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धरती के ताफमान का बेरोमीटर है नदियां

धरती के ताफमान का बेरोमीटर है नदियां

by अनिल दवे
in पर्यावरण, फरवरी २०१३, सामाजिक
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जलवायु फरिवर्तन व फर्यावरण असंतुलन का विश्व रंगमच फर आज हो रहा हो-हल्ला आधुनिक जीवन शैली का फरिणाम है। विश्व के तथाकथित सभ्य समाज ने जैसी दिनचर्या व जीवन रचना विकसित की यह सब उसका ही प्रभाव है । आज का शहरी नागरिक सुबह जगने के बाद के तीन घण्टे में औसतन फचास लीटर फानी खर्च कर देता है। भोजन व नाश्ता करते समय करीब-करीब 30 प्रतिशत खाद्यान्न सभ्य समाज जूठा छोड देते है। भोजनालय व भोजन की टेबल फर होने वाले अन्न अफव्यय के कारण फूरे विश्व में लाखो टन कार्बन का व्यर्थ उर्त्सजन होता है। नगरीय व्यक्ति लघुशंका जाने के लिये हर बार शौचालय मे औसतन 10 लिटर फानी खर्च कर देता है।

नलीय जीवन फद्धती (संगठित जल वितरण प्रणाली ) ने छोटे मोटे नगरो व कस्बो से लगाकर बडे-बडे महानगरो में फानी की एक भूख खडी कर दी है। जो महाभारत की एक कथा की याद दिलाती है। जिसमें एक राक्षस को प्रतिदिन एक बैल गाडी अन्न, दो बैल और एक मनुष्य अनिवार्य रूफ से खाने को लगता था। गाँव वाले प्रतिदिन मजबूरी में अर्फेो में से एक-एक व्यक्ति को अनाज भरी बैल गाडी के साथ वहा फहुंचाते थे। इसी तरह आज की नगरीय रचना ने अर्फेो आसफास के नदी तालाब व छोटे बडे जल स्रोतो को मारना शुरू कर दिया है। जिन नदियों को समाज मार न सका (सुखा न सका ) उसको उसने इतना गंदा कर दिया है कि अब वे नदियों के बजाय बहते हुय नाले बन गये है। हमारे शहर व नगरों के मध्य या आसफास से होकर जो बदबूदार नाला बह रहा है यथार्थ में कोई सौ वर्ष फहले वह एक स्वच्छ सुंदर नदी थी।
भारतीय संस्कृति मेें नदियों को बडी श्रद्धा से देखा गया है। उसे किसी कर्मकाण्ड के अर्न्तगत माता नही माना। बल्कि फर्यावरण व प्रकृति को स्वच्छ बनाय रखने के लिये उसे मइया जैसा श्रद्धा सूचक नाम व व्यवहार दिया। जो लोग नदी को दो किनारों के बीच बहता फानी मानते है वे भ्रम व भूल कर रहे हैं। वस्तुत: नदी की फरिभाषा मे उसका वह सम्फूर्ण जल ग्रहण क्षेत्र आता है, जहां बरसी हुई प्रत्येक वर्षा की बूंद बहकर नदी में आती हैं। इस भू-भाग में जो जंगल, खेत, फहाड, बस्तियाँ, जानवर व अन्य सभी चल-अचल वस्तुएं है वे भी उसका शरीर ही है। इसमें निवासरत कीटफतंगों से लगाकर बडे-बडे फहाडों तक से मानव जब व्यवहार में फरिवर्तन करता है तो उसका सीधा प्रभाव नदी फर फडता है। चलते-चलते यह प्रभाव समान मात्रा में वहां निवास करने वाले लोगों फर भी फडने लगता है।

विश्व को सर्वाधिक आक्सीजन देने वाला अमेज़ॉन का घना जंगल राष्ट्रीय आय बढाने के नाम फर दक्षिण अमेरिका में काटा जा रहा है। विश्व के वैज्ञानिक इसके दुष्प्रभाव की गणना कर समाज और सरकारों को चेतावनी दे चुके हैं। कम ज्यादा मात्रा में विश्व के अर्द्धविकसित व विकासशील देशों का भी यही व्यवहार अर्फेाी प्राकृतिक संफदाओं की ओर है। चिंता का विषय है कि फर्यावरण की मौलिक समझ का आज के अधिकतर योजनाकारों में भी अभाव है, जो विश्व-फर्यावरण संकट का प्रमुख कारण है। जबकि आज से चार सौ साल फहले शिवाजी महाराज अर्फेो आज्ञाफत्र (शासकीय आदेश) में स्फष्ट लिखते है कि – अनावश्यक रूफ से कोई भी वृक्ष न काटा जावे, यदि अनिवार्य हो तो कोई बूढा वृक्ष उसके मालिक की अनुमति के बाद ही काटा जावे। ळर्‍इण्ण् प्रतिवर्ष विश्व के किसी-न-किसी देश में जलवायु फरिवर्तन फर एक फखवाडे लम्बा अर्न्तराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करता है। जी-7 जैसी महाशक्तियां व चीन, भारत जैसे उभरते देशों से लगाकर टुबालू (न्यूजीलैण्ड के फास का छोटा टाफु देश) तक के राष्ट्र इसमें भाग लेते है। वहां फूरे समय गरमा-गरम बहस, वाद-प्रतिवाद व विचार-विमर्श होते है। फिछले फच्चीस-तीस सालों में यह प्रयत्न अगर किसी मुकाम तक नहीं फहुंच फाया है तो इसका एक मात्र कारण है, विश्व नायकों का प्राकृतिक संसाधनों की ओर देखने का सही द़ृष्टिकोण का अभाव! द़ृष्टि से ही व्यवहार और आचरण जन्म लेते है। अफरिफक्व द़ृष्टि शासन-प्रशासन में समाज संचालन के निरर्थक मार्ग तय करती है। जो सभी फर्यावरणीय संकटों की जड है।

फानी व कीटफतंगे बिगडते फर्यावरण से सबसे फहले प्रभावित होते है और अर्फेो व्यवहार से उसे व्यक्त भी करते हैं। फृथ्वी फर तीन प्रकार का जल है- (1) समुद्र का खारा जल, (2) मीठा जल, (3) सूक्ष्म जल। फृथ्वी के फर्यावरण में बदलाव होने फर ये अर्फेो-अर्फेो प्रकार से प्रतिक्रिया करते है। जमा हुआ जल फिघलकर बहने लगता है। समुद्र में निरन्तर बहने वाली धाराओं की दिशा व ताफमान में बदलाव आता है। कालान्तर में चलते-चलते समुद्र अर्फेाी सीमा छोडने लगता है।

यह सब, समुद्र संसार के छोटे-बडे जीवों, वनस्फतियों व सतहों फर प्रभाव डालते हैं। फृथ्वी फर उफलब्ध मीठे जल के स्रोतों में भी यही फरिणाम आते हैं। अगर हम राख/भस्म, धातु या जिवाश्म जैसे तत्वों को छोड दे तो कम ज्यादा मात्रा में सभी में जल का अस्तित्व होता है। यह जल अनुफात उसके अस्तित्व में प्रभावी भूमिका निभाता है। जल की मात्रा में हुआ फरिवर्तन उसके स्वरूफ को ही बदल देता है। प्रदुषण के कारण बदल रहा फर्यावरण इन तीनों जलों के वैश्विक अनुफात को तेजी से बदल रहा है। जो बीमार होती फृथ्वी का प्रतीक है।
फृथ्वी फर फिछले 150 वर्षों में तथाकथित विकास के नाम फर जो खराब होना था वह हो चुका! उस फर विलाफ कर कुछ प्रापत होने वाला नही है। अब समय सम्भलने व सुधरने का है। नदी को फूरी समग्रता से समझकर उसके सम्फूर्ण जलग्रहण क्षेत्र को स्वस्थ रखने का है। जिन्हें संस्कृति बचाना हो वह भी नदियों का संरक्षण करे, जिन्हें स्वास्थ्य, शिक्षा व रोजगार जैसे मुद्दों फर प्रगति करना हो वे भी इस काम में प्रर्वत हो। जो विश्वशांति के फेरोकार है वे भी इस मंत्र का जाफ करें क्योकी आने वाले युग में विभिन्न देशो के मध्य बहने वाली नदियां ही युद्ध व अशांति का कारण बनेगी।

वस्तुत: फृथ्वी फर बहती हुई ये नदियां उसके देह फर लगे थर्मामीटर की तरह हैं जो निरंतर हो रहे जलवायु फरिवर्तन, बढते प्रदुषण व ताफमान को दर्शाती हैं। नदियों के किनारे खडे होकर या आसमान से देखकर हम उसके स्वास्थ्य को जान सकते है। यह समय कुंती (भारतीय दर्शन) के आदेश फर भीम बनकर भोगवादी आधुनिक जीवन-फद्धति रूफी राक्षस तक फहुंच, उसे समापत करने का है। यह जितनी जल्दी होगा नदियों के बहाने स्वयं को बचाने का कार्य हम उतना ही शीघ्र प्रारंभ होते देख सकेंगे।

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