पर्यावरण के लिए अनुकूल ईंधन

वैश्विक स्तर पर इस सत्य की पुष्टि हो चुकी है कि पारंपरिक ईंधनों का भंडार अब सीमित हो चुका है और जल्दी ही यह समाप्त भी हो जाएगा, अत: अब ऐसे अपारंपरिक ईंधनों की खोज शुरू हो गई है, जो सहज उपलब्ध हों और जिनसे प्रदूषण की समस्या भी उत्पन्न न हो। जैविक ईंधन, सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा आदि अपारंपरिक ईंधनों की चर्चा यहां की जा रही है, जिन पेट्रोलियम ईंधनों का हम उपयोग कर रहे हैं, वे मूलत: हाइड्रोकार्बन रसायनों का मिश्रण है।

मशीनों और ईंधनों में जब इसे जलाकर ऊर्जा का निर्माण किया जाता है, तब बड़े पैमाने पर कार्बनडाईऑक्साइड वायुमंडल में उत्सर्जित होती है। कार्बनडाईऑक्साइड के वायुमंडल में बढ़ते पैमाने के कारण वातावरण तेजी से बदल रहा है और अनेक बदलाव हो रहे हैं। इस संकट से हमारी सुंदर वसुंधरा को बचाने के लिए दिसंबर में डेन्मार्क के कोपनहेगन में विविध देशों के प्रतिनिधि और पर्यावरण रक्षक एकत्र हुए, उनके द्वारा लिए गए निर्णय भले ही राजनैतिक हो, परंतु विज्ञान और तकनीक क्षेत्र में होने वाले परिवर्तन की जानकारी होना, सामान्य व्यक्ति के लिए भी महत्वपूर्ण है।

वायु रूप ईंधन :

द्रव ईंधनों- जैसे पेट्रोल और डीजल में कुछ विशेष प्रकार के रासायनिक तत्व मिलाकर पेट्रोल कंपनियों ने कुछ नामित ईंधन (स्पीड, पावर, प्रीमियम) को बाजार में उतारा है। इन विशेष प्रकार के रासायनिक तत्वों को मिलाने के कारण पेट्रोल और डीजल के इंजन में पूर्णत: ज्वलनशील हो जाता है और प्रदूषण कम होता है, परंतु रोब्रांडेड ईंधन अपेक्षाकृत महंगे होते हैं। देश की धरती के अंदर 13 हजार करोड़ धनमीटर नैसर्गिक वायु का भंडार है, इनमें 7 हजार करोड़ घनमीटर वायु हम निकाल सकते हैं और अपनी आवश्यकतानुसार उसका उपयोग कर सकते हैं। ईंधन के दृष्टिकोण से देखा जाए तो एक हजार घनफुट वायु नौ दशांश टन तेल के डिब्बों की बराबरी का होता है।

जैविक ईंधन

वर्तमान में पूरे विश्व में दो प्रकार के ईंधनों की खपत बढ़ रही है पहला, अनाज और बीट से तैयार होने वाले पदार्थों से और दूसरा ऐसे बीजों से जिनसे तेल निकलता है। कुछ वनस्पतियों के बीजों से इथेनॉल, रतनजोत, नागचंपा और रबर के बीज आदि वनस्पति बीजों से प्राप्त किये जाने वाले जैविक डीजल, पेट्रोलियम डीजल का एक पर्याय सिद्ध हो सकता है। इन जैविक ईंधनों के निर्माण के अन्य कारण भी हैं, जैसे : 1) यातायात साधनों द्वारा उत्सर्जित किए गए कार्बनडाईऑक्साइड फैलने वाले प्रदूषण को कम करना। 2) रोजगार और व्यवसाय के साधनों को बढ़ावा देना। 3) ऊर्जा साधनों की बचत और संरक्षण करना। 4) भीड़-भाड़ वाले इलाकों के वायुमंडल में हवा की गुणवत्ता को बरकरार रखना। 5) ऊर्जा के उपलब्ध नैसर्गिक स्त्रोतों को बचाना और उनसे आवश्यकता की पूर्ति करना।

जैविक ईंधन को तैयार करने और उपयोग करने से पर्यावरण स्वच्छ रहेगा, इस पर विशेषज्ञों की सहमति अभी तक नहीं बन पाई है। बायोइथेनॉल और बॉयोडीजल के मिश्रण से तैयार होने वाले इंधनों का प्रयोग जब वाहनों मे किया जायेगा तो वे धुंए को साथ-साथ कुछ सूक्ष्म कणों को हवा में उड़ाने से तो रोकेंगे, परंतु मूल ईंधन में ये कण रहेंगे ही, इनके अस्तित्व के कारण नाइट्रोजन ऑक्साइड का उत्सर्जन बढ़ता है, जो पृथ्वी का तापमान बढ़ाने वाला ऊष्माशोषक वायु है।

जैविक डीजल :

भारत की आवश्यकता पूर्ति करने के लिए जितने पेट्रोलियम पदार्थों की जरूरत होती है, उसका 70 प्रतिशत आयात किया जाता है और इसका 40% डीजल है। अत: दिनों-दिन आसमान छूती ईंधनों की कीमतों को देखते हुए जैविक ईंधनों का उपयोग करना आवश्यक होता जा रहा है। जैविक डीजल पेट्रोलियम डीजल की तुलना में वातावरण को 75 प्रतिशत अधिक प्रदूषणमुक्त रखता है।

जैविक डीजल नुकसानदायक नहीं होता है, क्योंकि इसमें सल्फर और एरोमेटिक्स जैसे रसायन नहीं होते हैं और यह पेट्रोलियम डीजल का पर्याय बन सकता है। जैविक डीजल का उत्पादन ‘ट्रांसइस्टरीफिकेशन’ की प्रक्रिया द्वारा किया जाता है। अल्कली उत्प्रेरक (सोडियम या पोटेशियम हाईड्रॉक्साइड) का उपयोग करके वनस्पति से उत्पन्न तेल को अल्कोहल (मिथेनॉल) से रासायनिक प्रक्रिया करवाई जाती है। इस प्रक्रिया में दो महत्वपूर्ण पदार्थोंं का निर्माण होता है। मिथेनॉल ईस्टर के रूप में जैविक ईंधन और साबुन जैसे पदार्थ के निर्माण में लगने वाला ग्लिसरीन।

तेल देने वाले अनेक वृक्षों, पेड़-पौधों को लगाकर जैविक डीजल के उत्पादन पर जोर दिया जा रहा है। नारियल, पाम, सोया आदि प़ेडोेंं को विश्व भर में लगाया जा रहा है, इससे निश्चित रूप से खेती-किसानी में व्यापार बढ़ेगा, परंतु यह व्यवसाय हमेशा ही मौसम पर निर्भर रहा है। अत: ईंधन प्राप्ति की संभावना उसकी गुणवत्ता, विशेष बीजों का अधिक मात्रा में उत्पादन आदि कारणों से जैविक विविधताओं को नुकसान पहुंचने की आशंका रहती है। साथ ही खाद और कीटनाशक के कारण इस क्षेत्र में होने वाले प्रदूषण को टालना कठिन है।

जैविक ईंधनों की बढ़ती कीमतें

मई, 2003 में यूरोपियन यूनियन ने पेट्रोल-डीजल पर चलने वाले वाहनों के लिए जैविक ईंधनों का उपयोग करने का आदेश जारी किया। वाहनों के धुएं से फैलने वाले कार्बन डाईऑक्साइड को कम करना इसका मुख्य उद्देश्य था। साथ ही यूरोपीय देशों को बाहरी स्त्रोतों का सहारा न लेना पड़े, इस पर भी हेतु भी विचार किया गया। इस निर्देशानुसार दिसंबर, 2005 तक वाहनों में उपयोग किए जाने वाले पेट्रोल-डीजल की मात्रा अब दो प्रतिशत तक पहुंच जाएगी। जितनी अधिक मात्रा में जैविक ईंधन पेट्रोलियम ईंधन की जगह लेंगे, उतनी ही मात्रा में वातावरण अधिक स्वच्छ रहेगा, हालांकि जैविक ईंधन तुलनात्मक रूप से महंगे होंगें। यूरोपीय कमीशन के अनुसार जैविक डीजल के उत्पादन में प्रति वर्ष 68 से 125 करोड़ रुपये अधिक धन खर्च करने होंगे, जिससे कर भरने वाले नागरिकों पर खर्चों का बोझ बढ़ जाएगा।

प्रत्यक्ष कार्य के लिए विदेश के कुछ उदाहरण देखे जा सकते हैं। अमेरिका में वाहनों के चलाने हेतु प्रति-वर्ष 525 करोड़ लीटर ईंधन उपयोग किया जाता है, इसमें से 30% तेल होता है। अत: वहां पर मक्के से निर्मित जैविक इथेनॉल का पेट्रोल में मिश्रण करने पर जोर दिया जा रहा है। सन् 2012 तक जैविक ईंधन का निर्माण दोगुना करने का प्रयत्न किया जाएगा और सोयाबीन से तैयार होने वाले जैविक डीजल पर प्रति गैलन एक रुपए की छूट दी जएगी, इससे जैविक डीजल की कीमत करीब-करीब पेट्रोलियम डीजल जितनी ही हो जाएगी। भारत सरकार द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में 1,750 लाख हेक्टेयर भूमि खाली पड़ी है, इसमें इन तेल बीजों का उत्पादन किया जा सकता है। दिल्ली की आई.आई.टी. और इंडियन कॉउन्सिल फॉर अग्रिकल्चर रिसर्च संस्था ने इस दिशा में नये कदम बढ़ाए हैं। पेट्रोलियम कंपनियों के संशोधन केन्द्र और वाहन तैयार करने वाली कंपनियां भी पारंपरिक तरीकों से जैविक ईंधनों को प्रायोगिक तरीकों से जांच-पड़ताल कर रहे हैं और इन प्रयत्नों में मदद भी कर रहे हैं।

नये शोध,नयी समस्याएं

आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है और जब आवश्यकता यह हो कि हमारी धरती माता के तापमान को बढ़ने से रोका जाए, तो वैज्ञानिक और संशोधक पीछे कैसे रहेंगे? संपूर्ण विश्व में बड़े पैमाने पर उपयोग किए जाने वाले कार्बन युक्त ईंधन के कारण वातावरण में बड़ी मात्रा में कार्बनडाईऑक्साइड (ग्रीन हाऊस गैस) छोड़ी जाती है। इसके कारण कार्बनयुक्त ईंधनों के उपयोग पर नियंत्रण रखना आवश्यक हो गया है, इसके साथ ही पृथ्वी के गर्भ से 40 वर्ष तक प्राकृतिक वायु उपयोग करने लायक ही भंडार शेष बचा है। अत: पेट्रोल जैसे ईंधन में इथेनॉल या वनस्पतिक अल्कोहल का मिश्रण करके खनिज तेल का उपयोग कम करने का प्रयत्न किया जाता है। आंध्र, बिहार, झारखंड और महाराष्ट्र जैसे राज्यों ने इस कार्यक्रम को अंशत: शुरू कर दिया है। हरियाणा ने तो इथेनॉल के आयात पर कर भी माफ कर दिया है, परंतु गन्ने की खेती न करने वाले गुजरात, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा जैसे राज्यों ने इथेनॉल के आयात पर कर लगाया है, इस कर के कारण ही देश भर में इथेनॉल के उपयोग में बाधा आ रही है। पांच प्रतिशत के हिसाब से हमारे देश में प्रतिवर्ष छ: लाख लीटर इथेनॉल की आवश्यकता होती है, परंतु पेट्रोलियम विभाग ने मई माह से पेट्रोल में दस प्रतिशत इथेनॉल का भंडारण करने के आदेश दिए, इसके लिए देश में इथेनॉल के आयात या उत्पादन को बढ़ाना आवश्यक है।

हमारे देश में ब्राजील की तरह गन्ने से इथेनॉल का निर्माण होता है और अमेरिका में मक्के से अल्कोहल का निर्माण होता है। वहां पर इथेनॉल का निर्माण व्यवस्थित रूप से हो रहा है, परंतु फिर भी कुछ समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, जैसे मक्के से निर्माण होने वाले इथेनॉल का खर्च, उससे मिलने वाली ऊर्जा से अधिक हो। पेट्रोल निर्माण में होने वाले ग्रीन हाऊस गैसों को उत्सर्जन और इथेनॉल के निर्माण में होने वाली ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन लगभग एक जैसा है। अत: उन्हें मक्के के साथ-साथ उसके तने, घास और अन्य वनस्पतियों का उपयोग भी इथेनॉल के निर्माण में करना पड़ेगा। घास के सेल्युलोज से निर्माण किया गया इथेनॉल तुलनात्मक रूप से सस्ता पड़ सकता है। ब्राजील मे गन्ने को बड़े पैमाने पर उत्पादन और अपेक्षाकृत सस्ते मजदूरों के कारण काफी बड़ी मात्रा में इथेनॉल का उत्पादन किया जा सकता है, इसलिये वहां पर इथेनॉल से चलने वाली गाड़िया उपयोग में लाई हुई हैं।

घास, चारा और वनस्पतियों के तनों के सेल्युलोज से किफायती इथेनॉल बनाने के लिए औद्योगिक मशीनों में बदलाव आवश्यक हैं। दस प्रतिशत इथेनाल मिश्रित पेट्रोल के कारण फिलहाल गाड़ियों को कोई क्षति नहीं तो रही है, परंतु इथेनॉल का अनुपात धीरे-धीरे भविष्य में बढ़ता जाएगा इस ओर ध्यान देना आवश्यक है।

जीवाणुओं का उपयोग

खनिज वायु से प्राप्त होने वाले मिथेनॉल को भी काबईडाई ऑक्साइड के उत्सर्जन के लिए उपयोग किया जा सकता है, क्योंकि वातावरण में पाई जाने वाली इस कार्बनडाई ऑक्साइड का पानी में पाई जाने वाली हाइड्रोजन गैस के द्वारा मिथेनॉल में रूपांतरण किया जा सकता है। मिथेनॉल से सिंटोटिक हाइड्रोकार्बन ईंधन का निर्माण किया जा सकता है, जिससे आने वाली पीढ़ी को पर्याप्त ईंधन उपलब्ध होगा। ग्लोबल वार्मिंग कम करने के लिए वैज्ञानिक एक और उपाय बता रहे हैं। भारतीय वैज्ञानिक डॉ. आनंद चक्रवर्ती द्वारा जेनेटिक इंजिनियरिंग के द्वारा बनाए गए जीवाणुओं की एक विशिष्ट जाति के द्वारा पानी पर फैले तेल को खत्म करने के लिए उपयोग में लाया जाता है। जीवाणुओं की उपयुक्तता के ऐसे कई उदाहरण हैं।
अब वैज्ञानिकों ने हरे रंग के सिनोबैक्टिरिया नामक जीवाणुओं के द्वारा जैविक ईंधन तैयार करने का नया अनुसंधान किया है। इनका समूह हरे नीले रंग के शैवाल की तरह दिखता है। अभी संपूर्ण विश्व में सेायाबीन और जत्रोका जैसी वनस्पतियों से जैविक डीजल बनाने का कार्य चल रहा है, परंतु इन वनस्पतियों के लिए भी उन्हीं जमीनों का उपयोग हो रहा है, जिन पर अनाज की खेती की जाती हैं। किसी स्वीमिंग पूल के पानी पर भी अत्यंत तेज गति से सिनोबैक्टिया जीवाणु अपनी संख्या में वृद्धि कर लेते हैं, क्योंकि इनकी वृद्धि के लिए केवल कार्बनडाई ऑक्साइड और सूर्य प्रकाश की आवश्यकता होती है। प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा जीवाणु में दी रेणु का निर्माण करते हैं एवं पेशीय आवरण के अंदर इसे सुरक्षित रखते हैं, इसी मे दी रेणु पदार्थ का डीजल में रूपांतरण हो सकता है।

अमेरिका के एरिजोना राज्य के बॉयोडिजाइन इन्सीट्यूट में यह क्रांतिकारी खोज हुई हैं। ऊर्जा क्षेत्र में अब अत्यंत तेज गति से क्लिष्ट परिवर्तन भी हो रहे हैं, इसी के एक भाग के रूप में कम कार्बन वाले और निरंतर प्राप्त होने वाले ईंधन की खोज हुई है। इसी जीवाणु की खेती सहज और सरल पद्धति से की जा सकती है। ‘बॉयोरिएक्टर’ नामक पारदर्शी नीति में इन जीवाणुओं में वृद्धि की जाती है। सामान्यतया 15 से. मी. व्यास की कांच की यह नलीमें पारदर्शी होने के कारण सूर्य प्रकाश आसानी से इन जीवाणुओं तक पहुंच जाता है और इस कारखाने के धुंए से इन जीवाणुओं के लिए आवश्यक कार्बनडाई ऑक्साइड भी प्राप्त हो जाते हैं। इन जीवाणुओं की वृद्धि के लिए पानी के पांच प्रतिशत कार्बनडाई ऑक्साइड वायु भी पोषक होता है और इसके लिए इन नलियों मे कार्बनडाई ऑक्साइड की आवश्यक मात्रा पहुंचाने की व्यवस्था की जाती है।

जैविक ईंधन को तैयार करने के लिए वनस्पति के अवशेष जैसे भुट्टे के छिलके, केले के छिल्के आदि पर शोध किया जा रहा हैं। थाईलैंड में कासावा नामक वनस्पति से इथेनॉल तैयार किए जाने पर शोध कार्य किया जा रहा है। मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने पेड़ पर पाये जाने वाले ऐसे जीवाणु की खोज की है, जा इथेनॉल का निर्माण कर सकता है, इससे सस्ता ईंधन मिलने में सहायता होगी, इसमें मिश्रित कार्बनडाई ऑक्साइड का उपयुक्त ईंधन में रूपांतर करने वाले जीवाणुओं की खोज केलीफोर्निया में की गई।

अन्य ऊर्जा स्त्रोत

सौर ऊर्जा के क्षेत्र में भी पिछले कुछ दशकों से धीरे-धीरे, परंतु प्रगति हो रही है। अन्य ऊर्जा की तुलना में यह सस्ती हो इसके लिए विभिन्न प्रयत्न किये जा रहे हैं। सौर ऊर्जा सभी जगह है, परंतु विद्युत निर्माण में उसका उपयोग नहीं किया जा सकता। सन् 2005 से इस क्षेत्र में भी विज्ञान ने काफी प्रगति की है।

सूर्य पृथ्वी पर रोज 200 मेगावॉट ऊर्जा उत्सर्जित करता है। इसका छोटा सा भाग भी अगर हम उपयोग करें, तो हमें ऊर्जा की कमी नहीं होगी, परंतु किरणों का ऊर्जा में रूपांतर करने की प्रक्रिया बहुत महंगी होती है, इसके लिए लंबे समय तक काफी धन की आवश्यकता होगी। निजी कंपनियां यह खर्च और खतरा उठाने को तैयार नहीं हैं, अत: इससे संबंधित तकनीक भी विकसित नहीं हो पा रही है और विकसित तकनीक के अभाव में ऊर्जा का निर्माण नहीं पा रहा है। हवा, पानी, सौर ऊर्जा जैसे गैर-पारंपरिक तरीकों के साथ-साथ विद्युत शक्ति और जैविक ईंधन पर भी जोर दिया जा रहा है, ऐसे में कार और अन्य वाहनों के इंजन के लिए हाइड्रोजन गैस कितनी उपयोगी होगी, इस पर भी प्रयोग किये जा रहे हैं।

तापमान के निरंतर बदलने और उससे उत्पन्न समस्याओं का उपाय हाल ही में ठाणे में आयोजित खगोल शास्त्रीय संम्मेलन में शामिल हुए वरिष्ठ वैज्ञानिक और अणु ऊर्जा आयोग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. अनिल काकोडकर ने ‘शहरवासियों को अपनी जीवन शैली में बदलाव करने की अपील की।’ यही बात संपूर्ण विश्व के वैज्ञानिक और पर्यावरण रक्षक बताते हैं।
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