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हमारी मातृसंकल्पना

हमारी मातृसंकल्पना

by प्रमिला मेंढे
in मई -२०१४, सामाजिक
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उदात्त, महन्मंगल मातृसंकल्पना का धनी एकमेव देश विश्व में है- वह है अपना भारत। स्वातंत्र्यवीर सावरकर जी ने स्वतंत्रता देवी का वर्णन करते हुए लिखा था – जो जो उदात्त, उन्नत, मंगल, महन्मधुर हैं वह सब उसके सहचारी हैं। उसी तरह कह सकते हैं कि जो उदात्त, उन्नत, महन्मंगल, मधुर, स्नेहमय है, वे सब मातृत्वभाव के सहचारी हैं।

मां शब्द में दो अक्षर हैं-म+ आ। ‘म’अर्थात ‘ममता’, मधुरता, मंगलता और आ अर्थात ‘आधारयुक्त आश्वासकता’। जिसको भी ममत्व भाव से देखा, अपना माना उसको आश्वासक आधार देना, स्नेहिल अनुभूति देना यह धर्म है मातृत्व का। अति सरल ‘मम’शब्द जिससे भी जुड़ता है उसके साथ एकात्म भाव जुड़ता है। मनोविज्ञानिक कहते हैं और हम भी देखते हैं कि जिनको यह नहीं मिलता वह खंडित व्यक्तित्व होता है। यह ममत्व भाव द़ृष्टि से, स्पर्श से भी प्रकट हो सकता है। शायद इसीलिये ‘रेकी’चिकित्सा पद्धति में अंत में डवजीमत, ज्वनबी किया जाता है।

भारत की- अर्थात् हिंदू संस्कृति की मातृसंकल्पना मानवी माता तक सीमित नहीं है। जहां जहां से विविध प्रकार से हमारा पोषण हुआ, हमें संस्कार मिला, वहां वहां हमने कृतज्ञता से मातृत्वभाव का आरोपण किया है। अपनी मां-मातृभूमि, पेड़पौधे, पशु, प्राणी, मंत्र, ग्रंथ, जलोत आदि को हमने मां माना है। अथर्ववेद के ‘भूमि सूक्त’से हमने गर्व से घोषित किया है ‘माता भूमि: पुत्रोघ्हं पृथिव्याम्’- स्वामी विवेकानंद ने भी ‘वयं अमृतस्य पुत्रा:’ऐसा गर्व से कहा और ‘मां’शब्द के उच्चारण से जिसकी श्रध्दाभावनाएं झंकृत होती हैं वही सच्ची संतान है ऐसा भी बताया। गीतामाता, गायत्रीमाता, गंगामाता, गोमाता, तुलसीमाता और ईश्वर भी, कितने नाम गिनायें। संभव है, व्यावहारिकता का ध्यान रखते हुए – उतना विचार करेंगे।

मातृत्व की व्याप्ति

प. पू. पांडुरंगशास्त्री आठवले के तत्त्वज्ञान विद्यापीठ में वं. मौसीजी (राष्ट्र सेविका समिति की आद्य प्रमुख संचालिका) के साथ जाने का सौभाग्य मिला। वहां विद्वत् गोष्ठी चल रही थी। विषय था- ‘ईश्वर का दर्शन किसे पहले होता है? पुरूष को या स्त्री को?’ बहुत देर तक चर्चा होने पर भी निर्णय नहीं हो पाया। तब एक साधारण सी वेषभूषा की हुई अधेड़ उम्र की महिला खड़ी हुई और उसने कुछ बोलने की अनुमति अध्यक्ष महोदय को मांगी। सभी ने उपहासभरी द़ृष्टि से उसकी ओर देखा- सोचा, यह महिला हमारी विद्वत् सभा में बोलने की हिंमत कर रही है? पर थोड़ी सहृदयता दिखाते अध्यक्षजी ने केवल एक मिनट बोलने की अनुमति दी। उसने कहा -‘मुझे इतना भी समय नहीं चाहिये। केवल एक प्रश्न का उत्तर चाहती हूं।‘ बालक का जन्म होता है तब पहले उसे कौन देखता है? मां या पिता? अब तो सभी का उपहास और बढ़ा – विषय क्या? प्रश्न क्या? फिर भी किसी ने कह दिया, ‘यह क्या पूछना? प्रथम मां ही देखेगी बालक को।’ उस महिला ने शांतिपूर्वक कहा, ‘प्रश्न का उत्तर स्पष्ट है, हम तो ईश्वर को जन्म देनेवाली मां हैं। उसे तो हम ही प्रथम देखेंगे।’विद्वत् सभा को निरुत्तर करके वह महिला बैठ गयी। मातृत्व की कक्षा – व्याप्ति बताकर।

ईश्वर जैसी संतानों को जन्म देना और सर्वत्र जन्मे हुए जीवों को – संतानों को ईश्वरीय संस्कारों से संपन्न बनाना – यही है मातृत्व। ‘केवल जैविक संकल्पना नहीं अपितु एक मानसिकता है’, यह अरविंदाश्रम की पूज्य श्रीमां भी कहती थीं। श्री शारदामाता ने भी यही बताया कि आकाश का सूर्य जमीन पर होनेवाले पानी को भाप के रूप में ऊपर उठाता है और कल्याणकारी पर्जन्यधारा के रूप में पुन: जमीन पर वापस भेजता है यह है मातृत्व। आदरणीय अमृतानंदमयी माताजी ने भी जेनेवा में यही कहा – वांछित परिवर्तन लाने हेतु – महिलाओं को प्रकृतिदत्त मातृत्व में प्रतिष्ठित होना पड़ेगा। यह मन का भाव हमारे अंदर है, इस अनुभूति से ही विश्वमातृत्व जाग उठेगा। मातृत्व अर्थात् सृजन, संवर्धन, संरक्षण। इन तीनों ऊर्जाओं का समन्वित प्रकटीकरण। किस प्रकार की संतानों को (भावी पीढ़ी को) निर्माण करना है, किस प्रकार के संस्कार देकर संवर्धन करना है, किस प्रकार के अपसंस्कारों से उनका संरक्षण करना है, किसी उदात्त ध्येय के प्रति समर्पित होने की प्रेरणा देना है, यह विवेक अर्थात् कृतार्थ मातृत्व।

इतिहास इसका साक्षी है कि सभी महापुरूषों की माताओं ने ऐसी संतती प्राप्त होने के लिये साधना की थी। संकल्प भी किया था। आद्य शंकराचार्य से लेकर स्वामी विवेकानंद जैसी संतानों की माताएं हमारे सामने हैं। और पीछे जायेंगे तो श्रीराम का जन्म भी ‘रावणवधाय’इस संकल्प के साथ हुआ था। 19वीं 20 वीं शताब्दि में भी ऐसे उदाहरण अनेक हैं। सती मदालसा अपने पुत्र को सुलाते समय भी जगाती थी, ‘भूल मत, तुम कौन हो!’ जिजामाता हो या माता भुवनेश्वरी हो, सभी माताओं ने अपने पुत्रों को एक दिव्य जीवितकार्य की प्रेरणा दी थी। भगवान रामकृष्ण ने भी उदात्त- विशाल पवित्र मातृभाव सम्मानपूर्वक प्रतिष्ठित करने हेतु ही श्री शारदामाता की जगद्धात्री के रूप में पूजा की थी। जननी से जगद्धात्री तक मातृभाव का विस्तार; केीळूेपींरश्र और ऊंचाई तक; तशीींळलरश्र विकास यही विश्व मानव धर्म की प्रेरणा है। सामाजिक जीवन में पुरुषों में भी यह भाव प्रयत्नपूर्वक निर्माण करने की अनिवार्यता है। अपने हिंदू देश में हमने स्वमाता के साथ साथ राजपत्नी, गुरुपत्नी, ज्येष्ठभ्राता पत्नी को भी मां मानने का संस्कार है।

माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्याम्

हमारी संस्कृति ने भूमि को भी मां माना है। अथर्ववेद के भूमिसूक्त का ‘माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्याम्’का सिद्धान्त है। प्रतिदिन नींद से उठने के पश्चात् भूमि पर पहला कदम रखने से पहले ‘पादस्पर्शं क्षमस्व मे’ ऐसी प्रार्थना करने की पद्धति है। ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ यह मूलभूत संस्कार आज भी जीवित है।

हमारी यह भूमिमाता अन्न, पानी, हवा, आश्रय, संस्कार सब कुछ देती है हमारे जन्म से लेकर हमारे जीवन के अंतिम क्षण तक। हम उसके बदले में कुछ निष्ठा रखते ही है ऐसा नहीं। हमारी जन्मदात्री मां भी हमारी ऐसी ही चिंता करती है परंतु हम जीवित हैं तब तक। उसके बाद तो वह हमें रखना नहीं चाहती। परंतु भूमिमाता हमारी मृत्यु के पश्चात् भी उतने ही प्रेम से अपनी गोद में सुलाती है- हमेशा के लिये। एक अर्थ से मां से भी श्रेष्ठ है- मातृभूमि।

आद्य क्रांतिकारी वासुदेव बलवंत फडके को ‘देश निकाला’ की सजा हुई। एडन जाने हेतु निकलते समय उनसे पूछा गया, ‘क्या साथ ले जाना चाहते हैं?’ तब उन्होंने कहा कि, ‘मेरे अंगोछे में भारतमाता की एक मुट्ठी माटी बांध दो। मेरे जीवन के अंतिम क्षण में मैं इसे सिरहाने रखूंगा तब मां की गोद में सिर रखकर सोने का आनंद मुझे मिलेगा। उसी आनंद में मैं अंतिम सांस लूंगा।’

योगी अरविंद ने कहा था उत्तरपारा के भाषण में, ‘…लोग पागल मानते हैं। उनके जैसा मैं इस देश को केवल जमीन का टुकड़ा नहीं- अपनी जीवन्त प्राणवान मां मानता हूं। उसकी प्रतिष्ठा के सामने मेरी पदप्रतिष्ठा, पत्नी, पैसे सब कुछ स्वपे्ररणा से समर्पण करूंगा।’ स्वामी विवेकानंद भी विदेश से लौटने के बाद मरीना बीच में बैठकर उस रेत से शरीर धोने लगे। कहने लगे, ‘अब तक तो प्यार करता था, अब भक्ति करने लगा हूं।’

रासबिहारी बसु जापान में थे तब भारत की दिशा में सिर करके सोते थे। कहते थे, ‘मां की गोद में सिर रखकर सोने का आनंद ले रहा हूं।’ चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव, रामप्रसाद बिस्मिल जैसे अनेक खिलते जीवनपुष्प भारतमाता के चरणों पर हंसते हंसते समर्पित हो गये। मान-सम्मान-गौरव पद की, प्रसिद्धि की, पैसे की किंचित भी अपेक्षा नहीं थी।

और ये हमारे शूरवीर सैनिक, अधिकारी इत्यादि। शत्रु से लोहा लेते लेते जमीन पर गिर गये, घायल होकर। साथ कोई नहीं- अंतिम क्षण सामने दिख रहा है। मन मायूस है। शरीर ठण्डा हो रहा है। तब पास से ही आवाज आती है- आप अकेले नहीं है- मैं हूं न आपके साथ। मेरी गोद में सो जाओ। ‘मैं हूं न’ इन आश्वासक शब्दों के कारण वे धरतीमाता की गोद में निश्चिंतता से सो जाते थे। ऐसी हमारी धरतीमाता – हम सबको धारण करनेवाली, मंदिर जैसी पवित्र, मज्ञवेदी जैसी तेजस्वी, समर्पण भूमि विजमी वीरों की भूमि, संतों की, देवों की भूमि- ॠषियों की भूमि, सबसे श्रेष्ठ हमारी भारतमाता – हम उसकी संतान यही हमारा गौरव- सम्मान।

गीतामाता

हमारी गीतामाता- हम मानते हैं कि केवल शरीर का पोषण एकांगी है। इसलिये बुद्धि का, भावनाओं का, शाश्वत विश्वकल्याणकारी जीवनमूल्यों का पोषण करनेवाली माता है – हमारी गीता माता। दुराचारदुर्वृत्ति-विध्वंसिनी, धर्ममार्ग के प्रति पे्ररित करनेवाली वह माता है। जीवन के सही व्यवस्थापन हेतु श्रीकृष्ण जैसा सुयोग्य मार्गदर्शक तथा अर्जुन जैसा श्रद्धावान अनुयायी समाज में निर्माण होने से जीवन सफल बनता है। आशंका, कुशंकाओं के द्वंद्व को मिटाता है। बुद्धि निश्चयात्मिका बनाती है। इसी लिये अर्नाल्ड टॉयनबी जैसे विद्वान बताते हैं कि प्रलय होने की स्थिति में एक ही चीज ले जाने की शर्त हो तो मैं केवल भगवद् गीता ले जाऊंगा। मन का मैल धोने का सामर्थ्य गीतामाता में है। भारत की एक देहाती अनपढ़ माता (श्याम की माता) सहजता से गीता तत्व सिखाती है- कि शरीर को ‘मल ना लगे’ इसके लिये जैसे दक्ष हो, वैसे ही मन को भी ‘मल ना लगे’इसके बारे में दक्ष रहें।

गायत्री माता

गायत्री मंत्र सूर्यमंत्र है। सूर्य हमें तेज, प्रकाश देता है। अपना जीवन ज्ञान के तेज से, प्रकाश से युक्त हो, ऐसा हरेक को लगता है। हमें उस मार्ग पर ले जाने का काम करती है गायत्रीमाता। हमारी जन्मदात्री मां इसीलिये गायत्रीमाता के सान्निध्य में ले जाती है। हमारी धारणाशक्ति, विवेकबुद्धि, कर्तव्यबुद्धि जागृत करने का सामर्थ्य इस माता में है। मंत्रध्वनि के माध्यम से यह कार्य होता है। आधुनिक विज्ञान भी ध्वनि को ऊर्जा मानता है। ध्वनि अर्थात् विशिष्ट उच्चारों से निर्माण होनेवाले कंंपन स्पंदन। वे वातावरण बदल सकते हैं। गायत्री मंत्र के शुद्ध पाठ खेतों में करने से फसलों की मात्रा एवं गुणवत्ता में अंतर आता है यह प्रयोगसिद्ध है। मंत्रशक्ति मंत्र के शुद्ध उच्चारण से मन की एकाग्रता बढ़ती है- रक्तदाब जैसी कुछ अन्य बीमारियां भी दूर होती हैं। विदेशों में भी सहायक चिकित्सा के नाते मंत्रशक्ति का उपयोग हो रहा है।

तुलसी माता

तुलसी माता – तथाकथित प्रगत लोगों को हमारा किसी पौधे को मां मानना भी पागलपन लगता है। गर्भावस्था से लेकर जीवन के अंतिम क्षण तक प्राणवायु उपलब्ध करनेवाला यह छोटासा पौधा है। यह पौधा अनेक बीमारियों से हमारा रक्षण करता है। पर्यावरण को शुध्द बनाये रखने का महत्वपूर्ण कार्य यह पौधा करता है। विविध प्रकार की औषधियों के माध्यम से हमें सब प्रकार का आरोग्य प्रदान करनेवाले इस पौधे को हम मां जैसी ही पूज्य रक्षणीय मानते हैं।

गंगा माता

गंगा माता – गंगामैया अर्थात हमारी संस्कृति का पुण्यप्रवाह प्रवाहित रखनेवाला एक जलप्रवाह। जनजन के जीवन को समृध्द करनेवाला एक जलप्रवाह। शिव की जटाओं से लोककल्याणार्थ प्रवाहित किया गया एक जलोत। निर्मलता-शुध्दता-निरामयता प्रदान करनेवाला, किसी भी प्रकार से प्रदूषित न होनेवाला-प्रदूषित को दोषमुक्त कर शुध्द बनाने की क्षमता रखनेवाला यह प्रवाह – भारतीय जीवन में मातृरूप हो गया। मात्र गंगा नहीं गंगामैया बन गया। यही तो है कणकण में बसा हुआ मातृदेवता के प्रति निश्छल निरपेक्ष आदरभाव। अनेक देशी विदेशी वैज्ञानिकों ने गंगाजल का कई प्रकार से परीक्षण करने के पश्चात् मान्य किया है कि इसके जलकणों में कृमि निर्माण नहीं होते हैं अगर कहीं से आये तो तुरंत नष्ट होते हैं। इसलिये कभी भी दूषित न होनेवाला गंगाजल तीर्थ है- पवित्र है, शुध्द है, केवल सामान्य पानी (क2ज) नहीं है। उसके इस शिवत्व के कारण ही उसे मां का गौरव प्राप्त हुआ है। स्वयं शुध्द रहकर सभी को शुध्द बनाने का व्रत गंगामाता निभाती है। इसी लिये मां शारदा कहती थी कि गंगामाता जैसा हरेक का स्वीकार कर उसको अपने स्पर्श से पवित्र बनाती है वैसी ही मां में यह शक्ति हो कि कितना भी मलिन व्यक्ति उसके पास आये उसको स्वीकार कर अपने स्नेहजल से उसकी मलिनता दूर करें। यही है भारत का सशक्त महन्मंगल मातृत्व- आज सारा विश्व ऐसी मां की प्रतीक्षा में है।

सर्वदेवमयी-स्वास्थ्य समृद्धिप्रदा गोमाता

भारत ने एक पशु को भी माता माना है। हमारी बुध्दि, स्वास्थ्य एवं समृध्दि की चिंता करनेवाली गाय हमारी मां है। इसका निर्माण दक्ष प्रजापति के श्वास से हुआ – समुद्र मंथन से कामधेनु निर्माण हुई ऐसा हम मानते हैं। ॠग्वेद के 6वें मंडल के 28वें सूक्त की देवता गाय है। उसमें 12 आदित्य, 11 रूद्र, 8 वसू एवं 2 अश्विनीकुमार हैं अर्थात् गोमाता के कारण इन 33 देवताओं के ही कार्य होते हैं। हमारे देश में 2 प्रमुख राजवंश है सूर्य – चंद्र। सूर्यवंशी दिलीप राजा ने गोमाता के रक्षण हेतु प्राण देने की सिद्धता दिखायी और चंद्रवंशी श्रीकृष्ण स्वयं को गोपाल कहलाने में गर्व मानते थे। गोवंश रक्षा का विज्ञान उन्होंने ही हमारे देश को दिया। छत्रपति शिवाजी महाराज की बिरुदावली में भी ‘गोब्राह्मणप्रतिपालक’ ऐसा गौरवपूर्ण उल्लेख है।

भारत कृषिप्रधान देश है। खेती के लिये श्रेष्ठ बैल हमें गोमाता देती है। उसके दूध, घी, दही, गोमूत्र, गोबर से अनेक प्रकार के रोग दूर हो सकते हैं। अत: पंचगव्य प्राशन का महत्व आधुनिक विज्ञान भी मान रहा है। हमारे गोविज्ञान केंद्रों की विविध प्रांतों में महत्वपूर्ण भूमिका सिध्द हुई है। उनको एकाधिकार-पेटंट भी प्राप्त हुआ है।

हमें अच्छी चीजें खिलाकर बचा हुआ स्वयं ग्रहण करनेवाली हमारी मां जैसी ही गोमाता गेहूं, चावल आदि अनाज हमें देती है। उसके डंठल या सूखा घास खाती है और हमें बुध्दिशक्तिवर्धक दूध देती है। गाय दूध देती है या नहीं उस पर उसका महत्व नहीं था। गोमूत्र एवं गोमय जैविक खाद देता है। 1 कि. गोबर 20 कि. खाद देता है। गोबर गैस की भी उपयुक्तता सिध्द हुई है। गोमूत्र अर्क के केंद्रों के माध्यम से अनेकों को रोजगार प्राप्त हुआ है। पर्यावरण की शुध्दि की द़ृष्टि से गोघृत का हवन उपयुक्त सिध्द हुआ है। कृषि उपज भी उससे बढ़ती है ऐसा प्रयोग सिध्द है।

परंतु वैश्वीकरण एवं अर्थप्रधान संस्कृति के प्रभाव के कारण हम उपयुक्ततावाद के शिकार बने और हमारी विशेषता भूल गये। भारतीय गोवंश का कत्ल आज भी लगातार जारी है। विदेशी मुद्रा की लालच और जिव्हालौल्य के कारण भारत गोमांस निर्मिति का कीर्तिमान बनने में गर्व मानता है। गोहत्या बंदी के लिए अनेक आंदोलन हुए हैं- अनेकों ने अपने प्राण गवायेे हैं। करोड़ों के हस्ताक्षर महामहिम को देने के बाद भी गोवंशहत्या धडल्ले से हो रही है। लोकतंत्र भारत में लोकमत का ऐसा अनादर हो रहा है।

उठो भारतपुत्रों, तथाकथित आधुनिकता की वह झूल फेंक दो – अपनी इन माताओं के सम्मान की पुन:प्रतिष्ठा करने हेतु सिध्द हो जाये। भगीरथ प्रयत्न से, यश मिलने तक जूझते रहो। माताओं का आशीर्वाद प्राप्त करो।

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