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पू. गुरुजी का जीवन- मातृपूजा का महायज्ञ

पू. गुरुजी का जीवन- मातृपूजा का महायज्ञ

by दीपक जेवणे
in मई -२०१४, सामाजिक
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मानवीय जीवन में कृतज्ञता भाव का स्थान असाधारण है। आज मनुष्य प्रगति पथ पर तेजी से मार्गक्रमण की बातें करता है, मगर विद्यमान मनुष्य जीवन जिन समस्याओं ने घिरा दिखाई देता है उससे पता चलता है कि वह कृतज्ञता का भाव भूल कर पशुतुल्य बन गया है। मनुष्य में मातृशक्ति ही कृतज्ञता भाव जगा सकती है लेकिन अपने निजी सुख में डूब कर मनुष्य माता को ही भूल गया है। इसलिए आज मानव ही मानवता से विमुख हो गया है। इस भूमि में जितने भी महापुरुषों ने जन्म लिया है उन सभी ने मातृत्व भावना का सदैव सम्मान किया है और वे स्वयं भी महान बन गए हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर यथा श्रीगुरुजी का यह सुस्पष्ट विचार था कि, “अपने राष्ट्र की जीवनधारा अक्षुण्ण रखने का उत्तरदायित्व महिलाओं ने ही संभाला है। स्वार्थ और असद्भावना के वातावरण को अपनी अतीव पवित्रता से प्रभावित करने का सामर्थ्य महिलाओं में ही है।”

गुरुजी ने यह भी कहा है कि, “दुर्गा का अवतार लेकर महिलाओं ने भी सभी संकटों से समाज की रक्षा की है और महाकाली के रूप में विनाशक भी वहीं है। जहां ऐसी स्त्रियां हैं और जिनके सामने आदर के साथ समाज नतमस्तक होता है वह समाज समृद्धशाली अवश्य बनेगा।”

गुरुजी को अपनी माताजी, जिन्हें ताईजी कहा जाता था, से प्राप्त संस्कार सदैव स्मरण थे। इसलिए वे मानते थे कि, ‘स्त्री का महत्वपूर्ण कार्य संस्कार देना यह है। माता के संस्कार से पुत्र संस्कारित होता है।”

जब गुरुजी ढाई-तीन साल के थे तब उनके बाल घुंघराले थे। नहाने के बाद बाल संवारकर उसमें ताईजी एक मोरपंख सजा देती थी और कहती थी, “देखो साक्षात कृष्ण ही दीख रहा है!” आयु में छोटे होने के बावजूद भी इस घटना का संस्मरण गुरुजी को सदा रहा और ताईजी के सरल वाक्य का भी उनके जीवन पर गहरा असर पड़ा।

बचपन में गुरुजी खेल-खेल में ही बडी कील लेकर भूमि में यहां वहां छेद बना रहे थे। तब उनका खेल देखकर ताईजी ने कहा था, “अरे, यह तो हमारी माता है। उसे चोट मत पहुंचाओ। बिना वजह जमीन में कील ठोकना गलत है।” इस घटना ने गुरुजी के हृदय पर मातृभूमि के प्रति संवेदना का भाव अंकित कर दिया। इस घटना का वर्णन करते हुए गुरुजी ने कहा था, “घर-घर में ऐसा संस्कारित जीवन माताओं द्वारा बनता है तो बच्चों को संस्कार देने के लिए अलग व्यवस्था करने की आवश्यकता ही नहीं होगी।”

गुरुजी के मन में यह मातृभक्ति का भाव ही विकसित होकर चरमसीमा पर पहुंच गया था। इसलिए उन्होंने मातृत्व के त्रिविध रूपों का अवलोकन किया। नारी को लेकर भोगवाद का विषय उनको नहीं छू पाया। जन्मदात्री माता, भरणपोषण करनेवाली भारतमाता और मोक्षदात्री जगज्जननी जगदंबा ऐसी मातृत्वपूजा की भावना गुरुजी के हृदय में विकसित हो गई। गुरुजी के मन में मातृत्व के इन त्रिविध रूपों के बारे में कितने आदरसम्मान की भावना है इस बात का अनुभव उनसे परिचित सभी लोगों को अवश्य था।

श्रीगुरुजी को 4 अक्टूबर 1969 को पुणे में मातृपूजन ग्रंथ के प्रकाशन समारोह में आमंत्रित किया गया था। एक श्रेष्ठ मातृभक्त ऐसा उनका परिचय दिया गया था। तब श्रीगुरुजी ने विनम्रतापूर्वक कहा था कि, मैं इस विशेषण के योग्य नहीं हूं। इस समारोह में भाषण करते समय उन्होंने माता के बारे में कई संस्मरण बताए। युवा गुरुजी जब चार मास घर से गायब रहे थे तब लौटने के बाद उनको पता चला कि, माताजी बीमार है। तब माताजी ने कहा, “मुझे डॉक्टर की औषधि नहीं चाहिए। तू ही औषधि दे!” डॉक्टर ने यहां तक कह डाला कि, गुरुजी के घर से गायब हो जाने के कारण माताजी को दिल का नहीं बल्कि पुत्रवियोग का दौरा पड़ा था। आगे स्वीकृत कार्य की पूर्तता करने हेतु गुरुजी को पूरे भारतवर्ष का प्रवास करना आवश्यक बन गया। जब वे प्रवास करने निकलनेवाले थे तब माताजी बीमार थी, लेकिन माताजी ने यह कहकर गुरुजी को प्रवास के लिए अनुमति दे दी कि, “मनुष्य का जीवन-मरण किसी के पास रहने या न रहने पर निर्भर नहीं होता!”

गुरुजी यह संस्मरण इसलिए बता पाए क्योंकि वे कार्यहेतु प्रवास में होकर भी हृदय से अपनी माता के निकट ही थे। दूसरी बात यह भी है कि उनकी अंतरात्मा में इस माता के साथ-साथ अभिन्नता से भारतमाता की मूर्ति भी विराजित थी। इन दोनों में अंतर करना उनके लिए कठिन था। इस भारतमाता की सेवा करने का प्रण लेने के कारण गुरुजी अपनी जन्मदात्री माता की कुछ कामनाओं की पूर्तता न कर पाए थे, इसलिए वे स्वयं को श्रेष्ठ मातृभक्त इस विशेषण से विभूषित नहीं करवाना चाहते थे। कर्तव्यपरायण व्यक्ति की यही महानता होती है कि वह बड़े से बड़े कर्तव्यों के साथ छोटे कर्तव्यों का भी आदर करता है।
यद्यपि गुरुजी की माताजी को भी इस बात का आभास था कि उनका पुत्र सर्वसाधारण लोगों जैसा नहीं है। उन्होंने भी आम माताओं की तरह सपने संजो रखे थे। पढ़ाई के बाद पुत्र कोई कामधाम करें, उसका विवाह हो, घर में संतानें हो, आदि। मगर भारतमाता की सेवा के सामने गुरुजी को इन छोटे सपनों की पूर्तता करना नागवार था। गुरुजी का विवाह हो इसलिए मातापिता ने भरसक प्रयास किए थे, मगर गुरुजी अड़िग रहे थे। इस बारे में वे स्वयं बताते हैं कि, “मैं जब संघकार्य के लिए प्रवास करने लगा तब मां ने इतनी शीघ्रता से अपने हृदय को समझा लिया कि मुझे भी आश्चर्य हुआ।” लेकिन माताजी इसीलिए अपने हृदय को वास्तविकता समझा पाई थी क्योंकि वे अपने पुत्र के हृदय से समरस हो गई थी। जिस तरह गुरुजी अपनी माता का आदर करते थे उसी तरह माता ने भी अपने पुत्र की इच्छा का आदर करना मान लिया था। इस तरह गुरुजी की माताजी ने संघकार्य में अपने पुत्र की सहायता ही की थी।

एक घटना इस प्रकार है – जब एक स्वयंसेवक की माता गुरुजी की माताजी के पास शिकायत लेकर पहुंची कि, उसका दूसरा पुत्र विवाह करने से मना कर रहा है। उसकी शिकायत शांतिपूर्वक सुनने के बाद माताजी ने उसे समझाते कहा, “तुम्हारा दूसरा पुत्र विवाह नहीं कर रहा है, परंतु पहले का तो विवाह हो चुका है। मेरा तो इकलौता पुत्र है और वह विवाह नहीं कर रहा है, फिर भी मुझे दुख नहीं हो रहा है। भला तुम क्यों मन खट्टा कर रही हो?” राष्ट्रकार्य के लिए एक प्रचारक मिल गया, इस बात से गुरुजी को आनंद ही हो गया।

जब गुरुजी की माताजी नहीं रही तब कांची कामकोटि पीठ के आदरणीय श्रीमत् शंकराचार्य ने अपने सांत्वना पत्र में यह लिखा था कि, “अस्थिचर्मय मानवदेहधारिणी तुम्हारी मां यद्यपि नहीं रही, किंतु वह भारतमाता जो हजारों वर्षों से तुम्हारे समान अनगिनत पुत्रों की जन्मदात्री है और भविष्य में भी ऐसे पुत्रों की माता रहेगी वह तो नित्य चैतन्यमयी विराजमान है। उस भारतमाता की सेवार्थ कटिबद्ध हुए तुम्हें मातृवियोग हो ही नहीं सकता। तुम्हारे लिए शोक का कारण नहीं है।”
शंकराचार्य जी ने इन मातापुत्र की भावनाओं का वास्तविक तानाबाना पहचान लिया था यही बात इस पत्र के माध्यम से हमें पता चलती है। गुरुजी के मन के स्पंदन उन्होंने जान लिए थे। गुरुजी के मन में माता की मूर्ति अजरामर भारतमाता की मूर्ति के साथ तदाकार हो गई थी। शायद इसी कारणवश अपनी माता का देहावसान जब हुआ तब गुरुजी की आंखों से आंसू की एक बूंद भी नहीं टपकी थी। हृदय में व्याप्त वेदना का शमन कर मन का संतुलन बनाए रखने का कार्य गुरुजी की महानता के कारण ही संभव हो पाया था। इस वेदना से उबरने की कृति श्रेष्ठ मातृभक्ति की ही परिचायक है। गुरुजी एक विशुद्ध मातृभूमिभक्त थे। कुछ लोग सत्ता, सफलता और स्वार्थ के लिए मातृभूमि की भक्ति करते हैं, लेकिन गुरुजी के रूप से मातृभक्ति से ओतप्रोत हृदय का दर्शन होता है।

आधुनिक काल की पदचाप गुरुजी ने पहचानी थी। इसलिए वे कहते है, “आधुनिक जीवनप्रवाह में बहने के कारण जन्मदात्री माता के प्रति अनादर बढ़ता जा रहा है। अपने जन्म को मातापिता के वैषयिक सुख का ‘बाय प्रॉडक्ट’ कहने की प्रवृत्ति निर्माण हो रही है। हम जन्मदात्री को भूल गए, वैसे ही संपूर्ण राष्ट्र को जन्म देनेवाली मातृभूमि को भी भूल गए। इन दो महान माताओं के विस्मरण के बाद यह कैसे संभव है कि समूची सृष्टि को जन्म देनेवाली अखंड मंडलाकार जगन्माता का स्मरण रहे? हमारे यहां माता, मातृभूमि और जगन्माता ऐसे मातृत्व के त्रिविध रूप बताए गए हैं। अपने हृदय में मातृत्व के बारे में श्रेष्ठ भावना जगाकर अत्यंत कृतज्ञता के साथ जन्मदात्री, धरित्री और जगद्धात्री से अपना माता-पुत्र का नाता है, इस तरह के मातृत्व के स्वरूप का ध्यान धारण कर उसकी उपासना करने के लिए कटिबद्ध होना चाहिए।”

आज अपना समाज नारी असुरक्षा और असम्मान से लेकर अनेक समस्याओं से ग्रस्त है। इन समस्याओं का उत्तर हमें गुरुजी की कृतज्ञ भावना और विचारों में अवश्य मिलता है। आज इन विचारों का अवगाहन करना यह समय की मांग है।
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