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राजमाता जिजाबाई

राजमाता जिजाबाई

by प्रशांत रावदेव
in मई -२०१४, सामाजिक
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छत्रपति शिवाजी महाराज की मां जिजाबाई महाराज की मां ही नहीं; पिता और गुरु भी थी। जो स्वराज्य महाराज ने निर्माण किया था उसके पीछे प्रेरणा जिजाबाई ही थी।

जिजाबाई का जन्म बुलढाणा जिले के सिंदखेडराजा में हुआ। लखुजी जाधव उनके पिता और म्हालसाबाई माता थी। लखुजी जाधव देवगिरी के यादव राजाओं के वंशज थे। यादव का अपभ्रंश होकर जाधव बने।

लखुजी राजे निजामशाह के दरबार की बड़ी हस्ती थे। सत्ताईस गावों की जागीर और सिंदखेड, मेहकर, साखरखेर्डा ये खुदके गांव थे। सिंदखेड और देऊलगांव में हवेलियां बांधकर उन्होंने अपने वैभव में चार चांद लगाए थे। श्री बालाजी जाधवों की देवता थी। श्री बालाजी का विशाल मंदिर बनवाकर लखुजी राजे ने उसकी अच्छी व्यवस्था रखी थी। लखुजी राजे निजामशाह के बारह हजारी फौज के सरदार थे। वैभव था, अश्वशाला थी, मान-सम्मान था, दरवाजे पर हाथी झूल रहे थे। लेकिन इससे भी मूल्यवान धरोहर ईश्वर ने प्रसन्न होकर उनके घर मे भेजी थी। यह धरोहर याने उनकी पुत्री जिजाऊ।

जाधवराव की पुत्री खूबसूरत और सर्वगुण सम्पन्न थी। मानो सोने के चिरागदान की सुनहरी ज्योति! चपल, कोमल, सुंदर, प्रसन्न और उतनी ही ज्वलंत दीपकली। लखुजीराजे की लाडली बेटी।

निजामशाह के दूसरे बड़े सरदार थे मालोजी भोसले। भोसले पुणे प्रांत के और यादवपट्टा के दस गांवों के पटेल थे। निजामशाह ने मालोजी राजे को पुणे व सुपे जिलों की जागीर दी थी। मालोजी राजे की पत्नी का नाम था उमाबाई और भाई का नाम था विठोजी। ये तीनों लोग बड़े ईश्वरनिष्ठ, धार्मिक व दयालु थे। उनकी जागीर की प्रजा खुशहाल थी। मालोजी राजे और उमाबाई के दो पुत्र थे शहाजीराजे और शरीफजी राजे।

पुत्र बड़े हो रहे थे। मालोजी राजे को लखुजी जाधव की बेटी जिजाऊ बहुत भा गई थी। अपने बड़े बेटे शहाजीराजे के लिए वे जिजाऊ का हाथ मांगनेवाले थे। लेकिन इंदापुर में हुई एक लड़ाई में मालोजीराजे मारे गए और उनका सपना अधूरा रह गया। निजामशाह ने मालोजीराजे की जागीर शहाजीराजे के नाम कर दी। फिर चाचा विठोजीराजे ने शहाजीराजे और जिजाऊ की शादी का प्रस्ताव लखुजीराजे के सामने रखा। लखुजीराजे खुश हुए। शहाजीराजे भी खूबसूरत, पराक्रमी, शस्त्रास्त्र निपुण थे। शादी हुई इ. स. 1605 में। भोसले कुल को सौभाग्य प्राप्त हुआ।

अब जिजाऊ निजामशाही की राजधानी दौलताबाद में रहने आयी और सुलतानशाही कैसी होती है, यह उसने देखा। लूटपाट, मंदिरों व देवताओं को नष्ट करना, आग का प्रलय, कत्ल, खेत उजाड़ना, संसार तबाह करना और हाहा:कार चारों ओर था। मराठे केवल युद्धभूमि पर नहीं मरते थे। घरों में गावों में, शहर में भी मरते थे। उनका अपराध क्या था? जन्म लिया यही अपराध था। जिजाबाई बेचैन होती थी। ऐसा क्यों होता है और कब तक होता रहेगा, यह उनकी समझ में नहीं आ रहा था। बहत्तर बीमारियां एक साथ आए तो भी लोग आनंद से सह लेंगे, लेकिन सुलतानी हमला नहीं! क्योंकि जिस चीज को बीमारियां धक्का नहीं लगाती थीं, उस पर सुलतान और उनकी फौज टूट पड़ते थे। वह चीज थी महिलाओं का शील! सर्वस्व के साथ शील भी लूटा जा रहा था। कौन देगा सहारा? कोई नहीं था!

जिजाबाई गुलामी की कल्पना सह नहीं पाती थी। वह स्वराज्य खड़ा करना चाहती थी। वह खुद की फौज, खुद का तोपखाना, अपना राजा, अपना सेनापति, अपना प्रधान, अपना ध्वज निर्माण करना चाहती थी। यह उसका सपना था। शहाजीराजे भी अपना राज्य चाहते थे।

जिजाबाई को पहला पुत्र हुआ। उसका नाम संभाजीराजे रखा गया। संभाजीराजे के पहले और बाद में जिजाबाई को चार पुत्र हुए, लेकिन मृत्यु ने इन चारों पुत्रों को उनसे छीन लिया। फिर एक बार जिजाबाई के पांव भारी हो गए। शहाजीराजे हमेशा युद्धभूमि पर होते थे; इसलिए, जिजाऊ को एक विश्वस्त रिश्तेदार विश्वासराव के पास शिवनेरी किले पर रखा गया। फाल्गुन वद्य तृतिया-हस्त नक्षत्र-शुक्रवार सूर्यास्त के बाद जिजाबाई को पुत्र हुआ। गड़ पर शिवाई देवी का मंदिर था। जिजाबाई रोज उसकी पूजा करती थी। इसलिए पुत्र का नाम ‘शिवाजी’ रखा गया। (शके 1551, 19 फरवरी 1630)

शिवाजीराजे बड़े हो रहे थे। उनका बचपन शिवनेरी पर बीता। शहाजी राजे का तबादला कर्नाटक में हुआ और पुणे और छत्तीस गावों की जागीर संभालने की जिम्मेदारी शहाजीराजे ने जिजाबाई के ऊपर डाल दी। जिजाबाई छोटे शिवाजीराजे के साथ पुणे आ गयी। साथ में बूढ़े व्यवस्थापक दादाजी कोंडदेव मलठणकर थे। उस समय पुणे को आदिशाह ने जलाकर राख कर दिया था। पुणे और आजूबाजू के गांवों के लोग अपने गांव छोडकर चले गए थे।

जिजाबाई ने पहले गणपति का मंदिर बनवाया। गुलामी और अपमान के निशान मिटाने की शुरूआत जिजाबाई ने की। ध्वस्त मंदिर और ध्वस्त संसार वापस सजाने की शुरूआत हुई। किसानोें को खेती के लिए सरकार से बीज दिया गया। दो तीन साल में पुणे की जागीर खुशहाल हुई।

सभी लोग जिजाबाई को ‘आईसाहेब’ कहकर बुलाते थे। जिजाबाई का ध्यान शिवाजीराजे पर बराबर था। शिवाजीराजे के अध्ययन और संस्कार पर वे ज्यादा ध्यान दे रही थी। महाभारत, रामायण, भागवत पुराण इन कथाओं के पाठ उनके महल में होते थे। कभी-कभी जिजाबाई यह कथा शिवाजीराजे को सुनाती थी। पुणे में कोई साधुपुरुष या विद्वान शास्त्री पंडित आए तो महल में परदे के पीछे जिजाबाई बैठती थी, और दादोजी शिवाजीराजे के हाथ से उन सत्पुरुषों का, पंडितों का सम्मान करवाते थे। आगे चलकर महाराज स्वयं सभी का ध्यान रखते थे। पुणे और आजूबाजू के मंदिरों में जिजाबाई दर्शन करने जाती थीं तो साथ में शिवाजीराजे को ले जाती थी। मंदिरों की टूटी-फूटी अवस्था देखकर राजे सवाल पूछते थे, इनकी ऐसी अवस्था किसने की? जिजाबाई ने सभी मंदिरों को दानपत्र देकर उनकी व्यवस्था का प्रबंध किया।

महल में न्यायदान का काम चलता था। छोटे शिवाजीराजे को गद्दी पर बिठाकर दादोजी और जिजाबाई लोगों की शिकायतें सुनकर सही न्याय करते थे। जेजुरी के गुरव के झगड़े का न्याय जिजाबाई ने किया। शिरवल के देशपांडे की जागीर का फैसला देशपांडे को पसंद नहीं आया। देशपांडे जिजाबाई के पास गए और कहा हमारा झगडा गोत पंचायत के सामने चलाइए और हमारा न्याय गोतसभा करेगी। जिजाबाई ने दादोजी से कहकर इनकी सुनवाई गोतसभा में करके न्याय किया। ऐसे कारोबार का शिवाजीराजे पर विलक्षण परिणाम हो रहा था। न्याय-अन्याय का फर्क राजे के नस-नस में उतर रहा था। धीरे-धीरे शिवाजीराजे भी न्यायदान में भाग लेने लगे। अपनी उम्र के सोलहवें साल में उन्होंने रांझे गांव के पटेल के हाथ-पांव कटवा डाले थे। क्योंकि पटेल ने एक महिला पर बलात्कार किया था।

पुणे की दरगाहों व मस्जिदों की व्यवस्था भी जिजाबाई और दादोजी ने उत्तम रखी थी। मता नामक एक मुसलमान नर्तकी-गायिका थी। उसकी भी सहायता की गई। जिजाबाई सिर्फ शिवाजीराजे की मां नहीं थी, वह सब की मां थी।

राजगड के नीचे गुंजण मावल के विठोजी शिलमकर की (शिलमकर शिवाजीराजे के स्वराज्य के एक सरदार थे) पुत्री की शादी तय हो गयी। गोमाजी नाईक (ये भी सरदार थे) के लड़के के साथ विवाह तय हुआ था। लेकिन विठोजी शिलमकर के पास इतनी सामग्री और पैसा नहीं था। जिजाबाई को इसका पता चला। उन्होंने तुरंत 25 होन और 500 लोगों का खाने का सामान विठोजी के घर भेजा और लिखा कि ‘शादी तय की है तो वह वक्त पर होनी चाहिए। आप चिंता न करें। शादी का सामान भेजा है।’ (इ. 1669 मार्च 10)। एक मां अपने बच्चों को जिस तरह सम्हालती है उसी तरह जिजाबाई स्वराज्य के सभी लोगों को संभालती थी।

अफजलखान के हमले के वक्त शिवाजीराजे अपनी जान जोखिम में डालकर खान से मिलने जानेवाले थे। उस वक्त जिजाबाई ने अपने इकलौते बेटे को रोका नहीं। उल्टे आशीर्वाद देकर कहा, ‘शिवबा विजयी होकर आओ! शिवबा बुद्धि से काम करो! तुम्हारा राज्य बढ़ेगा! यश लेकर आना! संभाजीराजे की मृत्यु का प्रतिशोध लेना!!’

अफजल खान को मारने के बाद महाराज कोल्हापुर तक गए और विजापुर के सिद्दी जौहर ने उन्हें 35 हजार फौज लेकर पन्हालगड मेें घेर लिया। दूसरी तरफ औरंगजेब का सरदार शाहिस्ते खान 1 लाख फौज लेकर पुणे में डेरा डाल चुका था और पूरे राज्य में उधम मचा रहा था। ऐसी खतरनाक परिस्थिति में जिजाबाई स्वराज्य की रक्षा करने की कोशिश कर रही थी। सैन्य और साधनों की कमी थी, पुत्र जौहर के घेरे में था, शाहिस्ते खान का घोर संकट था। ऐसी परिस्थिति में भी किसी की शरण में जाकर स्वराज्य का हक छोड़ने का विचार भी जिजाबाई के मन में नहीं आया। प्रजा पर मुगल क्रूर अत्याचार कर रहे थे। इसे सुनकर उनको पीड़ा हो रही थी। वह सब लोगों को हिम्मत दे रही थी। घेरे से महाराज को छुड़ाने के लिए वह खुद निकली। उन्होंने कहा, ‘मैं खुद जाती हूं! जाकर मेरे बेटे शिवबा को छुड़ा लाती हूं!’ सेनापति नेताजी पालकर ने उन्हें रोका।

                                        धन्य जिजाई

धन्य जिजाई स्वयं झुका है, जिसके आगे हर क्षण भाग्य विधाता।
धन्य धन्य है धन्य जिजाई, जगत वंद्य माता॥ध्रु॥
जाधव कन्या स्वाभिमानिनी क्षत्रिय कुल वनिता।
शाह पुत्र शिवराज जननी तू अतुलनीय माता।
मां भवानी आराध्य शक्ति से तुझ को बल मिलता॥1॥
राज्य हिंदवी स्वप्न युगों का
अश्व टाप शिव सैन्य, कांपती मुगल सलतनत मन में।
अमर हो गई तव वचनों हित सिंहगड़ की गाथा॥2॥
हर हर, हर हर महादेव हर घोष गगन में गूंजा।
महापाप तरू अफलजलखां पर प्रलंयकर टूटा।
मूर्तिभंजन अरिशोणित से मातृचरण धुलता॥3॥
छत्रपति का छत्र देखकर तृप्त हुआ तनमन।
दिव्य देह के स्पर्श मात्र से सार्थ हुआ चंदन।
प्रेरक शक्ति बनी हर मन की जीवन जनसरिता॥4॥

शहाजीराजे की मृत्यु के बाद (दि. 24 जनवरी 1664) जिजाबाई सती जानेवाली थी, लेकिन सब लोग उनसे बिनती कर रहे थे, ‘आईसाहेब, आप सती मत जाइए, महाराज के लिए रूकिए!’ शिवाजी महाराज रो-रो कर जिजाबाई से कह रहे थे, ‘आईसाहेब, मेरा पुरुषार्थ देखने कोई नहीं है! आप जाइए मत। आई तुम्हें शपथ है, मुझे छोडके गई तो!’ और मां का हृदय हिल गया। वह सती नहीं गई।

महाराज आगरा गए तब से (दि. 5 मार्च 1666) उनके वापस राजगड़ लौटने तक (दि. 12 सितम्बर 1666) जिजाबाई ने राज्य संभाला। इन दिनों में कोंकण में सिंधुदुर्ग नामक सागरी किले के निर्माण का काम चल रहा था। उन्होंने वहां के अभियंता हिरोजी इंदूलकर को जो खत लिखा है उसमें जिजाबाई लिखती है, ‘किले का काम करनेवाले लोग दूसरे राज्य (आंध्र प्रदेश) से आते हैं। ये लोग भात बहुत खाते हैं। उनके चावल की व्यवस्था बराबर रखिए। ये लोग काम करते रहते हैं और इनके बच्चे छांव में झूले में रहते हैं। जंगल से शेर आकर उनको उठा ले जाएगा, इसलिए उनकी सुरक्षा की व्यवस्था करें।’

काशी से एक विद्वान पंडित गागा भट्ट महाराज की कीर्ति सुनकर रायगड़ आए (इ. 1673 के अंत में) और उन्होंने जिजाबाई और महाराज, उनके अधिकारियों को महाराज का राज्याभिषेक करने की आवश्यकता बताई। आईसाहेब के व्रत की पूर्तता हो गयी। अब उनकी उमर हो गई थी। राज्याभिषेक का दिन तय हुआ शालिवाहन शके 1596, आनंदनाम संवत्सर, जेष्ठ शुद्ध 13, शनिवार, सूर्योदय के पहले तीन घटिका (इ. 6 जून 1674)।

सिंहासन पर बैठने से पहले नए वस्त्र-आभूषण पहन कर शस्त्र-अस्त्र लेकर महाराज, महारानी सोयराबाई, राजपुत्र संभाजी ने कुलदेवता कुलोपाध्याय, गागा भट्ट, ब्रह्मवृंद सब का आशीर्वाद लिया और आईसाहेब का आशीर्वाद लिया। उनका राज्याभिषेक सम्पन्न हुआ।

राज्याभिषेक के बाद आईसाहेब बीमार हो गई और ज्येष्ठ वद्य नवमी, बुधवार मध्यरात्रि को उनका देहांत हुआ (दि. 17 जून 1674)।
——-

(राष्ट्रसेविका समिति के प्रकाशन ‘जिजाऊ मातृत्व का महान मंगल आदर्श’ से साभार)
——–

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