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जल, राष्ट्रीय सम्पत्ति- डॉ. बाबा साहब आंबेडकर

जल, राष्ट्रीय सम्पत्ति- डॉ. बाबा साहब आंबेडकर

by रमेश पतंगे
in मार्च-२०१४, व्यक्तित्व, सामाजिक
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डॉ. बाला साहब आंबेडकर को आज भी ‘दलितों के महानेता’ या ‘दलितोद्धारक बाबा साहब आंबेडकर’ कहा जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि डॉ. बाबा साहब आंबेडकर ने केवल दलित समाज के हितों का या उत्कर्ष का ही विचार किया है। डॉ. बाबा साहब आंबेडकर ने सारे समाज हित का या उत्कर्ष का विचार न करके केवल अस्पृश्य वर्ग की सामाजिक गुलामी का ही विचार किया है। यह विचारधारा अत्यंत गलत है। इस विचारधारा के समाज में फैलने के दो मुख्य कारण हैं। पहला कारण है सवर्णों की मानसिकता। अभी भी सवर्ण समाज का एक बड़ा वर्ग बाबा साहब को महान राष्ट्रपुरुष मानने को तैयार नहीं है। सवर्ण समाज के एक बड़े समूह को यह लगता है कि डॉ. बाबा साहब आंबेडकर केवल अस्पृश्य समाज का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। दूसरा कारण दलित समाज है। दलित समाज के विचारकों से लेकर सामान्य कार्यकर्ताओं तक प्रत्येक की यह भावना होती है कि डॉ. बाबा साहब आंबेडकर के बारे में बोलने का सवर्ण वर्ग को क्या अधिकार है? हम ही उनके वारिस हैं। इस मनोवृत्ति के उदाहरण स्वरूप डॉ. रावसाहब कसबे की पुस्तक के तीन-चार वाक्य देता हूं- ‘दूसरी ओर स्वयं अलग रहते हुए अपने मित्रों के माध्यम से डॉ. बाबा साहब आंबेडकर के विचारों के विरुद्ध और उनके भारतीय समाज जीवन में स्थान और प्रतिमा के विरुद्ध निर्णायक युद्ध छेड़ दिया। उनके सौभाग्य से उन्हें दत्तोपंत ठेंगडी के साथ ही इदाते और पतंगे जैसे पिछड़ी जाति के लोग और शेषराव मोरे जैसे सावरकरवादी ब्राह्मणेतर विचारक इस काम के लिये जिस प्रकार उपलब्ध हुए…..’(डॉ. आंबेडकर आणि भारतीय राज्यघटना, लेखक-डॉ. रावसाहब कसबे, पृष्ठ क्र.8)

किसी का कुछ भी कहना हो परंतु संघ की यह स्पष्ट धारणा है कि डॉ. बाबा साहब आंबेडकर महान राष्ट्रपुरुष थे। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग नहीं लिया; क्योंकि उन्हें राजनैतिक स्वतंत्रता से सामाजिक स्वतंत्रता अधिक महत्वपूर्ण लगती थी। हमारा देश गुलाम क्यों हुआ? इस प्रश्न की मीमांसा करते हुए डॉ. हेडगेवार कहते हैं कि “हम असंगठित हो गए, आपस में विभाजित हो गए। इससे हमारा स्वार्थ बलवत्तर हो गया और हम विदेशी आक्रमण के शिकार हो गये।”

डॉ. बाबा साहब आंबेडकर ने हिंदू समाज की विभिन्न जातियों का उल्लेख करते हुए इन शब्दों में अपनी राय प्रकट की कि “हमारा समाज अलग-अलग जातियों में विभाजित हो गया है। इस विभाजन के कारण एकात्मता की भावना हममें उत्पन्न नहीं हो सकी। जातियां राष्ट्र विरोधी हैं अत: उन्हें खत्म किया जाना चाहिये।”

डॉ. बाबा साहब आंबेडकर का समाज चिंतन या एक राष्ट्रीयत्व के प्रति उनका चिंतन कैसा था इसे इस छोटे से लेख में रखने का इरादा नहीं है। इस लेख में संक्षेप में यह विशद करने का विचार है कि अपने देश की गरीबी, कृषि विकास, जल विकास, औद्योगिकीकरण इत्यादि के संबंध में डॉ. आंबेडकर क्या विचार रखते थे। ये सभी विषय किसी एक विशिष्ट जाति, वर्ग या समाज के बारे में नहीं अपितु पूरे समाज के बारे में हैं। इसीलिए ये बहुत महत्वपूर्ण हैं। ‘इकॉनॉमिक एण्ड पॉलिटिकल वीकली’ के 30 नवम्बर 2002 के अंक में पी. अब्राहम का ’छेींशी ेप आलशवज्ञरी’ी थरींशी ठर्शीेीीलशी झेश्रळलळशी’ नामक शीर्षक से लेख प्रकाशित हुआ है। इस लेख में लेखक कहते हैं कि “आंबेडकर के संविधान निर्माण में दिये गये योगदान, साथ ही समता और सामाजिक न्याय के क्षेत्र में किए गए उनके ठोस कार्य संदर्भ में ही अक्सर लिखा और बोला जाता है, परंतु दुर्भाग्य से राष्ट्रीय जीवन के अन्य अंगों में उनके द्वारा दिये गये योगदान के संदर्भ में विशेष लिखा या बोला नहीं जाता। उदाहरणार्थ आर्थिक नियोजन, जल सिंचाई, बिजली उत्पादन इत्यादि विषयों को अनदेखा किया जाता है।”

इस विषय पर इस लेख में थोड़ा विचार करेंगे।
डॉ. बाबा साहब आंबेडकर सन 1942 से 46 तक वायसराय के मंत्रिमंडल में मंत्री थे और उनके पास जलविद्युत विकास का विषय भी था। हम जानते हैं कि सन 1939 में दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हुआ। इस महायुद्ध ने जहां एक ओर स्वतंत्रता को नजदीक लाया; वहीं दूसरी ओर भारत के प्रति अंग्रेज शासकों के दृष्टिकोण में भी बदलाव लाया। इनमें से एक पतिवर्तन भारतीय नदियां और नदियों की घाटियों के विकास के संदर्भ में है। अंग्रेजों ने बहुउद्देशीय नदी-घाटी विकास प्रकल्प योजना को क्रियान्वित करने का निश्चय किया। डॉ. बाबा साहब श्रम विभाग के मंत्री थे। इस विभाग ने सिंचाई और ऊर्जा विकास के लिये नीतिगत निवेदन तैयार किये। उसके तीन भाग थे- 1) सिंचाई और जलमार्ग 2) विद्युत शक्ति का विकास 3)आंतरिक जल यातायात। (संदर्भः बाबा साहब आंबेडकर नियोजन, जल व विद्युत विकास भूमिका व योगदान-सुखदेव थोरात, पृष्ठ क्र.26)

बहुउद्देशीय जल विकास प्रकल्प की संकल्पना सर्वप्रथम अमेरिका में अपनाई गई। सन 1903 में अमेरिका में टेनेसी वैली अथॉरिटी (ढतअ) नामक एक प्राधिकरण की स्थापना हुई। बरसात में टेनेसी नदी में भीषण बाढ़ आती थी, जिससे बहुत हानि होती थी। इस नदी पर अनेक बांध बनाये गये। इन बांधों के कारण कई जलाशय बने। इन बांधों से बिजली का निर्माण भी होने लगा। टेनेसी नदी-घाटी विकास प्रकल्प नदियों पर बने बांध, सिंचाई और विद्युत निर्माण का एक आदर्श प्रकल्प बन गया। इस प्रकल्प से निर्मित विद्युत ने कोयले से उत्पन्न होनेवाली बिजली की जगह ले ली। अमेरिका के औद्योगिक और खेती के विकास में इस प्रकल्प का बहुत बड़ा योगदान है। (संदर्भः ढहश खपवळरप एलेपेाळल । डेलळरश्र कळीीेीूं ठर्शींळशु- 2003- ठेहरप ऊर्’ीेीूर )

भारत का विचार किया जाये तो बिहार और प. बंगाल में बहनेवाली दामोदर नदी और उसकी उपनदियां बरसात में बाढ़ के कारण हाहाकार मचा देती थीं। टेनेसी घाटी विकास प्रकल्प की तरह सिंचाई, जल यातायात और विद्युत निर्माण के लिये इन दोनों नदियों और उनकी घाटियों का किस तरह उपयोग किया जा सकता है इसका विचार होने लगा। डॉ. बाबा साहब आंबेडकर के श्रम विभाग को यह कार्य सौंपा गया। 3 जनवरी 1944 को कोलकाता में दामोदर प्रकल्प के संबंध में एक परिषद सम्पन्न हुई। डॉ. बाबा साहब आंबेडकर ने इसमें भाषण दिया। उन्होंने कहा कि “केवल भीषण बाढ़ को रोकना ही इस प्रकल्प का एकमात्र उद्देश्य नहीं है। इसमें विद्युत निर्माण, सिंचाई के लिये पानी की उपलब्धता, जल यातायात और औद्योगिक उपयोग के लिये पानी इन सभी का समावेश है। हमारी बहुउद्देशीय नीति में जल मार्गों के साथ ही पानी के उपयोग की सभी संभावनाओं का समावेश किया जाना चाहिये।” सन 1948 में संसद ने ‘दामोदर वैली’ विकास का कानून बनाकर इस प्रकल्प को अमल में लाया। इसीलिए अब दामोदर नदी की बाढ़ और उससे हुए नुकसान की खबरें हमें पढ़ने को नहीं मिलतीं।
जब बाबा साहब मंत्री थे तब उनके सामने अनेक संवैधानिक समस्याएं थीं। सन 1935 के कानून के अनुसार सरकार बनी थी और इस कानून के अनुसार जल सम्पदा से संबंधित सभी मामले प्रांतों (आज की भाषा में राज्य) के अधीन थे। केन्द्र सरकार के पास जल सम्पदा विकास के अधिकार नहीं थे। किसी प्रकार के कार्यकारी अधिकार नहीं थे। बाबा साहब स्वयं संविधान विशेषज्ञ थे। वे इन समस्याओं से भलीभांति परिचित थे।

बाबा साहब ने तीन प्रकार की दिक्कतें बताईं

1) अनेक राज्यों से बहनेवाली नदियों के संदर्भ में अधिकार रखनेवाली एक व्यवस्था बनाई जानी चाहिये।

2) अनेक राज्यों से बहनेवाली नदियों की जल संपत्ति का विकास करने के लिये, जलविद्युत निर्माण करने के लिये सुनियोजित विकास की रूपरेखा बनाने की आवश्यकता है।

3) राष्ट्रीय जलनीति तय करने के लिये तकनीकी विशेषज्ञों का एक समूह विकसित कर प्रशासकीय ढ़ांचा खड़ा करने की आवश्यकता है।

इन तीनों बातों का विचार करके डॉ. बाबा साहब के आग्रह के कारण उशपीींरश्र खीीळसरींळेप । थरींशी अर्वींळीेीू इेरीव (उख।थअइ) की स्थापना की गई।बाबा साहब की राय थी कि भारत में बहनेवाली नदियों का अगर ठीक ढंग से विकास किया जाए तो जल यातायात के अनेक मार्ग उपलब्ध होंगे। आज भारत में नदियों को जोड़नेवाले प्रकल्प की चर्चा होती है। हमें यह चर्चा नयी लगती है। परंतु नदियों को जोड़ने के प्रकल्प की चर्चा बाबा साहब पहले ही कर चुके हैं। पी. अब्राहम कहते हैं कि “नदियों का अधिकांश पानी बह कर समुद्र में चला जाता है। इसे रोकने के लिये डॉ. आंबेडकर ने पहली बार कृष्णा-गोदावरी और तापी नदी को जोड़ने का प्रस्ताव रखा। प्रसिद्ध इंजीनियर के. एल. राव ने भी आंबेडकर की इस योजना का पुरजोर समर्थन किया।”
दामोदर नदी घाटी प्रकल्प की तरह ही उड़ीसा का महानदी विकास प्रकल्प भी डॉ. बाबा साहब आंबेडकर के कार्यकाल में शुरू हुआ। 8 नवंबर 1945 में उड़ीसा में बहुउद्देशीय नदी परिषद हुई। डॉ. बाबा साहब इस परिषद के अध्यक्ष थे; अत: उनका विस्तृत भाषण हुआ। (ऊी. इरलरीरहशल आलशवज्ञरी थीळींळपसी ।डशिशलहशी तेश्र. 10)। ए. एन. खोसला ने महानदी घाटी के विकास की योजना पेश की। ‘खोसला योजना’ के नाम से वह प्रसिद्ध है। पहले की योजना के अनुसार महानदी पर तीन बांध बनाने की कल्पना थी। इन तीन बांधों से कारण जल यातायात, सिंचाई और विद्युत निर्माण की अपेक्षा थी। अंत में इस नदी पर हीराकुंड में बांध बनाया गया।

डॉ. आंबेडकर के भाषण में व्यक्त विचारों का सारांश यह है कि, उड़ीसा की गरीबी, मलेरिया और बाढ़ का संकट दूर करने के लिये पानी को रोककर बांध बनाने की जरूरत है। समस्या केवल बाढ़ की है यह कहना बहुत आसान है, परंतु उसके साथ सूखे और अकाल का भी प्रश्न है। सन 1886 के अकाल में अकेले पुरी जिले के 40% लोगों की मृत्यु हो गई थी। उड़ीसा की जनसंख्या साढ़े सत्तर लाख है। सन 1944 में भिन्न-भिन्न बीमारियों के कारण 2,35,581 लोगों की मृत्यु हो गई। उड़ीसा में अंतर्गत यातायात के साधन बहुत कम हैं। उड़ीसा में नैसर्गिक सम्पदा प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। कोयला, लोहा, क्रोम, ग्राफाइट, चूना,बाम्बू, अभ्रक इत्यादि विपुल मात्रा में है। जल सम्पदा भी सबसे अधिक उड़ीसा के पास है। महानदी, ब्राह्मणी और वैतरणी नदियों में भारी मात्रा में पानी होता है।

उड़ीसा अपनी जल सम्पदा का उपयोग नहीं कर सका। सन 1892 से इस विषय पर चर्चा हो रही है परंतु उसका क्रियान्वयन नहीं हो सका। बाढ़ के कारणों की जांच करने के लिये कई समितियां बनाई गईं। मुझे यह बताते हुए दुख होता है कि समस्या की ओर देखने के उचित दृष्टिकोण को सामने लाने में ये समितियां असफल रहीं। यह दृष्टिकोण सही नहीं है कि अतिरिक्त पानी संकट निर्माण करता हैै। पानी कभी भी संकट का कारण नहीं हो सकता। पानी का अभाव संकट निर्माण करता है। डॉ. बाबा साहब एक अत्यंत सुंदर वाक्य कहते हैं- थरींशी लशळपस ींहश ुशरश्रींह ेष ींहश शिेश्रिश रपव ळीीं वळीीींळर्लीींळेप लशळपस र्ीपलशीींरळप, ींहश लेीीशलीं रििीेरलह ळी पेीं ीें लेाश्रिरळप रसरळपीीं पर्रीीींश, र्लीीं ीें लेपीर्शीींश ुरींशी.
सारांश यह कि जल जनता की सम्पत्ति होने और उसका विनियोग अनिश्चित होने से सही दृष्टिकोण यही होगा कि हम प्रकृति के प्रति शिकायत करने की अपेक्षा जल संपत्ति के संरक्षण करने का दृष्टिकोण अपनाएं।

जल राष्ट्र की संपत्ति है, जनता की संपत्ति है। यह संपत्ति हमें प्रकृति की ओर से प्राप्त हुई है। अत: हमें इसका उपयोग समझदारी से करना चाहिये। डॉ.बाबा साहब आंबेडकर का यह दृष्टिकोण हम सभी और पूरे देश के लिये है। सम्पूर्ण समाज का विचार करनेवाला धन विपुल है तथा कालातीत हैं। जातिभेद, अस्पृश्यता, ऊंच-नीच जैसे भेद आज तीव्र गति से समाप्त हो रहे हैं। ऐसे में बाबा साहब के शाश्वत राष्ट्रीय विचारों का विचार करना ही हमारे लिये हितकर होगा।
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