुंच गया है। कम उम्र में ही बालक मानसिक तनाव से ग्रस्त हो जाते हैं। आगे चलकर वे अपने जीवन की समाप्ति करते हैं। मन का संतुलन खो जाने से सभी प्रकार के दु:खों का उद्गम होता है।

धम्मपद का पहला श्लोक ऐसा है‡
मनोपुब्बंगमा धम्मा मनोसेट्ठा मनोमया
मनसा चे पदुट्ठेन भासति वा करोति वा
तनो नं दुक्खमन्वेति चक्कं व वहनो पदं…1

मनोपुब्बंगमा धम्मा मनोसेट्ठा मनोमया,
मनसा चे पसन्नेन भासति वा करोति वा
तनो नं सुखमन्वेति छाया व अनपायिनी…2

इसका अर्थ है, हम जो कुछ हैं वह सब मन के कारण है। जिस प्रकार रथ को खींचने वाले बैल के पीछे चक्र घुमा करते हैं, उसी प्रकार मन के पीछे हमारी सुख-दु:ख की भावनायें दौडती रहती हैं। कुबुद्धि से जो मनुष्य वार्तालाप करता है, उसे दु:ख होता है। और जो मनुष्य सुविचार से बर्ताव करता है उसे छाया की तरह सुख का साथ सदैव रहता है। भगवान बुद्ध का कहना है कि हमारे सुख-दु:ख के कारण हमारे मनोभाव हैं। मनोभाव को जानने का शास्त्रशुद्ध मार्ग भगवान गौतम बुद्ध ने खोज निकाला। इस मार्ग का वे लोगों को उपदेश करते रहे। पूज्य श्री गोयन्का गुरुजी ने इस मार्ग को भारत में फिर से पुनरुज्जीवित किया है।
एक बार धर्म ज्ञान होने के बाद हर व्यक्ति अपने सुख का मार्ग स्वयं ही खोज लेता है। विद्या ऐसी देनी चाहिये, जो अज्ञान दूर करें और व्यक्ति को सभी बंधनों से मुक्त कर सकें। इसी कारण धर्म दान को श्रेष्ठतम दान कहा गया है। जो दान प्राप्त करता है उसकी विद्या बढ़ती जाती है और जो दान देता है उसका पुण्य संचय बढ़ता जाता है। इसी कारण धर्मदान लेने वालों तथा देने वालों दोनों को सुख देता है।

आचार्य गोयन्का गुरुजी के धर्म दान के कारण हर साल एक लाख लोग लाभान्वित होते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि, एक लाख लोग, प्रति वर्ष अज्ञान और अविद्या से मुक्ति के पथिक बनते हैं। उनका मन शांत हो जाता है। विपश्यना विद्या को ग्रहण करने वाला कभी‡

* आत्महत्या नहीं करता।
* आतंकवादी नहीं बनता।
* धर्मांध कट्टरपंथी नहीं बनता।
* पर्यावरण के लिए संकट पैदा नहीं करता।
* भोगवादी नहीं बनता।
* खूनखराबा करनेवाला नहीं बनता।
* मादक पदार्थ सेवन करनेवाला नहीं बनता।
* वासना का शिकार नहीं हो सकता।
* मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा इन चार मनोभावों को ग्रहण कर सब
के मंगल की कामना करता रहता है।
* किसी भी धर्म का अभिनिवेश उसके मन में पैदा नहीं हो सकता
क्योंकि विश्व का धर्म एक ही है यह उसकी अनुभूति होती है।

मनुष्य जाति की सेवा इससे अधिक मात्रा में और कोई नहीं कर सकता। अपने चारों ओर नजर डाले तब हमें दिखाई देगा कि सब प्रकार की अशांति है। व्यक्ति अशांत है, परिवार अशांत है, समुदाय अशांत है, प्रदेश अशांत है और देश भी अशांत है। धार्मिक कट्टरता कम होने का नाम नहीं लेती। धर्मांतरण करना ईसाई अपना मौलिक धार्मिक अधिकार मानते हैं। इस्लामी लोग बार-बार जिहाद का नारा लगाते हैं। यहूदी (ज्यू‡ हिब्रू वंश का धर्म) धर्म को नष्ट करने का अरब देश बार-बार प्रयास करते हैं। सैम्युअल हंटिगटन ने ‘क्लैश ऑफ सिविलायजेशन’ नामक अपनी पुस्तक में ईसाई जगत और इस्लामी जगत के संघर्ष की बात रखी है। इराक, अफगानिस्तान पर अमेरिका हमला कर चुका है और अब ईरान पर हमला करने की उसकी तैयारी है। पर्यावरण संकट दिन‡प्रति‡दिन बढता जा रहा है। मानव जाति के अस्तित्व के लिए ये सारे खतरे हैं।
जैसा कि भगवान बुद्ध ने कहा है, सभी सुख दु:खों का उगम स्थान मन होता है। इसीलिए मन को वश करना चाहिए, विश्व ठीक हो जाएगा। भगवान गौतम बुद्ध का वचन है‡

सब्बपापस्स अकर्नम
कुशलस्स कुपसंपदा
सचिन्तपरोयोदापनम
येतम बुद्धान सासन्म

इसका मतलब होता है, कोई पाप नहीं करना, कुशल कर्म करते रहना, चित्त शुद्ध रखना। यही बुद्ध का शासन है यानि धर्म है। आचार्य गोयन्का गुरुजी इसी मार्ग का दान देते हैं। सेवा के अनेक प्रकारों में मनुष्य को सच्चे अर्थ में मनुष्य बनाना, अपने भीतर की शक्ति की खोज करने के लिए उसे प्रेरित करना यह महान सेवा है। भगवान गौतम बुद्ध के जीवन का एक प्रसंग है। सारांश में प्रसंग को इस प्रकार बताया जा सकता है। भगवान गौतम बुद्ध को उल्टे‡सीधे प्रश्न करने वाले एक शिष्य को तथागत दृष्टांत देते हैं। किसी एक व्यक्ति को जहरीला तीर लगा है। वह निकाला नहीं गया तो वह मरेगा। अगर वह व्यक्ति चिकित्सा करने वाले से पूछे कि, चिकित्सा करने के पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दो- यह तीर किसने मारा है? कहां से मारा है? तीर में कौनसा विष लगाया गया था? प्रश्न सुनकर चिकित्सा करनेवाला वैद्य जवाब देगा कि ऐसे मूर्खतापूर्ण प्रश्न मुझे मत पूछो। मेरा काम सबसे पहले तुझे इस विष से मुक्त करना है। मैं तेरे प्रश्नों के जवाब देता रहूं तो तू मर जाएगा।

इस समय की आवश्यकता मनुष्य जाति को जीवित रखने की है। उसका एक इलाज पूज्य श्री गोयन्का गुरुजी धर्मदान से कर रहे हैं।
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