विज्ञापनों में मां

‘क्या हुआ? बच्ची रो रही थी। वुडवर्ड दे दो; वही तो मैं तुम्हें देती थी, जब तुम छोटी थी।’ पढ़कर कुछ याद आया? जी हां; ये उसी विज्ञापन की पंच लाइन है जो दूरदर्शन के जमाने से हम देखते आ रहे हैं। घर में एक छोटी बच्ची के रोने की आवाज सुनकर न केवल उसकी मां बल्कि परनानी तक वुडवर्ड ग्राइप वाटर देने की सलाह देती हैं। विज्ञापनकर्ताओं का ध्यान सदैव ही महिलाओं पर अधिक रहा है क्योंकि अक्सर यह कहा जाता है कि कोई भी उत्पाद अगर घर की स्त्री को भा गया तो वह उसके घर का हो जाता है।

यही घर की स्त्री एक मां के रूप में जब किसी उत्पाद को अपने बच्चे के लिए खरीदने जाती है तो उसके सारे गुण-दोषों का अवलोकन करके ही उसे खरीदती है। अत: सामान्यतया उत्पादक विज्ञापनों में ही इन गुणों (दोष कभी नहीं दिखाते) को प्रचारित कर देते हैं।

एक बच्चा रेलवे स्टेशन पर अकेला गुमसुम और कुछ नाराज सा बैठा है। उसकी ही कॉलोनी का एक डाकिया उसे देखकर पूछता है ‘यहां क्यों बैठे हो?’ बच्चा ब़डी ही मासूमियत से जवाब देता है, ‘सब गुस्सा करते हैं मैं घर छो़डकर जा रहा हूं।’ डाकिया कहता है; पर घर पर तो मां ने गरमा गरम जलेबियां बनाई हैं।’ जलेबी का नाम सुनकर बच्चा खुश हो जाता है और घर वापस लौट आता है। मां के हाथ की जलेबी का स्वाद उस बच्चे के मुंह और दिमाग में इस कदर बैठा है कि नाम सुनते ही उसके मुंह में पानी आ गया। धारा कुकिंग ऑयल के इस विज्ञापन में मां के हाथ के बने भोजन के स्वाद को ही भुनाने की कोशिश की गई है।
मां और बच्चे के रिश्ते को दिखाने वाले हर विज्ञापन में लगभग सभी मनोभावों को छूने की कोशिश की जाती है। चाहे बच्चा किसी भी उम्र का हो, मां को उसकी चिंता होना स्वाभाविक है। अगर बच्चा नवजात शिशु है, तब तो यह चिंता अत्यधिक हो जाती है। बेबी प्रोडक्ट्स के हर विज्ञापन में मां की इसी चिंता को विभिन्न रूपों में पर्दे पर उतारा जाता है।

‘पर्दे में रहने दो पर्दा न उठाओ पर्दा जो उठ गया तो…’ अरे रुकिए! विषय से अलग हटकर ये किसी फिल्म का गाना नहीं लिखा गया है, ये भी एक विज्ञापन की पंच लाइन ही है, जिसके आगे 7-8 महीने के शिशु की मां गाती है ‘…तो मॉइश्चर उ़ड जाएगा।’ यहां गाने का तात्पर्य यह है कि जॉन्सन बेबी क्रीम बच्चे की त्वचा पर एक पर्दे की तरह होती है जो उसकी त्वचा से मॉइश्चर उ़डने नहीं देता। इससे त्वचा सदैव कोमल और मुलायम रहती है।

4-5 साल की एक बच्ची अपनी मुट्ठी बंद किए मां के पास आती है। मां उससे पूछती है, ‘मुट्ठी में क्या है?’ वो नन्हीं बच्ची सरलता से जवाब देती है ‘धूप’। फिर दोनों उसे संभालकर रखने की जगह ढूं़ढते हैं। 2-3 डिब्बे ढूं़ढने ने बाद उन्हें एक डिब्बा मिलता है जिसमें वह बच्ची धूप छुपा देती है। पर जब खोलकर देखती हैं तो उसमे पियर्स साबुन होता है, धूप नहीं। उसका उतरा हुआ चेहरा देखकर उसकी मां साबुन को रोशनदान के सामने लाती है। साबुन पर किरणें प़डने से वह चमकता है और बच्ची यह सोचकर खुश हो जाती है कि मां ने धूप कैद कर ली। आम जिंदगी में यह पागलपन हो सकता है, पर मां और बेटी के रिश्ते में ये मासूमियत है, इसलिए विज्ञापन की आखरी पंच लाइन कहती है मासूम रिश्ते, मासूम त्वचा, मासूम पियर्स।
विज्ञापनोें की दुनिया वो दुनिया है, जहां कई बार ऐसी बातें दिखाईं जाती हैं जो यथार्थ में संभव नहीं हैं। आज के जमाने में इन्हें ‘क्रेजी ऐड्स’ कहा जाता है। उदाहरण के तौर पर एक विज्ञापन याद करते हैं।

एक घर में दो युवक हैं। सोफे पर बैठा युवक अपने दोस्त से जो कि रसोई घर में कुछ पका रहा होता है पूछता है, ‘क्या बना रहे हो?’ रसोई घर वाला युवक जोर से उपमाऽऽऽ चिलता है। उपमा का आखरी शब्द ‘मां’ इतना जोरदार होता है कि हवाई जहाज में बैठी उसकी मां पैराशूट लेकर उसके घर की छत पर छलांग लगा देती है। विज्ञापन भले ही ‘क्रेजी’ हो पर मां और बेटे के रिश्ते को बयान करता है।

मां की अपने बच्चोें के प्रति ममता, वात्सल्य, चिंता आदि को इन विज्ञापनों में कभी सीधे-सीधे दर्शाया गया है तो कभी गूढ़ अर्थों में भी। कुछ विज्ञापन ऐसे भी हैं जो दर्शकों को भी विचार करने पर विवश करते हैं।

क्लीनिक प्लस शैंपू के एक विज्ञापन में एक छोटी सी बच्ची अपनी मां की नजरों से बचकर अपनी नानी को फोन करती है और उन्हें अपने साथ रहने की जिद करती है। उसका कारण यह है कि उसकी सहेली के बाल बहुत लंबे होते हैं, क्योंकि उसकी देखभाल नानी के जिम्मे है। नानी पूछती है, ‘मां तो है न?’ वह बच्ची कहती है, ‘वो तो ऑफिस जाती है ना।’ इसका गूढ़ार्थ यह कि नौकरी-पेशा माताओं के पास अपनी बेटियों के बालों पर ध्यान देने का समय नहीं होता या बहुत कम होता है। अत: उन्हें क्लीनिक प्लस उपयोग करना चाहिए। कुछ महीनों बाद वह बच्ची जब अपनी सहेली से मिलती है तो सहेली को उसके लंबे बाल देखकर आश्चर्य होता है। लडकी मुस्कुराकर कहती है ‘मां तो है न।’

क्लीनिक प्लस के ही एक अन्य विज्ञापन में लंबे बाल वाली एक 14-15 वर्ष की बेटी अपनी मां से कहती है, ‘मैं अपने दोस्तों के साथ साइकिल चलाने जा रही हूं।’ उसकी मां बाल बांधने वाली एक क्लिप लिए उससे कहती है, ‘इसे तो लेती जाओ। परंतु उस वाक्य के पूरा होने के पहले ही वह सोचती है कि इसे बांधू या उड़ने दूं।’ शैंपू का विज्ञापन है अत: जाहिर है बालों की ही बात हो रही होगी। परंतु विज्ञापन का मर्म यह भी है कि बेटी को बंधनों में रखूं, या उ़डने दूं। अर्थात अपनी मर्जी से जीने दूं। विज्ञापन की पंच लाइन कहती है रिश्तों को जितना उ़डने दो वे उतने ही मजबूत होते हैं और बालों का गिरना? उसे रोकने के लिए क्लीनिक प्लस है न। इसे कहते हैं एक तीर से दो शिकार करना। बेटी और बाल दोनों को उ़डने दें।

ऐसा नहीं है कि विज्ञापनों में केवल मां का वात्सल्य भाव दर्शाया गया है। बच्चों का अपनी मां के लिए प्रेम भी दिखाया गया है। कई ऐसे विज्ञापन हैं जिनमें बच्चे अपनी मां का ध्यान रखते दिखाए गए हैं।

सुबह के नाश्ते के समय मां बेटे साथ-साथ खाने की टेबल पर बैठे हुए हैं। बेटे को कल बताए गए काम पूरे न करने के कारण मां नाराज है। बेटे द्वारा दी गई नाश्ते की प्लेट को वापस कर वह बिना कुछ खाए-पीए ऑफिस के लिए निकल जाती है। बस में बैठी ब़डब़डाती रहती है कि बेटे का फोन आता है ‘सबका इतना खयाल रखती हो और अपना? चलो अपना बैग खोलो उसमें ब्रिटानिया कुकीज है। कुछ खा लो जो तन को लगे।’ साफ जाहिर है कि बेटा मां की सेहत की फिक्र कर रहा है।

एक गरीब मां चूल्हे पर रोटियां सेंक रही है। लगभग हर रोटी सेंकते समय उसकी अंगुलियां जल रही हैं। पास ही उसका छोटा बेटा पढ़ते-पढ़ते यह सब देखता है। उसे बिना बताए वह इलेक्ट्रिक वायर से एक चिमटा बनाकर लाता है और मां को देता है, जिससे उसके हाथ न जलें। मां की आंख में आंसू आ जाते हैं। हेवल्स केबल का यह विज्ञापन मां और बेटे के रिश्ते को बखूबी बयान करता है।

हमारे यहां ‘क्रेजी ऐड’ की तरह ही ‘फनी ऐड’ अर्थात मजेदार विज्ञापनों का भी चलन है। यहां भी मां और बच्चे का रिश्ता अछूता नहीं है। एक विज्ञापन में स्कूल जाते एक बच्चे को उसकी मां प्यार करना चाहती है पर वह बच्चा दूर भागता है। क्यों? क्योंकि विज्ञापन के अनुसार ‘लालच में मां की ममता हो रही है मैली, क्योंकि बच्चे के पास है एलपैनलेबे जैली’। इस जैली को अपने बेटे की जेब से चुराने के लिए मां उसे प्यार करना चाहती है। कुछ मजेदार दिखाने के अलावा इस विज्ञापन का कोई और मकसद यहां दिखाई नहीं देता।

लगभग एक मिनट के छोटे से कालखंड में प्रेम, वात्सल्य, ममता, चिंता, इत्यादि मां के स्थाई भावों को दर्शकों के सामने लाकर उन तक उत्पाद पहुंचाने में विज्ञापन सफल रहे हैं और अब दर्शक भी इन माताओं और उनके बच्चों को अपनी जीवनशैली का एक हिस्सा बना चुके हैं।
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