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बरदाश्त की बरखास्तगी

बरदाश्त की बरखास्तगी

by डॉ. एम. एल. खर
in अक्टूबर २०१५, साहित्य
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समाज जैसे जैसे सभ्य होता जा रहा है, उसमें कुछ जज्बात बड़ी तेजी से विकसित हो रहे हैं। इन्हीं में से एक है ‘बरदाश्त की बरख़ास्तगी’। यह बड़ी शुभ प्रवृत्ति है। बरदाश्त का जज्बा दब्बूपन की निशानी है, गुलामी का चिह्न है। वह जितनी जल्दी मिट जाए उतना ही अच्छा। अब हम आजाद हैं। जो आजाद है उसे किसी से भी डरना नहीं चाहिए, किसी के दबाव में नहीं आना चाहिए। स्वतंत्रता का अर्थ ही है निर्भयता। निर्भयता का मतलब बेधड़क होकर मनमानी करने की छूट। जो बात मन माफिक न लगे, उसे भला क्यों बरदाश्त किया जाए। हर नागवार लगने वाली बात की प्रतिक्रिया व्यक्त करना सजगता का लक्षण है। बरदाश्त की बरख़ास्तगी इसी सजगता की पहचान है। सो हमारा समाज निश्चय ही सजग होता जा रहा है।

बरदाश्त की बरख़ास्तगी तीन प्रकार के व्यक्तियों द्वारा होती है। एक तो वे जो दबंग हैं। उन्हें यह बरदाश्त नहीं होता कि कोई उनकी दबंगई न माने। इसलिए वे तुरंत आक्रामक हो जाते हैं, गालीगलौज़, मार-पीट करते, चाकू, पिस्तौल, तलवार चला कर हत्या तक कर बैठते हैं। उन्हें यह भी बरदाश्त नहीं होता कि कोई बीच-बचाव करे। यदि किसी ने ऐसी हिमाकत की, तो पहले वे उसी को निपटा देते हैं। वे किसी से नहीं डरते। न कानून से, न समाज से और न भगवान से। इसे कहते हैं पूरी आजादी।

दूसरा प्रकार है अत्यंत भावुक (इमोशनल) व्यक्तियों का, जिन्हें जरा सी बात इतनी चुभती है जिसे वह बरदाश्त नहीं कर पाते और बिना सोचे-बिचारे झट से आत्महत्या कर लेते हैं। यह प्रवृत्ति नई पीढ़ी के युवाओं में विशेषतः पाई जाती है। इमोशनल होना विकसित सभ्यता की देन है। जानवर या जंगली, देहाती लोग तो इमोशनल होकर आत्मघात करते हुए नहीं देखे गए। इमोशनल होकर खुदकुशी करने वालों में वे भी आते हैं जिन्हें असफलता बरदाश्त नहीं होती। यदि इम्तहान में फेल हो गए या मनचाहे नम्बर नहीं आए, तो वह चाहे लड़का हो या लड़की, तड़ से जीवन का अंत कर बैठते हैं। आज के बच्चे मां-बाप की टोकाटाकी, डांट-फटकार, बरदाश्त नहीं कर पाते। सोचते हैं हम अपनी मन-मर्जी के मालिक, उसमें किसी का दखल क्यों बरदास्त करें? तुमने हमें मना किया, तो लो हम चले तुम्हें जिन्दगी भर का दुख देने, तुम्हारे उन सपनों को चूर चूर करते जो तुमने हमारे बारे में सोचे थे।

तीसरा प्रकार उन बेचारों का है जो कष्टों और दुखों से तंग होते हैं। जब बात बरदाश्त के बाहर हो जाती है, तो मजबूर होकर आत्मघात या आत्मदाह कर लेते हैं। इनमें वे किसान हैं जिनकी फसलें सूखा या बाढ़ से नष्ट हो गईं, या वे लोग जिन पर कर्ज का बोझ बरदास्त से बाहर हो गया, या वे लोग जिनकी परिस्थितियां इतनी बिकट हो कि उनसे बाहर निकल पाना संभव न हो।

दुनिया में कई प्रकार के दुख हैं, आज ही नहीं, हमेशा से। शेक्सपियर ने प्रसिध्द नाटक हेमलेट में कुछ का उल्लेख प्रसिध्द एकालाप ‘टू बी और नॉट टू बी’ में किया है। हेमलेट कहता है ‘प्रश्न है जीवन मरण कां’। वह इन दुखों को सहे या नंगी कृपाण से खुदकुशी कर ले? वह जिन दुखों को गिनाता है, वे हैं अभिमानी का दुर्व्यवहार, अत्याचारी का अंधेर, प्रेमोपेक्षा की पीड़ा। और न्याय में अनुचित देर, उद्दण्ड राजअधिकारी द्वारा अपमान तथा कुपात्र के द्वारा सद्गुणी का तिरस्कार। तब से अब तक इनमें अनेक प्रकार के नए दुख जुड़े हैं, दुखों में बहुत इजाफा हुआ हैं। आज के द्रुतगामी जीवन में जीवन मरण के प्रश्न पर विचार करने का समय किसके पास है? कोई बात जरा सी भी अच्छी न लगी, तो पल भर में जीवन को ही बरखास्त कर दिया। देर का क्या काम?

वैसे तो जीवन से मुक्त होने के अनेक साधन हैं, किन्तु सर्वाधिक प्रचलन में है फांसी। जब से घरों में सीलिंग-फैन होने लगे, तब से पंखे से लटक कर फांसी लगा लेना सुलभ-सुगम हो गया। फांसी से याद आया कि मानव अधिकारवादी सरकारी कानूनी फांसी को बंद करने की पैरवी करते हैं। चाहे गुनहगार ने कितना ही जघन्य और बर्बर अपराध क्यों न किया हो। उनकी दृष्टि से फांसी की सजा अमानवीय है। फांसी को उम्र कैद में बदला जाना चाहिए और कुछ मामलों में बदला भी जा रहा है। हम कितने उदार हैं, जिन्होंने हत्याएं और घृणित दुष्कर्म किए तथा बेकसूर, निरीह व्यक्तियों के मानव अधिकारों का बेधड़क हनन किया, हमें उनके मानव अधिकार की रक्षा की वकालत करने में मानवता दिखाई देती है। भले ही इससे अपराधियों को प्रोत्साहन मिले। भला हो मानव अधिकार के पक्षधरों का, अब उम्र कैद भी कोई चक्की पीसने वाली सजा नहीं रही, बल्कि जीवन भर मुफ्त का भोजन और इलाज पाने की गारंटी बन गई है। जो दबंग हैं, वे जेल में भी सब सुविधाएं जुटा लेते हैं। यह सब आम जनता के पैसों से। जिस समाज के मानव अधिकारों का हनन हुआ उसे ही यह आर्थिक भार भी वहन करना है। आखिर समाज से ही तो अपराधी पैदा होते हैं, तो दोष समाज का ही हुआ न्! अंतः समाज को दण्ड भुगतना न्यायतः सही हैं। इसे कहते हैं मामले की जड़ तक जाना, अर्थात मूलोच्छेदन।

हां तो, एक ओर जिन्हें फांसी लगना चाहिए उन्हें तो जीवनदान मिल रहा है और दूसरी ओर वे नादान तुनकमिजाज बच्चे और किशोर तथा हालात से परेशान वयस्क स्वेच्छा से फांसी को गले लगा रहे हैं। लगता है फांसी कोई पिशाचनी या चुड़ैल जैसी प्रेतात्मा है जिसे अपनी भूख कैसे भी तो मिटानी है। यदि सरकार और अदालत उसको जायज भोजन से वंचित रखती है, तो वह निरपराध लोगों के दिमाग में वैसे ही जा बैठती है जैसे मंथरा की जिह्वा पर देवी सरस्वती। वह उन्हें प्रेरित करती है कि वे अपना जीवन बरखास्त कर दें।

आज आलम यह है कि कोई किसी की नापसंदगी वाली बात बरदाश्त नहीं करता। बहुएं सास-श्वसुर को बरदाश्त नहीं करतीं, युवक बूढे मां-बाप को बरदाश्त नहीं करते। तभी तो वृध्दाश्रमों की संख्या बढ़ रही है। वृध्दाश्रम वानप्रस्थ आश्रम का आधुनिक रूप बन गया है। गुस्ताखे अपनी जवानी का जोश बरदाश्त नहीं कर पाते, सो आए दिन मासूम बच्चियों और अनजान स्त्रियों को अपनी हवस का शिकार बनाते हैं। वैसे इक्का-दुक्का दुष्कृत्य तो अहल्या के समय या उससे भी पहले से होते आए हैं, परन्तु इस इक्कीसवी सदी में इसमें एक नया आयाम जुड़ा है, वह है सामूहिकता का। यह कितनी अच्छी बात है कि अपराधियों में भी सहकारिता और सहयोग की प्रवृत्ति बढ़ रही हैं। एकतरफा प्रेम करने वालों को प्रतिपक्ष की उदासीनता या इंकार बरदाश्त नहीं होता इसलिए वह या तो आत्मघात करता है अथवा महबूब का खून। खाप पंचायत को जाति से बाहर प्रेम या प्रेमविवाह बरदाश्त नहीं इसलिए आनर किलिंग का फरमान जारी कर दिया जाता है। इस मामले में हम परंपरावादी हैं।

बरदाश्त की बरखास्तगी हमारी अति संवेदनशीलता की परिचायक है। इसे समाज के चारित्रिक एवं भावनात्मक विकास का मापदण्ड माना जाना चाहिए। हमारे वैज्ञानिकों को इसके सूचकांक के मापन की विधि तथा सूत्र का निर्धारण करना चाहिए। पाठक कहीं यह न समझ लें कि यह लेख आत्मघात को उचित ठहरा रहा है। यह तो मात्र सभ्यतर होते जा रहे समाज की विडम्बना है, जिससे बरदाश्त की बरखास्तगी के सूचकांक को प्रगति का पैमाना मानने को मज़बूर होना पड़ा।

हां, एक अपवाद है। दिवाली के पटाखों और डी.जे. का कानफोड़ शोर। आज के युवा इस शोर को न केवल बरदाश्त करते हैं, बल्कि इसके दीवाने हैं। यदि डी.जे. का शोर न हो तो बारात फीकी लगेगी और यदि पटाखों का शोर न हो तो दिवाली फीकी रहेगी। यह शोर जितना धमाकेदार हो, उतना ही आनंद देता है। यह देवी लक्ष्मी की कृपा है जो यह बरखाश्त होने से बच गया। आइए इसका आनंद उठाते हुए हम मनाएं शुभ दीपावली।

डॉ. एम. एल. खर

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