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ध्येयपूर्ति काश्रेष्ठ उपकरण

ध्येयपूर्ति काश्रेष्ठ उपकरण

by केतन सोजित्रा
in नवम्बर २०१४, संघ
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नम्रता, प्रमोद, शौर्य, ऋणस्वीकार आदि अनेक भावों का निर्माण करने वाली स्वर रचनाएं संघ के घोष को अधिकाधिक सार्थक बनाती हैं और स्वयंसेवक में भारतीय भावनाओं का जागरण करती हैं। इस प्रकार संघ ने अपनी ध्येय पूर्ति के लिए श्रेष्ठ उपकरण के रूप में संगीत का सार्थक उपयोग किया है।

भारतीय शास्त्रीय संगीत का मानव जीवन के उत्थान में एक विशिष्ट स्थान है। नाद को ब्रह्म का स्वरूप मानकर उसे नादब्रह्म भी कहा गया है। जीवन के विविध भावों को अभिव्यक्त करने की तथा विविध भावों को जागृत करने की संगीत की शक्ति अपरिमित है। उसमें मां पार्वती का लास्य भी है और संहारकर्ता शिव के तांडव का रुद्र रूप भी है। सर्जन और विसर्जन दोनों की संगत करने की क्षमता संगीत में है, इसलिए पूर्ण सृष्टि के समस्त ज़ड – चेतन में संवेदना उत्पन्न करने की उसकी क्षमता है। मानव हृदय की सभी भावनाओं की अभिव्यक्ति का वह सदैव श्रेष्ठ माध्यम सिद्ध हुआ है।

युद्ध के क्षेत्र में भी संगीत का श्रेष्ठतम उपयोग शौर्य भाव के जागरण के लिए हुआ। प्राणोत्सर्ग की प्रेरणा, शत्रु निर्दलन की प्रेरणा, रणचंडी की शीश कमल के अभिषेक से पूजा का भाव तथा सामर्थ्य भरने का कार्य संगीत श्रेष्ठ तरीके से करता रहा।

धर्म संस्थापना के महान उद्देश्य को लेकर हुए महाभारत युद्ध का श्री गणेश ही अर्जुन सारथी भगवान कृष्ण के पांचजन्य शंख के दिव्य घोष से हुआ। ‘तत : श्वेतैर्हर्यर्युक्ते महति स्यंदंदने स्थितौ, माधव पांडव्श् चैव दिव्यौशंखौ प्रद्यम्नतु ’ ऐसा वर्णन महाभारतकार करते हैं। भगवान के शंखनाद के बाद अर्जुन समेत अन्य अनेक महारथियों के शंखघोष का वर्णन, उनके शंखों के नामों का भी भगवान वेद व्यास द्वारा किया हुआ वर्णन उन वाद्यों के महत्व को प्रस्थापित करता है। भगवान व्यास भगवान कृष्ण के पांचजन्य समेत समस्त पांडवों के शंखों का महत्वपूर्ण उल्लेख भी करते हैं और साथ -साथ पांडव पक्ष के अनेक महारथियों के शंखों से की हुई रण गर्जना का भी उल्लेख करते हुए उस महाघोष के परिणामों का भी वर्णन करते हैं। ‘स घोषो धार्तराष्ट्राणाम् हृदयानि व्यदारयत, नभश् च पृथीविश् चैव तुमूलो व्यनुनादयन। ’ उस महाशब्द ने धृतराष्ट्र के हृदय को चीरते हुए आकाश और भूमि को तुमूल नाद से भर दिया।

उस महाशब्द के कारण ही दुर्योधन भागा -भागा भीष्म पितामह के पास आया और स्वपक्ष को बचाने के लिए कंपित हृदय से उनका अनुनय करने लगा। उसे लगने लगा कि भीष्माभिरक्षित हमारा बल भीमाभिरक्षित पांडवों के बल के सामने अपर्याप्त है।

दुर्योधन युद्ध के सभी गणित जानता था। स्वपक्ष तथा परपक्ष की शक्ति भी ठीक से जानता था। संसाधनों की स्थिति भी जानता था। नि :शस्त्र और युद्ध न करने की प्रतिज्ञा किए हुए श्री कृष्ण की तुलना में उनकी अठारह अक्षोहिणी सेना अधिक शक्तिमान है, इस विश् वास से उसने स्वयं श्री कृष्ण से ही उसे प्राप्त किया था। फिर उसके मन में ऐसी भय की भावना क्यों आई ? निश् चित रूप से यह पांचजन्य तथा अन्य रणवाद्यों से उत्पन्न रुद्र घोष का ही परिणाम था जिसने उसके हृदय को कंपित कर दिया। इसीलिए दुनियाभर की सेनाओं में भी रण वाद्यों के स्वरूप में संगीत का स्थान महत्वपूर्ण है।

‘सज्जनों की रक्षा, दुर्जनों का सुधार ’ के ईश् वरीय कार्य को अपने जीवन कार्य के रूप में स्वीकार करने वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी अपने स्वयंसेवकों में अनुशासन सामूहिकता तथा शौर्य के भाव जागृत करने के लिए नित्य प्रयत्नशील है। उसके कायक्रमों में उसी प्रकार के भाव जगाने वाली गतिविधियों का समावेश है। संघ चाहता है कि शौर्य भाव तथा साहस जगाने वाले युद्ध के खेलों के तथा अनुशासन के पाठ प़ढाने वाली सैनिक समता तथा अन्य सामूहिक कार्यक्रमों के माध्यम से स्वयंसेवक में ऐसा भाव जागृत हो जिसके चलते वह समय आने पर ‘पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते ’ की प्रतिज्ञा पूर्ण करने का साहस और धैर्य प्राप्त कर सके।

इस हेतु संघ में गीत तथा घोष के माध्यम से संगीत का प्रवेश हुआ। एक काव्य सौ निबंधों की बराबरी कर सकता है, इसका कारण उसमें समाविष्ट संगीत ही है और मातृभूमि की सेवा में हंसते -हंसते प्राणोत्सर्ग की प्रेरणा और बल की प्राप्ति में भी रण संगीत की अतीव महत्वपूर्ण भूमिका है।

संघ के प्रारंभ से ही अनुशासन जागरण की दृष्टि से सैनिक समता तथा पथ -संचलन (रूट -मार्च ) का महत्वपूर्ण स्थान रहा और इस कारण से घोष भी एक महत्वपूर्ण हिस्सा बना रहा। प्रारंभ काल में वाद्यों के अंग्रेजी नाम तथा निवृत्त सैनिक अधिकारियों से सीखी हुई अंग्रेजी स्वर रचना के आधार पर बनी अनेक रचनाएं चलती रहीं।

पर चूंकि संघ हर भाव का भारतीयकरण (राष्ट्रीयकरण ) करना चाहता है इसलिए हर क्षेत्र में भारतीय भावनाओं का ही जागरण उसे अभिप्रेत है। युद्ध पद्धति के रूप में भी उदात्त हिंदू (भारतीय ) युद्ध पद्धति ही उसे स्वीकार्य है और इस कारण से योद्धा के मन में भी वही उदात्तता का जागरण वह चाहता है। यह काम तो भारतीय संगीत ही कर सकता है, इसलिए संघ घोष का भी भारतीयकरण हुआ। भारतीय रागों के आधार पर सैनिक समता के लिए आवश्यक रचनाएं (धुनें ) बनीं। वाद्यों के नामों का भी भारतीयकरण हुआ और वाद्यों के महाभारत में प्रयुक्त ‘शंख, पणव, आनक, गोमुख, शृंग ’आदि नाम भी प्रचलित हुए।

संघ की सैनिकी समता तथा सामूहिक कार्यक्रम की संगत करने वाली रचनाओं की रचना के लिए अधिकांश केरवा तथा खेमटा ताल में अनेक भारतीय रागों की सुरावली लेकर रचनाए बनीं। दुर्गा, तिलक कामोद, हंस ध्वनि, भूप आदि अनेक रागों की स्वरावलियों का प्रयोग हुआ। सैनिकी रचनाओं के साथ -साथ शिव राजास्तव, आद्य सरसंघचालक प्रणाम, सरसंघचालक प्रणाम, अध्यक्ष प्रणाम ध्वजारोहण तथा ध्वजावतरण के लिए बनी रचनाएं भी विविध भावों का जागरण करने वाली होने के कारण उसमें भी रागों की सुरावलियों का वैविध्य हमें प्राप्त होता है। नम्रता, प्रमोद, शौर्य, ऋणस्वीकार आदि अनेक भावों का निर्माण करने वाली स्वर रचनाएं संघ के घोष को अधिकाधिक सार्थक बनाती हैं और स्वयंसेवक में भारतीय भावनाओं का जागरण करती हैं।

इस प्रकार संघ ने अपनी ध्येय पूर्ति के लिए श्रेष्ठ उपकरण के रूप में संगीत का सार्थक उपयोग किया है।

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