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सुरेश्‍वरी भगवती गंगे

सुरेश्‍वरी भगवती गंगे

by वीरेन्द्र याज्ञिक
in अगस्त-२०१५, सामाजिक
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देवी सुरेश्वरी भगवती गंगे।
त्रिभुवन तारिणी तरण तरंगे॥
शंकर मौलि निवासनी विमले।
मम् मतिरास्तां तव पद कमले॥

भारतीय जन-जीवन तथा सांस्कृतिक चेतना में मां गंगा का स्थान सर्वोच्च है। हमारी सत्य सनातन भारतीय संस्कृति के पांच ऐसे तत्व हैं, जिनसे भारत राष्ट्र जाना जाता है। गंगा, गीता, गायत्री, गौ और गोविंद के बिना भारत की कल्पना भी नहीं की जा सकती। गंगा भारत की प्राण रेखा है। भारत की संस्कृति और संस्कार की जननी गंगा है। अनादि काल से न केवल गंगा भारत की सभ्यता और समृद्धि की साक्षी रही है, बल्कि गंगा ने संप्ाूर्ण भारत की अस्मिता को नई पहचान दी है। गंगा के सुदीर्घ तट पर भारत के जन ने अपने अस्तित्व को नए रूप में परिभाषित किया है। यहां की सत्य सनातन परम्परा का यह विश्वास है कि निराकार परमात्मा गंगा के रूप में निराकार होकर हमें दर्शन देता है जिसके दर्शन मात्र से मनुष्य मुक्त हो जाता है, इसके आचमन से उसके सारे पाप धुल जाते हैं और स्नान करने से उसे अक्षय प्ाुण्य की प्राप्ति होती हैं। गंगा का दर्शन, आचमन और उसमें अवगाहन व्यक्ति को पवित्र और निर्मल बना देता है। आध्यात्मिक दृष्टि के साथ-साथ ही आधिदैविक और आध्यात्मिक दृष्टि से भी गंगा हजारों वर्षों से भारत की समृद्धि और श्रीवृद्धि की साक्षी रही है।

भारत की परम्परा में वैसे भी जल का बहुत अधिक महत्व है। हमारे सभी अनुष्ठान, कर्मकाण्ड में जल का ही सर्वाधिक उपयोग होता है। यही कारण है कि वैदिक काल से ही नदियों के महत्व को स्वीकार किया गया है। नदियों के तटों पर ही हमारी सभ्यता का विकास हुआ है। हमारे सभी तीर्थ नदियों के तटों पर ही स्थित हैं। ऋग्वेद में सर्वप्रथम गंगा का उल्लेख मिलता है। नदी स्तुति में जिन नदियों का वर्णन है, उनमें गंगा का बड़ा ही भावप्ाूर्ण वर्णन किया गया है। नदी स्तुति में गंगा को जाह्नवी के नाम से अभिहित किया गया है। तथापि, प्ाुराणों में गंगा के संबंध में अनेक कथाओं का बड़ा ही भक्तिप्ाूर्ण वर्णन किया गया है। श्रीमद् भागवत प्ाुराण तथा स्कंध प्ाुराण में गंगा के पृथ्वी पर अवतरण की कथाओं का वर्णन है। भागवत प्ाुराण के पंचम स्कंध के सत्रहवें अध्याय में गंगा के अवतरण का बड़ा ही भावप्ाूर्ण वर्णन है। जिसके अनुसार जब राजा बलि की यज्ञशाला में, भगवान विष्णु ने वामन अवतार धारण कर राजा बलि से तीन पद पृथ्वी दान में चाही थी, तब राजा बलि ने अपने गुरु शुक्राचार्य की असहमति के बावजूद वामन को तीन पद धरती नापने की सहर्ष स्वीकृति प्रदान की थी। उसी समय वामन रूपी भगवान ने विराट रूप धारण कर अपने पहले पद में संप्ाूर्ण पृथ्वी को नाप लिया था और दूसरे पद में जब उन्होंने आकाश को नापना चाहा तो उनके बाएं पैर के अंगूठे के अग्रभाग के नख से ब्रह्मांड के ऊपरी भाग में छिद्र हो गया। उस छिद्र में से ब्रह्मांड से जल का अजस्र स्रोत फूट पड़ा, उससे भगवान के चरणों का प्रक्षालन हुआ, उनके पैरों में लगी केसर का रंग जल में घुल जाने से जल का रंग भी पीत रक्ताभ हो गया। यही बाद में स्वर्ग के ऊपरी भाग में स्थित धु्रवलोक में अवतरित होकर ब्रह्मलोक में आई तो गंगा को ब्रह्माजी ने अपने कमंडल में स्थापित कर लिया। वे शंकर की जटाओं से होते हुए गंगा बनकर पृथ्वी पर अवतरित हुई और अनंत काल से भारत के जन-मन की अधिष्ठात्री बन कर भारत का कल्याण कर रही है।

पृथ्वी पर गंगा के अवतरण की एक अन्य कथा के अनुसार इक्ष्वाकु वंश के राजा सगर के साठ हजार प्ाुत्र थे। वे सभी बड़े ही पराक्रमी और अजेय माने जाते थे। एक समय राजा सगर ने अपने राज्य की सुख समृद्धि और चक्रवर्ती साम्राज्य की स्थापना की दृष्टि से अश्वमेध यज्ञ का बृहत् अनुष्ठान किया और इस हेतु ‘अश्व’ को विश्वविजय की कामना से छोड़ दिया। देव लोक के देवराज इन्द्र से महाराजा सगर के इस प्रभुत्व को देखा न गया। उन्होंने अपनी माया से राजा सगर के अश्व को चुरा कर महर्षि कपिल के आश्रम में छुपा दिया। जब राजा सगर को इस बात का पता चला तो उन्होंने अपने सभी प्ाुत्रों को अश्व की खोज में भेजा। सगर के ये सभी प्ाुत्र अश्व को खोजते खोजते महर्षि कपिल के आश्रम पहुंचे। आश्रम में ‘अश्व’को देखकर सगर प्ाुत्रों को बड़ा क्रोध आया। आश्रम में तपस्यारत महर्षि कपिल समाधि में लीन थे। सगरप्ाुत्रों ने समझा कि महर्षि कपिल ने ही उनके ‘अश्व’ को यहां चुरा कर रखा है। उन्होंने महर्षि को अनेक प्रकार के दुर्वचन कहे। अनेक वर्षों से तपस्यारत् महर्षि कपिल की समाधि में विघ्न पड़ समाधि भंग हुई और जैसे ही महर्षि कपिल ने अपने नेत्र खोले और सगरप्ाुत्रों पर दृष्टि डाली वे सभी साठ हजार सगर प्ाुत्र वहीं भस्म हो गए। अश्वमेघ यज्ञ प्ाूर्ण न हो सका। सभी सगर प्ाुत्रों की अकाल मृत्य्ाु हुई थी। उनका विधिवत् रूप से अंतिम संस्कार न होने के कारण उन सभी सगरप्ाुत्रों की आत्माओं की मुक्ति नहीं हो सकी और वे सभी भटकने लगीं। महाराजा सगर को उनके प्ाुत्रों की इस प्रकार अकाल मृत्य्ाु का समाचार देवर्षि नारद ने दिया। इस समाचार से सगर अत्यंत शोक संतप्त हो गए और उनसे अपने प्ाुत्रों की आत्मा की मुक्ति का उपाय प्ाूछा। नारद जी ने बताया कि महर्षि कपिल से ही प्रार्थना करें और वे ही उनके मृत प्ाुत्रों की मुक्ति का रास्ता बता सकते हैं। महाराजा सगर ने महर्षि कपिल के चरणों में अपने साठ हजार प्ाुत्रों की अतृप्त आत्माओं की मुक्ति की प्रार्थना की। महर्षि कपिल ने प्रसन्न होकर सगर को उपाय बताते हुए कहा कि यदि वे स्वर्ग से भगवती गंगा की धारा को पृथ्वी पर अवतरित कराके, उससे अपने प्ाुत्रों की राख को गंगा जल से प्रक्षालित करेंगे, तो उनके सभी प्ाुत्रों की मुक्ति हो जाएगी। महाराजा सगर अपने एक पुत्र अंशमान को राजगद्दी सौंप कर गंगा को अवतरित करने के उद्देश्य से तपस्या हेतु वन में गए, किन्तु अधिक दिन जीवित नहीं रहे और उनकी वन में ही मृत्य़ु हो गई। इसके बाद अंशमान ने अपने प्ाूर्वजों के मोक्ष के लिए गंगा को पृथ्वी पर लाने के प्रयत्न किए लेकिन असफल रहे। उनके प्ाुत्र महाराजा दिलीप ने भी गंगावतरण के प्रयत्न किए, तीन पीढ़ियों की तपस्या के बाद दिलीप प्ाुत्र भगीरथ ने उग्र तपस्या की। ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर गंगा को पृथ्वी पर अवतरित होने का निर्देश दिया। तथापि, गंगावतरण के वेग को सहन करने के लिए भगवान शंकर से प्रार्थना की गई। शंकर ने सहर्ष अपनी जटाओं में गंगा के प्रवाह को धारण किया। शंकर की जटाओं का स्पर्श प्राप्त करके गंगा का स्वरूप और अधिक निखरा। वह अधिक निर्मल और मनोरम बन कर जब पृथ्वी पर अवतरित हुई, तब वह त्रिभुवन तारिणी कहलाई। इक्ष्वाकु वंश के परम तेजस्वी तपस्वी भगीरथ के प्ाुरुषार्थ और साधना से गंगावतरण पृथ्वी पर हुआ और तबसे लेकर आज तक यह संप्ाूर्ण आर्यावर्त्त गंगा के जल से पोषित और पल्लवित हो रहा है। महापराक्रमी भगीरथ के नाम से गंगा का नाम भागीरथी पड़ा। चूंकि भगीरथ के प्रयत्न से यह सब संभव हो सका, अतः प्रयत्न और प्ाुरुषार्थ के सर्वोच्च मानदंड को भागीरथ प्रयत्न नाम दिया गया।

गंगा का एक नाम जान्हवी भी है। प्ाुराणों में यह उल्लेख मिलता है कि जब गंगा अपने प्ाूरे वेग से पृथ्वी पर उतर रही थी, उससे पृथ्वी पर तपस्या और साधना में लीन महर्षि जाह्नू को बड़ा कष्ट हुआ। गंगा जल की गति से उनका संप्ाूर्ण आश्रम नष्ट हो गया तथा उनकी तपस्या भी भंग हो गई। क्रोधित जाह्नू ने गंगा के संप्ाूर्ण जल को पी लिया। देवताओं ने महर्षि से प्रार्थना की। महर्षि जाह्नू प्रसन्न हुए और उन्होंने अपने कर्ण (कान) से प्ाुनः गंगा को प्रवाहित कर दिया। इस कारण गंगा का नाम जान्हवी पड़ा।

महाभारत के आदि पर्व में प्रसंग आता है कि महर्षि वशिष्ठ के शाप से मुक्त होने के लिए वसुओं ने गंगा से उनकी माता बनने की प्रार्थना की। गंगा ने प्रार्थना स्वीकार की और महाराजा शान्तनु से सशर्त विवाह किया। विवाह के लिए गंगा की शर्त थी कि शान्तनु उनके किसी भी कार्य पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाएंगे और यदि महाराज ने गंगा के किसी भी कार्य के लिए उनसे प्ाूछा तो वे उन्हें छोड़ कर चली जाएंगी। शान्तनु ने उसकी सहमति दी और गंगा ने शान्तनु से विधिवत विवाह करके सात प्ाुत्रों को जन्म दिया। जैसे ही प्ाुत्र जन्म होता, गंगा उसे अपने जल में बहा देती थी और शर्त के अनुसार शान्तनु मौन रह जाते थे, किन्तु जब आठवां प्ाुत्र उत्पन्न हुआ तो शान्तनु से रहा न गया और उन्होंने आठवें प्ाुत्र को भी प्रवाहित करने का कारण प्ाूछ लिया। गंगा ने इसे शर्त का उल्लंघन बताया। फलस्वरूप उसने आठवें प्ाुत्र को राजा शान्तनु के पास छोड़ा और स्वयं तिरोहित हो गई। ये आठवें प्ाुत्र देवव्रत बाद में गंगाप्ाुत्र भीष्म के रूप में प्रसिद्ध हुए। महाभारत काल के सर्वाधिक सम्मानीत और प्रतिष्ठित व्यक्तित्व के रूप में उनका प्ाुण्य स्मरण आज भी हमें प्रेरणा देता है।

मोक्षदायिनी गंगा भारत की ही नहीं विश्व की सर्वाधिक पवित्रतम एवं सम्मानीय नदी है। गंगा हिमालय के गंगोत्री से प्रारंभ होकर उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, झारखंड, बिहार, प. बंगाल राज्यों की २५११ कि.मी. की यात्रा तय करती हुई अंततोगत्वा बांग्लादेश में बंगाल की खाड़ी में तिरोहित होती है। गंगा केवल नदी नहीं है, बल्कि भारतीय मनीषा इसमें अपनी मां के मातृत्व का दर्शन करती हैं। गंगा भारत की सनातन संस्कृति की साक्षी रही है। इसके किनारे, किनारे भारत के पावन तीर्थों का विकास हुआ है। ऋषिकेश, हरिद्वार, प्रयाग, वाराणसी ये सभी शहर गंगा के तट पर बसे हैं। गंगा ही ऐसी नदी है, जिसके तट पर प्रत्येक १२ वर्षों में हरिद्वार में तथा प्रयाग में कुंभ का विश्व प्रसिद्ध मेला लगता है, जिसमें करोड़ों लोग आते हैं और गंगा में स्नान करके अपने को धन्य करते हैं। प्रतिदिन, भारत का प्रत्येक व्यक्ति स्नान करते समय यही अनुभव करता है, उस पर पड़ने वाला जल गंगा ही है।

गंगे! च यमुने। चैव गोदावरी। सरस्वती
नर्मदे, सिंधु, कावेरी, जलेऽस्मिन सन्निधि कुरू

गंगा की महिमा इतनी है कि भारत की कोई भी नदी क्यों न हो वह उस क्षेत्र की गंगा ही कहलाती है। महाराष्ट्र की गोदावरी हो या कर्नाटक की कावेरी हो, उस क्षेत्र की वे गंगा हैं। गंगा का जल इतना अधिक निर्मल और पवित्र है कि इसको अमृत को संज्ञा दी गई है। ‘गंगा तेरा पानी अमृत’ – यह अमृततत्व इसके जल में है। वर्षों तक गंगा जल घरों में रहता है, किन्तु खराब नहीं होता। गंगा को लोकमाता कहा गया है। प्रार्थना में कहा गया है कि हे मां, मां के रूप में जिस प्रकार बच्चे को स्तनपान करा कर उसका पोषण करती है, वैसे ही अपने शिवतम रस का पान करा कर हमें प्ाुष्ट करें।

तथापि, आधुनिक सभ्यता और विकास के नाम पर हमने पवित्र, प्राणदायिनी गंगा को बड़ी निर्ममता से अपवित्र और प्रदूषित कर दिया है। हमारे पाप के कारण आज गंगा विश्व की सबसे अधिक प्रदूषित नदियों में से एक है। यद्यपि भारत सरकार ने गंगा को प्रदूषण मुक्त करने का महाभियान चलाया है, किन्तु सबसे बड़ा दायित्व हमारा स्वयं का है कि हम भारत के लोग अपनी अस्मिता और अस्तित्व की प्रतीक गंगा को कितना शुद्ध और निर्मल रखते हैं। यदि लोगों में इसके प्रति जागरूकता बढ़ेगी और गंगा में बहाई जाने वाली गंदगी, रसायनों को नियंत्रित किया जाएगा तो गंगा शुद्ध रहेगी और हम भी बचे रहेंगे, अन्यथा गंगा के साथ-साथ हमारा भी विनाश निश्चित है। अतः हम सब भारत के लोगों का यह पावन कर्त्तव्य है कि अपने जीवन के लिए गंगा की अविरत और निर्मल धारा को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए सभी प्रयत्न किए जाएंगे। वैसे प्ाुराणों में तो उल्लेख मिलता है कि मनुष्य के कुकृत्यों के कारण ऐसा समय आएगा, जब गंगा के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगेंगे और गंगा का अविरल प्रवाह अंततोगत्वा अवरुद्ध होगा। इस त्रासदी से बचने के लिए क्या यह अच्छा नहीं है कि हम गंगा के महत्व को समझें, उसकी शक्ति का अनुभव करें और अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए हम गंगा से ही प्रार्थना करें कि वह हमें सद्बुद्धि प्रदान करें ताकि हम उसके संरक्षण के संकल्प के साथ उसकी सेवा कर सके।

वीरेन्द्र याज्ञिक

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