जाके पैर न फटी बिवाई

किसी एक देश से दूसरे देश में आकर शरण मांगने वाले व्यक्ति को शरणार्थी कहा जाता है। लेकिन अपने ही देश में किन्हीं कारणों से किसी को अपनी जन्म भूमि छोड़नी पड़े तो वह विस्थापित कहलाता है। यह इन शब्दों का तकनीकी अन्तर कहा जा सकता है। जहां तक दोनों के दुख-दर्द का सवाल है, उसमें तो क्या अन्तर रहता होगा। लेकिन दुख-दर्द की चर्चा साहित्य के क्षेत्र का मामला है। उसके लिये, जाके पैर न फटी बिवाई सो क्या जाने पीर पराई, का उद्धरण देना होगा। राजनीति साहित्य से नहीं चलती। वह यथार्थ के ठोस धरातल पर नमूदार होती है। वह किसी का दुख-दर्द उसके पैरों की फटी बिवाइयां देख कर नहीं मापती। वह किसी की फटी बिवाइयों में से रिस रहे खून का मोल अपने नफे नुकसान के आधार पर लगाती है। जम्मू में इन्हीं शरणार्थियों और विस्थापितों की फटी बिवाइयों से खून पिछले सात दशकों से रिस रहा है लेकिन उनके भीतर की ‘पीर’ पहचानने की कोई भी कोशिश नहीं हो रही। क्योंकि न यह ‘पीर’ और न ही खून जम्मू कश्मीर में विधान सभा में सीटें उगाने में मददगार हो सकता है।

1. पश्चिमी पंजाब से आने वाले शरणार्थीः जम्मू में इन का इतिहास 1947 से शुरू होता है। 1947 में विभाजित स्वतंत्रता ने मुसलमानों को उनका होमलैंड भी दे दिया था। उस होमलैंड में बाकी प्रान्तों के अलावा आधे से भी ज्यादा पंजाब समा गया था। मुसलमानों के होमलैंड में समा गये पश्चिमी पंजाब से हिन्द सिक्खों का पलायन शुरू हुआ। लेकिन यह पलायन गांधी जी की शांति यात्रा नहीं थी। शरणार्थियों के इन काफ़िलों को इस्लाम की तलवार की धार के नीचे से निकल कर आना था। उस धार से बच कर कितने लोग सही सलामत पहुंच पाये यह अलग कथा है। पश्चिमी पंजाब के रावलपिंडी, गुजरांवाला और स्यालकोट इत्यादि इलाकों से आने वाले शरणार्थियों को सबसे नज़दीक जम्मू ही पड़ता था। इसलिये किसी भी प्रकार से बच कर आये ये लोग जम्मू पहुंच गये। पाकिस्तान के विभिन्न हिस्सों से आने वाले जो शरणार्थी अन्य प्रान्तों में पहुंचे, उन के लिये भारत सरकार ने, उनके पुनर्वास की जो नीति अपनाई, उसे जम्मू कश्मीर में लागू नहीं किया गया।

मसलन दूसरे प्रान्तों में जाने वाले शरणार्थियों की, पाकिस्तान में छोड़ी गई सम्पत्ति के आकलन के बाद मुआवजा दिया गया। खेती के लिये किसानों को ज़मीन मुहैया करवाई गई। इधर से हिजरत करके जाने वाले मुसलमानों के खाली हुये घर उनके नाम आवंटित कर दिये गये।
लेकिन इसके विपरीत जो शरणार्थी जम्मू कश्मीर में आ गये थे, उनके दुर्भाग्य ने आज 63 साल बाद भी उनका पीछा नहीं छोड़ा। इनकी संख्या दो लाख से भी ज्यादा है। राज्य सरकार इनके पुनर्वास के लिये कोई नीति बनाना तो दूर, इन को राज्य का हिस्सा मानने को भी तैयार नहीं है। इस के लिये सरकार ने 1927 के एक ऐसे कानून को ढाल की तरह इस्तेमाल किया है, जिसमें राज्य के स्थायी निवासी को पारिभाषित किया गया है। यह कानून उसी प्रकार का है, जिस प्रकार के कानून या नियम अन्य राज्यों में स्टेट डोमिसायल या राज्य के निवासी को पारिभाषित करने के लिये बने हुए हैं। अन्तर केवल इतना ही है कि अन्य राज्यों में निवासी की परिभाषा गतिमान रहती है, लेकिन जम्मू कश्मीर में यह जड़ता को प्राप्त हो गई है। अन्य राज्यों में एक निश्चित अवधि तक उस राज्य में रहने वाले व्यक्ति को उस राज्य का निवासी मान लिया जाता है। लेकिन जम्मू कश्मीर में स्थायी निवासी वह है जिसे 1954 में उस प्रान्त में रहते हुये दस साल हो गये हों। जाहिर है इस परिभाषा की जड़ें भूतकाल में हैं, जबकि ये भविष्य काल या वर्तमान काल में होनी चाहिए। इस कानून के कारण शरणार्थियों को सरकारी कागजों में राज्य के स्थायी निवासी नहीं माना जा सकता।

यह तो शुरुआत भर है, असली ड्रामा तो उसके बाद ही शुरू होता है। पश्चिमी पंजाब से जम्मू कश्मीर में आने के बाद इन शरणार्थियों ने उन मकानों में रहना शुरू कर दिया, जिन्हें मुसलमान छोड़ कर पाकिस्तान हिजरत कर गये थे। इसे देख कर जम्मू कश्मीर सरकार ने एक नई तरकीब निकाली। सरकार ने पुनर्वास विधेयक का कानून बना कर उन सभी मुसलमानों या उनके उत्तराधिकारियों को राज्य में वापिस आ जाने का निमंत्रण दिया। असली मालिकों के आते ही उन्हें सही सलामत लौटा दिया जाये। इसलिये कस्टोडियन विभाग की स्थापना की गई और पाकिस्तान को हिजरत कर गये मुसलमानों के मकान, दुकान, जमीन जायदाद इस विभाग के हवाले कर दी गई। कस्टोडियन विभाग ने इन शरणार्थियों को मकान खाली कर देने के लिये कहा और खेती की जमीनें छोड़ देने के आदेश जारी किये। दानिशमंदों ने कहा कि सरकार अपने शेखचिल्लीपन की यह नीति छोड़ें और शरणार्थियों को स्थायी रुप से बसाने की व्मवस्था करें। जम्मू कश्मीर सरकार को भी इस बात का इलम था कि पाकिस्तान गया हुआ कोई प्राणी वापिस यहां बसने नहीं आयेगा, लेकिन उसकी यह सारी मैनेजमेंट राज्य से शरणार्थियों को भगाने के लिये ही थी। सरकार ने कहा, इन मकानों व जमीनों के मालिक तो वही मुसलमान रहेंगे जो पाकिस्तान को चले गये हैं, लेकिन मानवीय आधार पर शरणार्थियों को इनमें किरायेदार के नाते रहने की अनुमति दी जा सकती है। इस प्रकार सभी शरणार्थी एक निश्चित किराये पर किरायेदार घोषित हुए। वे अभी भी इन मकानों और जमीनों का किराया दे रहे हैं जो बाकायदा कसटोडियन विभाग में उस मुसलमान मालिक के नाम जमा करवाना पड़ता है जो सात दशक पहले पाकिस्तान में जाकर बस ही नहीं गया, हो सकता है वहां की सेना में भर्ती होकर भारतीय सेना से लड़ा भी हो, और रसीदें संभाल कर रखनी पड़तीं हैं, ताकि वक्त बेवक्त काम आयें।

लेकिन अब इनमें से कुछ शरणार्थी अपने परिश्रम के बलबूते काफी समृद्ध हो गये हैं और वे कस्टोडियन विभाग का किराये का नरक छोड़ कर अपना स्वयं का मकान बना लेना चाहते हैं। इसके लिये वे सरकार से कोई सहायता नहीं चाहते। जो जमीन जायदाद वे पीछे छोड़ आये थे, उसे वे भुला चुके हैं और नये सिरे से अपना आशियाना बनाना चाहता हैं। लेकिन वे ऐसा नहीं कर सकते। वही 1927 का राज्य के स्थायी निवासी वाला कानून। इस कानून के अनुसार जम्मू कश्मीर में सम्पत्ति वही खरीद सकता है जो राज्य का स्थायी निवासी हो। ये शरणार्थी राज्य के स्थायी निवासी नहीं हैं। यह अलग बात है कि इनको यहां रहते हुए सात दशक हो चुके हैं। जिन मकानों में वे रह रहे हैं उनके मालिक नहीं बन सकते और अपनी इच्छा से खुद के पैसों से अपने लिये नया घर बना नहीं सकते। ताकतवर मारे भी और रोने भी न दे।

लेकिन यह इन शरणार्थियों की कथा की भूमिका मात्र है। असली कहानी आगे शुरू होती है। अब इन शरणार्थियों के बच्चे जवान हो गये हैं। मामला तीसरी पीढ़ी तक आ पहुंचा है। लेकिन इन बच्चों को और आगे की पीढ़ियों में होने वाले उनके बच्चोें को भी राज्य के मेडिकल, आभियांत्रिकी महाविद्यालयों में प्रवेश नहीं मिल सकता। राज्य के बाकी सभी बच्चे स्नातकोत्तर स्तर तक शिक्षा नि:शुल्क प्राप्त करते हैं, लेकिन इन बच्चों के लिये यह स्वप्न है। गरीबी या योग्यता के आधार पर शेष बच्चे राज्य सरकार से छात्रवृत्तियां ग्रहण करते हैं, लेकिन इन बच्चों के लिये शिक्षा के ये सारे दरवाजे बंद हैं। यह कथा का एक हिस्सा है। अब दूसरा हिस्सा। बहुत से बच्चे इतनी बाधाओं के बाबजूद अन्य प्रांतों से उच्च शिक्षा प्राप्त करके आ जाते हैं। लेकिन अब उनके लिमे राज्य में सरकारी नौकरी के दरवाजे बंद हैं। वही 1927 वाला राज्य के स्थायी निवासी होने की परिभाषा। राज्य सरकार की नौकरी राज्य के स्थायी निवासी को ही मिल सकती है। स्थायी निवासी होने का तरीका? किसी स्थायी निवासी के घर में जन्म ले लेना। आदमी कितनी भी तरक्की क्यों न कर ले, शायद यह उसके वश में तब भी नहीं हो पायेगा।
इन शरणार्थियों को दोहरा नुकसान उठाना पड़ रहा है। इनमें से नब्बे प्रतिशत शरणार्थी दलित वर्ग से ताल्लुक रखते हैं। भारत सरकार इस वर्ग के लिये अनेक कल्याणकारी योजनाएं संचालित करती हैं। लेकिन जम्मू कश्मीर के इन दलित शरणार्थियों को इसका किंचित मात्र लाभ नहीं मिल पाता। तब प्रश्न यह है कि राज्य सरकार द्वारा इन शरणार्थियों की, की गई सख्त घेराबंदी को कैसे तोड़ा जाये और ये शरणार्थी इस आईसोलेशन वार्ड से बाहर निकलें?

आज लोकतंत्र का युग है। जिसके पास वोट बैंक है, नेता उनके पास दौड़े आते हैं। इन शरणार्थियों की जनसंख्मा तो दो लाख को भी पार कर चुकी है। इन के वोट की शक्ति को कोई भी भला कैसे नकार सकता है? यदि ये शरणार्थी मिल कर निर्णय कर लें कि वोट उसी को देंगे जो इनकी समस्याओं को हल करेगा तो सरकार चला रही पार्टियां तो इनके सामने घुटने टेकेंगी ही? लेकिन राज्य सरकार ने समय रहते उसका इलाज भी निकाल लिया। नई व्यवस्था की गई। राज्य विधान सभा के चुनाव में वही मतदान कर सकता है जो राज्य का स्थायी निवासी होगा। वही 1927 वाला कानून। इस कानून की आड में राज्य सरकार ने इन दो लाख शरणार्थियों को केवल राज्य विधान सभा के लिये ही नहीं बल्कि पंचायत व नगरपालिका के चुनावों में भी मतदान के अधिकार से वंचित कर दिया है। तू डाल डाल मैं पात पात। ये शरणार्थी 1947 से अभी तक राज्य सरकार की डाल पर लटक रहे हैं।

2. जम्मू कश्मीर के भीतर से विस्थापितः अब जम्मू कश्मीर राज्य के भीतर से ही विस्थापितों की बात की जाये। इन की भी आगे दो श्रेणियों हैं-

(क) पाक अनधिकृत जम्मू कश्मीर के विस्थापितः 1947 में पाकिस्तान ने जम्मू कश्मीर पर आक्रमण करके उसके एक तिहाई हिस्से पर अनधिकृत रूप से कब्जा कर लिया था। इसमें बल्तीस्थान, गिलगित, मुज्जफराबाद, मीरपुर, कोटली और पुंछ का अधिकांश इलाका शामिल था। पाक अनधिकृत क्षेत्रों में मची मार काट से बचकर हिन्दू और सिक्ख राज्य के उन इलाकों में चले आये, जिन पर या तो पाकिस्तानी सेना कब्जा नहीं कर सकी थी या फिर उनको सेना ने पाकिस्तानी आक्रमणकारियों से मुक्त करवा लिया था। तकनीकी शब्दावली में ये लोग विस्थापित कहलाये, क्योंकि ये अपने राज्य के ही एक भाग से दूसरे भाग में आये थे। शुरू में ऐसा लगता था कि सेना जल्दी ही पाक अनधिकृत क्षेत्र को मुक्त करवा लेगी और ये विस्थापित अपने घरों को वापिस लौट जायेंगे। लेकिन जब एक जनवरी 1949 को भारत सरकार ने मुक्ति अभियान के बीच ही युद्ध विराम की घोषणा कर दी तो इन विस्थापितों के वापिस लौटने की सभी आशाएं धूमिल हो गईं। और यहीं से इनकी असली समस्याएं शुरू हुईं। वर्तमान में इनकी संख्या बारह लाख से भी ज्यादा है।

सबसे पहले तो राज्य सरकार ने कोशिश की कि इन विस्थापितों को राज्य में टिकने ही न दिया जाये। भारत सरकार पर दबाव डाला गया कि इनको देश के दूसरे हिस्सों में बसाया जाये। हजारों विस्थापितों को ट्रकों में लाद कर पंजाब और दिल्ली की ओर रवाना कर दिया गया। यहां तक की मध्य प्रदेश तक में ये विस्थापित पहुंचा दिये गये। इस प्रकार लगभग दो लाख विस्थापितों को राज्य सरकार किसी तरीके से राज्य से भगाने में कामयाब हो गई। लेकिन दस लाख अब भी राज्य में ही हैं। उन दिनों शेख अब्दुल्ला ने उन्हें युद्ध विराम रेखा के साथ लगते गांवों में बस जाने की सलाह दी थी। इन क्षेत्रों के लोग युद्ध के कारण गांव के गांव खाली कर पलायन कर गये थे। विस्थापितों ने राज्य सरकार पर विश्वास कर वहां रहना भी स्वीकार किया।

लेकिन सरकार ने इनको तकनीकी कारणों से शरणार्थी मानने से इंकार कर दिया। सरकार का तर्क है कि यदि इन विस्थापितों को शरणार्थी स्वीकार कर लिया जाये तो अप्रत्यक्ष रूप से इसका अर्थ होगा कि पाकिस्तान के कब्जे में गये जम्मू कश्मीर के हिस्से को अलग देश मान लिया गया है। सरकार की बात सोलह आने सच्ची। इस पर विस्थापितों को भी कोई इतराज नहीं। लेकिन इतना सच बोल कर सरकार उसके बाद झूठ बोलना शुरू कर देती है। लेकिन इसके बाद न तो सरकार ने पाकिस्तान के कब्जे में गये उस भू भाग को खाली करवाने का कोई प्रयास किया और न ही इन विस्थापितों को इन की उस पीछे छूट गई सम्पत्ति का कोई मुआवजा दिया। सरकार का अपना तर्क है। मुआवजा शरणार्थी के लिये हो सकता है, विस्थापित के लिये कैसा मुआवजा? इनसे भी सरकार जमीनों का किराया वसूलती है। इनको भी राज्य सरकार के पुनर्वास विधेयक की आग में झुलसना पड़ रहा है। पाकिस्तान चले गये मुसलमानों के जिन मकानों में ये रह रहे हैं, सरकार अपने रिकार्ड में अभी भी उन मकानों का मालिक उन मुसलमानों को ही मानती है और हथेली पर दाना रख कर रट लगाती रहती है- आ कौआ दाना चुग। पता सरकार को भी है कि उस पार से कौआ दाना चुगने कभी नहीं आयेगा लेकिन सरकार के इस तमाशे से विस्थापित भटकने को मजबूर हो रहे हैं।

एक बार दिखावे के लिये ही सही, सरकार ने इन विस्थापित परिवारों की गिनती का काम शुरू किया था। लेकिन जब गिनती करने वाले अधिकारियों ने एक के बाद सीधा दस गिनना शुरू कर दिया तो बीच के परिवारों ने पूछना ही था कि हमारा परिवार क्यों छोड़ा जा रहा है? सरकार का उत्तर अख़बारों के हास्य सामग्री कालम में छप सकता है। सरकार का कहना था कि 1947 में जब आप उस पार से इस पार आये थे तो आपके परिवार का मुखिया आपके साथ नहीं था। अब इस प्रश्न का कोई क्या उत्तर दे? क्मोंकि परिवार का मुखिया तो इस पार आते आते आततायियों ने उनकी आंखों के सामने ही काट दिया था। लेकिन सरकार को इससे क्या लेना देना। परिवार का मुखिया साथ था, तो ठीक नहीं तो चलो हटो परे। और आज तक राज्य सरकार कुल मिलाकर सभी सत्रह लाख विस्थापितों/शरणार्थियों को ‘चलो हटो परे’ के डंडों से ही हांक रही है। लेकिन ऐसा क्यों? जानते सभी हैं, लेकिन कहेगा कोई नहीं। क्योंकि सच कहने से उनकी पंथ निरपेक्षता को ख़तरा उत्पन्न हो जाता है। जो सच बोले वही साम्प्रदायिक। लेकिन सच यही है कि ये सभी शरणार्थी/विस्थापित हिन्दू/सिक्ख हैं, अत: ऐसी परिस्थितियां पैदा करो कि ये राज्य छोड़ कर भाग जायें। और जो उस पार चले गये हैं वे सभी मुसलमान हैं। अत: सरकार मटके में पानी डाल कर और हथेली पर पुनर्वास विधेयक रख कर ‘कौवा दाना चुग, कौवा दाना चुग’ का कलमा पढ़ती रहेगी।

(ख) युद्ध के कारण विस्थापितः विस्थापितों की दूसरी श्रेणी उन क्षेत्रों से है, जो क्षेत्र नियंत्रण रेखा पर है और जहां से 1965 और 1971 के भारत-पाक युद्ध के कारण, इनको अपने घर बार छोड़ कर जम्मू आना पड़ा। इन की संख्या भी लगभग दो लाख है।

(ग) कश्मीर घाटी से विस्थापितः कश्मीर घाटी में जब 1990 में वहां के कट्टर पाकिस्तान समर्थक दलों ने निजाम-ए-मुस्तफा की योजना पाकिस्तान की सक्रिय सहायता से लागू की तो कश्मीर के हिन्दुओं के सामने उन्होंने दो विकल्प रखे। या तो मुसलमान बन जाओ या फिर अपनी औरतों को घाटी में छोड कर यहां से चले जाओ। मुस्लिम वोट बैंक के नाराज होने के डर से देश की तथाकथित पंथनिरपेक्ष पार्टियों ने कट्टर पंथियों की इस योजना का सक्रिय विरोध नहीं किया। इसके विपरीत इस योजना का विरोध कर रहे वहां के राज्यपाल जगमोहन को राजीव गांधी की जिद के कारण हटा दिया। इसके कारण घाटी में से तीन लाख से भी ज्यादा हिन्दुओं को अपना घर छोड़ कर जम्मू में शरण लेनी पड़ी।

शरणार्थियों/विस्थापितों को खदेड़ते घेरते राज्य सरकार ने इतना ध्यान ज़रूर रखा कि कहीं कोई विस्थापित या शरणार्थी कश्मीर घाटी की ओर न रुख़ कर ले। जहां तक कि राज्य सरकार ने मुज्जफराबाद के विस्थापितों को भी घाटी का रुख नहीं करने दिया। उन्हें भी जम्मू की ओर धकेला। राज्य के मानवाधिकार आयोग को तो इन लोगों की समस्या का इल्म ही नहीं है। पिछले दिनों केन्द्र सरकार की ओर से तीन लोग वार्ताकार के रूप में प्रदेश भर में सैर सपाटा करते रहे और सरकारी मेहमानवाजी हलाल करते रहे लेकिन उनकी इतनी हिम्मत नहीं हुई कि केवल इतना भर लिख दें कि इन शरणार्थियों को राज्य के स्थायी निवासी का प्रमाण पत्र दिया जाना चाहिये। इससे उमर अब्दुल्ला नाराज हो सकते थे, हुरियत कान्फ्रेंस नाराज हो सकती थी। सरकार को आतंकवादियों के मानवाधिकारों की चिन्ता है, पत्थर फेंकने वालों को पुलिस में भर्ती करने की चिन्ता है, पाकिस्तान से मुसलमानों को लाकर राज्य में बसाने की चिन्ता है, म्यांमार के रहंगिमा मुसलमानों को घाटी में बसाने की चिन्ता है। चिन्ता नहीं है तो केवल राज्य के इन सत्रह लाख बाशिन्दों की, क्योंकि वे हिन्दू सिक्ख हैं। इनको आशा थी कि इस बार अपना ही एक विस्थापित/शरणार्थी भाई देश का प्रधानमंत्री बना है। उसके अपने पैरों की बिवाई फटी थी, इसलिये वह इनकी पीर भी समझेगा, लेकिन उसे भी हुरियत से आगे कुछ दिखाई नहीं देता। शामद सत्ता की तासीर ही ऐसी होती हो। आमीन।
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