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 साहित्य प्रागंण में थिरकती गंगा

 साहित्य प्रागंण में थिरकती गंगा

by ओम प्रकाश पाण्डेय
in अगस्त-२०१५, सामाजिक
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सबके पाप धोती, पोंछती मां गंगा आज स्वयं मलिनाम्बरा हो गई है। आवश्यकता है इसे पुन: श्वेताम्बरा करने की। यदि उसे स्वच्छ करने में अब भी हम प्रमादवश असफल रहे, तो कवियों की वह टोली, जो गंगा के किनारे चाण्डाल या कौवा तक बनकर भी रहने की इच्छुक है, हमें क्षमा नहीं करेगी।

रत की प्राचीनतम नदी गंगा का असंदिग्ध उल्लेख न्यूनतम ऋग्वेद काल से तो है ही। ऋक्संहिता के दशम मण्डल (१०.७५.५) के निम्न-लिखित मंत्र में इसका सर्वप्रथम उल्लेख गंगा की अनादि गरिमा का सुस्पष्ट प्रमाण है।

इयं मे गंगे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमंसचता परूण्या असिकन्या मरुद्वृद्ये वितस्तया ऽऽ र्जी कीये शुणुह्या सुषोमया॥
ऋग्वेद के ही षष्ठ मण्डल में गंगा के तट पर रहने वाले के लिए गांग्य शब्द का प्रयोग है (ऋ. स. ६. ४५. ३१)।
शतपथ ब्राम्हण (१३.५.४.११) में दृष्यन्त-कुमार भरत की उन विजयों का उद्घोष है, जिन्हें गंगा और यमुना के तटों से किए गए पराक्रम से प्राप्त किया गया था-

भरतो दौ: षन्तिर्यमुनामनु गंगयां वृत्रहने ऽ बघ्नात् पत्र्चपत्र्चाशतं घ्यान्।
ऐतरेय ब्राम्हण (२.३३) तथा वैतानसूत्र में भी ये विजयें उल्लिखित हैं। लेकिन गंगा के गौरव का जहां, गंगा और यमुना के तटों पर रहने वालों को अभिजात माना गया है। यह कृष्णयजुर्वेदिय आरण्यक निश्चित ही गंगा – तट पर रचा गया।
गं गं का उद्घोष करती हुई प्रवाहित होने वाली इस नदी का नामकरण भी इसी आधार पर हुआ।

वेद-काल के अनन्तर, पुराणों के युग में इस नदी की धार्मिक मान्यता कीविशेष वृद्धि हुई, जब यह ग से आरम्भ पांच में श्रेष्ठतम विभूतियों -गंगा, गायत्री, गणेश, गुरू और गीता- के शिखर पर आरूढ़ हुई। गंगा तट पर किया गया महीने भर का कल्पवास अनेक जन्मों के पाप- ताप का नाशक मान लिया गया। हिमालय से निकल कर हरिद्वार, प्रयाग और काशी सदृश अति प्राचीन तीर्थों को अभिषिक्त करती हुई बंगप्रदेश तक यह महानदी भारत के सर्वाधिक भूभाग को अपने जल से सींच कर उपजाऊ बनाती है। गंगा-यमुना का मध्यवर्ती यह भूभाग अन्तर्वेदी कहलाता है, जो कृषि -सम्पदा के रूप में अक्षरश: सोना-चांदी जैसी उपज ही उपलब्ध कराता है।

यह शिव की वह प्रिया है, जो उनके शिर पर चढ़ी रहती है। कहते हैं, काशी में, दशाश्वमेघ घाट के पास बहती हुई गंगा की धारा कदाचित उमड़ कर विश्वनाथ का स्वयं सर्वप्रथम अभिषेक करती थी। प्रयाग में बड़ी बहिन यमुना के कण्ठालिंगन में निमग्न गंगा की छवि कविकुलगुरू कालिदास को कभी इन्दुनीलमणियों से गुंथी हुई मुक्तामाला लगती है और थोड़ी ही देर बाद नीले और श्वेतकमलों की सम्मिलित माला प्रतीत होती है, लेकिन अगले ही क्षण वह भस्म का अंगराग लगाए महाशिव की देह हो जाती है, जिस पर कृष्णवर्णी सर्प लिपटे हुए हैं।
समर्थ और सुयोग्य गुरू की खोज में पुरी काशी को छानते फिर रहे संत कबीर की खोज भी पुरी हुई इसी गंगा के तट पर जहां बहुत सवेरे स्नान – हेतु आए स्वामी रामानन्द के चरण घाट की सी़ढियों पर सायास लेटे कबीर के शरीर पर अनायास पड़ गए। खोज पूरी हुई। साधक को सिद्धि मिल गई। कितने ही संतों और साघकों की, गंगा की इन्ही सीढ़ियों पर, अध्यात्म-साधना सिद्ध हुई। इसका लेखाजोखा जहुननन्दिनी की लहरों के अतिरिक्त और किसके पास होगा।

शिवताण्डवस्तोत्र के रचयिता रावण के लिए यह गंगा निलिम्पनिर्भुरी (देवनदी) है, जो शिव की जटाओं से टपकती हुई उनके विषपायी कण्ठ को शीतलता ही नहीं प्रदान करती, उस स्थल की पवित्रता भी बनाए रखती है। पण्डित राज जगन्नाथ की दृष्टि में यह गंगा सम्पूर्ण वसुधा का समृद्ध सौभाग्य है, खण्डपरशु शिव का सर्वोत्तम ऐश्वर्य है, श्रुतियों का सर्वस्व है, देवों का मूर्तिमान् पुण्य है और इसका जल अमृत का भी सौंदर्य है। भरे दरबार में बादशाह शाहजहां से यवन कन्या लवंगी को पण्डितराज मांग तो लाए, लेकिन इसके बाद उनका जीवन सामाजिक बहिष्कार के कारण असह्य वेदना से ग्रस्त हो गया। गली-गली में असहिष्णुता की बौछार से वे बेचैन हो उठे। लवंगी के प्रति उनके सच्चे प्रेम को पहचानने के लिए कोई भी तैयार नहीं था। किसके सामने अपने प्रेम की परीक्षा देते। याद आयी मां गंगा की। तटवर्ती सर्वोच्च सोपान पर खड़े होकर बोले- यह ठीक है मां! कि मैंने श्वानवृत्ति अपनायी, झूठ बोला, कुतर्क किए, दूसरों की चुगली खायी- लेकिन तुम पर सदैव आस्था रखी है- अब तुम भी यदि मेरा परित्याग कर दोगी तो कौन मुझे अपनाएगा?

पण्डितराज की गंगा आस्था फलवती हुई। वे स्वरचित गंगा लहरी का एक-एक श्लोक एक-एक शिरवरिणी पथ गाते जाते थे, और गंगा की धारा ऊपर उठती जाती थी। अंतिम पद का पाठ पूरा होते ही, घाट पर खड़े लोगों ने आश्चर्य देखा कि स्वयं गंगा ऊपर उठी। आहत विगलित हो गया। चित्त निष्कलुख हो उठा। अत्यंत विनम्रता से बोले – मां गंगे। मैं अपने मूर्ख साथियों के साथ कहां -कहां नहीं भटका! किस – किस के पास नहीं गया, लेकिन कहीं भी शांति नहीं मिली। जाने कब से सो भी नहीं सका। पवन के प्रवाह से शीतल है-

पय: पीटवा भातस्तव सपदि यात: सहचरै
र्विमूढै: संरन्तुं क्वचिदपि न विश्रान्तिमगमम्।
इदानीमुत्सडें मृदृपवनसंचार शिशिरे
चिरादुन्निद्रं मां सदयर्हदये शायय चिरम।

अपनी विलक्षण प्रतिभा और विद्दत्ता के बल पर पूरी काशी को ललकारने वाला, शाहजहां के दरबार का वह पण्डितराज, जो भरे दरबार में उनके ही परिवार की राजकन्या का हाथ मांगने में संकोच नहीं करता, मां गंगा के सामने पूर्णतया निरीह, निष्कपट और निर्मल चित्त से याचना कर रहा है।-मां गंगे! तुम्हीं मुझे विमल कर सकती हो।

कितने ही संतों और साधकों को जीवन के परम सत्य का साक्षात्कार कराने वाली है गंगा। उनकी चिरंतन उपलब्धियों के सपनों को साकार किया है इसकी जलधारा ने। कहते हैं, शास्त्रों के वैदुष्य की अपेक्षा अन्त:करण की निर्मलता के आग्रही संत रविदास की उस कठौती में, जिसमें वे उपानह बनाते समय धर्म-प्रक्षालन किया करते थे, गंगा की जलराशी स्वत: भर गई थी।

यह कबीर की सारवी, इसमें भक्तों का जीवन-सरबस है,
तुलसी के तय का अमृतरस, इसमें रामचरितमानस है।
इसमें रमा साधकों का मन, सिद्धों का यह क्रीडांगण है,
दादू की मधुमति भूमिका, धुनिया की सम्मोहक धुन है।
श्री रविदास संत की निश्चल निष्ठा की यह पुण्य कहानी,
जिनके आँगन की कठवत में उतरा था गंगा का पानी।
(संवेदना के शिखर से)

हिन्दी के रीतिकालीन यशोधर कवि पद्माकर जब गंगा ने कितने; लोगों का उद्धार किया, इसकी गणना करने लगे, तो उन्हें आकाश के नक्षत्र भी कम लगे। सबको मोक्ष प्रदान करने में संलग्न गंगा को निहारकर उन्हें लगा कि अब यमराज के मीरमुंशी चित्रगुप्त जी को न तो अपने बहीखाते में लोगों के पुण्य -पापों का लेखाजोखा संजोने की जरूरत है और न इसके आधार पर किसी को नरक में भेजने की –

गंगा के चरित्र लखि भाष्यों जमराज यह.
ए रे चित्रगुप्त ! मेरे हुकुम पै कान दे।
मूंदि दरवाजेन, नरक सब मूंदि करि
रवाता रवति जान है, बही को बहि जान दे॥

हम सबके दुर्भाग्य से, सबके पाप धोती – पोंछती हुई यह मां गंगा आज स्वयं मलिनाम्बरा हो गई है। आवश्यकता है इसे पुन: श्वेताम्बरा करने की। यदि उसे स्वच्छ करने में अब भी हम प्रमादवश असफल रहे, तो कवियों की वह टोली, जो गंगा के किनारे चाण्डाल या कौवा तक बनकर भी रहने की इच्छुक है- श्वपाको काको का भगवति भवेयं तव तटे- (वंग – कवि पाठक) हमें क्षमा नहीं करेगी। बंगाल के ही अन्य संस्कृत- कवि लक्ष्मीधर की भी वह प्रार्थना भी अपूर्ण रह जाएगी, जिसमें उन्होंने धर्म महोत्सव की विजय – पताका जहनुनन्दिनी से प्रार्थना की है कि जीवन की अवसान वेला में गंगा का स्पर्श करती हुई अंतिम सोपान -शिला पर बैठकर, लहरों में कूदते -भूलते हुए, गंगा -गंगा पुकारते हुए और आंखों से सर्वात्मना गंगा को ही निहारते हुए शांति से प्राणत्याग करें।

धर्मस्योत्सववैजन्ति मुकुटसग्वेणि गौरीपते-
हत्वां रत्नाकरपत्नि! जहुतनये! भागीरथि ! प्रार्थये
त्वत्तोयान्तशिलाजिषण्ण – वयुषसत्वद्वीचिभि: पेड़रवत-
स्त्वन्नाभस्मरतस्त्वदर्पितदृश: प्राणा:प्रयास्यन्ति मे

मो. ः ९८६९२०६१०६

ओम प्रकाश पाण्डेय

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