हिंदी विवेक
  • Login
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
हिंदी विवेक
No Result
View All Result
वीर माताएं

वीर माताएं

by सुलभा देशपांडे
in मई -२०१४, सामाजिक
0

जननी और जन्मभूमि को स्वर्ग से श्रेष्ठता की कड़ी में जिन माताओं ने अपने नौजवान पुत्रों को स्वतंत्रता की बलिवेदी पर “इदं न मम्, इदं राष्ट्राय स्वाहा:” कह कर मातृभूमि को स्वतंत्र करने न्यौछावर कर दिया उन माताओं की अन्तरमन की भावना को समझना, उनकी वेदनाओं को उतनी ही तीव्रता से अनुभव करना शायद वर्तमान में असंभव सा लगता है। 1857 की क्रांति के बाद राख के अन्दर ही अन्दर चिनगारी सुलग रही थी। इस यज्ञ वेदी में बाद में क्रातिकारियों की शृंखलाबद्ध आहुतियों ने यज्ञ ज्वाला को निरन्तर प्रज्वलित रखा। वीर माताओं की ये वीर संतानें फांसी के फंदे को चूमते हुए इहलोक छोड़ते तो उनकी माताओं के हृदय छलनी – छलनी हो जाते, परन्तु इस वेदना को हृदय में दबा कर वीर माता की भूमिका निभाना कितना कष्टप्रद था इसे क्रांतिकारियों की मां बनकर ही समझा जा सकता है।

इस चिनगारी से प्रकट होने वाला पहला स्फुल्लिंग है वासुदेव बलवन्त फडके। मां का नाम सरस्वती तथा पिता का नाम बलवन्त फडके था। कोकण के शिरढोण में रहने वाला यह परिवार। वासुदेव ने अपनी शिक्षा पूर्ण कर अंग्रेजों के अधीन नौकरी करना प्रारंभ किया। घर परिवार से दूर रहना पड़ा़। मां की अस्वस्थता में गोरे अधिकारियों ने उन्हें छुट्टी नहीं दी। आखिर मां के अंत्यदर्शन भी वे न कर सके। इस घटना ने उनके मन में अंग्रेजों के प्रति आका्रेश भर दिया। मां के वर्ष श्राद्ध में भी उन्हें घर जाने की अनुमति नहीं मिली। मां के प्रति अनन्य श्रद्धा एवं आत्मभाव होने के कारण उनका मन शोक सागर में डूब गया।

इसी व्यथित अवस्था में उन्हें एक यति के दर्शन हुये। उन्हेांने वासुदेव से कहा कि “तुम्हारी मां गयी तो तुम साल भर से शोक कर रहे हो परन्तु हजारों पुत्रों की जो मां है अपितु तुम्हारी भी मां है उस मातृभूमि को तुमने कैसे भुला दिया। उठो, उस भारत माता के दर्शन करो। तुम्हारा सारा शोक दूर हो जायेगा।” अन्त में वासुदेव को एक तलवार प्रसाद स्वरूप दी। इस घटना ने वासुदेव की जीवन की दिशा ही बदल दी। उसे भारत मां में अपनी मां के दर्शन होने लगे। इस वीर मातृत्व की प्रेरणा ने ही उसे एक योद्धा बना दिया। भारत मां की स्वतंत्रता के लिये लड़ते -लड़ते अंग्रेजों की कैद से छूट कर अपना जीर्णशीर्ण देह 17 फरवरी 1883 में भारत माता के चरणों में अर्पित कर दिया ।

महाराष्ट्र की एक ऐसी ही मां जिसका नाम द्वारिका बाई था। उसकी एक नहीं, दो नहीं, तीन – तीन संतानें एक – एक कर फांसी के फंदे पर झूल गईं। वह खुली आंखों से यह सब देखती और सहती रही। इन्हें प्रेरणा मिली वासुदेव बलवन्त फडके से। उस नर वीर का मरण एवं अंग्रेजों का उनके साथ किया गया क्रूर व्यवहार, उनके हृदय में क्रांति की चिनगारी सुलगा गया। प्रतिशोध की भावना से अंग्रेज अधिकारी रैण्ड को मारने का संकल्प तीनों भाइयों ने किया। रैण्ड आखिर इनके हाथों मारा गया। इस आरोप में प्रथम दामोदर को और बाद में बालकृष्ण तथा वासुदेव तीनों को फांसी की सजा हुई। इस आघात से द्वारिका बाई बीमार हुई एवं कुछ दिनों बाद उनका स्वर्गवास हो गया। तीन- तीन पुत्रों की मां परन्तु अन्त समय में उसकी चिता को अग्नि देने एक भी पुत्र उनके पास नहीं था। उस मां की वेदनाओं की कल्पना से हृदय कांप उठता है।

इसी शृंखला में 1900 से 1910 के कालखण्ड में अनन्त कान्हेरे तथा मदन लाल धींगरा जैसे अल्पवयीन तरूणों ने अंग्रेज अधिकारियों को गोलियों से छलनी कर, मां भारती के प्रति अपना कतर्र्व्य निभाया। लन्दन में ही मदन लाल को फांसी दी गई। मदन लाल का परिवार भारत में ही था। पिता अनन्य अंगे्रज भक्त थे, अत: मां को रोने की भी शायद छूट नहीं थी। कान्हेरे की मां उनके इस कृत्य से अनभिज्ञ थी। फांसी के बाद अपने बेटे के अन्तिम दर्शन भी नहीं कर पाई। अंग्रेजों ने फांसी के बाद उन्हें जलाकर उनकी राख समुद्र में बहा दी। अंग्रेज डरते थे कि क्रांतिकारियों की राख भभूत बन कर माथे पर चढ़ती है और क्रांति वीरों में अनन्त उर्जा का संचार करती है।

ऐसा ही एक बावरा तरूण बंगाल की धरा को पावन कर गया। नन्दझोल गांव के तहसीलदार त्रैलोक्य बसु और उनकी पत्नी लक्ष्मी देवी का पुत्र खुदीराम बोस। 6 वर्ष की अल्पायु में ही माता पिता का साया सर से उठ गया। जेष्ठ भगिनी अपरूपा ने मातृवत बालक का पालन किया। मां के आंचल से वंचित बालक भारत मां के आंचल में अपना सुख ढूंढने लगा। लार्ड कर्जन भारत का गर्वनर जनरल बन कर आया और उसने बंगाल को पूर्व और पश्चिम दो भागों में विभाजित कर दिया। वन्देमातरम् कहने पर पाबंदी लगा दी। मिदनापुर में अंग्रेजों ने एक प्रदर्शनी लगा रखी थी जिसमें अंग्रेजों के राज्य का गुणगान था। उस प्रदर्शनी में खुदीराम “सोनार बांगला” के पत्रक बांटते पकड़ा गया पर सिपाही की नाक पर मुक्का मार कर भाग निकला। बाद में रात को सोते हुए पकड़ा़ गया परंतु कम उम्र के कारण छूट गया। अपनी वीरता की गाथा उसने अपनी मातृस्वरूपा बहन अपरूपा को सुनाई। एक तरफ उसकी राष्ट्रभक्ति की अदम्य साहसपूर्ण कृति का गौरव तो दूसरी तरफ उसके परिणाम का भय। माता -पिता का लाड़ला वंशदीप उसे अबाधित रखना था, पर खुदीराम बोस का तो लक्ष्य था दुष्ट किग्सफोर्ट। 30 अप्रैल 1907 की रात वह किग्सफोर्ट को यम सदन पहुंचाने निकला पर भाग्य से वह बच गया। 11 अगस्त 1908 को उसके इस अपराध के लिए फांसी पर लटका दिया गया। बहन अपरूपा अपने मायके के वंशदीप को बचा नहीं पाई, पर उसकी अन्तिम यात्रा में वन्देमातरम् का गगनभेदी जयघोष सुनकर तथा उसके चिता की राख की एक चुटकी पाने के लिए लोगों की होड़ देखकर वह समझ गई कि मेरा खुदी अनेक रूप धारण कर अनेक घरों में जन्म लेगा। उसका उद्वेलित मन शान्त हो गया।
बड़ी अजीब कहानी है उन तीन माताओं की जिनके बेटे एकसाथ ‘इनक्लाब जिन्दाबाद’, ‘भारत माता की जय’, ‘वन्दे मातरम्’ कहते कहते फांसी के फन्दों को स्वयं के हाथों गले में डाल कर ऐसे झूमे मानो भारत माता के गले का रत्नहार ही उन्हें मिला गया हो। “मेरा रंग दे बंसती चोला” के स्वर सारे जेल परिसर में गूंज रहे थे। भगत से एक दिन पहले मिलने आई विद्यावती बाहर जेल की दीवारों के पास विलाप कर रही थी, “मेरे लाड़ों, मेरे भागो कैसे मिलू रे, मैं तुझसे…” क्योंकि फांसी की निश्चित तिथि के एक दिन पहले ही उन्हें फांसी दे दी गई थी। उसे याद आ रहा था वह दिन जब वह उससे मिलने आई थी। फांसी की सजा सुन उसकी आंखों में आंंसू आ गये थे। यह देख भगत उसे ढाढस बंधा रहा था, ‘बेबे रोती क्यों है? देखना, फांसी के नौ महीने बाद तुरन्त मैं तेरे कोख में आकर फिर जन्म लूंगा, फिर लडूंगा, फिर मरूंगा। यह क्रम तब तक चलेगा जब तक मेरी मातृभूमि अंग्रेजों से मुक्त न कर दूूं।” इस भी़ड़ में आंसू बहाती शिवराम की मां पार्वती भी थी। तीनों की एकसाथ जली चिता की राख को अलग कर अपने शिव की राख को ढूंढ रही थी। सुखदेव की मां तो इन तीनों का स्वर्ग में स्वागत करने पहले ही जा चुकी थी।

एक और क्रांतिकारी मां की कथा बड़ी अनोखी है। रामप्रसाद बिस्मिल की मां मायावती। काकोरी कांड के कारण राम प्रसाद बिस्मिल जेल में थे। वे अपने पति मुरलीधर के साथ फांसी के एक दिन पहले जेल में मिलने गयी थी। वह दिन था 19 दिसम्बर। कमजोर बिस्मिल की दाढ़ी बढ़ी हुई थी, फिर भी ओजस्वी दिख रहा था। पर मां को देखते ही उसकी आंखों से झर- झर आंसू बहने लगे। मां भी रोने लगती तो बेटे को ढाढस कैसे बंधाती? उसे उस महान बलिवेदी पर चढ़ने के लिये उसमें साहस और ऊर्जा कैसे भरती? उसने अपने हृदय पर चट्टान रखकर कठोर आवाज में बिस्मिल को फटकारा, “अरे राम, तू मृत्यु से इतना भय खाएगा यह स्वप्न में भी मैंने नहीं सोचा था। जिस राजसत्ता में सूरज कभी अस्त नहीं होता, ऐसे राज सिंहासन को हिला देने का सामर्थ्य मेरे बेटे में है यह सोचकर मैं मिलने आई थी। तेरी आखों में आंसू देखकर मैं लज्जा से गड़ी जा रही हूं। मृत्यु से इतना ही भय था तो इस राह पर चला ही क्यों?” बिस्मिल को ये शब्द तीरे से चुभे। उसने तुरन्त अपने आंसू पोंछे और कहा, “मां मुझे मृत्यु से भय नहीं लग रहा है। जिस मां ने मेरे जैसा शहीद जन्मा है उस मां को मैं यत्किंचित भी सुख नहीं दे पाया, यह दुख मेरे मन को साल रहा है। तू तो महान है। तेरी ही शक्ति, ऊर्जा एवं साहस के कारण भारत मां की यज्ञवेदी में समिधा बनने का सौभाग्य मुझे मिला है। यह सारा श्रेय तेरा है मां। बस मैं भी तेरा ही वीर सपूत हूं।” दूसरे दिन राम का निष्प्राण देह परिवार को सौंपा गया। ‘भारत माता की जय’ के नारे से आसमान गूंज रहा था। कल का कठोर आवरण ढह चुका था, अन्दर का बांध टूट चुका था। उसके जीवन का राम वह खो चुकी थी। नम आखों को लग रहा था कि कल के समान वह उठेगा और अपनी कविता बोलेगा-

सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना हैं जोर कितना बाजू ए कातिल में है

हर क्रांतिकारी चाहे वह चन्द्रशेखर आजाद हो, प्रफुल्ल चाकी हो, सुभाष चन्द्र बोस हो- सबकी माताओं का हृदय एक ही जैसा है जो अपने बेटों को कांटों का ताज तो पहनाती हैं; पर उन कांटों के चुभने से लहूलुहान हुए हाथों को बेटों की नजरों से बचाती फिरती हैं।

उन वीर माताओं को श्रद्धा सुमन समर्पित करने लायक तेजस्वी पुष्प आज हमारे अंजुली में नहीं है। क्योंकि वर्तमान मां आज मातृत्व को खो कर रिलेशनशीप के जाल में उलझ गयी है, तो कहीं गर्भ से ही अपने अस्तिव की आशंका से डरी हुई है। क्या यही हमारी प्रकृति है? क्या यही हमारी संस्कृति है? नहीं …..! उपरोक्त कथाओं को सुनकर मन में उठे प्रश्नों का उत्तर मिलता है, अरे! यह वीर भोग्या वसुन्धरा है, जो इस धरा की रक्षा के लिये संघर्ष कर रही है और निरन्तर करती रहेगी।
अन्त में बरबस स्वातंत्र्यवीर सावरकर की वे पंक्तियां याद आने लगती हैं जो उन्होंने अपनी मातृ स्वरूपा भाभी ( येसू वहिनी) के उदास मन को पुन: प्रफुल्लित करने के लिये लिखी थीं जो मराठी में हैं-

अमर होय ती वंशलता, निर्वंश जिचा देशाकरिता
दिगंति पसरे सुगंधिता लोकहित परिमलाची।

वह वंशवेल अमर हो जाती है, जो देश और धर्म के लिये निर्वंश हो जाती है तथा लोकहित में किये गये उनके कार्य की कीर्ति दसों दिशाओं में सुंगधित परिमल के समान फैल जाती है।
वन्देमातरम्!
———-

 

Share this:

  • Twitter
  • Facebook
  • LinkedIn
  • Telegram
  • WhatsApp

सुलभा देशपांडे

Next Post
अनाथ बच्चों की ‘माई’ सिंधुताई

अनाथ बच्चों की ‘माई’ सिंधुताई

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी विवेक पंजीयन : यहां आप हिंदी विवेक पत्रिका का पंजीयन शुल्क ऑनलाइन अदा कर सकते हैं..

Facebook Youtube Instagram

समाचार

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लोकसभा चुनाव

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लाइफ स्टाइल

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

ज्योतिष

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

Copyright 2024, hindivivek.com

Facebook X-twitter Instagram Youtube Whatsapp
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वाक
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
  • Privacy Policy
  • Terms and Conditions
  • Disclaimer
  • Shipping Policy
  • Refund and Cancellation Policy

copyright @ hindivivek.org by Hindustan Prakashan Sanstha

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In

Add New Playlist

No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण

© 2024, Vivek Samuh - All Rights Reserved

0