स्त्रीत्व ही मातृत्व!

घर के बगीचे से एक ब़डा सा अमरूद तो़डकर रसोई घर में ला रखा था। पकने पर वह महकने लगा, तब उसे काटकर खिलाने की मांग होने लगी। मां ने काटकर उसकी तीन फांकें बनाईं, दो अपने बेटे-बेटी को सौंपी और एक अपने लिए रख ली। नमक लगाकर अमरूद का आस्वाद चखने पर बेटा-बेटी ऐसे खुश हुए कि उनका सब्र नहीं रहा। दोनों चिल्ला उठे, ‘मां! अमरूद कितना ब़िढया है! बस, इतना ही?’ मां ने अपने लिए रखी फांक खाई न थी। उसे उठाकर उसके दो टुक़डे बनाए और दोनों को दे डाले। बेटा-बेटी दोनों को बड़ा मजा आया। वे बोल उठे, ‘अमरुद की फांक ब़डी मीठी, मां की फांक तो और भी मीठी!’
अमरूद तो एक ही था, पर मां ने अपनी फांक खुद न खाकर बड़े प्यार से बच्चों को खिलाई, सो ममता-वत्सलता में घुलने से उसमें अनोखी ही मिठास जो आ गई।

विश्व के प्राणी जगत में नर-मादा रचना विधाता की योजित है। मानव समाज में उसके अनुसार हैं स्त्री-पुरुष। उनके परस्पर देह मिलन के फलस्वरूप प्रजनन होता है। बालक का जन्म तो स्त्री शरीर से ही होता है। नौ महीने नौ दिनों की प्रदीर्घ गर्भधारणा की अवधि। उसके उपरांत प्रसव वेदनाओं को सहते हुए संतान को जन्म देना। संतान प्राप्ति से अनोखा संतोष-आनंद उसे और सभी को तो मिलता ही है, पर प्रसव के पहले और बाद में भी सब कुछ सह लेती है, वह मां ही है!
तभी तो भारतीय-हिंदू संस्कृति में हम परमात्मा को अलग-अलग रूपों में देखते हुए उसकी प्रार्थना करते हैं-

त्वमेव माता च पिता त्वमेव। त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव। त्वमेव सर्वं मम देव देव:॥
इसमें सर्वोपरि है, परमात्मा का मातृ रूप-त्वमेव माता!

अब वास्तव में कुछ स्त्रियां विभिन्न कारणों से संतानहीन होती हैं, फिर भी अविवाहित और विवाहेत्तर भी संतान प्राप्ति न होने वाली स्त्रियां भी, वास्तव में माता बनी स्त्रियों के समान, मूल प्राकृतिक रचना के अनुरूप माता ही होती हैं। वह मातृ प्रवृत्ति उनके व्यक्तित्त्व में जन्मगत ही होती है। इसके एक से ब़ढकर एक कितने सारे नमूने हम सभी ओर देखते हैं। जन्मगत नाते-रिश्तों के अनुसार सभी स्त्रियां-लड़की, बहन, पत्नी, माता, मौसी, बुआ, भौजाई, सास, दादी-नानी, परदादी-परनानी आदि होती हैं। ये सभी परिवार में अपनी-अपनी भूमिकाएं तो निभाती ही हैं, परंतु उनके विभिन्न क्रिया-कलापों से उम़डती है मातृ सुलभ वत्सलता ही। सामाजिक संपर्क के दौरान दिखाई दिए ये कुछ उदाहरण-

एक परिचित श्रद्धेय सज्जन हैं (आयु 97 वर्ष) पत्नी वियोग के पश्चात प्रदीर्घ काल उनकी अविवाहित ल़डकी (आयु 70-72) उनकी देखभाल करती है- मानो परवरिश ही वह देखने लायक ही है। जिस मातृ सुलभ वत्सलता से वह अपने पिता को मानो पुत्र ही मानकर जितना सारा करती है, उसे देखते मन द्रवित होता है।

स्व. डॉ. गोदूताई उपाख्य माई लिमये अपने भाई-बहनों को उच्च शिक्षित बनाने हेतु स्वयं अविवाहित रहीं। सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर के नाते नौकरी कर निवृत्त होने पर पुणे में अपने बंगले में निवास था उनका। महाराष्ट्र के कोंकण के एक गरीब परिवार के लड़के को चिकित्सा महाविद्यालय में दाखिला दिलाकर डॉक्टर बना दिया। एक विकलांग युवती को आसरा दिया। दूसरे एक ल़डके को एसएससी तक प़ढाकर उसके परिवार में भेज दिया। वंदनीय माई जी अविवाहित होते हुए भी इन सभी की मां ही तो बनी थी।

आदरणीय सिंधुताई सपकाल आज सैक़डों निराश्रित-अनाथ बालकों की माता बन गई हैं। उनकी ऐसी करामात देख, उनके पति महोदय ने उनके पास आकर रहने की इच्छा प्रकट की। ‘मेरे छात्रावास में ये इतने सारे बच्चे हैं, उन जैसे बनकर आओ, वैसे ही रहो! उन सभी के साथ मैं तुम्हारा पालन करूंगी।’ इन शब्दों में सिंधुताई ने उन्हें अनुमति दी। तब से वे अपने पति की पत्नी न रहते मां ही बन गईं।

एक सुविख्यात कहानी- अपनी प्रियतमा के प्यार के नशे में धुत एक युवक उससे कहता है, ‘मैं तुम्हारी खातिर कुछ भी करूंगा। तुम्हारी पसंद की कोई भी चीज ला दूंगा।’ प्रियतमा ने उसकी मां का कलेजा मांगा। युवक ने दौड़ते हुए अपनी मां के पास पहुंचकर उसके कलेजे की मांग की। वत्सल मां झट राजी हुई। युवक छुरे से अपनी मां का कलेजा काटकर लेकर दौड़ता हुआ वहां से चला। तेज दौड़ते समय रास्ते में वह ठोकर खाकर गिर पड़ा और मां का कलेजा हाथ से छूट कर कहीं जा गिरा। युवक संभलकर उठ खड़ा हुआ, तो उसे सुनाई दिया, ‘बेटा तुम्हें कहीं चोट लगी तो नहीं?, कहीं मोच तो नहीं आई?’ खोजने पर उसे पता चला कि ये शब्द उसने अपनी मां के काटकर लाए कलेजे से ही फूट पड़े थे। आखिर मां का ही जो कलेजा था वह!
छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक समारोह का वर्णन करते हुए एक बाल कवि लिखता है-

महाराज आसीन चौकी पर।
अभिषेक हुआ सप्तसरिताओं का।
वैसी ही अमृत वर्षण हुआ।
मैया के आनंद भरे आंसुओं का॥

हिंदी साहित्य में से राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी रचित ‘साकेत’ महाकाव्य में चित्रकूट प्रसंग। भरत के साथ पधारी माता कैकेयी को अपनी करनी पर पछतावा हुआ। सभी के समक्ष अपनी भूल स्वीकार कर स्वयं को वह ‘कुमाता’ कहते हुए कोसती है। उसके मातृत्व को गौरवान्वित करते हुए श्रीराम तुरंत बोल उठते हैं, ‘सौ बार धन्य वह एक लाल की माई, जिस जननी ने है जना भरत सा भाई।’

महात्मा सूरदास की गाई हुई कृष्ण की बाल लीलाओं में एक बार बलराम ‘गोरे नंद जसोदा गोरी, तू कत स्यामल गात’ कहते हुए कृष्ण को यशोदा मैया ने खरीद कर लाने की बात कर चिढ़ाते हैं। यशोदा तक शिकायत पहुंचने पर यशोदा कान्हा को अपना ही बेटा कहकर कहती हैं- ‘सूर स्याम, मोहिं गोधन की सौं, हौं माता तू पूत।’ मानीव माता का ऐसा चित्र विश्व भर में और कहीं नहीं।

हिंदी की श्रेष्ठ साहित्यकार स्व. महादेवी वर्मा विवाहित होकर भी दाम्पत्य जीवन जी न सकीं, संतानहीन ही रहीं। बचपन से ही पशु-पंछी पालने का शौक ऐसा कि आपने-अपने छात्रावास के अहाते में कितने ही पशु-पंछियों को पाला-उनकी बड़ी वत्सलता से परवरिश की। ‘दुर्मुख’ नाम का गुस्सैल खरगोश सयाना बनकर भी अकेला ही होने से हर किसी पर हमला करता है, यह देखकर माता महादेवी पशु बाजार से उसके लिए एक मादा खरगोश खरीदकर ले आईं। ऐसे कितने ही उदाहरण। इन सभी पालतू पशु-पंछियों के रेखाचित्रों का संग्रह ‘मेरा परिवार’ प़ढते समय साफ दिखाई देता है- संतानहीन कैसे? महादेवी जी तो जगन्माता!

अपने प्यारे जवान बेटे की अकाल मृत्यु से व्यथित मां खुद ही अपनी बहू का पुनर्विवाह करा देती है-उस सास को सही माने में ‘सासू मां’ ही तो कहना होगा।

तभी तो हम सभी कह सकते हैं- ‘स्त्रीत्व ही मातृत्व!’
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