नए भारत का निर्माण और घर परिवार

मकान तो कोई भी बना सकता है, पर घर संस्कारों से ही बनता है। परिवार इसका आधार है। …क्या यह घर परिवार फेसबुक, या अन्य इलेक्ट्रनिक साधनों, आर्थिक संपन्नता या धन से हासिल हो सकेगा? नए भारत की नई पीढ़ी का यही सवाल है, उत्तर हमें देना है।

आजकल एक नारा बहुत प्रचलित भी है और लोकप्रिय भी -सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास, जिसके माध्यम से समाज परिवर्तन और समाज के सर्वांगीण विकास की बात कही जा रही है। सरकार के सद्प्रयत्नों से विगत वर्षों में इस दिशा में काम हुए है और उसके अच्छे परिणाम भी मिल रहे हैं। यह प्रक्रिया जारी रहनी चाहिए, बल्कि और अधिक निष्ठा से इस पर अमल भी होना चाहिए। देश और समाज की आर्थिक प्रगति हों, सभी लोगों के जीवन स्तर में और भी अधिक सुधार हों, यह आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है और अनिवार्यता भी-क्योंकि एक श्रेष्ठ विकासित राज्य व्यवस्था का एक ही मानदंड है, जिसका उल्लेख रामचरित मानस में तुलसी ने किया है- नहिं दरिद्र कोई, दुखी द दीन। नहीं कोई अबुध न लच्छन हीन- वह राज्य व्यवस्था श्रेष्ठ है जहां न कोई दुखी है, न दीन है, न ही कोई अशिक्षित है और न ही चरित्रहीन है, ऐसा जो समाज होगा वह श्रेष्ठ समाज होगा। इस कसौटी पर हमने अपने राज्य और समाज के विकास और परिवर्तन की दिशा को समझने की कोशिश करनी चाहिए।

विगत वर्षों में समाज तेजी के साथ बदला है और बदल रहा है। इक्कीसवीं सदी के उन्नीस-बीस वर्षों में समाज की सोच, परंपरा, कार्यशैली तथा कार्य पद्धतियों में जितना बदलाव आया है, उतना विगत दो सौ वर्षों में शायद नहीं आया होगा। सूचना क्रांति और प्रौद्योगिकी ने मानव के न केवल तन को, बल्कि मन को भी प्रभावित किया है और उसका असर हमें दैनदिन जिंदगी पर देखने को मिल रहा है। इससे बदलाव में बहुत कुछ अच्छा है, लेकिन बहुत कुछ बुरा भी हुआ है। सूचना और प्रौद्योगिकी की क्रांति से संपूर्ण विश्व एक ग्राम में परिवर्तित तो हो गया है, लेकिन वह वैसा नहीं जैसा भारत के सनातन ऋषियों ने घोषित किया था-

अथ निज परोवेति गणना लघु चेतसाम
उदार चरिताना,वसुधैव कुटुम्बकम्

अर्थात हम ऐसी वैश्विक दृष्टि विकसित करें जिसमें अपने और पराए की बात न हो, न कोई छोटा हो और न कोई बड़ा हो, सभी में उदारता और उदात्तता हो, एक दूसरे के सहयोग और सुख-दुख में भागी बनने की प्रवृत्ति हो, तो यह समस्त वसुधा एक कुटुंब (परिवार) के समान बन जाएगी। जिसमें सब लोग सुख, शांति से मिलकर एक दूसरे से सहयोग करते हुए जीवन यापन करेंगे। यह एक आदर्श व्यवस्था थी, जिसका निर्देश भारत की मनीषा ने प्रारंभ से ही मानवता को दिया है।
तथापि इस दृष्टि से यदि आज के समाज जीवन पर विचार करें तो ध्यान में आता है कि वैश्विक ग्राम (ग्लोबल विलेज) की आज जो इक्किसवीं शताब्दी में परिकल्पना बताई जा रही है, वह उसके विपरीत है। वर्तमान संसार में परिवार की संकल्पना को कोई स्थान नहीं है। इक्कीसवीं सदी का संसार बाजार का संसार है। व्यक्ति के बनाए गए वस्तुओं का संसार है, संवेदना से हीन किन्तु भौतिकताओं के आग्रहों-दुराग्रहों से भरा संसार है। मानवता अब बुद्धि और मन से संचालित न होकर केवल देह और संदेहों में आगे बढ़ रही है। देह वर्तमान है और संदेह -भविष्य है। और इसलिए इतनी वैज्ञानिक, प्रौद्योगिकी तथा औद्योगिक प्रगति के बावजूद सम्पूर्ण विश्व भविष्य के प्रति आस्थावान और ऊर्जावान होकर नहीं जी रहा हैै बल्कि एक विचित्र प्रकार के असंतोष और निराशा के भाव में समाज आगे बढ़ रहा है।
इस विषय पर अपने विचार प्रकट करते हुए सुप्रसिद्ध विद्याशास्त्री एवं सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश श्री देवव्रत मा. धर्माधिकारी ने कहा है, “अब हमारे देश ने विकास का एजेण्डा लिया है। वर्तमान सरकार कहती है कि हमारे पास विकास का एजेण्डा है और कोई एजेण्डा नहीं है। मैं पूछना चाहता हूं सरकार से कि विकास का मतलब क्या है? आप केवल नैतिक विकास से संतुष्ट हो जाएंगे क्या? भौतिक विकास के जो सबसे बड़े देश अमेरिका, ब्रिटेन और भी सारे देश उनमें मानवीय दशा की क्या स्थिति है? और क्या वह स्थिति धीरे-धीरे आपके देश में नहीं बन रही है? मानवीय मूल्यों की उपासना कौन करेगा? मानव केवल शरीर नहीं है, उसमें बुद्धि भी है और मन भी है। बुद्धि को तीक्ष्ण किया जा सकता है, लेकिन मन को, दिलों को कौन बदलेगा? अतः विकास को समग्रता में लाने के लिए जब तक आप लोगों के दिलों को नहीं बदलेंगे तो केवल बुद्धि के बदलने से, बुद्धि को तीक्ष्ण बनाने से काम नहीं होने वाला है। मन को बदलने के लिए संवेदना की जरूरत होती है। संबंधों की समझ की जरूरत होती है। वह हमें हमारा साहित्य और संगीत देता है। हमारे साहित्यकार, कवि देते हैं, जो हमें द्रवित करते हैं जिनको पढ़ने से आंखों में आंसू आते हैं। मां पर कविताएं हैं, पिता पर कविताएं हैं, आप पढ़िए। जब तक लोगों के दिलों को नहीं बदलेंगे तब तक विकास का कोई अर्थ नहीं है”

न्यायमूर्ति ने आगे कहा कि, “विकास और प्रगति की आड़ में हमने विवाह संस्था को इतना गड़बड़ा दिया कि धीरे-धीरे वह अपना अर्थ खोती जा रही है। अब आपके किसी संबंध का महत्व नहीं। एक शादी, दूसरी शादी, पूर्ण स्वतंत्रता की मांग है। कोई अनुशासन नहीं जीवन में। घरेलू जीवन पूरी तरह नष्ट हो रहा है। सब लोग काम पर जा रहे हैं। बच्चों को कौन देखेगा? उनको पालनाघर में डाल देते हैं। उनके पालन के लिए नौकरानी रखते हैं। बच्चे भी आपसे कहते हैं कि हमें प्रताड़ित कर रहे हो। फिर वे टेलीफोन करके पुलिस को बुलाते हैं, अपने मां-बाप के खिलाफ। अगर मां रोटी बनाकर प्यार से खिलाएगी नहीं, अपने बच्चे के लिए इंतजार नहीं करेगी तो कहां से मातृत्व जागेगा? मानवीय मूल्यों का महत्व नहीं रह गया है। हमारी पूरी की पूरी कुटुंब व्यवस्था को तोड़ा-मरोड़ा गया है। जो सम्मिलित कुटुंब था उसमें ये सारे मानवीय मूल्य पोषित होते थे। चार भाइयों में से एक अपाहिज है तो उसकी देखभाल होती है। मां बूढी हैं तो उसकी भी देखभाल होती है। उसको वृद्धाश्रम में नहीं रखते। इन सबकी देखभाल परिवार में, कुटुंब में होती थी। आज विकास की अंधी दौड़ में परिवार कहीं पीछे छूट रहा है। परिवार टूट रहें हैं। स्त्री पुरुष संबंध बिगड़ रहे हैं। तलाक के मामले बढ़ रहे हैं और बच्चे अभिभावकों की छाया में नहीं नौकरानी के सहारे बड़े हो रहे हैं। देश बदल रहा है। पता नहीं किस दिशा में आगे बढ़ रहा है।

जॉर्ज ऑरवेल का एक उपन्यास है, जो जून 1949 में छपा था। नाम था उन्नीस सौ चौरासी (1984)। उसमें उन्होंने एक पात्र विन्सटन को संबोधित किया है जो हमें भविष्य को समाज का दर्शन कराता है। “प्राचीन सभ्यताएं, बंधुत्व और न्याय का दावा करती हैं लेकिन हमारी सभ्यता घृणा पर आधारित है। हमारी सभ्यता में भय, क्रोध, विजय और आत्म विस्मरण होगा। विजय की खुशी ही सबसे बड़ी खुशी होगी। कला, साहित्य और विज्ञान से प्राप्त खुशी भी हार-जीत, प्रतियोगिता और घृणा से उत्पन्न खुशी में बदल जाएगी। इसलिए हे विन्सटन यह मत भूलना कि अब भविष्य केवल धनशक्ति का होगा। धन बल के सामने जन बल का अंत हो रहा है। और, लगता है कि भविष्य का लोकतंत्र या राजतंत्र अब धन से ही संचलित होगा।”
ऐसी स्थिति में यदि भारत को विकास के मार्ग पर आगे ले जाना है, नए भारत का निर्माण करता है, तो आर्थिक प्रगति और टेक्नालाजी को साथ में लेकर चलते हुए हमें अपनी सोच बदलनी होगी। अपने जीवन की पद्धति और शैली में परिवर्तन करना होगा और नई पीढ़ी को इसके लिए तैयार करने के लिए स्वयं के आचरण में बदलाव लाने होंगे। परिवार की संकल्पना को पुन-प्रतिष्ठित करने के लिए विशेष प्रयत्न करने होंगे। विवाह संस्था को मजबूत बनाने के लिए नवयुवकों, युवतियों को अधिक संवेदनशील और एक दूसरे के प्रति समर्पित होने की भावना पैदा करनी होगी। पाश्चात्य सभ्यता के लिव-इन रिलेशनशिप तथा समलैगिंक संबंधों तथा विवाह समारोह पर होने वाले अपव्यव और धन प्रदर्शन करने की होड़ पर अंकुश लगाना होगा, तभी भविष्य को हम एक अच्छी पीढ़ी दे पाएंगे। आज बदलते और विकसित होते भारत की सबसे बड़ी आवश्यकता इस बात की है कि हम एक समृद्ध और समर्थ भारत के साथ संवेदनशील मानवता पोषक भारत का निर्माण भी करें। इसका आधार परिवार हो, कुटुंब हो, जिसमें सब लोगों का चरित्र उत्तम हो, एक दूसरे का वहन करते हुए समाज निर्माण में अपना योगदान कर सकें।

इस संबंध में सुप्रसिद्ध विचारक लेखक डॉ. श्याम सुंदर दूबे ने अपने लेख ‘भविष्य दृष्टि की मंगलकामना’ में लिखा है कि, “लोकतंत्र में जब राजनीति भविष्य के लिए कोई दिशा निर्धारित करती है तब वह लोक आकांक्षाओं का ही दृष्टिपथ हुआ करती है और लोक की आकांक्षाओं और मनोरथों का उद्गम यदि साहित्य के मुहाने से संभव होता है, तो सांस्कृतिक विकास का मार्ग भी प्रशस्त होने लगता है। हम यंत्रीकृत भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं। हमारा लक्ष्य आर्थिक संपन्नता का है, लेकिन इसके साथ ही साथ मानवीय संवेदना के प्रसार की भी हमें चिंता होनी चाहिए। यंत्र और अर्थ के साथ मानवीय संवेदना की प्रतिष्ठा जीवन की गरिमा और जीवन की उष्मा का निर्माण करती है।” यह मानवीय संवेदना और जीवन की उष्मा का उद्गम स्रोत और अनुभव कराने वाली संस्था का नाम परिवार है, जहां मन से, आत्मीयता से संबंधों की उष्मा का अनुभव करते हुए लोग रहते हैं। मनुष्य के बारे में कहा गया है- मानस-सीवति स मनुष्य:। जो मन से सिलाई करता है, जो मन से बुनता है और गुनता है वही मनुष्य है, और यह काम परिवार में होता है। अतएव नए भारत के निर्माण में परिवार और विवाह संस्था की समझ पैदा करना अत्यंत आवश्यक है। अन्यथा कितना भी विकास हो जाए, धन में वृद्धि हो जाए, आर्थिक यांत्रिक वैशानिक प्रगति हो जाए, उपभोग और भोग के सभी साधन उपलब्ध हो जाए किन्तु यदि मानव मन में अस्थिरता है, आतंक है, असंतोष है, असंयम है, असहजता है, तो ऐसा जीवन क्या सुख और संतोष दे सकेगा, इस पर हमें विचार करना होगा।

गुरुदेव रवींद्रनाध ठाकुर ने एक घर परिवार के संबंध में जो कहा है, उसका स्मरण हमें आज के संदर्भ में एक रास्ता अवश्य दिखा सकता है। ‘मेरा घर, मेरा अतिथि गृह, मेरा यक्ष मंदिर, पूजा स्थान और सुरक्षा का प्रेममय स्थान सब कुछ है, इसे ही तो घर कहते हैं।” क्या ऐसा घर फेसबुक पर या अन्य इलेक्ट्रानिक माध्यमों से दिखाई दे सकता है? पारिवारिकता या कुटुंब भावना पर आधारित समाज रचना के सामने ये सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न है। न्यायमूर्ति चंद्रशेखर धर्माधिकारी इस संबंध में आगे कहते हैं, “आज का युग भारतीय संस्कार, परिवार, विचार, व्यवहार व्यवस्था और मानवीय मूल्यों के सामने की चुनौती है और ‘हाउस‘ और “होम” के बीच का फर्क है। घर शब्द का अर्थ ‘भवन’ शब्द से कहीं अधिक है। मकान रहने का स्थान है और घर प्रेम करने का, प्रेम से रहने का। सरकारें भवन बना सकती हैं पर घर केवल लोग बना सकते हैं। हमारे देश की मजबूती हमारे लोगों के चरित्र और संस्कार में है। अब हमें तय करना होगा कि हम अपने मकानों को घर बनाना चाहते हैं या नहीं?”
क्या यह घर परिवार फेसबुक, या अन्य इलेक्ट्रनिक साधनों, आर्थिक संपन्नता या धन से हासिल हो सकेगा? नए भारत की नई पीढ़ी का यही सवाल है, उत्तर हमें देना है।
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