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कौन बने प्रधानमंत्री?

कौन बने प्रधानमंत्री?

by चेतन भगत
in अगस्त-२०१२, राजनीति
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गत दिनों मैंने अपने पब्लिक फेसबुक पेज पर यूं ही एक सरल सा पोल करवाया था। मैंने एक सरल प्रश्न पूछा था: भारत का प्रधानमंत्री किसे बनना चाहिए? विकल्प भी सरल थे: राहुल गांधी, नरेंद्र मोदी और इनमें से कोई नहीं। मेरा इरादा किसी तरह के पक्षपात का नहीं था। पेज पर देश भर के फेसबुक यूजर्स ने छह हजार से अधिक वोट दिए। राहुल गांधी को 5 फीसदी वोट मिले। नरेंद्र मोदी को 76 फीसदी वोट मिले। शेष प्रतिभागियों ने दोनों में से किसी को नहीं चुना। यह एक सार्वजनिक निर्णय था और मैं इसे नियंत्रित नहीं कर सकता था।

नहीं, मैं यह कहने की कोशिश नहीं कर रहा हूं कि यह देश का फैसला था। वास्तव में यह राष्ट्रीय जनादेश से बहुत अलग भी हो सकता है, क्योंकि फेेसबुक का उपयोग करने वालों में युवा, समृद्ध और तुलनात्मक रूप से अधिक शिक्षित भारतीयों की संख्या अधिक है। जैसा कि कहा जाता है, फेसबुक का उपयोग करने वाले अधिकतर लोग तो चुनाव में वोट डालने भी नहीं जाते, वहीं मोदी के भी कुछ उत्साही समर्थक हैं, जो इस तरह के पोल होने पर उनका समर्थन करने पहुंच जाते हैं।

बहरहाल, इन आंकड़ों को पूरी तरह से नजर-अंदाज कर देना भी मूर्खतापूर्ण होगा। सायबर स्पेस में नरेंद्र मोदी की हमेशा से ही एक तरह की फैन फॉलोइंग रही है, लेकिन इसके बावजूद 5 बनाम 76 की बढ़त हासिल करना चौंकाने वाला है, इसका मतलब है कि मोदी के प्रशंसक वर्ग में पिछले दो साल में नाटकीय वृद्धि हुई है। यह केवल गुजरात में चलाया गया सेंपल पोल नहीं था, यह राष्ट्रीय पोल था।

नरेंद्र मोदी की तुलना में राहुल गांधी राष्ट्रीय स्तर पर कहीं बेहतर ढंग से पहचाने जाने वाले ब्रांड हैं, वे युवा, सुंदर, सौम्य और कुछ मायनों में आकांक्षापूर्ण भी हैं। फिर देश के युवाओं ने उन्हें क्यों वोट नहीं दिए? और यदि नरेंद्र मोदी वास्तव में ही इतने दोषपूर्ण हैं, जैसा कि उन्हें बताया जाता है, तो लोग उन्हें वोट क्यों दे रहे हैं? नरेंद्र मोदी के उदय की क्या वजह है? और इससे भी अधिक जरुरी बात यह है कि क्या वे गुजरात और सायबर प्रदेश की पसंद होने के साथ ही 28 राज्यों की पसंद भी बन सकते हैं?
पहले राहुल गांधी के बारे में बात करते हैं। प्रथम परिवार की अनुकंपा की चाह रखने वाले कांग्रेसियों और अंग्रेजी मीडिया ने राजनीति में राहुल के प्रवेश का जोर-शोर से स्वागत किया था। राहुल ने अपने पदार्पण पर कई उम्मीदें जगाई, लेकिन वे एक ऐसे समय परिदृश्य पर उभरे, जब कांग्रेस का मुश्किल दौर चल रहा था। व्यापक पैमाने पर घोटाले हो रहे थे और सरकार दंभ का प्रदर्शन करते हुए भ्रष्टों को बचाने और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों को कुचलने की कोशिश कर रही थी।

राहुल ऐसे मौकों पर जनता के सामने नहीं आए। आलोचनाओं के समक्ष मौन धारण कर लेना आमतौर पर एक अच्छी रणनीति होती है, लेकिन केवल तभी, जब आलोचना बेबुनियाद हो। कांग्रेस नैतिक रूप से गलत थी और उसने आरोपों को स्वीकार करने से भी इनकार कर दिया। लोकपाल बिल को भुला दिया गया, सीबीआई ने सरकार का साथ दिया और न्याय प्रक्रिया की धीमी चाल से भी उसे फायदा हुआ। ऐसे में राहुल गांधी से ज्यादा की अपेक्षा करना शायद ज्यादती ही थी। राहुल को भारतीयों के बदलते सांस्कृतिक रुझानों के कारण भी मुश्किलों का सामना करना पड़ा।

हालांकि भारतीय अब भी वंश परंपरा पर मुग्ध रहते हैं, लेकिन देश का शिक्षित तबका अब अधिकार बोध से जुड़े सवाल उठाने लगा है। कांग्रेस को अपने रवैये पर पुनर्विचार करना होगा, उसे सोचना होगा कि राहुल को मुश्किल हालात से दूर रखने से बेहतर तो यही होगा कि मुश्किल हालात पैदा होने की नौबत ही न आए।

दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी का कद निरंतर बढ़ता ही गया है। निश्चित ही अनेक लोग इसका श्रेय गुजरात में हुए विकास को देते हैं, लेकिन किसी व्यक्ति की ‘कल्ट फॉलोइंग’ के लिए विकास का रिकॉर्ड ही काफी नहीं होती। मोदी की लोकप्रियता का राज उनका व्यक्तित्व है,उनमें जिस तरह की तेजी है, समृद्धि और निर्णयशीलता के प्रति उनमें जो आग्रह हैं, वह देश के युवाओं की मानसिकता के अनुरूप हैं। आज अच्छे कॉलेजों में पर्याप्त सीटें नहीं हैं और अच्छी कंपनियों में पर्याप्त नौक रियां नहीं हैं। युवा चाहते हैं कि इन समस्याओं का समाधान हो और उन्हें लगता है कि मोदी ऐसा कर सकते हैं।

युवाओं को भले ही स्वार्थी कहा जाए, लेकिन सच तो यही है कि वे इतिहास के किसी विवादित अध्याय कि अधिक परवाह नहीं करते। जब आपका भविष्य संकट में हो, तब आप किसी और के अतीत की अधिक चिंता नहीं कर सकते। वास्तव में मोदी की लोकप्रियता का एक राज उनकी निरंतर होने वाली आलोचना भी है। कांग्रेस के मोदी-विरोधी आलाप ने मोदी की लार्जर दैन लाइफ छवि बना दी हैं।

आज मोदी का समर्थन करने का मतलब है, कांग्रेस की नीतियों का विरोध करना और चूंकि लाखों लोग बदलाव चाहते हैं, इसलिए वे मोदी की ओर आकृष्ट हो रहे हैं। लेकिन क्या मोदी को मिलने वाला सायबर समर्थन देश की सड़कों तक पहुंच सकता है? कहना कठिन है। इंटरनेट अक्सर आगामी घटनाओं की पूर्व सूचना देता है। अन्ना का आंदोलन भी सड़कों पर शुरु होने से पहले इंटरनेट पर फैल चुका था। यदि मोदी भाग्यशाली साबित हुए और सही कदम उठाते रहे तो यह उनके साथ भी हो सकता है। मोदी की पार्टी भारतीय जनता पार्टी और उसके गठबंधन सहयोगियों को भी यह समझना चाहिए। उन्हें भी नरेंद्र मोदी पर दाव लगाना चाहिए, जो विवादों के बावजूद लोकप्रियता के सोपान चढ़ते जा रहे हैं। साथ ही उन्हें अंदरूनी कलह पर रोक लगाकर अगला चुनाव जीतने पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए और जन समर्थन जुटाना चाहिए, यदि वे ऐसा नहीं कर पाए तो उनका प्रधानमंत्री फेसबुक तक ही सीमित रह जाएगा।

 

– प्रधानमंत्री पद के लिए जहां सिर्फ 5 प्रतिशत लोग ने राहुल गांधी को पसंद किया,जबकि 76 प्रतिशत लोगों की पसंद नरेंद्र मोदी रहे।

– पिछले दो सालों में नरेंद्र मोदी के प्रशंसकों में काफी ज्यादा वृद्धि हुई है। इन प्रशंसकों में युवाओं की बहुत बड़ी संख्या शामिल है।

– संकट के दौर में जनता की समस्याओं को सुनने में जिस तरह से नरेंद्र मोदी जनता के बीच आए, उस तरह से राहुल गांधी नहीं आए।

– युवाओं खासकर विद्यार्थियों के लिए नरेंद्र मोदी की नीतियां विद्यार्थियों को ज्यादा प्रभावित करती रही है।

– राहुल को इसलिए भी ज्यादा महत्व नहीं दिया गया, क्योंकि वे भारतीय सांस्कृतिक रुझानों को ज्यादा महत्व नहीं देते।

– हिन्दुत्व से कहीं ज्यादा मोदी की विकासवादी नीति ने उनकी लोकप्रियता का ग्राफ बढ़ा दिया है।

 

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