प्रकृति के शोषण से उत्पन्न असंतुलन

सभ्यता के नये-नये सोपान चढ़ती मानव जाति के इतिहास में पर्यावरण और विकास शब्दों ने व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन को नया आयाम दिया है। पिछले पांच दशक में इन दोनों शब्दों को जितनी लोकप्रियता मिली है, उतनी आज तक किसी शब्द को नहीं मिली।
पर्यावरण को लेकर मानव समाज की दुर्गति मनुष्य के विकास के प्रति इस निरर्थक विश्वास के कारण हुई कि प्रकृति में हर वस्तु केवल उसी के उपयोग के लिये है। प्रकृति की उदारता, उसकी प्रचुरता और दानशीलता को मनुष्य ने अपना अधिकार समझा, इसी द़ृष्टिकोण से प्रकृति के शोषण से उत्पन्न असंतुलन की स्थिति भयावह हो चुकी है। पर्यावरण प्रदूषण में सबसे बड़ा योगदान हमारी गलत विकास योजनाओं का रहा है। जैसे-जैसे इन विकास योजनाओं का विस्तार हुआ, पर्यावरण प्रदूषण की समस्या भी जटिल होती गयी।

हमारे पर्यावरण को हो रहे नुकसान को देखने के लिये अब दूर जाने की जरूरत नहीं है। आज बंजर इलाके और फैलता रेगिस्तान, वन कटाई से लुप्त होते पेड़-पौधे और जीव-जन्तु, औद्योगिक संस्थानों के प्रदूषण से दूषित होता पानी, गांवों शहरों पर गहराती गंदी हवा और हर वर्ष स्थायी होता जा रहा बाढ़ एवं सूखे का संकट। ये सब इस बात के साक्षी हैं कि हम पर्यावरण और विकास गतिविधियों में संतुलन नहीं रख पाये हैं। देश के हर क्षेत्र में पर्यावरण के प्रति मनुष्य की संवेदनहीनता के उदाहरण देखे जा सकते है।

हमारे देश में जब से विकास शब्द प्रचलन में आया है, इसका सामान्य अर्थ केवल प्रति व्यक्ति आय बढ़ाना ही रहा है। सरकारें इसके लिये विशेष प्रत्यनशील रहती हैं ताकि हर कोई एक पूर्व निर्धारित वैश्विक जीवन पद्धति में ढल जाये। आज विकास के नाम पर पर्यावरण का निर्मम दोहन हो रहा है, उसे उचित नहीं कहा जा सकता। यह विकास क्या लोगों को विकसित कर रहा है? यह भी विचारणीय प्रश्न है। वैश्विक द़ृष्टि से देखे तो आज विश्व में 20 प्रतिशत लोग धरती के 80 प्रतिशत संसाधनों का उपयोग कर रहे हैं, शेष 80 प्रतिशत लोगों के लिये 20 प्रतिशत संसाधन ही बचते हैं। विकास की दो मूलभूत कसौटियां हैं – पहली यह निरंतर होना चाहिये और दूसरी इसका आधार नैतिक होना चाहिये। क्या आज के विकास कार्यक्रमों का इस कसौटी से कोई संबंध रह गया है?

उदारीकरण के मौजूदा दौर में जब सरकारें पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से कंधे झटकते जा रही हैं तब यह मुद्दा और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। विकास के पक्षधरों का मानना है कि विकास को, संसाधनों के सहयोग से उद्योगों द्वारा प्राप्त कर सकते है, लेकिन ये संसाधन लगातार कहां से और कैसे प्राप्त होंगे और इसका पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इस पर विचार करने की आवश्यकता है।

हम देखते हैं कि मानव को प्रकृति प्रदत्त उपहार हवा, पानी और मिट्टी खतरे में है। धरती के फेफड़े वन समाप्त होते जा रहे हैं, पेड़-पौधों के अभाव में प्राणवायु की शुद्धता और गुणवत्ता दोनों ही घटती जा रही है। बढ़ते वायु-प्रदूषण के कारण केवल महानगर ही नहीं अपितु छोटे-छोटे कस्बों तक में वायु-प्रदूषण बढ़ता जा रहा है, जो कई बीमारियों का कारण बन रहा है।

देश में जल संकट दो तरफ बढ़ रहा है। सतही जल में प्रदूषण में वृद्धि हो रही है तो भूजल स्तर में निरंतर कमी हो रही है। बढ़ते शहरीकरण और औद्योगिकरण के चलते हमारी बारह मासी नदियों के जीवन में जहर घुलता जा रहा है। हालत यह है कि मुक्तिदायिनी गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिये हजारों करोड़ रूपये खर्च करने के बाद भी गंगा स्वच्छ नहीं हो सकी है। देश के कुल क्षेत्रफल की आधी जमीन बीमार है। अनेक क्षेत्रों में अतिशय चराई और निरंतर वन कटाई के कारण हो रहे भू-क्षरण से भूमि की ऊपरी परत की मिट्टी वर्षा में बाढ़ के पानी से साथ बह-बह कर समुद्र में जा रही है। इस कारण बड़े बांधों की उम्र घट रही है और नदियों में गाद जमने के कारण बाढ़ और सूखे का संकट स्थायी होता जा रहा है।

आज पर्यावरण संतुलन में दो बिन्दु सहज रूप से प्रकट होते हैं। पहला प्रकृति के औदार्य का उचित लाभ उठाया जाये और दूसरा विकास गतिविधियों में मनुष्यजनित प्रदूषण को यथासंभव कम किया जाये। इसके लिये विकास की सोच में परिवर्तन करना होंगे। थोड़ा अतीत में लौटे तो करीब तीन सौ साल पूर्व यूरोप में औद्योगिक क्रांति हुई, इसके बाद लोगों के जीवन स्तर में व्यापक बदलाव आया। इस बदलाव में लोगों के दैनिक जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये प्राकृतिक संसाधनों का बड़े पैमाने पर दोहन शुरू हुआ जिसने एक नयी भोगवादी संस्कृति को जन्म दिया। जीवन में सुख के साधनों की असीम चाह का भार प्रकृति पर लगातार बढ़ता जा रहा है। यही हालत रही तो हमें विरासत में मिले धरती के संसाधनों को भावी पीढ़ियों के लिये सुरक्षित रखना मुश्किल हो जायेगा।

आज हमारी भोगवादी जीवन शैली के चलते रासायनिक पदार्थों, उर्वरकों, कीटनाशियों और प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक उपयोग हो रहा है जो पर्यावरण विघटन की समस्या का प्रमुख कारण है। पर्यावरण और विकास के रिश्तों को समझने में हम हमारे राष्ट्रपिता के विचारों से मदद ले सकते हैं। उनका मानना था कि यह धरती हरेक की आवश्यकता की पूर्ति कर सकती है, लेकिन किसी एक का लालच नहीं। प्रकृति में सभी जीवों के विकास का आधार एक दूसरे के संरक्षण पर आधारित है।

                                             विकास और पर्यावरण संरक्षण का द्वंद्व
                         डॉ. अनिल पड़ोशी
पिछले कुछ वर्षों में विकास के संदर्भ में पर्यावरण का प्रश्न महत्वपूर्ण बन गया है। अनेक विद्वानों का कहना है कि आर्थिक विकास जरूरी है लेकिन उसके लिए पर्यावरण को बलि नहीं चढ़ाया जाना चाहिए; परंतु जनसंख्या बढ़ने और अधिकाधिक विकास की जरूरत पड़ने पर पर्यावरण की रक्षा करना कठिन हो जाता है।

यद्यपि भारत गांवों का देश है फिर भी शहरीकरण हमारी बढ़ती जनसंख्या का अनिवार्य अंग बन गया है। गांव शहर बन रहे हैं और शहर महानगर में बदल रहे हैं। जनसंख्या का केंद्रिकरण बढ़ रहा है। बढ़ती जनसंख्या और बढ़ते शहरीकरण के कारण आबादी की अन्न व निवास की जरूरतें पूरी करने के लिए जमीन, पानी और वन सम्पदा पर भारी दबाव आ रहा है। इससे भविष्य में इन प्राकृतिक संसाधनों की कमी महसूस होने की भारी संभावना है।

भविष्य के विकास के लिए जमीन सब से महत्वपूर्ण घटक है। बढ़ती जनसंख्या के लिए पर्याप्त निवास, उद्योग-व्यवसाय, सड़कें, महामार्ग, रेलवे, हवाई अड्डे इसके लिए भारी मात्रा में भूमि की आवश्यकता होगी। ये परियोजनाएं आने पर उस भूमि के पेड़-पौधें, वनस्पतियां, पशुपक्षी यह सब नष्ट होगा ही। मिसाल के तौर पर सन 2000 से 2010 की अवधि में महाराष्ट्र में लगभग 10 लाख हेक्टेयर जमीन गैर-कृषि जमीन हो गई। इन जमीनों पर आवास निर्माण अथवा अन्य निर्माण कार्य ही हुए हैं।

अनुमान है कि हमारे देश का वन क्षेत्र केवल 20 प्रतिशत ही रह गया है। पानी की उपलब्धता के बारे में भी यही स्थिति है। पानी की उपलब्धता 1947 में प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति 6000 घन मीटर थी, जो 1999 में प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति 1250 घन मीटर तक घट गई। (1951 में जनसंख्या 36 करोड़ थी, जो 2001 में 100 करोड़ हो गई। फिर और क्या होता?) इसके अलावा पानी व हवा के प्रदूषण की समस्या है ही।

विकास की आवश्यकता और पर्यावरण की रक्षा के संदर्भ में ‘शाश्वत विकास’ (र्डीीींरळपरलश्रश ऊर्शींशश्रेिाशपीं) की संकल्पना पेश की जा रही है। इस सम्बंध में आर्थिक सर्वेक्षण (2012-13) में कहा गया है, “बारहवीं पंचवर्षीय योजना का केंद्रबिंदु पर्यावरण का संरक्षण करना है। फिर भी भारत में आर्थिक विकास के घटकों (अर्थात आधारभूत सुविधाएं, परिवहन, आवास निर्माण आदि) में वृद्धि भी होनी चाहिए।” इसका अर्थ यह हुआ कि इन चीजों की आवश्यकता है। फिर पर्यावरण का क्या होगा? दुर्भाग्य से शाश्वत विकास की संकल्पना के बारे में सरकार की निश्चित भूमिका स्पष्ट नहीं होती। कुल मिलाकर पर्यावरण या विकास इनमें से चयन करना मुश्किल हो गया है।

विकास और पर्यावरण संरक्षण दोनों बातें एक ही समय प्राप्त करने के लिए आधुनिक विकास मार्ग (अर्थात बड़े उद्योग, शहरीकरण आदि) के बजाय वैकल्पिक विकेंद्रित विकास मार्ग (अर्थात लघु उद्योग, श्रमिक केंद्रित उद्योग आदि) अथवा गांधीवादी विकास मार्ग का सुझाव दिया जाता है। लेकिन वैकल्पिक विकेंद्रित मार्ग में उत्पादकता कम होने से सम्पत्ति की निर्मिति कम होती है। इससे आम आदमी का जीवन सम्पन्न होने के बजाय निम्न स्तर का ही रहेगा। यह भी ध्यान में रखना होगा कि हम अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा में टिक नहीं पाएंगे। गांधीवादी विकास का मार्ग स्वतंत्र भारत ने (पं. नेहरू ने) 1956 से (दूसरी पंचवर्षीय योजना) ही त्याग दिया है। वैकल्पिक विकास मार्ग या गांधीवादी मार्ग भविष्य के विकास के मार्ग नहीं हो सकते। कुछ भी हो परंतु विकास को बलि चढ़ना देश के लिए संभव नहीं होगा।

आर्थिक सर्वेक्षण (2010-2011) में कहा गया है, “विकास के हरित मार्ग को अपनाने पर विकास की गति मंद पड़ सकती है।” ‘रियो’ घोषणा-पत्र में कहा गया है कि “शाश्वत विकास का केंद्रबिंदु मनुष्य ही होना चाहिए। मनुष्य को प्रकृति के साथ स्वास्थ्यपूर्ण और उत्पादक (अर्थात सम्पन्न) जीवन जीने का अधिकार है।” (संदर्भः बिजनेस लाइन, 6 अगस्त 2004)। इस भूमिका में परिवर्तन होने की फिलहाल कोई संभावना नहीं है। चुनाव करना कठिन है; लेकिन अन्य कोई उपाय नहीं है। पर्यावरण की रक्षा महत्वपूर्ण है ही, परंतु विकास मुझे अधिक महत्वपूर्ण लगता है।

बहुत लोगों के लिये यह आश्चर्य का विषय होगा कि भारत जैसे धर्म प्राण प्रदेश में पहली कविता न कोई स्त्रोत्र है, न मंगलाचरण वरन बहेलिये के बाण से बिद्ध छटपटाते हुए पक्षी को देखकर संवेदनशील महाकवि का अप्रयास फूट पड़ने वाला आक्रोश है। आदिकवि वाल्मिकी रचित रामायण के बालकाण्ड के श्लोक –

मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगया: शाश्वती समा:
यत्क्रौंच मिथुनादेकमबधी: काम मोहितम ।

इसे पहली कविता माना जाता है। इसमें हमारी जातीय परम्पराओं, सामाजिक शिक्षाओं और संस्कृति की समृद्ध विरासत की झलक मिलती है। युग ॠषि के आक्रोश में भारतीय संस्कृति का जियो और जीने दो का संदेश छिपा है जिसकी प्रासंगिकता आज भी बढ़ गयी है। अभी भी घरती पर स्थायी विकास के लिये जीव, वनस्पति प्रणालियां और पर्यावरण प्रणालियां बचायी जा सकती हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति में यदि आज हम चूक गये तो आने वाली पीढ़ियां हमें क्षमा नहीं करेगी।

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