ईश्वर का प्रथम रूप ‘मां’

संत बिनोवा भावे ने अपनी जीवनी में एक स्थान पर लिखा है, “प्रत्येक जीवधारी के लिये उसकी मां ही प्रथम ईश्वर है!” इस सृष्टि में मां पहला व्यक्तित्व है, जो अपने शिशु को जन्म देने के साथ साथ उसे जीवनयापन, आस्था-विश्वास और संस्कारशीलता के गुण प्रदान करती है! स्वामी विवेकानंद एक बार मां की शक्ति, संयम एवं ईश्वरीय गुणों की व्याख्या कर रहे थे। प्रवचन के अंत में एक नौजवान ने स्वामी विवेकानंद से प्रश्न किया, “स्वामीजी आपने एक स्त्री, जो हमारी मां है, का इतना विशाल वर्णन किया है। मेरा मन आपके तर्कों से संतुष्ट नहीं हो पा रहा है। कृपया मेरी शंका का समाधान करें?” स्वामीजी ने उस नौजवान को बहुत प्यार से देखा और छोटा सा पत्थर मंगवाया। यह पत्थर स्वामीजी ने उस नौजवान के पेट पर बांध कर उसे सामने दीख रहे मैदान के चार चक्कर लगाने के लिये कहा। नौजवान पहले थोड़ा हिचकिचाया फिर उस मैदान के चक्कर लगाने लगा। पहले तीन बार थोड़ी परेशानी और दुविधा के साथ जैसे तैसे चक्कर लगा भी लिये- परंतु चौथे चक्कर के बाद वह नौजवान पूरी तरह बिफर गया और उसने स्वामीजी से पुन: प्रश्न किया कि “आप मुझे क्या समझाना चाहते हैं?” तब स्वामीजी ने मुस्कराते हुये उस नौजवान से कहा, ‘इस सृष्टि में मात्र मां है, जो अपने गर्भ में पल रहे शिशु के नित्य प्रति के बढ़ने और क्रियाकलापों में स्वर्गीय सुख का आनंद अनुभव करती है।” तत्पश्चात, स्वामीजी ने उस नौजवान से पूछा, “आपके कितने भाई बहन हैं?” उसने बताया, “हम पांच भाई बहन हैं।” तब स्वामी जी ने उस नौजवान को समझाया कि तुम्हारी मां ने यही प्रक्रिया पांच बार दोहराई। कभी किसी से शिकायत नहीं की होगी; बल्कि गर्भस्थ शिशु की प्रगति के संग संग उसका निरंतर सुख भी बढ़ता रहा होगा। हम लोग तो साधारण मनुष्य हैं लेकिन जिन्हें हम देवता मानते हैं, वे भी मां के ऋण से कभी मुक्त नहीं हो पाते।”

इस सृष्टि में सभी मत-मतान्तरों के दार्शनिक विद्वान इस मत से पूर्ण रुपेण एकमत है कि ‘ईश्वर एक’ है। उसके जानने और मानने के रास्ते अनेक हैं, जो भौगोलिक एवं वैचारिक दृष्टि से भिन्न हो सकते हैं?

ईश्वर ने स्वयं जीवधारियों को इस झंझट और भटकाव से मुक्त रखने के लिये अपने गहनतम दायित्वों को मूर्त रूप देते हुये मां जैसा व्यक्तित्व सृजित किया है। ईश्वर ने मां के व्यक्तित्व में सर्वश्रेष्ठ शिक्षक चिकित्सक एवं प्रबंधकीय गुणों का अथाह भण्डार सौंप दिया है।

मां सर्वश्रेष्ठ चिकित्सक है। मां को किसी शिशु के लिये स्पर्श चिकित्सा का अपरिमित ज्ञान होता है। शिशु कितना भी क्लान्त, हताश, जीवन संघर्ष से घबराया, थका हो लेकिन जब मां के पास आता है तो मां का स्नेहभरा स्पर्श, मां का शिशु के माथे पर चुम्बन, सिर पर रखा गया हाथ सभी दु:ख परेशानी दूर करता हुआ नये जीवन का संचार करता है। पशुओं में भी अपने शिशुओं को जन्म लेने के बाद सक्षम जीवनयापन की स्थिति तक मां अपने संरक्षण में ही उसे पूर्ण प्रशिक्षण देती है। बच्चे को कभी मार लग जाती है तो बच्चे को चाट-चाट कर उस घाव को स्वस्थ कर देती है।

मां सर्वश्रेष्ठ शिक्षक भी है। अपने बच्चों को आस्था-विश्वास एवं संस्कार की शिक्षा मां ही देती है। इस शिक्षण के लिये किसी विद्यालय की डिग्री की उसे आवश्यकता नहीं है। उसका आत्मविश्वास ही आवश्यक है। इसके लिये हमारे शास्त्रों में अनेक उदाहरण जीवंत हैं। संस्कृत व्याकरण के रचानाकार महर्षि पाणिनी को बचपन में पाठशाला में जब उनके गुरुजी ने डांटा कि तू कूछ भी नहीं सीख सकता, तो बालक रोता हुआ घर अपनी मां के पास आया। मां ने रोने का कारण पूछा तो विद्यालय की पूरी घटना सुना दी। मां ने प्यार से समझाते हुये कहा, “अब तुम जब भी पढ़ने बैठोगे मेरे पास बैठकर और बोल बोल कर पढ़ोगे।” यह एक निरक्षर मां का व्यावहारिक प्रशिक्षण था, जिसने एक बालक को निघन्टु (संस्कृत का व्याकरण) लिखने योग्य बना दिया और संसार को निघन्टु जैसी व्याकरण व्यवस्था मिली। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम के मन में गुरुकुल से लौटने के उपरांत मन में उठती हुयी शंकाओं का समाधान करते हुये मातृप्रेम, एकता, मर्यादा का ज्ञान देना-माता कौशल्या ही कर सकती थी। माता यशोदा ने भगवान कृष्ण को संरक्षण संगठन की योग्यता का विशेष प्रशिक्षण दिया। माता जीजाबाई की अनोखी प्रतिमा का अध्ययन करते हैं तो हमें यह कहते समय कदापि सोचना नहीं होता कि माता जीजाबाई जैसी माताओं पर सम्पूर्ण विश्व गर्व कर सकता है और छत्रपति शिवाजी जैसा वीर पुत्र इतिहास पुरुष का स्मरण कर सकता है।

मां सृष्टि में सर्वश्रेष्ठ प्रबंधकीय क्षमतावाली शक्ति है! माता जीजाबाई का जीवन चरित्र मां की गरिमा और गौरव की गाथा है। जिन्होंने पुत्र मोह से अधिक राष्ट्र के प्रति समर्पण, सभ्यता, संस्कृति की रक्षा, नारी सम्मान की रक्षा के लिये पग-पग पर छत्रपति शिवाजी महाराज का योग्य मार्गदर्शन किया। राष्ट्र के प्रति समर्पित एक और ऐसी मां की गाथा है जिसने आतताई की निरंकुशता के सामने अपने पुत्र का बलिदान कर दिया और मुंह से चीख तक नहीं निकाली। ये माता पन्नाधाय थी, जिसके लिये राष्ट्र सर्वोपरि था, पुत्र बाद में।

मां की श्रेष्ठता का, उसके दैवीय गुणों का अनुमान इसी से हो जाता है कि जब भी किसी बड़ी विपत्ति का अंदेशा होता हो मां को इसका पूर्वाभास हो जाता है। संस्कार, सभ्यता, संस्कृति की सुरक्षा सम्मान के लिये हमें सदैव ही मां का ऋणी रहना है। ईश्वर निस्संदेह एक है। इसलिये मनुष्य के जीवन में जितना महत्व ईश्वर का है, उससे दस गुना महत्व गुरु का है और गुरु से सैकड़ों गुणा महत्व पिता का है, पिता से हजारों हजार गुणा महत्व मां का है। इसमें भी ‘सर्वोपरिजननी जन्मभूमि’ जहां सम्पूर्ण श्रेष्ठता में प्रणाम करती है। इसीलिये आज का पुरुष प्रधान समाज भी यह मानता है ‘बाप है जन्नत का दरवाजा समझ ले, मां के कदमों के नीचे है जन्नत मियां।’ ‘इन्सान तो क्या देवता भी आंचल में पले तेरे, है स्वर्ग इसी दुनिया में कदमों के तले तेरे।’ ओ मां तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी?
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