वसंत का गणित

वसंत के आगमन के साथ ही महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का स्मरण हो आता है। वसंत पंचमी को उनका जन्मदिन मनाया जाता है। उन सरस्वती पुत्र की स्मृति में पेश है संस्मरण का यह सम्पादित अंश।

यही दिन होंगे वहां भी। वसंत पंचमी आकर चली गयी होगी। सुबह को अभी भी कड़कड़ाती ठंड होगी, लेकिन अब दिन-दिन उसकी तेजी कम होने लगी होगी, धूप की सुनहरी किरणें सुबह के पतले पड़ते कोहरे को चीरकर रोशनी की धारियां बनाने लगी होंगी। गेहूं के खेत घुटनों भर उठ आए होंगे और गेहूं के कच्चे हरे बालों में एक-आध पके, पीले बाल भी दिखने लगे होंगे। सरसों ग्रामवधू की पिंडलियों तक बढ़ आई होगी और कलियों से लद गई होगी। जहां ज्यादा धूप पड़ती होगी, वहां कलियां फूट चली होंगी और पीले फूल पलकें खोलने लगे होंगे।

जाने क्यों इन दिनों मुझे याद आने लगती है अपने प्रयाग की गंगा! संगम की नहीं, झूंसी की नहीं, द्रौपदी घाट की भी नहीं- रसूलाबाद की गंगा। जाड़े में गंगा की धारा बस्ती से बहुत दूर खिसक गई थी। इधर बस्ती के पास छूट गया था एक रेतीला कछार- क्षितिज तक फैला हुआ, अनंत अछोर! वसंती दोपहर की धूप में चांदी की घुंघरुओं की तरह झलमलाता हुआ, गंगाजल से धुला हुआ रेतीला कछार!!

मीलों फैले इस कछार पर दो छोटे बिंदुओं की तरह धीरे-धीरे चल रहे दो व्यक्ति। एक का नाम है गंगा प्रसाद पांडेय और दूसरे का नाम है धर्मवीर भारती। उन्हें सजा मिली है एक मील तक रेत में जाने की, बिना रुके एक मील लौटकर उसी पीपल तले आने की। हांफ गए हैं वे पर रुक नहीं सकते, अवज्ञा नहीं कर सकते उसकी, जिसने यह सजा सुनाई है। किसने सुनाई है यह सजा? क्यों सुनाई है? जरा धीरज रखिए, अभी जान जाएंगे आप।

मेरे दिवंगत मित्र गंगा प्रसाद पांडेय उन दिनों शायद रसूलाबाद में साहित्यकार संसद में रहते थे। यह भवन महादेवीजी को मिला था, शायद सरकार से कि यहां वे समय-समय पर साहित्यकारों का सम्मेलन कर सकें। जो साहित्यिक यहां एकांत में, गंगातट पर रहकर लेखन-कार्य करना चाहें या स्वास्थ्य-लाभ करना चाहें, वे रह सकें। उनकी देखभाल तथा उस एकांत भवन की सुरक्षा के लिए वहां रहते थे पांडेयजी।
एक दिन पहले ‘कॉफी हाउस’ में उनसे यह तै हुआ था कि लोकनाथ से केसरिया बर्फी, पुरवारजी की दूकान से मेवे तथा खादी भंडार से रेशम का दुपट्टा लेकर सुबह-सुबह मैं साइकिल पर रसूलाबाद पहुंच जाऊंगा। फिर हम दोनों मिलकर उस महापुरुष का जन्मदिन मनाएंगे, जो उस समय साहित्यकार संसद भवन में टिके हुए हैं।

लगभग नौ बजे सुबह पहुंचा मैं। पांडेयजी आकुलता से इंतजार कर रहे थे। वे कहां हैं? मैंने पूछा। पांडेयजी ने इशारे से दिखाया। सुबह की उस सर्दी में, गंगा किनारे की सर्द हवा में वहां बैठे थे, जहां पीपल के तने को घेरकर एक चौकोर चबूतरा बनाया गया था। सिर्फ एक लुंगी पहने, नंगे पांव, नंगे बदन, वे गंगा की ओर देखते हुए जाने क्या बुदबुदा रहे थे। हम लोग थाल में मिठाई-मेवा रखकर पहुंचे, उनका पांव छुआ तो उन्होंने मुड़कर हम लोगों की ओर देखा, आशीर्वाद दिया और पूछा, ‘‘पांडे, ई कौन है?’’ पांडेयजी ने परिचय दिया, ‘‘भारती है, आपसे कई बार मिल चुके हैं, कवि हैं, परिमल में हैं।’’

‘‘कविता करते हो, क्यों…? कुछ और क्यों नहीं करते…?’’
‘‘और भी करते हैं’’, पांडेयजी बेचारे ने बचाव के लिए कहा, ‘‘इस वर्ष से विश्वविद्यालय में पढ़ाना शुरू किया है।’’
‘‘अच्छा!’’ वे किचिंत संतुष्ट होकर बोले, ‘‘क्या पढ़ाते हो?’’
मैं बोला, ‘‘हिंदी!’’

‘‘हिंदी पढ़ाते हो। अच्छा, गणित जानते हो?’’
‘‘ज्यादा तो नहीं, थोड़ा’’ (गणित से मुझे शुरू से अरुचि थी)।
‘‘गणित नहीं जानते तो हिंदी कैसे पढ़ाओगे? गणित सीखो तो हिंदी समझ में आएगी।’’
मैं बहुत हतप्रभ। आज लगता है बुरी साइत से निकले- मैं सोच रहा था।
फिर वे बोले, ‘‘कोई बात नहीं। मुझसे गंडा बंधवा लेना। मैं तुम्हें गणित पढ़ाऊंगा। ऊंची गणित…क्या कहते हैं उसे… ‘हायर मैथमेटिक्स’। उसी में कविता होती है, समझे?’’

‘‘जी’’, मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया।
‘‘जी क्या?…परीक्षा दो। आज तुम क्यों आए हो? मेरा जन्मदिन है न? पंचमी है न? अच्छा बताओ, पंचमी का गणित क्या है?’’
‘‘पंचमी का गणित?’’ मैंने बहुत सोचकर कहा, ‘‘यानी पांचवां दिन, माघ की शुक्ल पंचमी!’’

‘‘बस! विश्वविद्यालय में पंचांग पढ़ाते हैं?…यह पंचमी का गणित है! तुम परीक्षा में फेल। अच्छा पांडेय, तुम ही बताओ?’’
‘‘अब निरालाजी, आपका प्रश्न आप ही समझें। मेरे तो प्रश्न ही समझ में नहीं आया। उत्तर क्या बताऊंगा,’’ पांडेयजी ने जरा कड़ककर जवाब दिया। ‘‘हूं!’’ निरालाजी ने और जोर से कड़ककर हुंकार भरी, ‘‘पांडेय, तुम ‘डबल फेल’!’’ फिर मुस्कुराकर बोले, ‘‘चलो, मुरगा बनो दोनों!’’ पर दूसरे ही क्षण उन्होंने सजा में तब्दीली कर दी। ‘‘नहीं, मुरगा बनने से कुंडलिनी अवरुद्ध होगी। जितने मूर्ख हो, उससे ज्यादा मूर्ख हो जाओगे। तुम ऐसा करो, यह गंगा की रेती है न, इसमें बिना रुके एक मील जाओ और बिना रुके एक मील लौटकर आओ। सजा भोग लो, फिर बताऊंगा पंचमी का गणित।

मेरे चेहरे पर थोड़ी झल्लाइट देखकर पांडेयजी ने मुझे आंख से इशारा किया, कंधे पर हाथ रखकर आगे ले गए। कुछ दूर कछार की रेत पर चलने के बाद ठठाकर हंसे, ‘‘कौन मूरख जाता है एक मील! थोड़ा आगे चलके, आड़ में कहीं बैठ के सुस्ताएंगे। घंटे भर बाद लौट आएंगे। अब निरालाजी ने कहा है तो, न कहा टाल सकते हैं, न उतनी मेहनत कर सकते हैं, समझे!!’’

वही हुआ, लगभग दो-तीन फर्लांग चलने के बाद आ गए सरसों के खेत, चने के खेत और रखवारों की दो झोपड़ियां। एक झोपड़ी के छप्पर पर, धूप में खाट रखी थी। हम लोगों ने खाट खींचकर उतारी, चने के खेत से पांडेयजी होरहा उखाड़कर लाए। हम दोनों होरहा छील-छीलकर खाते रहे और बारी-बारी से खाट पर लेटकर धूप का सुख लेते रहे, फिर चल दिए वापस। पांडेयजी ने समझा दिया था कि जहां से निरालाजी दिखाई पड़ने लगें, वहीं से हांफना शुरू कर देना ताकि लग जाए कि हम लोग बिना रुके एक मील जाकर, एक सांस में लौटे हैं।
निरालाजी के पास हम लोग पहुंचे तो रेस के घोड़े की तरह हांफ रहे थे। उन्होंने देखा, पीठ पर हाथ फेरा, शाबासी दी। उधर से मिठाई और मेवा उठाकर लाए, एक-एक बर्फी हम दोनों के मुंह में ठूंसकर बोले, ‘‘अब तुम दोनों हमारी क्लास में भर्ती हो गए। अब हम तुम्हें समझाएंगे पंचमी का गणित।’’

वे तनकर बैठ गए। एक बार ताली बजाकर सुरती फांकी, फिर हम लोगों को अध्यापन के स्वर में संबोधित कर बोले-
‘‘देखो, पहले तत्त्व लो, फिर उसमें गुण जोड़ दो। हो गया। अब ऋषियों को बुलाकर स्थापित कर दो और उसमें से सूर्यकांत त्रिपाठी को घटा दो, बस हो गई पंचमी, समझे! कुछ समझे?’’

मैं तो चुप रहा, पांडेयजी उनसे मुंह-दर-मुंह बात कर लेते थे। उन्होंने भी ताली बजाई, सुरती फांकी और बोले, ‘‘देखिए निरालाजी, हम लोग मील भर दौड़ते-दौड़ते आए। अब आप उलटवांसी बोल रहे हैं। यह तो बड़ा अन्याय है आपका।’’ निरालाजी ने एक-एक बर्फी हम लोगों को फिर खिलाई और अपने गणित के अर्थ बताए। बोले, ‘‘देखो, तत्त्व होते हैं पांच, तुलसी बाबा कह गए हैं न ‘पंच तत्त्व यह बना सरीरा’। अब इसमें जोड़ो गुण। गुण कैसे होते हैं? तीन-सत, रज और तम। तो पांच और तीन हुए आठ। ऋषि बुलाए तो सप्तऋषि आ गए। यानी सात और आठ हुए पंद्रह। अब इस पंद्रह में से एक सूर्यकांत त्रिपाठी को घटा दो। कितने बचे चौदह! चौदह में दो अंक हैं- एक और चार। दोनों को जोड़ दो तो सारतत्त्व बच गया पांच। यानी पंचमी! समझे पंचमी का गणित!’’

फिर बिना हम लोगों की ओर देखे, गंगा की ओर देखते रहे, फिर बोले, ‘‘पंचमी में श्रेष्ठ पंचमी वसंत पंचमी! मैया सरस्वती ठहरीं उसकी अधिष्ठात्री। तभी निराला पैदा हुए। समझे, कॉपी में नोट कर लेना।’’

प्रतिवाद तो दूर, किसकी मजाल थी कि बोले! फिर भी मैंने बहुत हिम्मत कर, डरते-डरते पूछा, ‘‘पर आपने तो सारे हिसाब में से सूर्यकांत त्रिपाठी को निकाल दिया था, फिर जन्मदिन कैसा?’’

‘‘तो हमने कब कहा कि यह पं. सूर्यकांत त्रिपाठी का जन्मदिन है? यह तो निराला का जन्मदिन है। फिर उन्होंने समझाया कि सूर्यकांत त्रिपाठी तो एक व्यक्ति है। उसमें राग है, द्वेष है, अहंकार है, लोभ है, मोह है, काम है, क्रोध है। वह सब उसका अपना व्यक्तिगत है। सरस्वती आई तो उन्होंने उसका ममत्व छुड़ाकर, उसे सबका बना दिया। तब कवि पैदा हुआ, तब निराला पैदा हुआ। हुआ कि नहीं हुआ?’’
‘‘जी’’। हम दोनों ने विस्मित स्वर में कहा।
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