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फिल्म संगीत एवं गजल गायकी

फिल्म संगीत एवं गजल गायकी

by डॉ प्रमिला मोदी
in नवम्बर २०१४, सामाजिक
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स्वर, लय और ताल के साथ शब्दों के स्वरों की अदायगी की अनुभूति केवल भावों द्वारा ही स्पष्ट होती है। भावहीन संगीत का सांगीतिक जीवन में कोई स्थान नहीं है। विस्तार से देखा जाए तो किसी भी गायन, वादन और नृत्य शैली में भावों द्वारा ही नव रसों की उत्पत्ति होती है। विभिन्न गायन शैलियां एक-दूसरे से भिन्न होते हुए भी एक-दूसरे के पूरक हैं।

संगीत की उत्पत्ति आदि काल में हो चुकी थी। वेद से उत्पन्न यह कला सर्वप्रथम देवी-देवताओं को समर्पित थी। समय के साथ और मानव जीवन के दिन-प्रतिदिन विकास के साथ-साथ संगीत का भी विकास हुआ और यह वेदों-उपनिषदों से बाहर निकलकर राज-दरबारों तथा जन मानस में प्रचलित होता गया।

संगीत चाहे वह शास्त्रीय, उप शास्त्रीय, पाश्चात्य या सुगम संगीत हो उसकी नींव शास्त्रों के अनुसार बारह स्तरों और बाईस श्रुतियों पर ही आधारित है और इन्हीं बारह स्तरों के मेल या जोड़ से नई सांगीतिक रचनाएं बनती रहती हैं और प्रत्येक व्यक्ति को सुकून देती हैं। यह जरूरी नहीं कि हर व्यक्ति को एक ही प्रकार का संगीत पसंद हो। मन और मस्तिष्क की परिस्थिति के अनुसार ही संगीत कर्णप्रिय लगता है।

अगर हम इतिहास देखें तो यह जानकारी मिलती है कि तीन स्तरों पर वेदों में ऋचा गायन किया जाता था और बाद में धीरे-धीरे चार, पांच और फिर सात स्तरों की उत्पति हुई और संगीत को एक नया विस्तार मिला। इसी के सहारे कई गायन शैलियां विकसित हुईं जिसमें सर्वप्रथम शास्त्रीय संगीत में ध्रुपद, धमार और रुमाल गायकी का विकास हुआ। उप शास्त्रीय संगीत में ठुमरी, टप्पा, दादरा, होरी, कजरी, चैता इत्यादि शैलियां विकसित हुईं और सुगम संगीत में गीत, भजन, कव्वाली, गजल का उद्गम और विकास हुआ।

जितना प्राचीन इतिहास शास्त्रीय संगीत शैलियों का है उतना प्राचीन इतिहास गजल का नहीं माना गया है, पर स्वतंत्रता से पूर्व गजल का जन्म हो चुका था।

हिंदुस्तानी संगीत की सभी विधाओं में स्वतंत्रता के पश्चात कई परिवर्तन होने लगे। गजल अपने प्रारंभिक काल में कोठों पर तवायफों द्वारा मनोरंजन के लिए गाई जाती थी। बेगम अख्तर ने उप शास्त्रीय गायन के साथ गजल गायन को भी प्राथमिकता दी एवं गजल प्रतिष्ठित बन गई।

फिल्म निर्माण के साथ फिल्मी संगीत का दौर भी तेज गति से आगे बढ़ने लगा और उसमें पारंपरिक हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत एक उप शास्त्रीय शैली संगीत में कुछ भिन्न-भिन्न अंदाज के प्रयोग किए जाने लगे। इसी में फिल्मों में गजल शैली की प्रधानता वाले संगीत शैली को भी बढ़ावा दिया गया। प्रारंभिक दौर में गजल का स्वरूप फिल्म संगीत में हल्के -फुल्के गीतों के रूप में सामने आया और गजल गायक कुंदन लाल सहगल और तलत महमूद जैसे कई गजल गायकों द्वारा गजलों को फिल्मों में अधिक लोकप्रिय बनाने में मदद मिली। साहित्यिक और सांगीतिक दृष्टि से यह गजलें इतनी हल्की-फुल्की न होकर भी जनसाधारण में अधिक लोकप्रिय हुईं।

स्वर, लय, ताल तीनों के मेल से संगीत बनता है। उसी प्रकार तीनों विधाओं गायन, वादन और नृत्य में भाव एक अभिन्न अंग होते हुए भी महत्वपूर्ण स्थान कायम करता है। स्वर, लय और ताल के साथ शब्दों के स्वरों की अदायगी की अनुभूति केवल भावों द्वारा ही स्पष्ट होती है। भावहीन संगीत का सांगीतिक जीवन में कोई स्थान नहीं है। विस्तार से देखा जाए तो किसी भी गायन, वादन और नृत्य शैली में भावों द्वारा ही नव रसों की उत्पत्ति होती है। विभिन्न गायन शैलियां एक-दूसरे से भिन्न होते हुए भी एक-दूसरे के पूरक हैं। प्राचीन काल में शास्त्रीय संगीत में अधिकतम विकास ख्याल और ध्रुपद शैली का हुआ। लेकिन बदलते समय और बदलती सोच के साथ शास्त्रीय संगीत की लोकप्रियता भी कम होती चली गई और सुगम संगीत आमजन में लोकप्रिय हो गया।

अगर गहराई से देखा जाए तो शास्त्रीय संगीत के बजाए गजल अत्यधिक लोकप्रिय है और लोगों के दिलों पर राज करती है, जबकि ख्याल और ध्रुपद इससे भी कई वर्ष प्राचीन है। ऐसा होने के कई विभिन्न घटक हैं। स्वतंत्रता के पश्चात की गजल गायकी में गजल की बंदिश, ताल का उपयोग, राग का चयन, तान और आलाप का उपयुक्त स्थान पर प्रयोग, गजल का चयन इन सभी बातों पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा।

स्वर प्रधान- शास्त्रीय संगीत की ख्याल गायकी में स्वर की प्रधानता रहती है और शब्दों को महत्व नहीं दिया जाता है, साथ ही आलाप, तान, मुर्की, गमक, भीड़ इत्यादि का खुलकर प्रयोग होता है। ऐसा नहीं है कि प्राचीन गजल गायकी में इन सभी का उपयोग नहीं था। गजल में इनका ब़डा प्रयोग किया जाता था, लेकिन वर्तमान समय में गजल में इसका विशेष महत्व नहीं है। केवल कुछ ही कलाकार तानों व स्वर तानों द्वारा गजल में नयापन देने की कोशिश करते हैं।

राज प्रधान- शास्त्रीय संगीत में राग में बदलाव लाता था, तब्दील करने का कोई स्थान नहीं है। राग के नियमानुसार ही बंदिश स्वरबद्ध तथा तालबद्ध की जाती है। राग में विवादी स्वर का प्रयोग केवल शास्त्रानुसार ही किया जाता है। वादि-संवादि, गायन समय, थाट, उत्तरांग, पूर्वांग, वादी, पकड़ आदि सभी नियमों और विषयों पर ध्यान देना जरूरी होता है। लेकिन गजलें जो रागों पर आधारित हैं उनमें इतने कठोर नियमों का पालन करने की आवश्यकता नहीं होती। स्वतंत्रता से पूर्व और पश्चात तथा आज वर्तमान काल में भी विभिन्न रागों में गजलों की धुन बनाई जा रही है। लेकिन राग के नियमानुसार उन्हें स्वरबद्ध किया जाए, इसके लिए कोई नियम नहीं है। गजल के स्वभाव के अनुसार अगर विवादी स्वर से गजल की खूबसूरती बढ़ रही है तो ऐसा न करने के लिए कोई सख्त प्रावधान नहीं है। गायक अपनी इच्छानुसार और शब्दों का बंद देखते हुए एक ही राग में दूसरी राग का मिश्रण करके उसकी रोचकता बढ़ा सकता है। गजल की सांगितिक बंदिश ज्यादातर भूपाली, यमन, तोड़ी, भीमपतासी, पहाड़ी, भैरवी, बागेश्री, सारंग आदि रागों को आधार मानकर की जाती है।

ताल प्रधान- सांगीतिक प्रस्तुति में ताल का महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि ताल के बिना किसी भी शैली की कल्पना नहीं की जा सकती है। शास्त्रीय संगीत में तालबद्ध व लयबद्ध होना आवश्यक है, तथा तीनों प्रकार की लय मेें गायकी के लिए गायक को ताल व लय ज्ञान होना आवश्यक है। अगर वह गायकी में लयबद्ध नहीं है तो वह एक सफल संगीतज्ञ नहीं बन सकता। शास्त्रीय संगीत में पखावज, मृदंग और तबला की ही संगत की जाती है, लेकिन गजल गायकी में ताल ठेकों की विविधता का साथ विभिन्न प्रकार के साज जैसे तबला, ढोलक, कांगो, बांगों, मटकी व ताल का प्रयोग भी बहुतायत से हो रहा है, लेकिन मुख्य रूप से तबले का ही प्रयोग गजल गायन शैली में अनिवार्य होता है।

यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि गजल गायन शैली में बिताल, एकताल व दूसरी लंबे वाली तालों के हिस्से अधिक होते हैं तथा अधिक हिस्सों के कारण शब्दों के वजन और लय में बांटने में कठिनाई होती है। अगर शब्दों को अधिक हिस्सों में बांटा जाएगा तो शब्दों की खूबसूरती समाप्त होती है। ख्याल गायकी में तीनों लय का प्रयोग अनिवार्य है, लेकिन गजल में तालों की लय विलंबित और द्रुत न होकर मध्य ही होती है। कहरवा, दादरा और रूपक इन्हीं तालों में गजल की रचनाएं सुनने को मिलती हैं। ताल का अनूठा प्रयोग स्व. श्री जगजीत सिंह ने अपनी गजलों में बखूबी किया है। एक ही ताल के ठेके को उन्होंने कई अलग ढंग से शब्दों के वजन के अनुरूप प्रयोग किया है।

वाद्य प्रधान- तत, धन, सुपिर व अववध यह चारों प्रकार के वाद्य हर गायन शैली में प्रयोग किए जाते हैं, लेकिन हर वाद्य की उपयोगिता उस गायन शैली से जुड़ी रहती है। तबला, पखावज, मृंदग, हारमोनियम, तानपुरा, सारंगी इनके अलावा शास्त्रीय संगीत की प्रस्तुति में अन्य वाद्यों को महत्व नहीं दिया गया है। सुगम संगीत की हर शैली में अलग-अलग वाद्यों का प्रयोग अत्यंत ही हृदयस्पर्शी होता है। प्राचीन काल से लेकर आज के युग में गजल गायकी में वाद्यों का जमकर प्रयोग हुआ। समय बदलने के साथ-साथ नए पाश्चात्य वाद्यों को भी गजल में एक नई जगह मिली। सितार, सारंगी, बांसुरी, गिटार, हारमोनियम के अलावा मौरोक्कम, क्लैरनेट, सिन्येसाइन जैसे इलेक्ट्रॉनिक वाद्यों को भी लोकप्रियता गजल गायन के साथ बहुत ही बढ़ रही है। गजल गायन में कला तथा भाव पक्ष की उत्पत्ति में ये साज विशेष महत्व रखते हैं और इसके प्रयोग से गजल गायन में एक नई प्रभावशील चेतना प्रस्फुटित है।

शब्द प्रधान- भावों को केवल स्वर, लय और ताल द्वारा ही व्यक्त नहीं किया जा सकता है, वरन इन भावों को और प्रभावशाली बनाने के लिए काव्य अत्यधिक महत्वपूर्ण है। बिना शब्दों के प्रयोग से संगीत उतना मधुर नहीं लग सकता जितना की भाषा और साहित्य के जुड़ाव से उसमें एक नई चेतना उजागर होती है। मनुष्य के भावों को व्यक्त करने के लिए साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान है। शास्त्रीय बंदिशें तब हम सुनते हैं तो स्थाई, अंतरा, सचारी, आभोग केवल दो या तीन पंक्ति में होते हैं और जिसे सुनने के बाद भी उतना रस नहीं आता जितना कि किसी शायर के किसी खूबसूरत शेर के सुनकर आता है। शास्त्रीयबद्ध बंदिशों में शब्दों के उच्चारण पर न तो कोई विशेष महत्व दिया गया है और न ही उनसे कोई विशेष भावाभिव्यक्ति को। ख्याल की बंदिश में आलाप और तान के निरंतर प्रयोग के कारण शब्दों पर इतना ध्यान नहीं दिया जाता है। क्योंकि स्तर, व्यंजन और शब्द में लगने वाली मन्ना डे पर आलाप व तान लेने से कई बार उसकी शुद्धता समाप्त हो जाती है और श्रोताओं को पूर्ण रसानुभूति नहीं होती। शब्दों का सही उच्चारण न होने से साहित्यिक दृष्टि से बात का अर्थ बदल जाता है। उपरोक्त सही न हो तो शब्दों के मायने बदल जाते हैं। कुछ ऐसे शब्द हैं जिन्हें जिस प्रकार लिपिबद्ध किया जाता है उच्चारण उसी के अनुसार नहीं होता।

शब्दों के सही उच्चारण के साथ ही गजल गायकी में यह भी ध्यान रखा जाता है कि सांस किस जगह पर ली जाए और कहां नहीं। गजल गायक की सांस का लंबा होना भी आवश्यक है। गजल की सांगीतिक प्रस्तुति करते समय एक बात का और ध्यान रखना आवश्यक होता है कि व्यंजनात वर्ण से कहीं भी आलाप व तान का प्रयोग न करें। कम और सीधे सरल शब्दों में गजल पढ़ने वाले शायर को हर कोई पसंद करता है क्योंकि वह आम जन की बात सीधे सरल शब्दों में कह देता है और हर श्रोता उसे सुनते हुए खुद में ही तल्लीन हो जाता है।

भाव व रस प्रधान- प्राचीन काल से चली आ रही शास्त्रीय संगीत की विद्या को सुनने वाले श्रोता बहुत न हों, लेकिन फिर भी इसकी शुद्धता आज भी बरकरार है। बोल आलाप तथा शब्दालाप द्वारा ही बंदिशों का विस्तार किया जाता है, जिससे भावानुभूति और रसानुभूति होती है। ख्याल गायक व गायिका एक ही शब्द द्वारा हर बार अलग ढंग से पुनरावृत्ति करते हुए आलापचारी की तान की तैयारी दिखाते हैं। लेकिन आज भी, सबसे बड़ी विडंबना यह है कि शास्त्रीय संगीत को सुनने और समझने के लिए केवल कुछ हैं, उच्च वर्णीय लोग रह गए हैं, जिसके कारण यह आज भी जीवित है। गजल की लोकप्रियता व आम जन की पसंद होने का सबसे बड़ा कारण यह है कि गजल गायकी वह काव्यात्मक संगीतात्मक अभिव्यक्ति है जो सांगीतिक स्वरों के आसन पर बैठकर सीमित शब्दों में श्रोताओं को भाव विभोर और रस विभोर कर देती है। स्वर, लय और ताल मनुष्य के विचारों, भावों और रसों को प्रदर्शित करने का सबसे सशक्त माध्यम है।

गजल गायन शैली बिल्कुल कम शब्दों के प्रयोग से अधिक भाव प्रकट करने में सक्षम है। इस शैली में उचित स्वर संयोजन, ताल व लय के प्रयोग के साथ साथ गायक अपनी मखमली आवाज को गंभीर व चपल बनाकर तथा शब्दों के अनुसार आवाज में दु:ख व सुख के साथ उच्चारित करके श्रोताओं के कानों तक पहुंचती है। हिंदुस्तानी संगीत को आगे बढ़ने तत्संबंधी अभिरुचियों को अभिवृद्ध करने इत्यादि से लेकर संगीत के विभिन्न पक्षों को उन्नत करने में गजल गायकी की एक अहम भूमिका रही है। ऐसा इसलिए माना गया है क्योंकि गजल न ही एक शुद्ध साहित्यिक बौद्धिकता है और न ही इसमें किसी प्रकार की कोई औपचारिकता है। व्यक्ति इस शैली के सहारे आम जन ने अपने भीतर छिपे हुए कई अनगिनत भावों को साहित्य व संगीत के माध्यम से उजागर किया है और जीवन में उन सभी नियमों को आत्मसात किया है और तवज्जो दी है। सीधे सरल शब्दों में कही गई बात को मनुष्य अपने अंदर इस कदर आत्मसात कर लेता है जैसे कि यह कोई उसी के मन की बात कह रहा हो। गजल के इस खूबसूरत अहसास को और साहित्य को अपने मस्तिष्क में बखूबी उलट लेता है जैसे कि वह उसी का ही अक्स हो।
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