हिंदी विवेक
  • Login
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
हिंदी विवेक
No Result
View All Result
मैं गंगा बोल रही हूं!

मैं गंगा बोल रही हूं!

by pallavi anwekar
in अगस्त-२०१५, सामाजिक
0

गंगा! वही गंगा जिसे आप सब लोग गंगा मां, गंगा मैया, भागीरथी, जान्हवी आदि नामों से जानते हैं, पुकारते हैं। भारतवासियों से मेरा नाता केवल मेरे जल तक सीमित नहीं है। क्योंकि नदी का जल किसी कारणवश खत्म हो सकता है परंतु मां की ममता अपने बच्चों के प्रति कभी कम नहीं होती। किसी व्यक्ति का जीवन जितना पुराना होता जाता है उसके साथ उतनी ही किवदंतियां, दंतकथाएं जुड़ती चली जाती हैं। मेरे साथ भी ऐसा कुछ हुआ है। धरती पर मेरे अवतरण से लेकर अभी तक कितनी ही पीढ़ियां मैंने देखी हैं। सभी पीढ़ियों ने अपनी अगली पीढ़ी को मेरे अवतरण की, मेरे देवत्व की, मेरी पवित्रता की जो कहानियां सुनाईं मैंने वे सभी स्वीकार कर लीं; क्योंकि उन सभी में आस्था और श्रद्धा का भाव है।

मेरा जीवन भी किसी सामान्य स्त्री की तरह ही हर आयु से गुजरा। अंतर केवल इतना ही है कि मेरी आयु को मनुष्यों की काल गणना के अनुरूप वर्षों में नहीं नापा जा सकता। अन्य सभी भाव, सुख-दुख के सभी क्षण उसी तरह मेरे जीवन में भी आए जिस तरह अन्य स्त्रियों के जीवन में आते हैं। मेरा जीवन कई वरदानों और श्रापों से भरा है। भारतवर्ष के कई लोगों के पुनर्जन्म की कथाएं भी मुझ से ही जुड़ी हुई हैं। अपनी जीवन गाथा को आज आपके सामने रखते हुए मैं फिर संस्मरणों से गुजर रही हूं। इतने बड़े जीवनकाल की सारी घटनाएं याद रहना अत्यंत कठिन है, परंतु कुछ घटनाओं की अमिट छाप मेरे मन पर है।

गंगा मां बनने के पूर्व अर्थात इस धरती पर अवतरण के पूर्व मेरा पालन पोषण स्वर्ग में ब्रह्मा जी की छत्रछाया में हो रहा था। उनके कमंडल में मैं ठीक वैसे ही अठखेलियां खेला करती जैसे कोई नन्हीं बच्ची अपने पिता के आंगन में करती है। बुद्धि और रूप दोनों ही से सम्पन्न मैं धीरे-धीरे बड़ी हो रही थी। उस काल में पृथ्वी पर इक्ष्वाकु वंश का एक सामा्राज्य था। इस वंश के महाभिष नामक महाप्रतापी राजा को उनके पुण्य कार्यों के कारण स्वर्ग की प्राप्ति हुई। वे एक बार ब्रह्मा जी के महल में पधारे। वहां मैं और अन्य देवतागण उपस्थित थे। ब्रह्मा जी की पुत्री होने के कारण मेरी ओर देखने की कोई हिम्मत नहीं करता था; परंतु राजा महाभिष के आते ही हम दोनों ही एक दूसरे की ओर आकर्षित हो गए। यह था मुझे मिले पहले श्राप का कारण। हमारी इस कृति के कारण ब्रह्मा जी ने हम दोनों को श्राप दिया कि हमें भूलोक पर अवतार लेना होगा और महाराज महाभिष को मेरे कारण अत्यंत दुख सहना पडेगा। वे इस श्राप से तभी मुक्त हो पाएंगे जब वे मेेरे अर्थात गंगा के कृत्य पर क्रोधित होंगे। महाराज महाभिष ने अपनी भूल को स्वीकार करते हुए ब्रह्मा जी का श्राप स्वीकार किया; परंतु उनके सामने कुरू वंश में जन्म लेने की इच्छा व्यक्त की। ब्रह्मा जी ने उनकी इस इच्छा को मान कर उन्हें अगले जन्म में राजा शान्तनु के रूप में जन्म लेने का वरदान दिया।

मैंने आपसे पहले ही कहा था कि मेरी कहानी के साथ अन्य कई लोगों के विधिलिखित पुनर्जन्म भी जु ्रे हुए हैं। महाराज महाभिष और मुझे मिले श्राप के साथ ही वशिष्ठ ॠषि द्वारा आठ वसुओं को मिला श्राप भी जुड़ा हुआ था। वे सभी वसु मेरे पास आए तथा उन्होंने मेरे द्वारा अपनी मुक्ति की कामना व्यक्त की। मां होकर अपने ही पुत्रों की हत्या…। मेरा मन क्रंदन कर उठा। विधि लिखित बातों को बदलना कभी भी मेरे हाथ में नहीं था परंतु मैंने कम से एक पुत्र को जीवित रखने की शर्त रखते हुए उन आठ वसुओं के उद्धार की कामना को मान्य किया।
अब समय था पृथ्वी पर मेरे अवतरण का। अत्यंत नियोजित तरीके से हो रहे कार्यों के बीच मेरा अचानक पृथ्वी पर प्रकट होना संभव नहीं था। मेरा जन्म भूलोकवासियों का उद्धार करने के लिए होना था।

कई वर्षों के बाद पृथ्वी पर महाप्रतापी राजा हुए सगर। उन्होंने अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए अश्वमेध यज्ञ किया। राजा सगर के प्रताप से देवों के राजा इंद्र भी भयभीत थे और उन्हें अपना सिंहासन जाने का भी भय था। देवराज इंद्र ने उनके अश्वमेध यज्ञ के अश्व को चुराकर कपिल मुनि के आश्रम के बाहर बांध दिया। राजा सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों को उस अश्व की खोज में जाने के लिए कहा। वे पुत्र अश्व खोजते-खोजते कपिल मुनि के आश्रम में पहुंचे। कपिल मुनि इन सारी बातों से अनभिज्ञ कई वर्षों से ध्यानमग्न थे। अश्व को वहां देख सगर के पुत्रों ने सोचा कि कपिल मुनि ने ही अश्व को चुराया है। वे मुनि को प्रताडित करने लगे। कपिल मुनि का ध्यान भंग हो गया। कई वर्षों के उपरांत आंखें खोलने के कारण उनकी आंखों से अग्निवर्षा होने लगी और राजा सगर के सभी साठ हजार पुत्र जलकर भस्म हो गए। उनकी आत्माएं भूलोक पर भटकने लगीं। जब राजा सगर के वंशज भगीरथ को यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने अपने पूर्वजों का उद्धार करने की शपथ ली। उनका उद्धार तभी संभव था जब उनकी अस्थियों को मुझ में प्रवाहित किया जाता। भगीरथ ने अपने अथक प्रयत्नों से ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया और मुझे धरती पर आने के लिए मना लिया। परंतु एक समस्या और थी मेरे वेग की। स्वर्ग से धरती पर आते समय मेरा वेग इतना अधिक था कि धरती उसे सहन नहीं कर पाती। अत: ब्रह्मा जी ने भगीरथ को शिव जी को प्रसन्न करने का सुझाव दिया जिससे वे अपनी जटाओं में मेरे वेग को बांध सकें। भगीरथ ने अपने कठोर तप से शिव जी को भी प्रसन्न किया। अंतत: मैंने शिव जी की जटाओं में प्रवेश किया और उन्होंने अपनी एक जटा खोलकर मुझे धरती पर प्रवाहित किया। ये वही रूप है जिसे आज आप देख रहे हैं।

भगीरथ मुझे रास्ता दिखाते हुए आगे चल रहे थे। मैं उनके दिखाए मार्ग पर चलते हुए वहां पहुंची जहां भगीरथ के पूर्वजों की अस्थियों की भस्म थी। वह भस्म अपने आप ही मुझमें समा गई और सगर के साठ हजार पुत्रों का उद्धार हुआ। भगीरथ ने जिस कार्य के लिए मुझे पृथ्वी पर उतारा था वह कार्य पूर्ण हुआ। अत: मैंने उनसे गंगासागर में मिलने की आज्ञा मांगी, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। उस दिन से आज तक मैं गंगोत्री से गंगासागर का प्रवास कर रही हूं।

राजा सगर के पुत्रों का उद्धार करने के बाद अब बारी थी आठ वसुओं के उद्धार की। ब्रह्मा जी के श्राप के अनुसार राजा महाभिष ने कुरु वंश में शांतनु के रूप में जन्म लिया। राजा शांतनु रोज मेरे तीर पर आते और लंबी अवधि मेरे सान्निध्य में बिताते। एक दिन उन्होंने मेरे सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। किसी भी युवती के लिए यह क्षण अत्यंत सुखकर होता है। और उस पर अगर प्रस्ताव रखने वाला व्यक्ति कुरु जैसे विशाल साम्राज्य का महान राजा हो तो वह युवती आनंद सागर में हिलोरे लेने लगती है। मैंने राजा शांतनु के प्रस्ताव को स्वीकार किया; परंतु यह शर्त रखी कि वे मेरे किसी भी कृत्य पर प्रश्न नहीं करेंगे। राजा ने प्रेमवश मुझे यह वचन दिया तथा हम दोनों विवाह बंधन में बंध गए। चूंकि मेरा धरती पर अवतरण ही सब का उद्धार करने वाली मां के रूप में हुआ था अत: किसी भी अन्य संबंधों में बंधने के बाद भी मेरा ध्यान अपने पुत्रों पर ही था। मैंने राजा शांतनु के साथ कुरु वंश की साम्राज्ञी तथा पत्नी होने के सभी सुखों का उपभोग किया। कालांतर मैंने आठ वसुओं को आठ पुत्रों के रूप में जन्म दिया। जैसे ही किसी बालक का जन्म होता मैं उसे अपनी धारा में प्रवाहित कर देती थी। कहना जितना सरल था करना उतना ही कठिन। कोई मां अपने नवजात शिशु को पानी की धारा में प्रवाहित कर देती है, यह सुनकर ही रोंगटें खडे हो जाते हैं परंतु मैंने यह किया क्योंकि मैंने उनका उद्धार करने का वचन दिया था॥जो हूक मेरे हृदय में उठती थी उसका प्रतिबिंब, उसका दर्द मैं अपने प्रिय राजा शांतनु की आंखों में देखती थी। परंतु वे भी मुझसे कोई प्रश्न न करने के वचन से बंधे थे। अपने सात नवजात पुत्रों को नदी में प्रवाहित होते हुए वे चुपचाप देखते रहे। अंतत: आंठवें पुत्र को प्रवाहित करने से पहले उन्होंने मुझे रोक लिया और इस कृत्य का कारण पूछा। मैंने राजा को उनके तथा अपने पूर्व जन्म की सारी कथा, अपने धरती पर अवतरण की कथा तथा वसुओं के उद्धार की कथा बताई। अब हमारे अलग होने का समय आ चुका था। राजा शांतनु ने अपना वचन भंग कर दिया था। उन्होंने कई बार मुझसे क्षमा प्रार्थना की और रुकने के लिए कहा, परंतु मेरा जाना अटल था। सोलह वर्ष बाद आंठवें पुत्र को लौटाने का वचन देकर मैंने सजल नेत्रों से उनसे विदा ली।

सोलह वर्ष बाद मैंने अपने पति शांतनु को सभी शस्त्र-शास्त्रों में पारंगत और भगवान परशुराम के शिष्य देवव्रत को सौंप दिया। अपने इस पुत्र को उसके पिता को सौंप कर मैं मेरे अन्य सभी पुत्रों का उद्धार करने के लिए मुक्त हो गई थी। परंतु मैंने कभी भी देवव्रत से यह अधिकार नहीं छीना कि वह अपनी मां की गोद में न आ सके। वह अपने हर सुख-दुख में मुझे याद करता। अपनी पीड़ा को मेरे जल में डूब कर शांत करता। उसका उत्तरीय जब मेरे प्रवाह में बहता था तो मुझे भी शांति मिलती थी। देवव्रत के भीष्म बनने की सारी प्रक्रिया मैंने देखी। कुरु वंश के लिए उसके द्वारा किया गया त्याग देखकर मुझे गर्व होता है कि मैं उसकी मां हूं।

कुरु वंश से जुड़े हर पहलू की मैं साक्षी हूं। भीष्म की तरह ही मुझे मां मानने वाले एक और पुत्र का यहां उल्लेख करना मैं आवश्यक समझती हूं। शायद इसलिए कि इसके जन्म की कहानी भी भीष्म की तरह ही है। हालांकि दोनों की आयु का अंतर इतना है कि वह भीष्म को पितामह कहता है। इसकी मां ने भी इसके जन्म के बाद इसे नदी में प्रवाहित कर दिया था। लोक लाज के भय से कुंवारी माता होने का कलंक लेकर वह जी नहीं सकती थी। परंतु विधाता जिसे बचाना चाहे वह मर नहीं सकता। वह शिशु बड़ा हुआ और कर्ण के रूप में भीष्म के पौत्र दुर्योधन का सबसे घनिष्ठ मित्र बना। पांडवों का भाई होने बावजूद उसे हमेशा ही सूत पुत्र पुकारा गया। कर्ण ने भी मेरे तीर पर बैठ कर अपने मन के अंदर चलने वाले आंदोलनों शांत किया। महाभारत युद्ध में वीर गति प्राप्त करने के बाद जब पांडवों के सामने सत्य उद्घाटित हुआ तो उन्होंने अपने भाई का अंत्य संस्कार कर उसकी अस्थियों को मुझ में ही प्रवाहित किया। भीष्म ने भी इच्छा मृत्यु का आलिंगन करने से पूर्व मेरे जल का प्राशन करने की इच्छा प्रगट की थी। अपने बेटे की इस इच्छा के पूर्ण करने के लिए मैंने अपनी एक धारा को वहां से बहा दिया जहां अर्जुन ने तीर मारा था।

अपने इन सारे पुत्रों, उनकी कई पीढ़ियों को देखते हुए मैं निरंतर बहती जा रही हूं। काल का प्रवाह, संस्कृतियों के बदलाव और भौगोलिक परिवर्तनों की साक्षी जितनी मैं हूं उतना शायद ही कोई और होगा। मेरे अवतरण काल से लेकर आज कलियुग तक लोगों का मेरी ओर देखने का दृष्टिकोण निरंतर बदलता रहा परंतु मैंने सभी को सदैव अपने पुत्रों के रूप में ही देखा। भौगोलिक सीमा रेखाओं को पार कर यहां की सभ्यता और संस्कृति पर कई लोगों ने प्रहार किए जिन्हें यहां के लोग विदेशी कहते थे। वे भी मेरे तीर पर आकर उसी शांति का अनुभव करते थे। मेरे तीर पर आकर बस जाने की कामना करते थे। मेरे किनारे साधना करने वाले साधुओं तपस्वियों से मेरे बारे में चर्चा करते थे।
धीरे-धीरे मानव आध्यात्मिक और भावनात्मक बातों की जगह व्यावहारिक बातें सोचने लगा। मेरे प्रवाह का अधिकाधिक दोहन कैसे किया जा सकता है, इसका विचार उसके मन में आने लगा। उसने मेरे प्रवाह को रोक कर बांध बनाए। मेरे किनारे नगर बसाए, कल कारखाने लगाए। मेरा इनमें से किसी बात के लिए विरोध नहीं है। परंतु अगर मेरा प्रवाह ही खत्म हो गया तो मानव के लिए ही क्या बचेगा? मुझमें आत्मशुद्धिकरण की प्रबल क्षमता है। परंतु मुझे यही करने से रोका जा रहा है। मेरे प्रवाह को ही बाधित किया जा रहा है। आज भारत के एक बड़े हिस्से में मेरा स्वरूप नदी का रहा ही नहीं है और अगर ऐसा ही रहा तो एक दिन मेरा अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।

अब व्यावहारिक दृष्टि से ही सही परंतु मेरी स्वच्छता का अभियान शुरू किया गया है। मुझे स्वर्ग से धरती पर लाने के लिए एक भगीरथ काफी था, परंतु आज मेरी जो अवस्था है उसके लिए किसी एक भगीरथ के प्रयत्न काफी नहीं होंगे। कलियुग को संघशक्ति का युग कहा जाता है। इसलिए मेरी शुद्धता के लिए भी सांघिक प्रयत्न आवश्यक है।

pallavi anwekar

Next Post
गंगा तेरा पानी अमृत

गंगा तेरा पानी अमृत

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी विवेक पंजीयन : यहां आप हिंदी विवेक पत्रिका का पंजीयन शुल्क ऑनलाइन अदा कर सकते हैं..

Facebook Youtube Instagram

समाचार

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लोकसभा चुनाव

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लाइफ स्टाइल

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

ज्योतिष

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

Copyright 2024, hindivivek.com

Facebook X-twitter Instagram Youtube Whatsapp
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वाक
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
  • Privacy Policy
  • Terms and Conditions
  • Disclaimer
  • Shipping Policy
  • Refund and Cancellation Policy

copyright @ hindivivek.org by Hindustan Prakashan Sanstha

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In

Add New Playlist

No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण

© 2024, Vivek Samuh - All Rights Reserved

0