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सोशल नेटवर्किंग खतरे कि घंटी

सोशल नेटवर्किंग खतरे कि घंटी

by अमोल पेडणेकर
in अक्टूबर-२०१२, सामाजिक
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इस सोशल नेटवर्किंग में बच्चे, बूढ़े, नारी, नर सभी गिरफ्त हैं। उन्होंने इस साइट्स पर एक आभासी विश्व का निर्माण किया है और वे सोशल नेटवर्किंग के काल्पनिक विश्व में इस कदर जकड़े हुए हैं कि उन्हें इस बात का विवेक नहीं रहता कि इस सोशल नेटवर्किंग से क्या ग्रहण किया जाए और क्या नहीं। इस कारण आज की पीढ़ी की वास्तविक समाज से प्रत्यक्ष वैचारिक आदान-प्रदान में कमी हो रही है। मोबाइल, कम्प्यूटर के सहारे सदैव किसी न किसी के संपर्क में रहने का युवा पीढ़ी में व्यसन ही लगा हुआ दिखाई दे रहा है। संवाद, मनोरंजन तथा सूचना का आदान-प्रदान करने का एकमात्र माध्यम के रूप में सबसे पहले लोगों ने इस माध्यम को अंगीकार किया, पर मानव जाति के स्थायी स्वभाव के अनुसार उसने इस माध्यम की सहायता से दूसरों के व्यक्तिगत, धार्मिक, पारिवारिक, सामाजिक क्षेत्रों में दखल लेना शुरु किया और धीरे-धीरे इस सोशल मिडिया का राक्षसी चेहरा नजरों के सामने आने लगा।

पुरुषों की तरह महिलाएं भी इस फेसबुक का उपयोग कर रही हैं। फेसबुक के अत्यधिक उपयोग के कारण परिवार में संशय का वातावरण निर्माण हो रहा है। विश्व भर में एक-तिहाई तलाक के मामले में फेसबुक ही प्रमुख कारण रहा है। भारत में भी फेसबुक पारिवारिक विखंडन का प्रमुख कारण बनता जा रहा है। विद्यार्थी अपने मित्रों से मौज-मजा करने के लिए फेसबुक को ही माध्यम बना रहे हैं। मुंबई के बोरीवली में रहने वाले विद्यार्थी की एक कहानी तो बड़ी दुःखद है। स्कूल में कुछ कारण वश एक विद्यार्थी को शिक्षक ने ऊठ्ठक- बैठ्ठक करने की सजा दी थी। उसके सहपाठी ने उठ्ठक- बैठक करने की फोटो अपने मोबाइल से खींची तथा उसकी क्लिप फेसबुक पर लोड़ की और अपने मित्रों को फेसबुक पर वितरित कर दी। इस बात से गुस्साए उस विद्यार्थी ने अपने मित्र के सिर पर पत्थर से वार कर उसकी हत्या कर दी। दूसरा उदाहरण भी कम महत्वपूर्ण नहीं। फेसबुक पर भेजे गए एक प्रस्ताव को एक लड़की ने स्वीकार नहीं किया। इस कारण मेरा अपमान हुआ है, ऐसा मानकर फेसबुक पर प्रस्ताव भेजने वाले युवक ने उस प्रस्ताव को स्वीकार न करने वाली युवती तथा उसकी मां की चाकू से वारकर हत्या कर दी। पिछले दो- तीन वर्षों में इस तरह के अपराधों में भारी पैमाने में वृद्धि हुई है। इसी के साथ सोशल साइट से की जाने वाली बदनामी वाले मामले भी फेसबुक पर लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं। एक महत्वपूर्ण बात यह है कि ये सभी अपराध परिचित व्यक्ति द्वारा ही किए गए हैं। इस सभी बातों की ओर संवाद स्थापित करने के साधन के रूप में फेसबुक का उपयोग करने वालों को अंत्यंत गंभीरता से देखना होगा। व्यक्तिगत, पारिवारिक तथा सामाजिक जीवन में इस फेसबुक का आवश्यकता से ज्यादा उपयोग खतरे की घंटी के रूप में अब हमारे सामने आना शुरू हो गया है।

आसाम में घुसपैठ करने वाले बांग्लादेशी मुस्लिम तथा स्थानीय नागरिकों के बीच होने वाले संघर्ष को धार्मिक पार्श्वभूमि बनाकर गलत संदेश सोशल नेटवर्क के माध्यम से सर्वत्र विस्तारित करके, धार्मिक उन्माद फैलाने के लिए हिंसक आंदोलन के लिए मुस्लिम धर्म के युवकों को एकत्र किया गया। मुंबई में संप्रदायिक तनाव निर्माण करने का एक प्रयास इस साइट का उपयोग करके किया गया। फेसबुक के जनक मार्क जुकरबर्ग ने व्यक्ति-व्यक्ति के बीच संवाद बढ़ाने के लिए प्रभावी माध्यम के रूप में फेसबुक की संकल्पना को सामने रखा था, लेकिन वास्तविकता के धरातल पर इस संकल्पना का एक वीभत्स्य रूप ही समाज के सामने दिखाई देने लगा है। इस तकनीक ने जिस तरह से मानव के सकारात्मक मनोवृत्ति को अपनी गिरफ्त में लिया है, उसी तरह इससे मानव की विकृत प्रवृति का रूप भी सामने आया है।

मानव के रूप में हम आप को मिली अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का आवश्यकता से ज्यादा उपयोग मानव तथा समाज का मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डाल रहा है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता यह एक महत्वपूर्ण मूलभूत अधिकार है, लेकिन इस मूलभूत अधिकार के कारण देश का, समाज के प्रत्येक मानव का जीवन सुरक्षित रहना महत्वपूर्ण है। जिस कृति के कारण भारत की एकता, सुरक्षा, सुव्यवस्था जैसी बातों का अवमूल्यन होता है, तब व्यक्ति, समाज के लोगों को चुपचाप नहीं बैठना चाहिए। इस सोशल साइट पर सेंसर लगा दिया जाए, ऐसा विचार भी अब सामने लगा है। इस सेन्सर की योग्यता, अयोग्यता का मुद्दा क्षण भर के लिए भुला भी दिया जाए, तब भी एक प्रश्न शेष ही रहता है, वह यह कि देश के करोड़ों नागरिक इस विषय से जुड़े हुए हैं, उन्हें बुरी बातों के साथ-साथ अच्छी बातों की भी जानकारी इस माध्यम से मिल रही है। जिस सरकार को अपने एक विभाग के अधिकारी के भ्रष्टाचार को निपटाना मुश्किल होता है, वहीं सरकार करोड़ों फेसबुक तथा साइट्स यूजर्स पर सेन्सर कैसे लगाएगी? ऐसे समय यह सेन्सरशिप कितनी व्यवहारिक साबित होगी और इतनी बड़े पैमाने पर सभी को सेंन्सर करना संभव भी हो सकेगा या नहीं, यह भी विचारणीय मसला है।

अब तक सोशल मीडिया, फेसबुक जैसी समस्या जो व्यक्ति, परिवार और अधिक से अधिक युवकों की मानसिकता तक ही सीमित थी, अब इस तकनीक के नकारात्मक उपयोग को आतंकवादी ताकतें भारी चतुराई से प्रयोग में ला रही हैं, इसका ही एक उदाहरण आजाद मैदान में मुस्लिम दंगाईयों द्वारा किया गया उपद्रव है। देश के सभी प्रमुख शहरों से पूर्वांचल के युवकों का पलायन हुआ यह बात इसी सोशल साइट्स के कारण ही फैलाई गई, गलत अफवाह का ही परिणाम है। यह घटना भविष्य में सोशल नेटवर्क के जरिए आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने का संकेत ही मानी जाएगी। इस समस्या पर ठोस उपाय अपने पास वर्तमान में नहीं है। कुछ वर्ष पूर्व मुंबई की लोकल में बम विस्फोट हुआ था। उस समय आतंकवादियों ने बम से भरे डब्बों को लोकल के सामान रखने वाले रैक में रखा था। यह पता चलने पर सरकार ने अपनी कुदृष्टि का उपयोग कर रेलवे से सामान रखने का रैक ही निकालने का प्रस्ताव सामने रखा था, ऐसी मूर्खतापूर्ण सोच से फेसबुक की समस्या का उपाय संभव नहीं होगा।

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