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एक कहानी के नोट्स

एक कहानी के नोट्स

by मदन गोपाल लड्डा
in अक्टूबर २०१५, साहित्य
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वह मुझे आज रास्ते में मिला। उसे देख मुझे बड़ा हर्ष हुआ। मेरी आंखें कई दिनों से उसे देखने को उत्सुक थीं। उसकी जिन्दगी से मुझे, एक श्रेष्ठ कहनी के कथानक मिलने की पूर्ण सम्भावना थी। मैंने मन ही मन यह दृढ़ निश्चय कर लिया था कि मेरी अरमायी कहानी का वही नायक होगा। अत: मैं उसके चरित्र को भली प्रकार से समझना चाहता था और इसी कारण इन दिनों मैं उसके जीवन के बारे में जानने को लालायित था।
आलोचक सामान्यत: मेरी रचनाओ व पात्रों को काल्पनिक बना कर आलोचना करते रहते हैं। परन्तु अब मैंने एक व्यक्ति के वास्तविक जीवन विषयक कहानी लिखकर आलोचकों का मुंह बंद करने का दृढ़ निश्चय कर लिया है। भोगा सत्य सदा ही काल्पनिक सत्य से गुरुतर रहता है। अत: मेरा लेखक भी कल्पना की अपेक्षा वास्तविकता, यर्थाथ पर अधिक विश्वास करता है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि मेरी जादुई कलम की करामात देखकर आलोचकों और लेखकों की भीड़ के होश उड़ जाएंगे। एक वेब पत्रिका के सम्पादक ने मुझ से अपनी एक चुनिंदा कहानी मांगी है। समग्र राष्ट्र इन्टरनेट पर मेरी कहानी का रसास्वादन करेगा। देश में ही नहीं अपितु सुदूर देशों में बैठे व्यक्ति भी मेरी कहानी का रसास्वादन करेंगे। सम्भव है अंग्रेजी या हिंदी के सिवाय भारतीय या विदेशी भाषाओ में मेरी कहानी का अनुवाद हो। सम्भव है इस कहानी पर मुझे कोई पुरस्कार या सम्मान प्राप्त हो। यह भी संभव है इसी कारण मेरे मन में कहानी लिखने उत्साह सदैव से अधिक हो।

मैं जल्दी से कहानी लिखना चाहता था। क्या पता मेरे इस कथानक पर कोई अन्य लेखक हाथ फेर कर मेरे से पहले मौका मार ले। जबकि मैं किसी भी मूल्य पर यह अवसर नहीं खोना चाहता था।

कहानी लिखने से पूर्व मैं उसके अतीत के विषय में विस्तृत जानकारी प्राप्त करना चाहता था। उसको देख कर मेरा लेखक जागा और मैंने उसे आवाज देकर रोका।
‘मनोहर जी, राम राम, ऐसे क्यों भाग रहे हैं?’
‘राम राम, सा, भाग कर कहां जाना। घर जा रहा था।’ मनोहरजी ने मंद स्वर मे कहा।
‘घर तो वही है। आइए चाय पी लें।’
मैं उन्हें सडक किनारे के एक ढाबे पर ले गया और दो चाय का आर्डर दिया।

‘स्कूल कैसा चल रहा है? समय पर वेतन मिलता है या नहीं?’ खटिया पर बैठ कर मैंने बात शुरू की।
‘जैसे तैसे चल रही है। आप से प्राइवेट स्कूलों के रंगढंग कोई छिपे नहीं हैं। मनोहर जी ने छत की ओर ताकतें हुए उत्तर दिया।
‘आप सच कह रहे हैं। मैं तो स्वयम् भुक्त भोगी हूं। ग्राम सेवक बनाने से पहले मैंने तीन साल तक खाल खिंचवाई है। बेटे, हस्ताक्षर सात हजार-पर करवा कर हाथ में बारह सौ ही देते हैं। मैंने उनकी बात में सहमति व्यक्त की।

बातचीत बहुत देर तक चली पर मनोहर ‘हां’ ‘ना’ से ज्यादा कुछ भी नहीं बोला, जबकि मैं सतत बोलता रहा। मुझे लगा कि वह मानो अपनी पीड़ा को छिपाए रखना चाहता हो। उसके मुख मंडल पर उदासी छाई हुई थी। चाय का कप नीचे रखते हुए मुझे लगा कि कहानी के लिए और मेहनत करना आवश्यक है।

वैसे तो मैं मनोहर को बचपन से ही जानता हूं। उसके पिताश्री क्षेत्र के बडे ही मान्यता प्राप्त ठाकुर थे। पर मनोहर के विजातीय युवती के साथ लव मेरिज करने के कारण सम्बन्ध भले ही टूट गए थे, परन्तु पिता के देहावसान पश्चात उनकी सम्पत्ति मे से दो मुरब्बा जमीन उसे मिली थी। शहर बनने के सपने देखने वाले इस कस्बे में उसके विवाह की चर्चा कई दिनों तक चली। राजपूती खून पर गर्व करते ठाकुर साहब के राजकुमार ने जब एक कायस्थ की युवती से शादी कर ली तो इसकी खुली चर्चा तो होनी ही थी। ठाकुर साहब को अपने राजकुमार के अन्तर्जातीय विवाह करने से ऐसा झटका लगा कि शादी के एक वर्ष में ही वे स्वर्गवासी हो गए और अब मां को उनके साधन रह कर छोटे बेटे के साथ रहना उचित लगा।

मनोहर के युवावस्था के उत्साह के सामने घर वालों की नाराजगी महत्वहीन, बेमानी थी। परन्तु वह बहुत खुश था। क्योंकि ऐसे सौभाग्यशाली बहुत ही कम होते हैं जो अपने प्यार को मंजिल तक पहुंच पाते हैं। उसका स्वप्न साकार हुआ। इस प्रकार मनोहर की हिम्मत को दाद देनी होगी कि वह अपने प्यार के लिए ताल ठोंक कर अडिग खड़ा रहा। उसकी यह बात गर्व योग्य थी।
मैंने यकायक विचार किया कि मुझे इन सब तथ्यों के अपनी डायरी में नोट्स बना लेने चाहिए ताकि कहानी लिखने में सहूलित रहे।
विवाहोपरान्त मनोहर की गृहस्थी की गाड़ी भली प्रकार से चलने लगी। फसल बार एक लाख रुपयों से ज्यादा ठेके से मिल जाते और घर में खाने लायक अनाज भी आ जाता था। बहुत इकरात थी। शादी के दूसरे साल एक बेटी और पांचवें साल एक बेटा उसके आंगन में बाल क्रीडाएं करने लगे। इस प्रकार घर में असीम आनंद ही आनंद था।

इस तरह जीवन चलते रहने पर भी मनोहर के जीवन में एक नया मोड़ आया। सरकार ने पेट्रोल पम्प आवंटन के लिए प्रार्थना पत्र मांगे। पम्प महिला के लिए आरक्षित था। मनोहर ने अपनी धर्म पत्नी के नाम से प्रार्थना पत्र दे दिया। संयोग से पेट्रोल पम्प अलॉट हो गया। अधिक आय की आशा में मनोहर ने दोनों मुरब्बे बेच कर जीवन संगनी को पेट्रोल पम्प की स्वामिनी बना दिया। आमदनी बढ़ने से घर के ठाटबाट भी निराले हो गए।

परन्तु कदाचित प्यार, पेन की स्याही और दीये के तेल समान होता है जो समय पर आने पर शनै:शनै: समाप्त हो जाता है। मनोहर अब तक इस बात से अनभिज्ञ था और जब उसे इस भूल का अहसास हुआ तो स्थिति नियंत्रण से बाहर की हो गई थी।
विवाह के सात साल बाद मनोहर के दाम्पत्य जीवन में खटास आ गया। विश्वास का धागा बहुत ही कच्चा होता है। यह एक ही झटके में टूट जाता है। वास्तविकता, सच्चाई तो ईश्वर को ही मालूम पर ऐसा सुना कि मनोहर का अपनी पत्नी के आचरण पर से ऐसा विश्वास उठा कि इसके किस्से आज तक भी उसके कलेजे में चुमते रहते हैं। बातचीत से प्रारम्भ हुआ दूरी का यह सिलसिला अन्तत: घर टूटने पर ही रुका। सगे-सम्बन्धियों ने विवाद को बिगाड़ने में कोई कसर नहीं रक्खी और राजीनामे के सभी प्रयत्न बेकार हो गए। अब मनोहर एक निजी स्कूल में पढ़ाने लगा और बच्चों के साथ गृहस्थी की गाड़ी खेंचने लगा। उसकी पत्नी ने पम्प की मालकिन बन कर अपना नया मकान बना लिया और उसी में अकेली ही रहने लगी। जब पंच पंचायत से मामला नहीं सुलझा तो मनोहर ने तलाक के लिए अदालत के दरवाजे खटखटाए।
कहानी की सफलता के लिए मुझे फैसले के बारे में जानकारी प्राप्त करना आवश्यक लगा। अंतत: ‘क्लाइमेक्स’ में ही तो कहानी के प्राण होते है। दूसरी ओर मेरी नजर मनोहर की पत्नी पर लगी थी। मैं मनोहर से तो मिलता ही रहा था। परन्तु उसकी पत्नी को तो मैंने अब तक ठीक तरह से देखा तक भी नहीं था। मेरा लेखक सतही प्रहार न करके मूल तक पहुंचना चाहता था। वैसे भी कानों से सुनी बातों में कोई सामान्यत: सार नहीं होता है और तथ्य व्यक्तिगत रूप से मिलने पर ही स्पष्ट होते हैं। मैं मुसीबत में फंसा था। लेखक की सुनते हुए भी दुनियादारी से डरता रहा हूं। वैसे यह कस्बा साधन सुविधाओं की दृष्टि से शहर से कम नहीं होते हुए सोच का सामीप्य गांव बडा कहलाता है। अत: मात्र मिलने से क्या होगा? क्योंकि सीधे तौर पूछना सम्भव नहीं। सम्भव है गले पड़ जाए। बात का बतंगड बनने में भला क्या समय लगता है? लोग तो प्रतीक्षा ही करते हैं।

तदुपरान्त एक अवसर मिल गया। सरकार ने मतदाता सूचियों में सुधार का एक अभियान प्रारम्भ किया। इस काम में मुझे भी लगाया गया। मैं मतदाता सूची और वोट में नाम जुड़वाने का फार्म लेकर मनोहर की पत्नी के घर पहुंचा। घर का दरवाजा बंद था। मैंने घण्टी बजाई। उसीने दरवाजा खोला। उसने कहा: ‘ग्राम सेवक जी नमस्ते।’ उसकी बात सुनकर मैं अचम्भित रह गया और सोचा यह तो मुझे जानती है।
‘नमस्ते। क्या आपको वोट में नाम जुड़वाना है? सरकार ने इसके लिए एक अभियान चलाया है’ मैंने एक ही सांस ने कहा।
‘पर मेरा वोट तो बना हुआ है। फोटू पहचान पत्र भी मिल गया है।’

मैं मौन हो गया। आगे बोलता भी क्या। मौका हाथ से निकलता दिखाई दिया। उसका वोट मनोहर के साथ ही था। मुझे यह मालूम था। पर मैं कहानी के लिए प्रयासरत था।
मैंने पीठ की कि कानों में सुनाई पडा: ‘चाय तो पी लें।’

‘नहीं। काम बहुत है। फिर कमी।’ मैंने सीढियां लांघीं और अपना रास्ता पकड़ा। चलते हुए ऐसा लग रहा था मानो कोई पीछे खेंच रहा हो। मैंने जानबूझकर मौका खो दिया और अब मैंने प्रत्यक्ष रूप से मिलने का विचार ही मन में से निकाल दिया।

दूसरी ओर मेरी कहानी लिखने की उत्सुकता बढ़ रही थी। पत्रिका के सम्पादक के भी दो बार फोन आ चुके थे। अंक तैयार है। मात्र मेरी कहानी की प्रतीक्षा है। मैं सोच में पड़ गया। मुकदमे का क्या पता? न जाने कब फैसला हो? वास्तविकता ही लिखनी थी। कल्पना की तो शुरू से ही मुक्ति कर दी थी ऊहापोह बढ़ रही थी।

गहन सागर में डूबते-तैरते मुझे रघुवीर का ख्याल आया। रघुवीर पम्प पर मुनीम था। पम्प के लगभग सारे काम वही संभाला करता था। उसका घर बड़ी स्कूल के सामने था। रघुवीर मेरे लिए बड़ा काम का आदमी हो सकता है। मैं इसके लिए मौके की तलाश में था कि उससे शफाखाने में भेंट हो गई। वह अपने बच्चे को डॉक्टर को दिखाने आया था और मैं अपने मेडिकल बिलों पर डॉक्टर के हस्ताक्षर करवाने की प्रतीक्षा कर रहा था। पारस्परिक अभिवादन पश्चात मैंने मोर्चा सम्भाला। शायद वह रोजमर्रा की झंझटो से थका सा था और इस बात को टालना चाहता था। मेरी अत्यधिक माथापच्ची करने पर उसने कहा : सब भाग्य का चक्कर है, ग्राम सेवक जी। आप बहुत ही सयाने, विवेकशील हैं। ताली कभी एक हाथ से बजती है?

यह सुन कर मेरे मन की उलझन और बढ़ गई। मैं इसे गम्भीरता से नहीं ले रहा था। मित्रों के बीच में बात करता। वे मनोहर की बात में तो रूचि लेते पर मुकदमे के विषय में उन्हें कुछ भी ज्ञात नहीं था। मेरी मुश्किलें बढ़ रही थी। कहानी मेरे नियंत्रण में नहीं आ रही थी।
एक दिन की बात। शाम का समय था। मैं घर लौट रहा था। रास्ते में मनोहर मिल गया। वह ठेके से बाहर निकल रहा था। उसे देख मैं बहुत खुश हुआ। मेरा लेखक जागा। अधूरी कहानी पूरी होने की आशा जगी।

वैसे तो मैं रोज का पियक्कड़ नहीं, पर सौगंध भी नहीं। यदा कदा एक दो प्याले तो लेता हूं। आज प्रश्न एक कहानी का था। शराब की घूंट गले में उतरते ही व्यक्ति स्वत: ही सच बोलने लगता है। मैंने कुंदा खटखटाया और कहा : ‘ठाकुर साघणी खम्भा, सोमरस अकेले, अकेले ही…
वे मुझे देखकर कुछ शर्मा गए। कुछ क्षण रुक कर बोले : ‘ऐसी कोई बात नहीं है। आप भी पधारे। आपका स्वागत है।’
‘कहां? घर पर?’

‘नहीं-नहीं, मैं बच्चों के सामने नहीं लेता। ट्रक यूनियन के दफ्तर में बैठ जायेंगे।’
मुझे भी यह स्थान ठीक लगा। गप्पे लगाने के लिए एकांत आवश्यक है। मैंने वहां जाने से पहले एक पन्ना अंग्रेजी शराब और नमकीन ले लिया। विलायती शराब की भीनी सुगंध और मंद मंद पवन के झोंकों से वे जल्दी ही दूसरे संसार मे पहुंच गए। मेरा लेखक जागा।
‘क्यों ठाकुर साहब, उस उलझन का क्या कोई सलटारा हुआ है?’ मौका देख कर मैंने पूछा।
‘सलट-सलअ गया।’ गहरी सांस छोड़ते हुए उसने कहा।
‘कैसे निपटा? पम्प तो आप का ही होगा?’ मैंने अधीरता से पूछा।

‘अब पम्प लेकर क्या उसे जलाऊंगा? जब वही मेरी नहीं रही तो धन के लिए क्यों परेशान होऊं? उन्होंने रुआंसे होकर कहा।
मैं चुप हो गया। बोलता भी क्या। तदुपरान्त मौन तोड़ते हुए कहा: ग्रामसेवक जी अब, धन की कोई लालसा नहीं है। पर मुझे इस बात का बहुत दु:ख है कि उसने मेरे आत्मिक स्नेह को धोखा दिया।’ उसका गला भर आया और आंखों से गंगा-यमुना की धाराएं फूट पड़ीं।
मेरे साथ आज उसकी भी शाम ही बिगड़ गई। मानवीय पीड़ा के सामने भला दारू का क्या जोर?

मैं घर पहुंच कर लेट गया। पर नींद आज कोसों दूर थी। आधी रात बीतने पर भी अर्न्तद्वन्द्व यथावत चल रहा था। क्या मनोहर की मनोव्यथा कहानी में सिमट सकती है? उस नारी की भी कोई विवशता हो सकती है! किसको ज्ञात कि मनोहर का शक ही झूठा ही हो। क्या मनोहर और उसकी धर्म पत्नी पुन: मिल सकते हैं? कहानी प्रकाशित होने पर लोग, पाठक मुझे नारी विरोधी मान सकते हैं? मेरे लेखक ने भी हाथ खड़े कर दिए और मैंने भी कहानी को बीच में ही छोड़ देने में अपना हित माना।

मन ने अब मरने का निश्चय सा कर लिया। मैं हिम्मत करके खड़ा हुआ और लाइट जलाकर अपनी डायरी निकाली। रोशनी होने के साथ ही मेरी पत्नी की भी नींद टूट गई और यह मेरे पास आकर बैठ गई। वह भला मौन कैसे रहती। उसने कहा: ‘आज मैंने आपकी डायरी पढी। आप मनोहर जी पर कहानी लिख रहे हैं न्?’
‘हां…।’ मैं मन की उलझन को सुलझाने के लिए प्रया्रप्त कर रहा था।
‘आप कहानी कब पूरी करेंगे?’
‘बस अभी।’ पत्नी से पिण्ड छुड़ाने के लिए मैंने कहा।
‘ओह…आपने बेचारे बच्चों का तो कहीं उल्लेख ही नहीं किया। मां के होते हुए भी बच्चे मां के बिना जी रहे हैं। उस नारी का मन भी बिना बच्चों के कैसे लगता होगा। आप तो बच्चों का उल्लेख करते…।’ उसकी बात में पीड़ा थी।
मुझे भी डूबते को तिनके का सहारा मिल गया।

मदन गोपाल लड्डा

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