इतिहास गवाह है कि देवी-देवताओं से निर्मित संगीत पृथ्वी पर आया और समस्त मानव जाति ने उसे सराहा और ग्रहण किया। प्राचीन काव्यों के अनुसार मानव जाति ने संगीत के द्वारा देवताओं को प्रसन्न किया और उद्देश्य की प्राप्ति की। आज तक यह परंपरा कायम है, जो भारतीय संस्कृति की विशेषता है।
प्राचीन काल में सप्तसुरों की रचना और ऋचाओं का गायन एक साथ विकसित हुआ। ऋचा संस्कृत में होने के कारण उसका उच्चारण और स्वर का साथ फलदायी था। इससे वातावरण में उत्पन्न होने वाली ऊर्जा से उद्देश्यों की प्ाूर्ति होती थी। यज्ञ परंपरा और संगीत परंपरा का पालन गहराई से होता था।
सामवेद संगीत का प्रथम ग्रंथ माना जाता है। इसमें ऋचा गायन के नियम बताए गए हैं। इसकी रचना के लिए अलग-अलग गायकों की नियुक्ति हुई। गायवीणा का उपयोग स्वराधार के लिए किया जाता था। गायक उंगलियों से बताकर स्वरों का संकेत देते थे।
हर बात का विशिष्ट अर्थ होता है। ऋचाओं का अध्ययन-अध्यापन सुचारु रूप से हो, इसके लिए खास विद्यालय थे। यह परंपरा सैंक़डों वर्षों तक चली। इसके बाद संगीत में बदलाव आता गया। इसमें मंदिर भी थे। राजघरानों से मिले आश्रय के कारण संगीत फला-फूला, पनपा। उस समय भी संगीत का उद्देश्य धार्मिक ही था। कुछ समय बाद इसका उपयोग मनोरंजक कार्यक्रमों के लिए होने लगा। त्यौहार, राजघरानों के मांगलिक आयोजनों तथा राजा को खुश करने के लिए संगीत का उपयोग होने लगा। भारतीय संगीत में इसी काव्य में गुप्त कालीन देसी राग-गायन के तीसरे युग की शुरुआत हुई। संगीत-कला में अनेकों प्रकार निर्माण हुए। संगीतमय खंडकाव्य, संगीतमय नाटक लिखे गए, लेकिन इनकी विषय-वस्तु हमेशा धार्मिक ही रही। इसके बाद संगीत के विषय बदल गए।
इतनी ब़डी प्रस्तावना लिखने की वजह यह है कि आज भी संगीत धार्मिक परंपरा से अलग नहीं है और न ही किया जा सकता है। अगर देखना चाहो तो भी हर सदी में धार्मिक ही रहा है।
अगर संगीत के क्षेत्र में मनोरंजन को बढ़ावा मिला तो वह मुसलमानों के आगमन के बाद, यानी बारहवीं सदी से। इसके पहले भी संगीत मनोरंजन के लिए था पर उसका स्वरूप धार्मिक था। ज्यादातर प्रस्तुति मंदिरों में होती थी। इस कला को पवित्र माना जाता था, हालाकि यह भावना आज भी कायम है।
आज मुझे उत्सवों के संगीत पर विचार रखने के कारण इतनी बड़ी प्रस्तावना लिखनी पड़ी। भारत में और खासकर हिंदू संस्कृति में हजारों की तादाद में उत्सव मनाने की परंपरा है।
चलिए, उत्सवों को दो भागों में बांटते हैं। मंदिरों के उत्सव और सामाजिक उत्सव। इनमें दोनों एक-दूसरे से संबंधित हैं। बड़े-बड़े मंदिरों के उत्सव नियमों के अनुसार ही मनाए जाते हैं, पर सामाजिक उत्सवों में नियम और अनुशासन का पालन ज्यादातर नहीं होता। उत्सव का संगीत सब को प्रसन्नता देने वाला होता है। इसमें साधक को कला की प्रस्तुति ईमानदारी से करनी होती है, तभी फल प्राप्ति होती है।
इक्कीसवीं सदी का भारत- भारतीय संगीत और उत्सव पच्चीस-तीस सालों में बदल गए हैं। देश में मंदिरों की संख्या बढ़ गई और उत्सवों की भी। कुछ मंदिरों के उत्सवों को सामाजिक स्वरूप प्राप्त हुआ है। कुछ उत्सव अनुशासन का पालन कर मनाए जाते हैं, पर दर मुहल्ले-गलियारों के उत्सवों के उद्देश्य का कोई अता-पता नहीं। इसमें सच्चे अर्थों में संगीत-सेवा करने वाले कितने हैं? या यह फैशनपरस्ती है! यह सवाल मंदिरों के आसपास रहने वाले नागरिकों को सताता है।
स्वर में अगर विशिष्ट श्रुति का समावेश हो तो उद्दिष्ट साध्य होता है। इसके लिए संगीत को साधना, संगीत पर श्रद्धा होना जरूरी है। आज की भागदौड़ में यह सब कैसे करेंगे? यह सवाल उठता है? शांति के लिए मन की एकाग्रता के लिए किसके पास समय है? संतोष इस बात का है कि छोटे-बडे मंदिरों में घरेलू उत्सवों में संगीत-सेवा होती है। अनेकों गायक-वादक आते हैं। संगीत-सेवक मन लगाकर, समर्पण की भावना से सुर लगाते हैं। तब कलाकार प्रार्थना करता है- ‘हे ईश्वर, यह सुर सिर्फ तुम्हारे लिए है, तुम मुझे शक्ति, उत्साह दो’ तब कलाकार की प्रस्तुति आनंददायक, अवर्णनीय होती है।
कई तीर्थ-स्थलों पर बड़े-बड़े मंदिरों में संगीत-महोत्सव होते रहते हैं। वे इतने बड़े पैमाने पर होते हैं कि उनकी गिनती नहीं की जा सकती। कुछ स्थलों पर उत्सव शासकीय स्तर पर मनाए जाते हैं। ऐसी जगहों पर कलाकार अपने आपको ईमानदारी से पेश करता है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जिसकी कलाकार को उम्मीद होती है, वह है ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचना। यह उसके लिए सुनहरा मौका होता है। कलाकार धार्मिक स्थलों का न्यौता अस्वीकार नहीं करता। यहां पर पैसा महत्वपूर्ण नहीं, क्योंकि स्वर की पूजा ईश्वर के चरणों में बैठकर करनी होती है। कलाकार को मनचाहा मौका मिलता है। वह अत्यंत समर्पित भाव से अपनी कला प्रस्तुत करता है। ऐसा स्वर मंदिर सिर्फ मंदिर में ही हो सकता है, अन्यत्र नहीं।
संगीत कला बुद्धि और मेहनत के बल पर हासिल होती है। हर एक स्वराविष्कार के पीछे कुछ प्रवृत्ति काम करती है। इससे स्वयं को भुला देने की ताकत आती है। स्वर और उसके भावविश्व में कलाकार एकरूप होता है। मंदिर में भगवान के सामने बैठकर यह सेवा करते समय, स्वरों में छिपे भाव प्रकट कर, देवों की प्रशंसा करनी होती है। आलापों से ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग देखा जाता है। ऐसे समय अहंकार, मत्सर, द्वेष जैसी भावनाओं का मन में स्थान नहीं होता। गायन में स्वत: सात्विकता आ जाती है।
मंदिर के उत्सवों के सामाजिक भाव और संगीत का उत्सव
कलाकार की साधना का प्रभाव बहुत बड़ा होता है। इसका मंदिर के व्यवस्थापकों को ध्यान रखना चाहिए। आजकल मंदिर व्यवस्थापन में सामाजिक और राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ जाता है। इस कारण उत्सव का संगीत कैसा होना चाहिए, इसकी जानकारी नहीं होती और न इसका ध्यान। उत्सव के संगीत स्थान और उद्देश्य श्रेष्ठ दर्जे के होने चाहिए। परंतु आजकल ऐसा न होकर केवल साधारण मनोरंजन, नाच-गाना आदि का आयोजन होता है। बचा-खुचा समय वे अपने आपको ऊंचा दिखाने की कोशिश में लगे रहते हैं।
संगीत का परिणाम सिर्फ मनोरंजन की ओर होने से मेहनती कलाकारों को न बुलाकर अति साधारण कलाकारों को बुलाया जाता है। कभी कभी मुफ्त कार्यक्रम करने वाले कलाकारों को बुलाने का रिवाज चल पड़ा है। मेहनत और रियाज न होने के कारण ध्वनि मुद्रित गीत ज्यों के त्यों गाए जाते हैं। फिर भी गाने का मूल प्रभाव नहीं पड़ता। गीत प्रस्तुत करते समय गीत का प्रभाव बनाने के लिए तकनीकी साधनों का प्रयोग होता है, जिससे आवाज में चमत्कार उत्पन्न होता है। इसका आजकल खास प्रशिक्षण दिया जाता है। संगीत में चमत्कार दिखाते समय शारीरिक ताकत भी रखनी पड़ती है। रियाज करने से गला तैयार होता है। ये बातें अगर न हो तो ध्वनि-तकनीक की करामातों का उपयोग करना पड़ता है।
ध्वनि वर्धक यंत्र की आवाज की मर्यादा का पालन भी करना पड़ता है। योग्य जानकारी न रखने के कारण आज संगीत कर्कश आवाज में सुनाया जाता है। इसमें सुरीलापन, आकर्षकता नहीं। सारे वाद्यों की आवाज भी ऊंची ही रहती हैं। इससे गायक के दोष छिपाए जाते हैं। लोगों का सिर-दर्द बढ़ता है, कान बहरे हो जाते हैं, दोष लागों की समझ में नहीं आने-इससे संगीत के लक्ष्य प्राप्त नहीं होते।
मंदिर के उत्सवों में एक और बात भी सामने आती है जिन्होंने संगीत को ही जीवन बनाया है, ऐसे गायक-वादकों की ईश्वर-सेवा का मौका दिया जाता है। कलाकार मेहनताना भले ही कम लेता हो, पर उसकी कला की कद्र करना व्यवस्थापन का काम है। कलाकार की मेहनत का फल उसको देना चाहिए। उत्सवों में ऐसे कलाकारों से मुफ्त सेवा लेने वाले दोषी हैं।
मंदिरों में संगीत उत्सवों के स्वरूप की ओर गंभीरता से देखने की जरूरत है। संगीत कला का उद्देश्य हासिल करने के लिए बदलती हुई सामाजिक व्यवस्था को समझना जरूरी है। धार्मिक महत्व कम होकर सामाजिक मनोरंजन की घटना के तौर पर ये उत्सव मनाए जा रहे हैं। पैसे का लेन-देन भी होने लगा है, इससे दिखावा बढ़ रहा है। संगीत का सच्चा उद्देश्य कहीं खो गया है। ध्वनि वर्धक यंत्र की आवाज ऊंची रखने से धार्मिक उद्देश्य सफल होगा, ऐसी लोगों की धारणा बन रही है। संगीत का परिणाम यानी कर्ण कर्कश ध्वनि से वातावरण प्रदूषित होता है।
धार्मिक वाद्य और उनकी भूमिका
कार्यक्रम प्रस्तुत करते समय वाद्य महत्वपूर्ण है। उत्सवों के वाद्यों के बगैर उत्सव और संगीत पूरे नहीं हो सकते। उत्सव के महत्वपूर्ण वाद्य हैं- ढोलक, मृदंग (खंजरी) और अनेकों प्रकार की घंटियां। इन वाद्यों की आवाज मूलत: जोर से ही होती है। उन्हें बजाना सहज होने के कारण इन्हें कोई भी बजा सकता हैं। ये शास्त्रीय संगीत के वाद्य नहीं पर लोकसंगीत के अत्यंत महत्वपूर्ण वाद्य हैं।
इन वाद्यों को संगीत में महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि इनमें नाद गुण है। नाद गुण से ये मन पर छा जाते हैं, मन कुछ भूल जाता है। इनके सुनने से मन एकाग्र होता है। यह नाद मनुष्य के पैर से लेकर सिर तक फैलता है। यहीं आवाज इतनी ऊंची होती है कि दूसरी कोई भी आवाजें नहीं सुनाई पड़ती। इसके नाद में विशिष्ट लय होती है। मन भक्ति में डूब जाने की स्थिति उत्पन्न नाद के तत्वों का और प्रक्रिया का उपयोग सही तरीके से किया जाता है। मन:शांति प्राप्त करना मंदिर के संगीत का अहम उद्देश्य है। आज की नीरस जिंदगी में स्वास्थ्य और मन:शांति दिलाने की सामर्थ्य संगीत में है। मन को प्रसन्नता दिलाकर चिंता और रोगों से मुक्त कराने की ताकत संगीत में होती है। ईश्वर तक पहुंचने का यह अचूक साधन है।
उत्सव की कला प्रस्तुति कलाकार की मेहनत की तरह वैचारिक प्रतिभा से परिपूर्ण, जिद्दी होती है। कहीं भी आक्रमकता नहीं होती। ध्वनि वर्धक का सही इस्तेमाल करने पर प्रस्तुति मनोरंजक बनती है। स्वरों की शक्ति, देवी-देवताओं के आपसी संबंधों की जानकारी मिलती है। मंदिरों के संगीत-महोत्सवों में प्रस्तुत होने वाले हर एक बात का अर्थ होता है, होना भी चाहिए। श्रोताओं पर उसका संस्कार, उसका परिणाम होता है। ध्यान देने पर संस्कार-प्रक्रिया का असर होता है। वह प्रस्तुति कलाकार के लिए महत्वपूर्ण हो सकती है, पर श्रोता के लिए नहीं। श्रोता के लिए केवल मनोरंजन ही होगा।
आज की स्थिति
आजकल संगीत-महोत्सव सिर्फ मंदिर संगीत से संबंधित न होकर सामाजिक भी होता है। विषय अनिविस्तृत होने के कारण हम सिर्फ मंदिरों के संगीत-महोत्सव पर ही सोचेंगे।
आजकल ऐसे उत्सवों में संगीत की प्रस्तुति दो प्रकार से होती है-
1) शास्त्रीय संगीत-गायन, वादन, नृत्य
2) सुगम संगीत-मराठी, हिंदी सुगम संगीत, फिल्मों का संगीत, लोकसंगीत इत्यादि।
वादकवृंद भी ऐसे संगीत के कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं।
प्राचीन मंदिरों की संस्कृति में ज्यादातर शास्त्रीय संगीत मूल रूप में प्रस्तुत होता है। वहां पर आठों पहर संगीत-सेवा होती रहती है। इस संगीत-सेवा में अनुशासन, परंपरा-पालन विद्वता का दिखावा करने की प्रवृत्ति ध्यान में आती है।
अर्वाचीन मंदिरों में दोनों प्रकार के कार्यक्रम होते हैं। ज्यादातर सुगम-संगीत के कार्यक्रम होते हैं। संगीत-सेवा करनी होती है, बस! उसके लक्ष्य की तरफ कितना ध्यान होता है, इस पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है। मंदिर-व्यवस्थापन की जिम्मेदारी संगीत-सेवा समर्पित करने की होती है। ऐसे समय प्रस्तुति सही ही होगी ऐसा नहीं कहा जा सकता।
ध्वनि वर्धक का बहुत ज्यादा इस्तेमाल करने से सब कुछ सफल होगा ऐसा सोचकर संगीत उत्सव मनाए जाते हैं। दिनभर ऐसी संगीत सेवा होती रहती है। एक तरफ भक्तगण ईश्वर के दर्शन करते हैं, बड़ी बड़ी कतारें लगती हैं। बीच में ही कोई मंदिर का घंटा बजाता है, पंडित मंत्रोच्चार करके प्रसाद बांटते हैं। ऐसे समय होने वाले संगीत की प्रस्तुति कहां तक सार्थक कहलाएगी?
नए दौर में इसमें अनुशासन होना जरूरी है। मंदिर है तो भक्तगण होंगे ही, संगीत सेवा भी होगी ही। कहीं न कहीं इसका मेलजोल बनाना जरूरी है तभी इसका आनंद सब उठा सकेंगे।
उत्सव, त्यौहार आनंद के प्रतीक हैं। आनंद बांटने के तरीके अलग-अलग हैं। स्वयं को भुला देना, ईश्वर के प्रति समर्पण भाव रखने वाले को भक्तिमार्ग में संगीत का साथ लेकर चलना पड़ता है।