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गंगा तीर केतीर्थ

गंगा तीर केतीर्थ

by विशेष प्रतिनिधि
in अगस्त-२०१५, सामाजिक
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बनारस, काशी, वाराणसी ऐसे विविध नामों से पहचाना जाने वाला यह महानगर शायद पृथ्वी पर बसा हुआ सबसे प्राचीन नगर होगा। वाराणसी भारत के उत्तर प्रदेश राज्य का एक शहर है। काशी, असी व वरुणा नदियों के संगम के किनारे बसा होने के कारण उसे ‘वाराणसी’ नाम पड़ा। काशी हिन्दुओं का सबसे पूजनीय स्थान है। यह पिछले तीन हजार वर्षों से पुराना माना जाता है। काशी स्थान सात मोक्षदायक पुरियों में से एक है तथा यहां के विश्वेश्वर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक हैं। काशी को वाराणसी, बनारस, अविमुक्त, रूद्रावास, आनंद कानन, महाश्मशान ऐसे कई नाम हैं। यहां पर हुई मृत्यु से मोक्ष मिलता है इस भावना से कुछ लोग अंतिम समय में यहां आकर देह त्याग करते हैं। विश्वेश्वर या विश्वनाथ यहां के महत्वपूर्ण देवता हैं। दशाश्वमेध, लोलार्क, भैरव, धुंडिराज या ढुंढिराज केशव, बिंदुमाधव और मणिकर्णिका घाटों का दर्शन करना महत्वपूर्ण माना गया है। काशी की पंचक्रोशी के ये पवित्र तीर्थ हैं। तीर्थयात्री वहां से आने के बाद स्नान करके साक्षी विनायक के दर्शन के लिए जाते हैं। गंगा नदी के पश्चिम किनारे पर बसा वाराणसी संसार के सबसे पुरातन शहरों में से एक माना जाता है। यह नगरी भारत की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में भी प्रसिद्ध है। इसी नगरी में काशी विश्वनाथ जी बसते हैं। यह मंदिर शंकर जी के बारह प्रमुख ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है। लोग यहां केवल दर्शनों के लिए ही नहीं आते वरन् जीवन में मोक्ष की प्राप्ति भी यहीं हो ऐसा उन्हें लगता है।
विदेशों से लोग यहां आते हैं और गंगाजी के घाटों पर बसे मठ, मंदिरों में जाकर मन को शांति देने वाले साधु-संतों के चरणों पर नतमस्तक होते हैं। इस शहर में करीब-करीब १६५४ मंदिर हैं। इसलिए इसे ‘मंदिरों का शहर’ भी कहा जाता है। विश्वेश्वर जी का मंदिर और गंगा जी का सानिध्य होने के कारण यह तीर्थ क्षेत्र ‘मोक्ष नगरी’ नाम से भी जाना जाता है।

यह मंदिर छोटा है। इसके मध्य भाग में एक चौकोर कुंड में विश्वेश्वर शिवलिंग की स्थापना की हुई है। काशी का प्रमुख मंदिर अर्थात् काशी विश्वेश्वर। परंतु विश्वनाथ जी का दर्शन करने के पूर्व धुंडिराज या ढुंढिराज विनायक के दर्शन लेने की परंपरा है। वैसे यहां विश्वनाथ की रक्षा के लिए आठ दिशाओं में अष्ट विनायक हैं। इनमें प्रथम वंदन साक्षी विनायक को, बाद में धुंडिराज विनायक, पश्चिम की ओर देहली विनायक, उत्तर की ओर पापशार्थी विनायक, दक्षिण की ओर दुर्गा विनायक, नैॠत्य की ओर भीमचंद्र विनायक, वायव्य की ओर उदंड विनायक और आखिर में ईशान्य की ओर सर्व विनायक।

धार्मिक महत्व

वाराणसी अर्थात् काशी का महत्व बहुत बड़ा है। पृथ्वी का जब निर्माण हुआ, तब प्रकाश की पहली किरण काशी की धरती पर ही पड़ी ऐसा माना जाता है। तबसे काशी, ज्ञान, अध्यात्म का केन्द्र बना। काशी के निर्माण होने के बाद कुछ समय शंकर जी ने यहां निवास किया था। ब्रह्मा जी ने दस घोड़ों का रथ दशाश्वमेघ घाट पर भेजकर उनका स्वागत किया था। स्कंद पुराण या ई.स. पूर्व ५०० से ९०० वर्ष पुराने पुराण में काशी की महत्ता दृष्टिगोचर होती है।

काशी विश्वनाथ मंदिर

गंगाजी के किनारे पर संकरी गली में विश्वनाथ जी का मंदिर है। उसके चारों ओर छोटे-छोटे मंदिर हैं। वहां एक कुंआ है उसे ‘ज्ञानव्यापी’ कहा जाता है। कुआं मंदिर की उत्तर दिशा में है। विश्वनाथ मंदिर के अंदर एक मंडप और गर्भगृह है। गर्भगृह के अंदर चांदी से मढ़ा हुआ परमेश्वर विश्वनाथ जी का साठ से.मी. ऊंचा शिवलिंग है। यह शिवलिंग काले पाषाण से निर्मित है। चहुंओर का वातावरण शिवमय है। विश्वेश्वर जी के दर्शन लेने के लिए तीन पुष्पहार लेने की परंपरा है। एक हार शंकर जी को, दूसरा माता पार्वती को, तीसरा हार पुजारी आशीर्वाद देते हुए भक्त के गले में पहनाते हैं और भक्त भी हार गले में पहने हुए ही आगे के मंदिर में जाते हैं। परम पूज्य जनार्दन स्वामी गुरू पूजा के समय उन्हें पहनाए हुए हार और नारियल भक्तों में बांट देते थे।

विश्वेश्वर जी के दर्शनोपरांत यात्री यहां के लोलकतीर्थ, केशव मंदिर व आदिकेशवघाट, पंचगंगाघाट – बिंदुमाधव मंदिर, दशाश्वमेध घाट व मणिकर्णिका तीर्थ व घाट इन प्रमुख पंच तीर्थों के दर्शन करते हैं। इसे ही ‘पंचक्रोशी’ यात्रा अथवा ‘परिक्रमा’ कहा जाता है।

वाराणसी में गंगा के किनारे सात कि.मी. लम्बाई वाले पत्थरों की सीढ़ियों वाले पक्के घाट बने हैं। समय समय पर देश के राजाओं व धनिकों द्वारा ये घाट बनवाए गए हैं। आदिकेशव, कपालमोचन, वेदेश्वर इ. घाट बारहवीं सदी के हैं। ५१ घाट उल्लेखनीय हैं। ५१वां घाट प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी के नाम से बना है।

अविमुक्तेश्वर मंदिर

शंकर-पार्वती कभी भी काशी छोड़कर नहीं जाते इसलिए इसे अविमुक्त नगरी भी कहा जाता है। अविमुक्तेश्वर का मंदिर हजारों साल तक था, औरंगजेब ने उसे ध्वस्त किया तब से काशी विश्वेश्वर प्रमुख देवता बने।

श्री बिंदु माधव मंदिर

दो संतों की याद दिलाने वाला यह प्राचीन मंदिर है। संत कबीर दास जी को गुरूपदेश यहीं मिला। तुलसीदास जी ने बिंदु माधव स्तवन यहीं लिखा था। दुष्ट औरंगजेब ने हजारों निरपराधों की हत्या कर यह मंदिर नष्ट किया।

काल भैरव मंदिर

यह काशी का प्रसिद्ध मंदिर है। काल भैरव काशी का रक्षण करते हैं। काल भैरव की मूर्ति उग्रस्वरूपी, जागृत है। मंदिर नष्ट करने के लिए जब मुसलमान घुसे तब लाखों की संख्या में भौरों ने उन पर आक्रमण किया, तौबा-तौबा करते हुए सैनिक भाग निकले। दर्शन करके निकलते हुए यहां हाथ में धागा और पीठ पर तीन डंडे मारने की प्रथा है तभी यात्रा सफल मानी जाती है।

मणिकर्णिका मंदिर

एक बार पार्वती जी रूठी हुई थीं। शंकर जी आकाश मार्ग से पार्वती को काशी में लाए। रास्ते में पार्वती जी के कान की बाली गिर गई उस जगह मंदिर बना। वही मणिकर्णिका मंदिर है।

काशी विश्वनाथ मंदिर का ऐतिहासिक महत्व

इस मंदिर का निर्माण ऐतिहासिक काल में हुआ था ऐसा माना जाता है। ईसवी सन् १७७६ में इन्दौर की महारानी अहिल्याबाई ने इस मंदिर के जीर्णोद्धार के लिए बड़ी रकम दान में दी थी। लाहौर के महाराजा रणजीत सिंह ने मंदिर के शिखर के लिए एक हजार किलो सोना दान में दिया था। १९८३ में उत्तर प्रदेश सरकार ने मंदिर का व्यवस्था कार्यभार अपने हाथ में ले लिया और काशी के पूर्व नरेश विभूति सिंह की नियुक्ति विश्वस्त के रूप में की।

पूजा अर्चना

यह मंदिर रोज अल सुबह २.३० बजे मंगल आरती के लिए खोला जाता है। सुबह ३ से ४ बजे तक आरती होती है। भाविक भक्त टिकट लेकर आरती में सहभागी होते हैं। तत्पश्चात् ४ से ११ बजे तक मंदिर सभी भाविकों के लिए खुला होता है। ११.३० से दोपहर १ बजे तक (नैवेद्य) भोग आरती का आयोजन होता है। १२ से शाम ७ बजे तक मंदिर में सार्वजनिक दर्शन की व्यवस्था है। शाम ७ से ८.३० तक सप्तर्षि आरती होती है। बाद में फिर से भाविक भक्त मंदिर में जाकर दर्शन ले सकते हैं। ९ बजे के बाद बाहर से ही दर्शन ले सकते हैं, अंदर प्रवेश नहीं मिलता। आखिर में रात्रि १०.३० बजे शयन आरती प्रारम्भ होती है। भक्तों द्वारा अर्पण किया हुआ प्रसाद, दूध, कपड़े, अन्य वस्तुएं गरीबों में बांट दी जाती हैं। यहीं संत एकनाथ महाराज ने ‘एकनाथी भागवत’ नामक वारकरी संप्रदाय का महान ग्रंथ लिखा।

गोमुख से गंगासागर तक का अंतर २५२५ कि.मी. है। मार्ग में कई तीर्थ क्षेत्र हैं। पुराण काल से ही गंगा को धार्मिक, सांस्कृतिक व आध्यात्मिक महत्व प्राप्त हुआ है। गंगा का उद्गम एक लाख वर्षों पूर्व हुआ होगा। जिस समय पृथ्वी पर बहुत अधिक आंतरिक बदल हुए व चीन और भारत के समुद्री लहरों में टकराहट बाद ऊंचे उठे भाग से हिमालय बना ऐसा भी माना जाता है। पौराणिक कथा के आधार पर शिवजी की जटा से गंगाजी का उद्गम हुआ, जटा खुलने पर जिस तरह केश फैलते हैं वैसा ही गंगाजी का उद्गम है। हम सब गोमुख को गंगाजी का उद्गम मानते हैं पर निश्चित उद्गम स्थान बताना कठिन है। हरिद्वार तक नदी का प्रवास पर्वतों खाइयों में से होता है, आगे समतल भूभाग की जमीन उपजाऊ है। अनेक नगर, शहर, साम्राज्यों का निर्माण हुआ, उद्गम से पूर्ववाहिनी गंगा जो गंगासागर में मिलती है आज प्रदूषित है। मल-मूत्र, कचरा, प्लास्टिक आदि अनेक कारणों से गंगा प्रदूषित हुई, अनेक वर्षों से इसकी ओर ध्यान नहीं दिया गया, अब आशा की एक किरण जागी है। गंगा को माता के समान मानने वाले भारत के प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने गंगाजी को प्रदूषण मुक्त बनाने का बीड़ा उठाया है। हम सब को भी उस कार्य में मदद करनी चाहिए। आज चारों ओर स्वच्छता अभियान शुरू हो गया है।

कानपुर-इलाहाबाद-हरिद्वार/ॠषिकेश तक रेल्वे से जाकर वहां से बस द्वारा ॠषिकेश-गंगोत्री प्रवास २४८ कि.मी, गंगोत्री-नंदनवन-

तपोवन-गंगोत्री ४५ कि.मी. पैदल भ्रमण तीन दिन।
पहला दिन :- गंगोत्री-भोजवासा १४ कि.मी. ७ घंटे
दूसरा दिन :- भोजवासा-गोमुख-नंदनवन-तपोवन १५ कि.मी. १२ घंटे
तीसरा दिन :- तपोवन-भोजवासा-गंगोत्री-२५ कि.मी. १२ घंटे

गंगोत्री की ऊंचाई ३०४८ मीटर। वहां से चीड़वास एक कि.मी., ऊंचाई ३६०० मीटर, स्वल्पाहार, भोजन एवं रहने की व्यवस्था है। स्वल्पाहार के बाद ५ कि.मी. दूर ३७९२ मीटर की ऊंचाई पर भोजवासा में पहले दिन का पड़ाव। चीड़वास में चीड़ के और भोज के थोड़े बहुत वृक्ष हैं। भोजवासा में पहले भोज पत्र (भूर्ज पत्र) के जंगल थे। अब जंगल और वृक्ष दोनों ही बचे नहीं। ग.म.वि. निगम के विश्राम गृह में वैसे ही लाल बाबा के आश्रम में भी रहने/खाने की सुविधा है। मौसम के अध्ययन के लिए एक संशोधन केंद्र है जो बारह माह चलता है। दूसरे दिन जल्दी उठकर ५ कि.मी. आगे गोमुख का दर्शन कर (भागरथी नदी का उद्गम) नंदनवन की ओर बढ़ें। गोमुख ३८९२ मी. ऊंचाई पर है। वहां से ४५०० मी. ऊंचाई चढ़नी पड़ती है। चतुरंगी व गंगोत्री हिमनदियां पार करनी पड़ती हैं। अंतर छह किलोमीटर है। मेहनत काफी हो जाती है। नंदनवन से शिवलिंग, भागीरथी, सुदर्शन, थेलू, केदार, डोम इत्यादि बर्फाच्छादित शिखरों के नयनरम्य दर्शन होते हैं। नंदनवन-तपोवन ५ कि.मी. का अंतर है। तपोवन की ऊंचाई ४४६३ मी. है, परंतु उसके लिए गंगोत्री हिमनदी को एक छोर से पार कर दूसरे छोर तक जाना पड़ता है। तपोवन में २-३ आश्रम हैं। बिनती करने पर ४-५ लोगों के विश्राम की व्यवस्था हो सकती है। प्रसाद रूप में खिचड़ी मिल जाती है।

तीसरा दिन

सुबह जल्दी उठ कर ६ कि.मी. दूरी पर भोजवासा में पहुंच कर स्वल्पाहार करके गंगोत्री वापस मुकाम के लिए आना होता है। पैदल चलते हुए रास्ते में हिमाच्छादित पर्वत शिखर, सृष्टि सौन्दर्य, अत्यंत शांत वातावरण देखकर परमेश्वरी कृपा के लिए हम नतमस्तक हो जाते हैं। यदि हमने स्वत: का तंबू व भोजन व्यवस्था साथ में रखी हो तो नंदनवन या तपोवन में ठहर सकते हैं। आगे गाइड को साथ लेना आवश्यक होता है। कारण कई जगह हिमनदियां एक निश्चित स्थान से पार करनी पड़ती हैं। तपोवन के आगे खड़ा पत्थर-कालिंदी खाल-अखानाला-धस्तोली-माना-बद्रीनाथ ऐसे कठिन साहसी पदभ्रमण भी कर सकते हैं। परंतु उसके लिए दो तीन जगह रुकना पड़ता है। रहने-खाने की व्यवस्था स्वत: ही करनी पड़ती है। ६००० मी. ऊंचाई हिम नदी के बीच से चढ़नी पड़ती है। गाइड आवश्यक है। पदभ्रमण के लिए जून से अक्टूबर तक का समय उपयुक्त होता है। गंगोत्री समुद्र तल से ३१४० एवं गोमुख ४००० मी. ऊंचाई पर है। चढ़ाई की अधिकता से थकान होती है। चेक पोस्ट के पास आने पर बर्फाच्छादित सुदर्शन शिखरों का दर्शन होता है। चारों ओर ऊंचे-ऊंचे पर्वत दाहिनी ओर गहरी खाई, उसमें से बहने वाली वेगवान भागीरथी, देखकर हृदय स्पंदन तेज हो जाता है। साधारण ४ कि.मी. पर बांयी ओर पहाड़ से एक जलप्रपात बहता है, उससे दो बड़े पाइप के माध्यम से गंगोत्री में जल व्यवस्था होती है। गंगा के पानी में क्षार और खनिज होने से वह पानी वहां पीने योग्य नहीं है। आगे छोटे पुल से जाना पड़ता है। वहां देवगंगा नदी आगे भागीरथी में मिलती है। चीड़बासा, चीड़ के पेड़ बहुत हैं। ये ९ कि.मी. के अंतर पर हैं। गोमुख को जाते समय पूर्व होने से सबेरे ही ८.३० बजे ही तेज धूप का सामना होता है। दोपहर में चीड़बासा में विश्रांति के बाद चीड़बासा से भोजवासा ५ कि.मी. दूर है। छोटी छोटी दो नदियां छोटे पुल से पार करनी पड़ती हैं। आगे बढ़ने पर मुरुम के पर्वत हैं। वहां से पत्थर खिसकते हैं। संकरा छोटा रास्ता, बगल में गहरी खाई होती है। इसलिए संभलकर चढ़ना-उतरना पड़ता है, ऐसे समय ईश्वरी नामस्मरण अपने आप शुरू हो जाता है। शाम को ११-१२ घंटे का प्रवास होने पर भोजवासा बंगाली बाबा के आश्रम में पहुंचते हैं।

चायपान थोड़ी राहत पहुंचाता है। आश्रम में ३०० रुपये देने पड़ते हैं। भोजन सेवा है। कमरों में ओढ़ने बिछाने की व्यवस्था है। ७ बजे भोजन, पीने को गरम पानी मिलता है। ऊंचाई पर होने से भूख कम लगती है। अधिक ठंड से नींद भी कम आती है।

दूसरे दिन प्रात: स्नान, चाय, अल्पाहार के बाद ४ कि.मी., गोमुख दर्शन के लिए आगे का प्रवास, यहां चढ़ाई कम है।
मुरुम का छोटा सा पर्वत उसमें गुफा है। उसमें से प्रचंड वेग से पानी बहता है। यही गोमुख है। गुफा तक जाना संभव नहीं है। बर्फ के ठंडे पानी में से जाना पड़ता है। आगे ५०० मीटर जाने की मनाही है ऐसा बोर्ड लगा है। वहां बर्फाच्छादित ३ शिखर हैं। दाहिनी ओर ऊंचा पर्वत है। उसका नाम शिवलिंग है। गंगोत्री से तपोवन, उसी रास्ते से वापस होते हुए ३ बजे तक भोजवासा पहुंचते हैं। आश्रम में श्रीरामचन्द्रजी का सुंदर मंदिर है। दिन भर का प्रवास, थकान, दर्शन की इच्छा पूर्ति, सभी कारणों से ठंड होते हुए भी नींद आराम से आती है। चीड़वासा से भोजवासा का रास्ता बहुत ही संकरा होने के कारण केवल १०० लोगों को ही वन कार्यालय से अनुमति मिलती है। इस प्रकार युवावस्था में करने लायक ३६ कि.मी. का यह ट्रेक है।

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