पूरनपोली की पूर्णता: मेरी मां

यह बात सन 1969-70 की है। तब मेरी उम्र 12-13 वर्ष रही होगी। मेरी दादी मां का निधन हुआ था। हम सब हमारे गांव देवका (गुजरात) गये थे। हमारे जीवराम चाचाजी विद्वान कथाकार थे। उनके साथ रहने के कारण मुझे भी भागवत कथा और भगवद्गीता की शिक्षा प्राप्त होती थी। सहज ही हममें धर्म और संस्कार का सिंचन होने लगा।

गांव के हम 15-16 साल के मित्रों में कुछ करने की भावना जागृत होे उठी। उस समय हम सब युवा मित्र गपशप लगा रहे थे। हमने निश्चय किया कि पूज्य दादी मां की स्मृति में सात दिवसीय गीता ज्ञान यज्ञ का आयोजन करेंगे। मैं व्यासपीठ से गीता के बारे में प्रवचन करूंगा।

वैसे देखा जाये तो यह बच्चों का मनोरंजन मात्र था। मैं अपनी बाल बुद्धि से जो कुछ समझ सका हूं उसे प्रस्तुत करना और आनंद लेने का तात्पर्य था। घर के वयस्कों ने और गांव के लोगों ने तो इसे बच्चों का खेल समझा था।

हमारे तीन गुरुजनों में से एक जीवराम चाचा से हमने पूछा और उन्होंने हमें अनुमति भी दे दी। सात दिवसीय गीता ज्ञान यज्ञ की तैयारियां शुरू हो गयीं। गांव के लोगों में इसका भारी उत्साह था। कथा मंडप सजाया गया। सुंदर व्यासपीठ बनाया गया। प्रसाद, आरती आदि की सारी व्यवस्था हो गयी। मेरे सब युवा और बालमित्र कार्यकर्ता के रूप में कड़ी मेहनत करने लगे। मगर इस पूरे आयोजन के केन्द्र में थी मेरी मां लक्ष्मीबेन ब्रजलाल भाई ओझा।

मेरा भावी जीवन और कार्य निश्चत करनेवाली इस घटना को महत्वपूर्ण घटना मानता हूं। उस समय हमें अंदाजा भी नहीं था कि वह सात दिन का ज्ञानयज्ञ का समर्पित माहौल मेरे जीवन को निश्चित कर देगा।

प्रथम दिन के एक ही घंटे में वह ज्ञानयज्ञ बच्चों के खेल के स्थान पर एक संपूर्ण गीतायज्ञ का स्वरूप ले चुका था ।
गांव के घर घर से, बाडी से, खेत से फल, सब्जियां, पूजा सामग्री, अनाज, घी आदि कथा मंडप में आने लगा। सुबह और शाम दोनों समय भगवद् गीता के श्लोकों का शुद्ध पठन, अर्थ तथा दृष्टांत रूप से प्रस्तुत मेरी कथा सब के लिये रसप्रद होती थी। दिन-प्रतिदिन लोगों की भीड़ जमा होने लगी थी। उसी समय मेरे आध्यात्मिक जीवन की नींव पड़ गई थी। मेरे भावी जीवन की दिशा प्राप्त हुई। इस सबका श्रेय मेरी मां को जाता है।

मां ने हम बच्चों के प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर कार्य को संपन्न करने की पूर्ण जिम्मेदारी ली थी। उनकी वजह से ही गीता ज्ञानयज्ञ सफलता पूर्वक संपन्न हुआ।

अमरेली जिले के अगरिया गांव में मेरी मां लक्ष्मी का जन्म हुआ था। अगरिया गांव से देवका गांव में मेरे पिताश्री ब्रजलाल ओझा से विवाह करके मां सकुशल ससुराल आई तब से उन्होंने गृहकार्य, खेती काम, घंटी चलाना जैसे गृहकार्य का भार संभाला। मेहमानों की आवभगत करना मेरी मां को प्रिय था। परिवार जनों के लिए विविध व्यंजन-मिष्ठान्न बनाकर खिलाने में मां को विशेष आनंद और तृप्ति का अनुभव होता था।

मां पूरनपोली (मीठी रोटी) बहुत स्वादिष्ट बनाती थी। मुझे पूरनपोली बहुत प्रिय थी। मैं बचपन में स्वभाववश मेहमानों से कह देता था, ‘अगर आप हमारे घर ठहरोगे तो मां पूरनपोली बनाएगी।’ (सच पूछें तो मुझे पूरनपोली खाने का बहुत मन करता था, इसलिए मौका देखकर यह बात करता था।) मेरे ऐसा कहने से मां का काम बहुत बढ़ जाता था, फिर भी उन्होंने कभी मुझे डांटा नहीं, बल्कि सदैव खुश होकर हम सब को पूरनपोली खिलाती थी।

मां ने अपने जीवन में कभी अपने लिए कोई इच्छा प्रकट की हो ऐसा मुझे स्मरण नहीं आता। सरल-शांत, उद्यमी और सतत परिश्रम करने वाली मेरी मां का स्वभाव अत्यंत परोपकारी था। इसके उपरांत उन्हें वाचन-सत्संग एवं स्वाध्याय में बेहद रुचि थी।

परिवार जनों में और रिश्तेदारों में किसे क्या पसंद है इसका खयाल भी रखती थी। यात्रा स्थल पर जाएगी तो सब को याद करके उनके लिए कुछ तोहफा खरीद लेती ओर उन्हें पहुंचा देती। श्रीनाथजी, डाकोर, द्वारका जैसे तीर्थधामों से ठाकोरजी के लिए वस्त्रालंकार, खिलौने, मूर्तियां आदि खरीद लेती, ताकि विदेश से कोई रिश्तेदार या मेहमान आये तो उसे खास तोहफा दे सके।
एसएससी और कॉलेज की पढ़ाई के लिए हम मुंबई आ गए। तब तक मैं भागवत कथा और भगवद् गीता पर प्रवचन करने लगा था। अंधेरी स्थित चिनाई कॉलेज (कामर्स) के दूसरे वर्ष में मेरा अध्ययन जारी था तभी एक संस्था ने मेरी भागवत कथा का आयोजन किया। उस समय भी कथा का मुख्य आधार रूप कहीं न कहीं मेरी मां ही होती थी।

मेरी नानी मां श्रीकृष्ण महिला भजन मंडल की सक्रिय कार्यकर्ता थी। उन्होंने चिंचपोकली (सेंट्रल मुंबई) में एक कथा का आयोजन किया था। व्यासपीठ पर श्री दुर्लभजी क्षोत्रिय विराजमान थे। उनके सहायक के रूप में मुझे स्थान दिया गया था। मैं यथावकाश मेरी बातें प्रस्तुत करता था। मुझे सुनने के बाद मंडल की बहनों ने मेरी मां से पूछाः ‘क्या रमेशभाई स्वतंत्र रूप से कथा सुनाएंगे?’ मां ने मुझ से पूछा। मैंने हामी भर दी। जीवराज काका की अनुमति भी मिल गई।

चिंचपोकली लोहाणा महाजन वाडी के पास कथा मंडप तैयार किया गया। मुंबई में यह मेरी प्रथम भागवत कथा थी- जिसकी निमित्त बनी थी मेरी नानी मां। मेरे जीवन में माता का विशेष महत्व रहा है।

मेरी मां अगर मेरी नजर के सामने है यही मेरा अहोभाग्य है। आपस की बातचीत में मैं उनकी इच्छा भांप लेता हूं। अपनी नई युवा पीढ़ी के लिए अपने पूर्वजों के नाम और मूल जानकारी प्राप्त कराने के लिए परिवार-वृक्ष का चित्र तैयार करना और उस पर आधारित कोई गीत कम्पोज कर रेकार्ड बनाना मेरी मां की इच्छा है।

दूसरी इच्छा वानप्रस्थाश्रम (वृद्धाश्रम) की स्थापना करने की है। यह वृद्धाश्रम में तिरस्कृत वृद्ध माता-पिता के हेतु नहीं क्योंकि हम ऐसा आग्रह रखते हैं कि अपने माता-पिता को परिवार से अलग नहीं करना चाहिए। मगर ये वानप्रस्थाश्रम ऐसे वयस्क जनों के लिए होगा जहां वे अपनी उम्र के वयस्क लोगों से मिले और कुछ आनंद-प्रमोद करें। अपनी इच्छा के अनुसार एक मुक्त वातावरण में अपने मित्रों को मिलने का एक अवसर दिलाने हेतु ऐसे आश्रम की स्थापना करनी है। मेरी मां की ये दोनों इच्छाएं परिपूर्ण करने को मैं प्राथमिकता देता हूं।

(श्री रमेशभाई ओझा भागवत कथा के प्रसिद्ध प्रवचनकार हैं।)
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