पं. दीनदयालजी का एकात्म मानववाद

भारतीय स्वरूप में श्रम के आधिक्य मूल्य का शोषण प्रारंभ से अंत तक होता है। किन्तु संन्यास अवस्था में पहुंचने के पश्चात यज्ञ करके, समूची अर्जित सम्पत्ति निर्धनों के बीच दान देकर वल्कल वस्त्र पहनकर संन्यास के लिए निकल जाता है। यह संचय और वितरण का माध्यम दुनिया की किसी संस्कृति में उदाहरण स्वरूप भी सुनने को नहीं मिलता है।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय का अद्वितीय कल्पना एकात्म मानववाद वाला विश्वराज्य कम्युनिस्टों के विश्वराज्य से सर्वथा भिन्न है। कम्युनिस्टों का विश्वराज्य एक केन्द्र पर आश्रित है और हमारा विश्वराज्य का केन्द्र अनेक राष्ट्र है। सभी देश स्वतंत्रता समता, बंधुत्व एवं व्यक्तिगत विकास से होते हुए सामाजिक विकास के क्रम को पूरा करने राष्ट्र का विकास करते हैं। राष्ट्र अपने विकास का फल विश्व को समर्पित करते हैं। यह उसी प्रकार होता है जैसे गुण-कर्म का विकास व्यक्ति धर्म और मोक्ष के बीच करते हुए अपना फल परिवार को और समाज एवं देश को समर्पित करता है। व्यक्ति के विकास में परिवार और समाज रुकावट नहीं डालता उसी प्रकार विश्व मानवता के लिए राष्ट्र रुकावट नहीं डालता। मानवता का पोषक एकात्म मानववाद है।

पश्चिमी देश के एक पत्रकार ने स्वामी विवेकानंद से कहा कि हम सभी आपका धर्म और आपके धर्म की व्याख्या मान लेते हैं। आप पश्चिमी जगत का आर्थिक पक्ष समाजवाद मान लें। स्वामी विवेकानंद ने कहा, भारतवर्ष अति प्राचीन देश है। यहां प्रयोग सफल हुए हैं। आपकेे प्रयोग को स्थापित होने में 500 वर्ष लगेंगे। अतएव बिना स्थापित हुए सिद्धांतों को मान लेना भूल होगी। वैचारिक क्षेत्र में अद्वैत दर्शन की यही तर्कशुद्ध परिणति है।

व्यक्ति के व्यक्तित्व रूपी सभी पहलू संगठित नहीं हो तो समाज संगठित कैसे होगा? इसी संगठित आधार पर व्यक्ति से परिवार, समाज, राष्ट्र, मानवता एवं चराचर सृष्टि का विचार किया गया है।

समाज व्यक्तियों का सामूहिक समझौता है। वह व्यक्तियों के गुण-कर्मों का सामूहिक शक्ति है। धर्म व्यक्तियों को अच्छाई की दिशा में नियंत्रित करता है। सत्य को धर्म माना गया है। न्यूटन ने फल के गिरने का कारण गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत बताया। गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत धर्म है और सत्य है। व्यक्ति को शारीरिक सुख चाहिए किन्तु धर्म के नियंत्रण में।
किसी एक व्यक्ति को सारे सुख प्राप्त हैं। एकाएक उसे टेलीग्राम मिलता है कि उसकी मां की मृत्यु हो गई है। वह व्यक्ति सारे सुखों को त्यागकर जितना जल्द हो कठिन से कठिन यात्रा कर वहां पहुंचता है जहां उसकी मां का पार्थिव शरीर है। अगर पश्चिम की तरह सिर्फ शरीर के लिए अर्थ और काम ही सबकुछ होता तो सभी सुखों को त्यागकर कठिन यात्रा कर मां के पार्थिव शरीर तक नहीं जाता अर्थात अर्थ और काम के अलावा भी हमें मन का सुख, बुद्धि का सुख और आत्मा का सुख चाहिए वह भी सामाजिक समझौते के दायरे में अर्थात धर्म के सीमान्तर्गत।

किसी कारागार में रह रहे व्यक्ति को अच्छा खाने को भी दिया जाए तो उसे क्या आनंद प्राप्त होगा?
कृष्ण जब कौरवों के साथ संधि करने गए तो दुर्योधन के निमंत्रण पर उसके यहां भोजन करने नहीं गए और विदुर के यहां विदुर की पत्नी से केले का छिलका आनंद से ग्रहण करते गए (विदुर की पत्नी आत्मविभोर होकर केले के गुदे को जमीन पर फेंकती गई और केले का छिलका कृष्ण को खिलाती गई) आनंद के साथ और सम्मान के साथ रूखा-सूखा भी मिल जाए तो अच्छा है। अपमान के साथ मेवा भी मिले तो उसे छोड़ना चाहिए क्योंकि मन के सुख का विचार करना पड़ता है।
मन के सुख के विचार के साथ बुद्धि का भी विचार करना होता है। यदि मष्तिस्क में कोई उलझन है तो पागलों जैसी हालत हो जाती है। पागल को खाने के लिए पर्याप्त मिलता है, हृष्ट-पुष्ट भी हो जाता है किन्तु बुद्धि के उलझन के कारण (मष्तिस्क में उलझन के कारण बुद्धि को शांति नहीं मिलती है।)

आत्मा की शांति के लिए कहा गया कि ‘मैन इज अ पॉलिटिकल ऐनिमल’ तुम राजा हो इसलिए तुम्हें मतदान का अधिकार मिला है। किन्तु जो नेतृत्व करने वाले हैं वे सबल हो जाते हैं और शेष सभी निर्बलों पर अत्याचार करते हैं। शेष सभी निर्बलों को रोटी चाहिए और कार्ल मार्क्स आए और कहा-रोटी सबसे प्रथम वस्तु है, रोटी के लिए दुनिया के श्रमिकों एक हो। सम्पूर्ण मानव जाति को रोटीमन बना दिया। परिणाम हुआ पॉलिटिकल के कारण राजा तो हाथ से गया और रोटी भी नहीं मिली। रूस में हण्टर के आधार पर श्रमिकों से काम लिए गए। समानता के नामे पर कुशलता का र्‍हास हुआ। अनेक प्रतिद्वंद्वी उत्पन्न हुए और रूस 50 टुकड़ों में बंट गया। देश का जी. डी. पी. उत्तरोत्तर कम होता गया। अंतरराष्ट्रीय आस्थाएं घटती गईं। रूस चीन मिलकर यूगोस्लोवाकिया को पथभ्रष्ट एवं संशोधनवादी कहता था तो रूस चीन को और चीन रूस को पथभ्रष्ट एवं संशोधनवादी कहने लगा। नम्बूदरी पाद, श्रीपाद अमृत डांगे को पथभ्रष्ट एवं संशोधनवादी कहते थे तो एस. ए. डांंगे नम्बूदरी पाद को। खण्ड-खण्ड में किए गए विचारों के कारण अव्यवस्था उत्पन्न हुई और मानववाद का विचार तो कोसों दूर होते गया।
पश्चिम के देशों में केन्द्रीयकृत पोप के विरुद्ध अलग-अलग आवाज उठने लगी। अलग-अलग देशों मेें राष्ट्रीयता की भावना उग्र होती गई। कहीं पोप के विरुद्ध आवाज थी तो कहीं राजा के निरंकुशता के खिलाफ थी। प्रजातंत्र, समता और समाजवाद ने पोप के रिलीजन को सीमित किया, वही राजा के अधिकारों को भी सीमित किया। अलग-अलग देशों की समस्याएं अलग-अलग थीं। लेकिन हिटलर, मुसोलनी तथा स्तालिन ने भी प्रजातंत्र को अमान्य नहीं किया।

औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप उत्पादन की नई पद्धति में स्वतंत्र रहकर काम करनेवाला व्यक्ति कारखानेदार का नौकर हो गया। गांव छोड़कर शहर में आने के कारण आवास की समस्या उत्पन्न हो गई। श्रमिक उत्पीड़न, शोषण और अन्याय का शिकार हो गया। राज्य से किसी प्रकार की आशा नहीं बची; क्योंकि उत्पीड़न, शोषण में यही वर्ग शोषक की भूमिका में थे।
इसके बाद का सिद्धांत आया कि उत्पादन के साधन पर व्यक्ति का स्वामित्व शोषण का कारण है। राष्ट्रीयकरण की प्रक्रिया अपनायी गयी। कार्यकुशलता विहीन श्रमिकों की फौज को आलसी बना दिया। बार-बार हड़ताल एवं कारखानों में तालाबंदी उद्योगों को चौपट कर दिया। पश्चिम बंगाल इसका उदाहरण है। एक परिपक्व विचार भारतीय मजदूर संघ की ओर से आया- ‘पूरे घंटे करेंगे काम, काम के लेंगे पूरे दाम’।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचन। इस पंक्ति में कर्म और फल की बात आईे है। हम जो कुछ कर्म करते हैें अर्थात श्रम करते हैं उसका कुछ ना कुछ फल अवश्य मिलता है। यह श्रम का फल, श्रम के मूल्य से अधिक होता है और इसी श्रम के आधिक्य मूल्य (फल-श्रम) पर दुनिया की अर्थव्यवस्था चक्कर लगाती है। श्रम के आधिक्य मूल्य का मालिक पूंजीवाद में मालिक होता है जो श्रमिकों के शोषण से प्राप्त होता है। इसके लाभान्वित वर्ग शेयर होल्डर, डिबेंचर होल्डर, बोर्ड ऑफ डायरेक्टर होते हैं। श्रम के आधिक्य मूल्य का मालिक समाजवाद में राज्य होता है जो शनै-शनै जब्ती या राष्ट्रीयकरण द्वारा प्राप्त करता है। श्रमिकों की छंटनी मनमाने ढंग से होती है। शेयर होल्डर, डिबेंचर होल्डर तथा बोर्ड ऑफ डायरेक्टर तो सभी ठगे जाते हैं एवं शोषण का दायरा पूंजीवाद की अपेक्षा अधिक बड़ा होता है।

भारतीय स्वरूप में श्रम के आधिक्य मूल्य का शोषण प्रारंभ से अंत तक होता है। किन्तु संन्यास अवस्था में पहुंचने के पश्चात यज्ञ करके, समूची अर्जित सम्पत्ति निर्धनों के बीच दान देकर वल्कल वस्त्र पहनकर संन्यास के लिए निकल जाता है। यह संचय और वितरण का माध्यम दुनिया की किसी संस्कृति में उदाहरण स्वरूप भी सुनने को नहीं मिलता है। यह भारतीय संस्कृति की सदियों से परम्परा रही है।

समाजवाद में आदर्श उदाहरण माना जाता है कि मजदूरी का न्यूनतम एवं अधिकतम अनुपात 1:20 हो। अर्थात एक चपरासी की मजदूरी 5000 हो तो राष्ट्रपति का वेतन 1,00,000। इस अवस्था में समाज में कुशल श्रमिक, इंजीनियर, डॉक्टर, वैज्ञानिक कैसे पैदा होंगे? भारतीय व्यवस्था में अर्थ से ज्यादा महत्त्व प्रतिष्ठा को माना तथा अर्थ और प्रतिष्ठा में अच्छा सामंजस्य बना प्रगतिशील साम्य व्यवस्था को जन्म दिया। वैज्ञानिकों, राजनीतिज्ञों, ऋषि-मुनियों, ब्राह्मणों को प्रतिष्ठा दी तो अर्थ क्षेत्र के व्यापारियों, किसानों, शिल्पी को भरपूर धन जुटाने की अनुमति दी। इनसे कर भी राज्य लेता था। ब्राह्मण बुद्धिजीवी था, किन्तु जीवन यापन के लिए समाज पर निर्भर था। गांव के प्रत्येक अलग-अलग घरों में भोजन नियत होता था तथा गांव के प्रत्येक घर को संस्कारित करने की जिम्मेवारी थी। संघर्ष नहीं बल्कि समझौता है।

भातवर्ष में जाति व्यवस्था पर कई आलोचक तो मिल जाएंगे लेकिन इसकी खूवियों के बारे में कभी चर्चा भी नहीं करेंगे। सरकारी सहायता हर वनवासी परिवार तक नहीं पहुंच पाती है यह सत्य है। इन निर्धनों के शादी-विवाह, श्राद्धकर्म वगैरह इन्हीं जाति के मुखिया समाज की सहायता से अपने कंधों पर वहन करता है तो दूसरी ओर उच्च परम्परा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक ज्ञान देते हुए अण्डमान निकोबार द्वीप के वनवासी आसानी से सुनामी झेले और एक आदिवासी की भी मृत्यु नहीं हुई। ये जाति व्यवस्था पंचपौनिया है, जिनकी प्रत्येक यज्ञ, उपनयन, विवाह, अन्य मांगलिक कर्मों में उपस्थिति अनिवार्य रहती है। परस्पर प्रेम, सौहार्द के वातावरण में सामाजिक समझौते के तहत कार्य करते हैं एवं राष्ट्र निर्माण में महत्वपूूर्ण भूमिका निभाते हैं। वैश्य समाज के ऊपर दायित्व रहता है राज्य में आंतरिक व्यापार करते हुए अंतर्देशीय व्यापार करें एवं उच्च भारतीय संस्कृति को विदेशों में फैलाएं।

व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं व्यक्तिगत विकास पूंजीवाद का आभूषण है तो शोषण भी स्वाभाविक प्रक्रिया है। इस शोषण को मिटाने के लिए समाजवाद जहां अपनाया गया वहां व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं व्यक्तिगत विकास अवरुद्ध हो गया। भारतीय दर्शन में व्यक्तिगत स्वतंत्रता, व्यक्तिगत विकास, एवं सामाजिक प्रतिष्ठा में तालमेल होने के कारण एक विशिष्ट समझौता एवं दर्शन के उद्गम का कारण बना। यह एक दूसरे के विरुद्ध नहीं था किन्तु इस अवस्था को जहां 1500 वर्ष छोड़कर आए थे वहीं से फिर प्रारंभ करना एक मुश्किल कार्य है, किन्तु नामुमकिन नहीं है। जब शरीर, मन, बुद्धि आत्मा का विकास होता है, चार पुरुषार्थ एवं चार आश्रम धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष तथा ब्रह्मचर्य, गृहस्थाश्रय, वानप्रस्थ और संन्यास, आर्थिक जगत् एवं प्रतिष्ठा प्राप्त व्यक्तियों के बीच सामंजस्य स्थापित होकर सुंदर समाज और राष्ट्र की रचना करता है।

राष्ट्र एक भौगोलिक क्षेत्र ही नहीं, सांस्कृतिक आत्मा को जीता है। एक समय इजरायल भौगोलिक रूप से समाप्त हो चुका था किन्तु विश्वभर में फैले यहूदी जब मिलते थे तो कहते थे अगले क्रिसमस में येरूशलम में मिलेंगे। मन में इसी सांस्कृतिक आस्था नेे 1948 में इजरायल को जन्म दिया। अनेक यहूदी विश्व के वैज्ञानिक बनकर विश्व की सेवा कर रहे हैं। संयुक्त पारिवारिक व्यवस्था का विरोधी कम्युनिस्ट प्रारंभ से था। कम्यूनों की कल्पना तो थी ही। विवाह कर माता-पिता से अनुमति प्राप्त कर अलग घर बसाओ, किन्तु बाद में पितृत्व एवं अभिभावकत्व के पक्ष में आंदोलन होने लगे और कम्युनिस्ट शासन ने भी पितृत्व पक्ष को स्वीकार किया। इसी प्रकार अमेरिका में पूर्ण व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर स्वेेच्छारिता आई और हिप्पी समाज को जन्म दिया। इस हिप्पी समाज का वहां समाज से विद्वत जनों ने उग्र विरोध किया और मांग करने लगे कि संयुक्त परिवार स्थापित हो।

एकाकी परिवार के कारण ‘ओल्ड एज होम’ का प्रचलन विदेशों में जोरों पर है। इस पर विदेशों में छटपटाहट भी है।
भारतीय संयुक्त परिवार प्रणाली की अपनी विशेषता एवं उत्कृष्टता है। भारत में 120 वर्ष पूर्ण शिक्षा के क्षेत्र में समाज पिछड़ा था। स्वामी विवेकानंद से अमेरिका में पत्रकार ने स्त्री की दशा पर प्रश्न किया (स्त्री-शिक्षा तो और भी पिछड़ी थी) इसके उत्तर में स्वामी विवेकानंद ने कहा- “बालरूप में भारतीय कन्याएं आश्विन और चैत्र मास के नवमी तिथि को देवी के रूप में पूजित हैं। उसके चरण पखारे जाते हैं। मिष्टान भोजन अर्पित किया जातो है और द्रव्य समर्पित किया जाता है, यही कन्या युवावस्था में गृहणी के रूप में घर पर अधिकार रखती है (ससुराल में) और वृद्धावस्था में नाती-पोेते, पुत्र-पुत्रवधु, बेटी-जमाई से सम्मान पाती है।”

संयुक्त परिवार की यह भारत में उत्कृष्ट अवस्था है। परिवार में परस्पर प्रेम और सौहार्द हो, त्याग की भावना हो तो परिवार (संयुक्त) उत्कृष्ट फल देता है, व्यक्ति के गुणों का विकास भलीभांति हो पाता है। निर्बलों की रक्षा होती है एवं वृद्ध-वृद्धा सम्मानपूर्वक आराम से जीवन जीते हैं। सामाजिक बंधन मजबूत होता है। व्यक्तियों के गुणों का यथेष्ट विकास होता है।
प्रथम विश्वयुद्ध में लेनिन ने दु:ख प्रकट किया था कि श्रमिक अंतरराष्ट्रीय नहीं हैं और अपने राष्ट्रों के लिए लड़ रहे हैं। अंतरराष्ट्रीयवाद से राष्ट्रवाद आना स्वाभाविक प्रक्रिया है। कृत्रिमता अंतरराष्ट्रीयवाद जब राष्ट्रवाद के विरुद्ध हो तो ऐसे अंतरराष्ट्रीयवाद का विरोध होना ही चाहिए और यही हुआ। राष्ट्र और राष्ट्रवाद का समर्थन सभी देश करते हैं।

व्यक्ति-परिवार-समाज-देश-विश्व राज्य एकात्ममानववाद

अमेरिका का कहना है ऑनेस्टी इज द बेस्ट बिजनेस पॉलिसी। यूरोप का कहना है कि ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिेसी और भारतीय कहता है कि ऑनेस्टी इज नॉट अ पॉलिसी बट अ प्रिंसीपल।

अकेली दण्डनीति राज्य नहीं चला सकती। धर्म राष्ट्र भी चला सकता है और विश्व भी चला सकता है। एक समय भारत में आर्य संस्कृति थी। यह विश्व में फैली किन्तु किसी अन्य देश पर शासन नहीं किया अपितु अच्छी बातें, अच्छी संस्कृति विश्व में फैलायी। विश्व एक कुटुम्ब है (वसुधैव कुटुम्बकम्), सर्वे सुखिन: सन्तु, अच्छे आविष्कार, गणित, शिल्प, कृषि, रसायन, नक्षत्र विज्ञान की जानकारी विश्व को दी। राष्ट्र अपना फल विश्व को समर्पित करे जो सम्पूर्ण मानवों के उत्थान का कारक बने। सभी राष्ट्र अपने अपने तरीके से राष्ट्र की प्रगति करे और विश्व को लाभान्वित करे। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र से संघर्ष नहीं, विश्व शांति का उपाय करे। धार्मिक भावना व्यक्तिगत कुछ भी हो प्रत्येक धर्म अपने ईश्वर के पास जाने के मार्ग पर चलता है। सभी एक ही ईश्वर की आराधना करते हैं। सभी मनुष्य अपना विकास करने के लिए स्वतंत्र है किन्तु फल तो परिवार को मिलता है।

उसी प्रकार सभी राष्ट्रों के प्रगति करने के अपने अलग-अलग मार्ग एवं विधियां हैं, किन्तु लाभ तो विश्व को ही मिलता है। अमेरिका का अपोलो अभियान, रूस का स्पूतनिक अभियान, भारत का चन्द्रयान-मंगल अभियान, चीन का चंद्र अभियान सभी अंतत: विश्व मंगलमय के अभियान का हिस्सा है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय का भी यही विश्व कल्याण एवं एकात्म मानववाद है।

स्वामी विवेकाननद की उक्ति के अनुसार हम सब को कार्य करना है कि विश्व के प्रत्येक रोगी की उचित चिकित्सा व्यवस्था हो तथा विश्व के किसी कोने में रहनेवाले व्यक्ति के लिए भोजन की व्यवस्था हो।
मानव जाति को विज्ञान की अधिकतम सुविधा देना लक्ष्य हो और प्रत्येक देश विश्व शांति के लिए कार्य करे। यही पंडित दीनदयाल के जन्म शताब्दी पर सच्ची श्रद्धांजलि होगी एवं एकात्म मानववाद दर्शन विश्व को अनुपम देन होगी। विकसित एकात्मवाद विश्व भाईचारा, विश्व शांति और उन्नत विश्व है।
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