कलाकार के चेहरे से जब रंग उतर जाता है तब यथार्थ आगे आ जाता है। उसका सामना करने का साहस जयमाला ने अभिनय और संगीत से ही प्राप्त किया। अपने स्वीकृत कार्य को अंतिम सांस तक करने का भाग्य उन्हें मिला।
जयमाला शिलेदार का जन्म ही संगीत नाटकों के लिए हुआ था। इस संगीत नाटक परंपरा के नारायण जाधव के घर ही उनका जन्म हुआ। मराठी ेसंगीत नाटक तब लोकप्रियता के अत्युच्च शिखर पर थे। दादासाहब फालके ने फिल्म का आरंभ कर दिया था मगर वह मूक ही थी। उच्च अभिरूचि का संगीत क्या होता है यह समाज को पता चला था और अभिजात संगीत राजा और सम्राटों के दरबारों से निकल कर लोगों के बीच आ गया था। जयमाला को जन्म से इसकी घुट्टी पिलाई गई थी। यही अपने जीवन का लक्ष्य और सुख होगा यह समझने में उन्हें देर न लगी। जब संगीत नाटक का उन्नीसवीं सदी के अंत में जन्म हो गया था तब नाटकों में महिलाओं को भूमिका करने देने के पक्ष में समाज नहीं था। यही नहीं, ऐसे नाटक देखने के लिए भी लोग तैयार नहीं थे। स्त्री-पुरुष भेदभाव की समस्या लांघ कर संगीत और नाटक के बाहर आने में बहुत समय बीत गया। लेकिन जब जयमाला का जन्म हो गया तब उच्च कुल की लडकियों को नाटकों में काम करने की अनुमति देने की भूमिका में समाज आ गया था। यह एक सांस्कृतिक क्रांति ही थी। सोलह साल की आयु में रंगभूमि पर पदार्पण करते ही अपनी सुरीली आवाज रंगभूमि को अर्पण करने का निर्णय जयमाला ने लिया। अपना यह निर्णय जीवन की अंतिम सांस तक निभाने की हिंमत उनमें थी।
बड़ी आंखें, कपाल पर बड़ा कुंकुम, हंसमुख चेहरा, मधुर उच्चारण जैसे रंगभिूम पर पदार्पण करने के लिए आवश्यक गुण उनके पास थे ही! मगर संगीत रंगभूमि के लिए सुरीला कंठ तो आवश्यक होता है! वह भी जयमाला के पास था। पदार्पण में ही गोविंदबुवा टेंबे जैसे प्रतिभाशाली कलाकार का मार्गदर्शन उन्होंने पाया था। चिंतुबुवा गुरव, गणपतराव बोडस ने भी उनकी प्रशंसा की थी।
लेकिन समय बदल गया और फिल्में बोलने लगीं। रंगभूमि का वैभव समाप्त होने लगा। सुवर्णकाल का अंत हो गया। महाराष्ट्र ने विश्व को जो संगीत की देन दी थी उस संगीत प्रकार की मोहिनी कम नहीं हुई थी मगर रंगभूमि तो संकटों से घिर गई थी। जयमाला ने ऐसे समय रंगभूमि पर कदम रखा। आगे आनेवाले अपार कष्टों से परिचित न होते हुए भी उन्होंने यह तय किया था। तब उनकी जयराम शिलेदार से मुलाकात नहीं हुई थी। इस युवा कलाकार ने ‘राम जोशी’ इस फिल्म से रसिकों का मन जीत लिया था। जयराम का जयमाला के जीवन में आगमन केवल उन दोनों के लिए सुनहरा फल नहीं बल्कि संगीत रंगभूमि के लिए जीवनदान साबित होनेवाला था। तेईस वर्ष की आयु में ही जयमाला और जयराम शिलेदार ने मिलकर ‘मराठी रंगभूमि’ नामक संगीत नाटकों को समर्पित नाटक कंपनी की स्थापना की थी। इन दोनों ने एक दूसरे का साथ निभाना भी तय किया। इन दोनों के मिलन ने संगीत रंगभूमि पर नया दीपत्कार हुआ। फिल्मों की बड़ती लोकप्रियता के आगे संगीत रंगभूमि की सांसें चलती हैं या नहीं ऐसी आशंका तीव्र हो रही थी, तब छोटा गंधर्व जैसा कलाकार इस कला को जीवित रखने के लिए प्रयासरत था। बालगंधर्व ने भी ‘संत एकनाथ’ नामक प्रभात चित्र कंपनी की फिल्म में काम किया था। मगर इस दुनिया में अपना जी नहीं बहलेगा यह ध्यान में रखकर संगीत रंगभूमि को नवसंजीवन देने के लिए उन्होंने जो प्रयास किए उसे रसिकों का साथ नहीं मिल पाया। लेकिन उनकी मर्यादाओं को लांघ कर जयराम और जयमाला दंपति ने जो साहस दिखाया उसी के कारण आज संगीत रंगभूमि जीवित दिखाई देती है। एक ही समय अपना परिवार, गायन, अभिनय, संस्था की जिम्मेवारी, गांवोंगाव का सफर ऐसे कई मोर्चों पर लड़ने वाली जयमाला ने इस श्रम की शिकन कभी अपने चेहरे पर नहीं आने दी। संगीत रंगभूमि ही अपना धर्म, अपना लक्ष्य मान कर आनेवाले संकटों को झेलने के लिए मानसिक सामर्थ्य आवश्यक था। वह दिखाते हुए अपनी कन्याओं कीर्ति और दीप्ति की राह भी प्रशस्त बनाने का काम जयमाला और जयराम दंपति ने किया है। शिलेदार का पूरा परिवार ही संगीत रंगभूमि के लिए अपना जीवन समर्पित करने हेतु सिद्ध था। यह उनकी निष्ठा ही थी और वह कमजोर न पड़े इसलिए निग्रह भी था। बालगंधर्व ने नाट्य संगीत को अभिजातता का महावस्त्र परिधान कराया था और नाट्य संगीत का वह मानदंड बन गया था। उसे भी अपनी प्रतिभा से चुनौती देते हुए मा. दीनानाथ और केशवराव भोसले ने इस रंगभूमि को आलोकित कर दिया था। दंतकथाओं से भारित उस काल के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में व्याप्त इन नाटकों ने कला जीवन समृद्ध किया था। जयमाला ने यह समृद्धि और बढ़ाई। अपने कला गुण और स्वराभिनय के अलंकारों से उसे मंडित किया। नाट्य संगीत के साथ साथ अभिजात संगीत के क्षेत्र में यात्रा जारी रखते हुआ अपना कंठ सुरीला बनाए रखा। ‘मराठी रंगभूमि’ संस्था के माध्यम से संगीत नाटकों को जीवनदान देते हुए इन शिलेदारों ने फिल्म, टेलीविजन, और बाद में आए विविध मोहजालों से बचते हुए संगीत नाटक का प्रवाह अनवरत बहते रखा। कीर्ति शिलेदार का योगदान भी बड़ा है। नए नाटकों की निर्मिति करते रहते हुए परंपरा से चलते आए नाटकों में नया रंग भरने के लिए यह परिवार सदैव कार्यरत रहा है। पुरस्कार और सम्मान प्रापत होने हेतु माध्यमों का मोहजाल नहीं था ऐसे समय में जयमाला ने कठिनाई से भरी यह राह चुनी। लेकिन इन वेदनाओं का तथा परिश्रमों का कभी जिक्र भी नहीं किया। संगीत नाटक को उन्होंने अपने जीवन लक्ष्य बनाया था और उस मार्ग में आने वाली बाधाओं में ही आनंद खोजने का मानस उन्होंने बनाया था। आनेवाली पीढ़ी में भी यह भाव उन्होंने जगाया। कलाकार के चेहरे से जब रंग उतर जाता है तब यथार्थ आगे आ जाता है। उसका सामना करने का साहस जयमाला ने अभिनय और संगीत से ही प्राप्त किया। अपने स्वीकृत कार्य को अंतिम सांस तक करने का भाग्य उन्हें मिला।