दो महान विभूतियां-विवेकानंद-सावरकर

व्यक्ति की आयु सीमा अधिक से अधिक 100 वर्ष होती है। दूसरे शब्दों में कहें तो उसका अस्तित्व एक शतक तक ही होता है, उसके शरीर के नष्ट होने के बाद वह पूरी तरह से खत्म हो जाता है। लेकिन कुछ व्यक्ति इसके अपवाद होते हैं।

कई शतकों को लांघने के बाद भी उनकी ज्योति और तेज बरकरार रहती है, उनकी अस्मिता, उनके विचार समाज में अपनी जगह मजबूती से बनाए रखने में सफलता हासिल करते हैं। हम ऐसे व्यक्तियों को कालजयी व्यक्ति के रुप में परिभाषित करते हैं, ऐसे कालजयी व्यक्तियों के बारे मैं कभी-कभी विलक्षण अनुभव भी आते हैं। सभी कालजयी व्यक्तियों के जीवन में काफी हद तक समानता दिखाई देती है। मन को अंचभित कर देने वाले ऐसे ही दो कालजयी व्यक्तित्व हैंं स्वामी विवेकानंद और स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर। नरेंद्र विवेकानंद बने तथा विनायक वीर कहलाए।

विवेकानंद ने एक बार कहा था कि-अगर कोई मेरी मातृभूमि के खिलाफ एक शब्द भी कहेगा तो मैं उसे समुद्र में फेंक दूंगा, ऐसी गर्जना करने वाले स्वामी विवेकानंद कहा करते थे कि- भारत देश का धर्मग्रंथ नीचे रखकर ही खुद के धर्मग्रंथ को उच्चा स्थान देने का षडयंत्र पाश्चिमात्य देशों ने रचा। स्वामी जी ने बताया कि पाश्चिमात्य देशों में भी भारत ज्यादा मजबूत है, अगर उसे निकाल लिया गया तो आप क्षण भर में नीचे गिर जाएंगे।

स्वामी विवेकानंद की भारत विरोधियों की ललकारने की यह पद्धति ही उसे कालजयी बनाती है। समुद्र में छलांग लगाकर ब्रिटिश लोगों को चुनौती देने वाले तथा दो बार काला-पानी की सजा भुगतने वाले शांत चित्त होकर आपकी हुकुमत इस देश में उस समय तक टिक पाएगी क्या, ऐसा अंग्रेजी हुकुमत से पूछने वाले विनायक सावरकर को किसी योगी से कम मानना ठीक नहीं।

स्वामी विवेकानंद और स्वातंत्र्य वीर सावरकर के जीवन में ऐसी विलक्षण समानता देखने का मिलती है। ये दोनों बाल्यकाल से कुछ अलग धारा में चलने की कोशिश करते रहे और उनकी यह कोशिश रंग लाई तथा ये दोनों भारत विलक्षण व्यक्तित्व बन गए। इन दोनों को वास्तव में क्या चाहिए था, इसका पता किसी को नहीं चला। ये दोनों किसी की खोज ‘करते रहे और इन दोनों ने भयंकर यातनाएं भी सहन कीं। यातनाएं सहन करने के बाद ही उन्होंने अपने लक्ष्य की ओर से ध्यान नहीं हटाया। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने अपने शरीर की भी चिंता नहीं की। दोनों ही आत्मानंद में लीन हो गए।

वीर सावरकर ने अंडमान-निकोबार में जो यातनाएं सहन की, उसे हर किसी ने सुन रखा है। इन यातनाओं को सहन करते हुए वीर सावरकर जीवित रहे, वे सिर्फ जीवित ही नहीं रहे, अपितु उन्होंने समाज के अन्य लोगों को भी जीवित रहने का संबल प्रदान किया। अपने साथ रहने वाले लोगों तथा उनके परिजनों को सावरकर जी ने यह भी भरोसा दिलाया था कि हम लोग ये सब किस लिए कर रहे हैं। सावरकर की सामाजिक समक्ष कितनी प्रखर थी, यह उनकी रणनीति से पता चल जाता है। अगर भारतभूमि के सभी लोग स्वामी विवेकानंद तथा सावरकर के आदर्शों पर चलने लगे तो इस देश को फिर वही गौरव प्राप्त हो जाएगा।

स्वामी विवेकानंद तथा वीर सावरकर का जीवन-दर्शन यही बताना है कि विपरीत परिस्थिति में भी कैसे सफलतापूर्वक जीया जा सकता है। स्वामी विवेकानंद कहा करते थे कि-मैं अपने पूरे जीवनकाल में यज्ञ करुंगा। आप में से सभी को यज्ञ करना चाहिए। मुझ पर विश्वास रखिए, हम लोग अपने जीवन का हवन कर रहे हैं। इसके माध्यम से भविष्य में समूचे विश्व में आमूल-चूल परिवर्तन होंगे। इस कारण कर्मठ व प्रगतिशील कार्यकर्ता और कई वीर देश की रक्षा के लिए तैयार होंगे। विवेकानंद ने भारत भ्रमण किया। इस यात्रा का समापन कन्याकुमारी में हुआ। भारत भूमि के अंतिम सिरे पर बने समुद्र में छलांग लगा कर ही वे वहां पहुंचे थे। यहां के मंथन से ही उन्हें जो आत्मज्ञान प्राप्त हुआ, उसके बूते पर ही अपने साथ के संन्यासियों को किसी मठ में न भेजकर उन्हें भारत भूमि के जनजागरण लिए भेजने का निर्णय लिया। सावरकर ने रत्नागिरी में पतित-पावन मंदिर का निर्माण करके विवेकानंद की ही तरह कार्य किया। दोनों ही महान वक्ता, विचारक थे।
विवेकानंद और सावरकर ने समाज को यही सीख दी कि समर्थ समाज और समर्थ सेना के निर्माण में किसी तरह की लापरवाही बरती गई तो सामाजिक पतन होने से कोई रोक नहीं सकता।

1962 में चीन ने अतिक्रमण करके सावरकर-विवेकानंद के विचारों को एक बार फिर उल्लेखित कर रहे हैं। विवेकानंद और सावरकर के सामाजिक सुधार विषयक विचारों में भी जबर्दस्त समानता हैं। विवेकानंद ने जाति-पाति का विचार छोड़कर यहां का हर व्यक्ति जिस दिन सुशिक्षित, सुसंस्कृत होगा, उसी दिन, यह राष्ट्र समर्थ राष्ट्र के रूप में विश्व के अग्रिम स्थान पर रहेगा। सच्चा भारत झोपड़ियों में बसता है, ऐसा स्वामी विवेकानंद अक्सर कहा करते थे। उनका मानना है कि सुधार का आशय भौतिक बातें नहीं हैं। सुधार का संबंध मानव मात्र के ह्दय से है। मानव का आंतरिक विकास करना ही स्वामी विवेकानंद और वीर सावरकर का मुख्य लक्ष्य रहा और उसकी पूर्ति के लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन लगा दिया।

संघर्ष नहीं, सहायता, दूसरे का नाश नहीं, अच्छे लोगों का साथ और मतभेद नहीं सुसंवाद तथा शांति ये घोष वाक्य प्रत्येक धर्म की पताका पर लिखा जाएगा, ऐसी भविष्यवाणी स्वामी विवेकानंद ने शिकागो में हुई धर्म परिषद में की थी, इसलिए देश का हर व्यक्ति विशेषकर युवा अगर स्वामी विवेकानंद तथा स्वातंत्र्य वीर सावरकर को अपना आदर्श मान लें तो उनका जीवन सुखद तथा सुंदर बनने में देर नहीं लगेगी।

कालीमाता के उपासक रामकृष्ण परमहंस का हाथ मस्तक पर पड़ते ही नरेंद्र सामान्य से विलक्षण व्यक्ति बनने की ओर अग्रसर हुए और वे विवेकानंद के रूप में कालान्तर में चर्चित हो गए। वे सामान्य व्यक्ति न रहकर तत्वज्ञ हो गए, संत कहलाए, महात्मा कहलाए, पर जब जरूरत पड़ी तो उन्होंने बेफिक्र हाकर कहा- नकारो के सिर पर मारो लाठी, विवेकानंद का यही विचार दर्शन उन्हें भीड़ में एक अलग चेहरा बनाता है।

22 जून, 1897 की घटना ने 16 वर्ष के विनायक को स्वातंत्र्य वीर सावरकर बना दिया। इस युवक ने भारत को आजादी दिलाने के लिए कालीमाता की उपासना शुरु की, उसने स्वातंत्र्य देवता की उपासना की। दोनों ने ही तपस्या की कठोर परिश्रम किए। दोनों ने भले ही साधना अलग-अलग की, उद्देश्य एक ही था। भारत माता की विश्व में सर्वोच्च स्थान पर आसक्ति करने की उनकी ही इच्छा थी, इसके लिए अपना सर्वस्व अर्पित कर देने की तैयारी खुद के जीवन को यज्ञकुंड बनाकर उसमें प्रयत्नरुपी समिधा से तर्पण करने की तैयारी ने दोनों को महान बना दिया। 28 मई, 1883 को विनायक दामोदर सावरकर भारतमाता की गोद में जन्मे और 22 फरवरी, 1966 को उनके चरणों में समर्पित हो गए। वे स्वातंत्र्यवीर के नाम से पहचाने गए, वे कवि थे, तत्वज्ञ भी थे। साथ ही साथ वे विलक्षण बुद्धिमान भी थे। सामान्य जनता के समक्ष यदि सावरकर को दी गई यातनाओं का विवरण ही प्रस्तुत किया तो उनके पसीने छूट जाएंगे। यातनाओं का सहजता से सह कर कमल की तरह का काव्य लिखने वाले अलौकिक कवि ही थे सावरकर। 83 वर्ष का ‘धन्योऽहं कृर्ताथोस्ति’ कहने वाले सावरकर ने देश के लिए जो कुछ किया, उसे कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता।

1863 में जन्मे स्वामी विवेकानंद सिर्फ 39 वर्ष ही भारत भूमि की सेवा में रहे। ज्ञान और भक्ति से अलग दूसरा कोई कर्म नहीं है। ज्ञान और भक्ति से कर्म की उत्पत्ति होती है। मनुष्य की सेवा और ईश्वर पूजा पराक्रम, श्रद्धा, सदाचार और आध्यात्मिकता इन दोनों में उनकी दृष्टि से कोई फर्क नहीं था। इन दोनों का जीवन इन सिद्धांतों पर टिप्पणी करने वाला ही था। (बहन निवेदिता) सावरकर तथा विवेकानंद ये दोनों पूर्व तथा पश्चिम के विचार भंडार के विवेकपूर्ण उद्गगाता थे। इन दोनों ने देश को ‘उत्तिष्ठ जाग्रत’ का संदेश दिया। स्वातंत्र्यवीरों को क्रांतिकारी कहा जाता है। क्रांति और हिंसा का अटूट रिश्ता होता है इस कारण क्रांतिकारी हिंसक होते हैं, ऐसी कुछ लोगों की धारणा है। सावरकर जी को हत्यारा साबित करने की लगातार कोशिशें की जाती रहीं। 1957 के स्वतंत्रता संग्राम से भारत की आजादी की जंग शुरू हुई इसमें कई लोगों ने अपना जीवन अर्पित कर दिया, ऐसे करने वाले राह भुले हुए लोग थे, ऐसा कहने वाले विदेशी न होकर स्वदेशी ही थे, इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा।

वस्तुस्थिति यह है कि हिंसा फैलाने के बारे में देश में किसी ने कभी-भी प्रचार-प्रचार नहीं किया, जो बताया गया है, वह समर्थ की अहिंसा का मूल तत्त्व है। स्वामी विवेकानंद और वीर सावरकर ने भी इसी तत्त्व को आधार बनाया। तुकाराम या रामदास स्वामी ने भी समर्थ की ही बातों को प्रसारित किया। आक्रमक न होइए, पर आक्रामकता के समक्ष लाचारी भी न दिखाएं। शरीर में आने वाली क्रोध की तरेंगों पर सावार होकर उसे काबू में रखे, यही संदेश सावरकर तथा विवेकानंद ने भी दिया।

दिग्भ्रमित समाज को झकझोर कर जगाने का कार्य इन दोनों ने किया। स्वामी विवेकानंद ने कभी अपने मठ की स्थापना नहीं की। पूजा-अर्चना करने पर जोर नहीं दिया, अपने भक्त नहीं बनाए, चमत्कार के सहारे लोगों को भ्रमित करने जैसा कार्य कभी नहीं किया।

स्वातंत्र्य वीर सावरकर और स्वामी विवेकानंद को अद्वैत तत्त्वज्ञान का सच्चा अर्थ समझ में आ गया था। दोनों का प्राचीन भारतीय ग्रंथों तथा वेदों का गहरा ज्ञान था, लेकिन इस दोनों ने प्राचीन भारतीय ग्रंथों का पूजा-अर्चा न करके उसमें क्या लिखा गया है, उसका अर्थ समाज को समझाया। सर्वसामान्य मानव के दु:खों को जानकर विवेकानंद बेहद दुःखी होते थे। विवेकानंद मानव के इस दु:ख के कारणों की भी अच्छी तरह से जानते थे। मानव अपने दु:ख लेकर बैठा रहता है, वह लाचार हो जाता है। ज्ञान प्राप्ति न करके, कर्मयोग को नकारते हुए वह गलत मार्ग पर चलता रहता है। यह जानकर ही विवेकानंद तथा वीर सावरकर ने मानव को जगाने का मार्ग चुना। एक व्यक्ति का विचार न करके समाजोत्थान का विचार करने के कारण ही विवेकानंद तथा वीर सावरकर समाज के लिए आदर्श बने। विदेशी आक्रमणों के कारण देश की संस्कृति का मूलाधार ही खत्म हो गया था, इसलिए विवेकानंद और वीर सावरकर का ध्येय एक ही तरह का माना गया। उन्होंने देश को स्वतंत्रता के लिए प्रखरता से तैयार सहने के लिए भारतीय लोगों की मानसिकता तैयार की।

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