पेड -पौधों के साथ बानाईये भावनात्मक रिश्ते


भारत के ऋषि मुनियों ने प्राचीन काल से पर्यावरण के बारे में विचार किया था। भारत वासी नदी, तालाब, कुओं, पीपल, बरगद, आम, नीम, चिचिडा, कैथा, बेल, ऑवला, अर्जुन और अशोक के वृक्षों को पूजनीय और वंदनीय मानते हैं। प्रत्येक वृक्ष की पूजा के लिए माह तथा दिन भी निर्धारित किया गया है। तुलसी के पौधे को अपने घर के आंगन में प्रस्थापित कर नित्य दीप जलाकर पूजा करते हैं। अच्छा होता कि हम सभी पेड़-पौधाेंं के साथ भावनात्मक रिश्ता बनायें। पिता व पुत्र तथा अन्य रिश्तों की भांति उनकी देखभाल करें। आखिर पेड़-पौंधे भी इस रिश्ते का मूल्य चुकाते हैं, वे हमें जहरीली वायु से बचाते हैं। शंकर की भांति स्वयं विष पीकर हमें प्राण वायु देते हैं, वे धरती का कटाव रोकते हैं। भू-स्तर बढ़ाते हैं। बादलों को बुलाकर वर्षा कराते हैं।

भारत में पर्यावरण की शुद्धता को ध्यान में रखकर कहा गया है कि जो व्यक्ति एक पीपल, एक बरगद, एक नीम, दस चिचड़ा, तीन कैथा, तीन बेल, तीन ऑवले तथा पांच आम के पेड़ लगाता है, उसे नरक में नहीं जाना पड़ता है।

शुक्राचार्य ने भी राजाओं को आदेश दिया था कि ‘‘ग्रामो ग्राम्यान, बने वन्यान वृक्षान रोपयते नृप:’’। अर्थात राजा ग्राम के वृक्ष ग्रामों में तथा वन के वृक्ष वनों में लगवायें। भारत में यह कामना की गई है कि नदियों निरन्तर बहती रहें, औषधियां सुपल्लवित होती रहें, आकाश में शान्ति रहे। अन्तरिक्ष में शान्ति रहे, अर्थात ओजोन की परत में छिद्र न हों, पृथ्वी शांत रहे, अर्थात पृथ्वी भी अति उष्ण न हो और न ही भूकंप आये। औषधि शांति रहे, अर्थात औषधियॉ प्रतिक्रिया न करें। विश्वदेव शांति रहे अर्थात पूरे विश्व में शान्ति रहे तथा विश्वदेव की कृपा बनी रहे। ब्रहम शांत रहे अर्थात पूरे विश्व में शान्ति ही शान्ति रहे।

दु:ख की बात यह है कि इन सबको दर-किनार करके हम पश्चिम के उपभोक्तावाद और उपभोग संस्कृति के चक्कर में फंस गये। हमारी उदासीनता के कारण उपभोगवाद और उपभोग ने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। विज्ञान और औद्योगिक प्रगति ने जन-जीवन को केवल प्रभावित ही नहां किया, बल्कि सबकी जीवन-पद्धति ही बदल दिया। परिणामस्वरूप स्थिति इतनी भयावह हो गई कि मानव जीवन दूभर हो गया। पश्चिम के लोगों ने इस बात पर लेशमात्र भी विचार नहीं किया कि प्रकृति का शोषण नहीं दोहन करना चाहिये। शोषण मानव के लिये खतरा बन जायेगा।
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बढ़ते प्रदूषण और बिगड़ते पर्यावरण पर विचार करने के लिये संयुक्त राष्ट्र संघ ने 5 जून, 1972 को स्टाकहोम में एक विश्व सम्मेलन का आयोजन किया गया था। इस सम्मेलन भारत का प्रतिनिधित्व तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किया था। उन्होंने अपने भाषण में कहा था कि जिस विषय पर आज पूरा विश्व विचार करने को एकत्रित हुआ है। भारत के ऋषि मुनियों ने इस पर बहुत पहले ही विस्तार से विचार किया था। वेदों में पर्यावरण कैसे शुद्ध रहे, इसके उपाय भी बताये गये हैं। इस सम्मेलन के बाद जब संयुक्त राष्ट्र संघ की बैठक 12 दिसम्बर 1972 को हुई, तो एक प्रस्ताव पारित कर 5 जून को विश्व का पर्यावरण दिवस घोषित किया गया। इस घोषणा के बाद पूरे विश्व में पर्यावरण के प्रति सभी सतर्क हो गये। नैरोबी की बांगरी मचाई ने प्रयत्न पूर्वक 3 करोड़ वृक्षारोपण कर विश्व में कीर्तिमान स्थापित किया, उनके इस सराहनीय कार्य के लिये उन्हें नोबल पुरस्कार देकर सम्मानित किया गया।

भारत में लोहरदगा विष्णुपुर झारखंड के अशोक भगत ने एक लाख वृक्षारोपण किया, उनके इस कार्य के लिये पूर्व राष्ट्रपति महामहिम शंकर दयाल शर्मा ने उन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया।

उत्तराखंड के चंडी प्रसाद व सुन्दर लाल बहुगुणा को पेड़ों की कटाई रोकने के लिए चलाए गए चिपको आंदोलन के उपलक्ष्य में मेग्सेसे पुरस्कार दिया गया। उत्तराखंड की श्रीमति बाली देवी, जो चिपको आंदोलन से वर्ष 1974 से जुड़ी है, का काम सराहनीय है।

भारत सरकार के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने अमृता देवी विश्नोई वन्य जीवन संरक्षण पुरस्कार 2006 घोषित किया। एक लाख रुपये का यह पुरस्कार अभी केरल की शीतल सेना को, जो महिलाओं का संगठन है, को प्राप्त हुआ है, यह संगठन जंगल की कटाई और पशुओं का शिकार कोई न करे, इस हेतु टुकड़ी बना कर जंगल में पहरा देता है।

पिछले दो दशक में भारत सहित अन्य देशों ने पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ रही है। अब तक यह माना जाता था कि पश्चिम में विज्ञान का विकास पर्यावरण को बेहतर समझने में हमारी मदद करेगा, पर हम कितने गलत थे। भारत मेें हमारे पूर्वजों ने पर्यावरण की समझ बहुत पहले विकसित कर ली थी, उन्होंने पर्यावरण की वकालत करते हुये कहा था कि पर्यावरण को समझना और उसका सम्मान करना ही हमारी खुशियों की चाभी है। बॉयोडाइवर्सिटी या जैव विविधता की उनकी समझ हमसे बेहतर थी। हमारे पूर्वजों ने इस विश्वास को मान्यता दी कि ईश्वर हर प्राणी में व्याप्त है। ईश उपनिषद का पहला श्लोक कहता है ‘‘(ईश वस्यम् इदम सर्वम् यज्ञ किन्च जगत्यम् जगतं)’’ हमने पीपल के पेड़ का बहुत सम्मान किया, क्योंकि यह सबसे ज्यादा प्राण वायु उत्सर्जित करता है। दुनिया में सबसे ज्यादा इस्तेमाल की जाने वाली सात दवाईयां पेड़ों से बनती हैं, पर भारत में यह निरर्थक वृक्ष उन्मूलन निर्बाध गति से चल रहा है, इन पेड़ों के न रहने से हमारी यह दवाईयां भी न रहेगी। जैव विविधता के संरक्षण के बिना पृथ्वी पर मानव जाति का संरक्षण बहुत मुश्किल होगा, हम सबको अपनी प्रकृति और ज्ञान का इस्तेमाल पर्यावरण संरक्षण के लिये करना ही होगा, यह उद्देश्य हम सिर्फ सरकारी संस्थाओं पर नहीं छोड़ सकते, जिन पर राजनितिक दबाब और छदम स्वार्थियों का वजन भी कुछ ज्यादा ही है।

हमारे पर्यावरण संकेतकोँ का गिरना इन सीमित संसाधनाेंं के क्षय और शोषण से जुड़ा हुआ है। इस कारण प्राकृतिक संतुलन बिगड़ रहा है और इसके स्वास्थ और प्रकृति पर होने वाले प्रभाव अभी हमारी मानसिक क्षमताओं की समक्ष से परे है। हमें मालूम है कि अधिकतर बीमारियां हमारे जिंस और पर्यावरण की आपसी टकराहट से पैदा होती हैं। ये पर्यावरणीय प्रभाव हमारे जीवन और स्वास्थ पर कैसे प्रभाव करेंगे? यह समझ पाना हमारे लिए बहुत जरूरी है। चलिए पर्यावरण और स्वास्थ संबंधी कुछ मुद्दों पर गौर करें। आज हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि कैसे हम अपने जल संसाधनों को सुरक्षित करें। जाने कितनी बीमारियां जैसे:- कालरा, हेपेटाइटिस, टाइफाइड पानी के अशुद्ध होने के कारण ही फैलती है। भारत में हर साल हजारों लोग इन बीमारियों के सबसे ज्यादा शिकार छोटे बच्चें होते हैं, जिनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है, भारत में अधिकतर महानगर नदियों के आस पास स्थित है, जहां मल निकासी की व्यवस्था बेहतर नहीं है, यह गंदा पानी नदियों में मिल कर उन्हें बीमारियों का घर बना देता है, पर फिर भी सरकार के कानों पर अभी तक कोई जूॅ नहीं रेगी। पर्यावरण संरक्षण के नाम पर करोड़ों रूपए हर वर्ष बर्बाद कर दिये जाते हैं। यदि भारत को विकसित राष्ट्र बनना है तो पर्यावरण पर ध्यान देना हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिये। मल निकासी और गंदे

पानी के लिये सही इलाज किये बिना हम सभी भारतीयों के लिए स्वास्थ का सपना पूरा नहीं कर सकते।
हमारी दूसरी प्राथमिकता है कि हम अपने खाद्य पदार्थो की गुणवत्ता सुधार सके। भारत में सबसे ज्यादा बीमारियां खाद्य संबंधी होती है। हर साल गर्मी के बाद आने वाला मानसून का पानी और खाद्य संबंधी समस्याओं की बरसात लेकर आता है। पहले बीमारियां वैक्टीरिया संंबंधी थी पर अब रासायनिक पदार्थो के उपयोग के कारण काफी बीमारियां जन्म ले रही हैं। खराब रंग, माल या संरक्षण भोज्य पदार्थ की गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं। कुछ वर्ष पहले दिल्ली में होने वाली कुछ मौते सरसों के तेल में खराबी के कारण हुई थी। संगठित रुप में दूध का उत्पादन और उससे संबंधी रैकेट अपनी गति से जारी है और अपराधियों पर नियंत्रण की कोई व्यवस्था नहीं है। हमारा खाद्य संरक्षण अधिनियम’’ अपनी उपयोगिता खुद खो चुका है और खाद्य संरक्षण कानून में हमें कई सुधारों की जरूरत है।

तीसरी सबसे बड़ी चिंता ध्वनि प्रदूषण या शोर से संबंधित है। हमारे कस्बे और शहर दुनिया की सबसे ज्यादा शोर वाली जगह है, ध्वनि प्रदूषण सुनने की शक्ति ब्लड प्रेशर, मनोवैज्ञानिक और मानसिक बीमारियों को बढ़ावा देता है, हमेंं अपने लोगों को इन समस्याओं का आभास कराना होगा ताकि हम उन बीमारियों को जन्म न दें, जिनका हमारे पास कोई इलाज नहीं है। जब तक पर्यावरणीय मामलों में जन आंदोलन नही होंगे, हम अपने पर्यावरण की जीवन में उपयोगिता नहीं समझेंगे, जब तक हम पेड़ों को अपने बच्चों कि तरह देखभाल नहीं करेंगें, तब-तक यह सोचना और कहना मुश्किल है कि क्या हमारी अगली पीढी सांस ले पायेगी।
अमृता देवी विश्नोई के नाम पर दिया गया पुरस्कार उस वीरांगना के महान कार्य के उपलक्ष्य मेंं है, जिसने 28 अगस्त, 1930 भाद्र पद शुक्ल दशमी मंगलवार विक्रम संवत 1787 में जोधपुर से 25 किमी दूर खेजड़ी गांव में खेजड़ी के पेड़ काटने का विरोध किया था।

जोधपुर महाराजा के कारिन्दों ने जब राज्य आज्ञा की दुहाई देते हुये पेड़ काटने की जिद्द की तो अमृता देवी ने यह कह कर ‘‘सर साटे रूख रहे तो भी सस्तो जाण’’ पेड़ से चिपक गई। पेड़ काटने वालों ने अमृता देवी सहित पेड़ काट डाला। तत्पश्चात ग्रामवासी एक-एक पेड़ के साथ चिपक गये और पेड़ काटने वालों ने पेड़ के साथ उन्हें भी काट दिया। इस प्रकार 294 पुरूष तथा 69 महिलाओं ने पेड़ से चिपक कर अपना बलिदान दिया।
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महाराजा जोधपुर को जब इस रक्तरंजित महान आन्दोलन का समाचार मिला तो वे बलिदान स्थल पर आये और पेड़ों की कटाई रूकवा दी तथा घोषणा की कि आज से इस क्षेत्र में पेड़ों की कटाई और पशुओं का शिकार नहीं किया जायेगा। वह निर्णय ज्यों का त्यों है, उसमें अब तक कोई बदलाव नही हुआ। सिनेमा स्टार सलमान खान ने इसी वन में काले हिरण का शिकार किया, जिन्हें न्यायालय से सजा भी हुयी है। खेजड़ी गांव में प्रति वर्ष बलिदान स्थल पर मेला लगता है, जहां हजारों की संख्या में गांववासी नर नारी आते हैं। अमर बलिदानियों को अपना श्रद्धासुमन अर्पित कर वृक्षारोपण करने तथा उसका संरक्षण करने का संकल्प लेते है। अच्छा होता कि भारत में 5 जून के स्थान पर 28 अगस्त को पर्यावरण दिवस मनाया जाता। जून मास में अधिक धूप और देख-रेख के अभाव में बाल तरू की मृत्यु दर अधिक है। अगस्त में वृक्षारोपण से बाल तरू की मृत्यु दर में कमी तो आयेगी साथ वीरांगना अमृता देवी एवं उनके साथ जिनके प्राणों की आहूति देने वालों के प्रति पूरे देश के पर्यावरण प्रेमियों की सच्ची

श्रद्धांजलि भी होगी। भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ता प्रत्येक वर्ष इस अवसर पर अपने और पड़ोसी के घर में तुलसी का पौधा और औद्योगिक क्षेत्र और कार्यालयों और गांव में पीपल, नीम व आंवला आदि वृक्ष का रोपण करते हैं। पर्यावरण व जीवन बचाने में सहयोग करें।
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