जाति इंसानियत, धर्म प्रेम

भारतमाता है दुखयारी, दुखयारे हैं सब नर नारी
तू ही उठा ले सुंदर मुरली, तू ही बन जा श्याम मुरारी
तू जागे तो दुनिया जागे, जाग उठे सब प्रेम पुजारी
जाग उठे सब प्रेम पुजारी, गायें तेरे गीत,
बसा ले अपने मन में प्रीत।

इस कविता के रचयिता कौन हैं यह बताने के पहले इसकी प्रासंगिकता पर गौर करते हैं। ये पंक्तियां ‘प्रीत का गीत’ कविता की कुछ महत्वपूर्ण पंक्तियों में से हैं जिन्हें कवि ने स्वतंत्रता से पूर्व लिखा था परंतु अगर हम गौर करें तो आज भी हमारी भारतमाता के हालातों में कुछ बदलाव नहीं आया है।

उस समय कवि ने भविष्य का स्वप्न देखकर ये पंक्तियां नहीं लिखी थीं। परंतु पंक्तियों का प्रत्येक शब्द आज की परिस्थिति पर सटीक बैठता है। हमारी भारतमाता की स्थिति अत्यंत दयनीय है। भ्रष्टाचार और स्वार्थ जैसे दुर्गुणों के कारण इस माता के पुत्रों ने कई अक्षम्य अपराध किये हैं। भारत माता तो दुखी है ही साथ ही वे लोग भी दुखी हैं जिन्होंने उससे सच्चा प्यार किया और जो उसके मूल्यों का र्‍हास होते हुए नहीं देख सकते। इस माता का तारणहार कौन है?

कवि कहते हैं ‘वे कृष्ण ही हैं। भारतमाता के तारणहार।’ कवि कृष्ण से कहते हैं ‘अब तुम ही हाथ में मुरली लो और उसे बजाओ। अगर तुम जागृत हो गये तो यह विश्व भी जाग जायेगा। द्वेष भूलकर प्रेम के पुजारी कार्यान्वित हो जायेंगे। वे भारतमाता के पुत्रों में प्रेम जगाएंगे। हे कृष्ण! वे तुम्हारे, तुम्हारे द्वारा सिखाये गये प्रेम और देश प्रेम के, सद्विवेक और प्रशंसा के गीत गाने लगेंगे। इसलिये उठाओ तुम्हारी मुरली और उसे बजाओ। कवि ने ऐसे व्यक्ति की कल्पना की है जो देश को गर्त से बाहर निकालकर इतिहासकालीन प्रतिष्ठा दिलवाने और हर क्षेत्र में पटरी से उतरी गाडी को फिर से पटरी पर लाने के लिये कटिबद्ध हैं। कवी ने इसी आशास्थान को कृष्ण कहा है।

अब फिर एक बार कविता की ओर आते हैं और बाद में कवि की ओर। यहां मुरली संगीत का प्रतीक है। कवि को लगता है संगीत के कारण प्रेम जागृत होगा। इस विचार का भी एक आधार है। कृष्ण की मुरली पर केवल गोप गोपियां ही नहीं वन्य प्राणि भी मोहित हो जाते थे। संगीत (भारतीय शास्त्रीय-उपशास्त्रीय संगीत, आज का शोर शराबा नहीं) शांति प्रधान होता है। उसके द्वारा निकले सुर मन को शांति प्रदान कर सकारात्मक भाव जागृत करते हैं। मन संवेदनाओं से भर जाता है। उसमें केवल प्रेम रूपी शाश्वतभाव ही प्रफुल्लित रहता है।
सरोवर शांत रहता है इसलिये उसमें कमल खिल सकते हैं। बहते हुए अस्थिर पानी में कुछ नहीं ठहरता। अत: इस कविता में कवि ने ‘मुरली बजाने’ का आग्रह करते हुए परिवर्तन लाने की याचना की है।

‘प्रीत का गीत’ शीर्षक की यह कविता उर्दू कवि ‘हफीज़ जालंधरी’ की है। पहले अंतरे में वे कहते हैं-

मन मंदिर में प्रीत बसा ले, ओ मूरख ओ भोले-भाले
दिल की दुनिया कर ले रौशन, अपने घर में ज्योत जगा ले
प्रीत है तेरी रीत पुरानी, भूल गया ओ भारत वाले?
भूल गया ओ भारतवाले?

यहां प्रीत का अर्थ व्यापक है। केवल मानव की मानव से प्रीत तक सीमित नहीं है। इसमें प्रकृति प्रेम, ईश्वर प्रेम इत्यादि सबकुछ समाविष्ट है।

अब बात करते हैं हफीज़ जालंधरी की। उनका जन्म 14 जनवरी 1900 में जालंधर (पंजाब-भारत) में हुआ उस समय पाकिस्तान का अस्तित्व ही नहीं था। हफीज़ जालंधरी उनकी देशभक्तिपूर्ण कविताओं के लिये प्रसिद्ध थे। उर्दू ‘काव्य’ में गीत को उन्होंने ही शामिल किया और आगे बढ़ाया। विभाजन के बाद जब हफीज पाकिस्तान चले गये। देश के प्रति भी उनकी अपार निष्ठा को देखकर पाकिस्तान का राष्ट्रगीत लिखने का सम्मान उन्हें ही दिया गया। इस बात से कवि की योग्यता भी सिद्ध हो जाती है।

हफीज़ जालंधरी की पहचान जिस कविता से बनी उसका शीर्षक है ‘अभी तो मैं जवान हूं।’ एक अंतरे मेें कवी धर्मोपदेशक से कहता है-
इबादतों जिक्र है, निजात की भी फिक्र है

जुनून है सवाब का, खयाल है अजाब का
मगर सुनो तो शैख जी, अजीब शै हैं आप भी
भला शबाबो- आशिकी, अलग हुए भी हैं कभी?
हसीन जल्वारेज हों, अदाएं फितनाखेज हों
हवाएं इत्रबेज हों, तो शौक क्यों न तेज हों
अभी तो में जवान हूं।

अरे शैख जी, आप मुझे आराधना (इबादत) करने के लिये कह रहे हैं। मुझसे पूछ रहे हैं कि क्या मुझे इस जीवन से मुक्ति चाहिये? उसके लिये तो पुण्य कमाना होगा। यह याद रखना होगा कि पापों की सजा मिलती है। शैख जी यह सब सही हैं परंतु आप ही बताइये कि जवानी और प्यार कभी अलग हुए हैं भला? अगर हम नवयौवनाओं को देख रहे हैं, उनके हावभाव हमें आकर्षित कर रहे हैं, उनके आसपास होने से हवा में इत्र घुलने जैसा एहसास हो रहा हो तो क्या हमारे मन की प्रेम भावना तीव्र नहीं होगी? क्योंकि शैख जी अभी तो मैं जवान हूं

बहुत सारे अंतरों की यह कविता बहुत लोकप्रिय हुई। सन 1952 में ‘अफसाना’ नामक हिंदी फिल्म में एक गीत था। उसकी पहली पंक्ति भी ‘अभी तो मैं जवान हूं’ यही थी। यह गीत लता मंगेशकर ने गाया था। काफी लोकप्रिय भी हुआ था। हालांकि यह हफीज़ जालंधरी की कविता नहीं थी। इस पंक्ति को आगे बढ़ाते हुए गूफी हरियाणवी ने अलग कविता लिखी थी। रेडियो सिलोन पर रविवार को एक कार्यक्रम लगता था ‘हमेशा जवां गीतों का प्रोग्राम’। उसकी ‘सिग्नेचर ट्यून’ के रूप में यह गीत सुनाई देता था। देखिये! कितनी मशहूर हुई थी यह कविता। आप यूट्यूब पर बीबीसी के एक कार्यक्रम में हफीज जालंधरी को यह कविता कहते सुन सकते हैं।

उनकी एक और कविता का अंतरा कुछ इस प्रकार है-
अपने वतन के दिन-रात न्यारे, वो चांद सूरज नूरी गुबारे
वो नदियां हैं अमृत के धारे, दुनिया से ऊंचे परबत हमारे
बाग और आकाश, फूल और तारे ,सब मुन्तजिर हैं मेरे तुम्हारे
अपने वतन में सब कुछ हैं प्यारे

यह कविता लगभग पूरी ही हिंदी है। सन 1938 में (विभाजन पूर्व) इसे लिखा गया था।
कुछ अन्य प्रसिद्ध शेर देखिये-

जिसने इस दौर के इन्सान किये हैं पैदा
वही मेरा खुदा हो मुझे मंजूर नहीं।

शाब्दिक अर्थ यह है कि जिस ईश्वर ने आज के लोगों को जन्म दिया है उसी ने मुझे भी जन्म दिया है, यह मैं नहीं मान सकता। कवि यह कहना चाहता है कि इस कलियुग के लोग कैसे हैं? स्वार्थी, अख्खड, जो प्रेम जैसी कोमल भावनाओं को भी भूल चुके हैं। मैं इन सभी से बहुत अलग हूं। मुझे एक कवि हृदय प्राप्त हुआ है। मेरे और इनके पिता एक हो ही नहीं सकते। कवि कविता के माध्यम से आज की मूल्य हीन व्यवस्था की ओर निर्देश करना चाहते हैं।

इसी अर्थ का एक और शेर देखिये-
वफा का लाजमी था इक नतीजा
सजा अपने किये की पा रहा हूं मैं…

मेरी सच्चाई का, वचन पूर्ति का यही परिणाम निकलना था। मैं अपने ही किये की सजा भुगत रहा हूं।
कवि की सच्चाई, ईमानदारी इस शेर से भी जाहिर होती है कि-

चांहू तो अब भी जानिबे-मंजिल पलट चलूं
गुमराह इसलिये हूं कि रहबर खफा न हो।

कवि यह जानता है कि उसका मार्गदर्शक ही उसे गलत राह पर ले जा रहा है। वह कहता है कि मैं इसी पल अपने उद्देश्य की ओर मुड सकता हूं। परंतु कैसे मुडूं? कहीं मेरे ऐसा करने से मेरा मार्गदर्शक मुझसे नाराज न हो जाये।
कवि जानबूझकर अपने जीवन को जैसे का तैसा स्वीकार कर रहा है वह कहता है-

मेरे डूबने का बाइस तो पूछो
किनारे से टकरा गया था सफीना…

कोई मुझे ये पूछे कि मेरे डूबने का क्या कारण है? इसमें बेचारे बादल या गहरे पानी का कोई दोष नहीं है। मेरी नाव ही किनारे से टकरा गई थी। (अर्थात अत्यंत सुरक्षित स्थान पर ही घात हुआ है) अगले शेर में कवि कहता है ‘हे उपदेश देनेवाले! तुम मुझे कितना उपदेश दोगे? मुझे मेरा अंत मालूम है। यही ना कि मैं मर जाऊंगा।

मुझे याद है अपना अंजाम नासह
मैं इक रोज मर जाऊंगा, बस यही ना?

नीचे लिखे इस एक शेर पर भी एक हिंदी गीत तैयार हुआ है-

दो रोज में शबाब का आलम गुजर गया।
बरबाद करने आया था बरबाद कर गया..
गीत को मुकेश ने गाया था।
दो रोज में वो प्यार का आलम गुजर गया
बरबाद करने आया था, बरबाद कर गया…
एक अंतिम शेर देखते हैं- हफीज़ लिखते हैं कि
काबे को जा रहा हूं निगह सू-ए-दैर है
हिर-फिर के देखता हूं, कोई देखता न हो।

मैं मस्जिद की ओर जा रहा हूं परंतु मेरी दृष्टि मंदिर की ओर है। अत: मैं सावधानी से इधर उधर देख रहा हूं। कि कहीं कोई मुझे देख तो नहीं रहा।

कवि के लिये मस्जिद भी पूजनीय है और मंदिर भी। इसमें कोई आशंका नहीं कि उसका मन दोनों ओर खिंचता है। परंतु कर्मठ धर्मपुजारियों को यह मंजूर नहीं होगा। अत: कवि डरा हुआ है।

कवि ने एक सत्य खुद ही बता दिया है कि दो सौ-ढ़ाई सौ वर्षों पूर्व उनके पूर्वज चौहान-राजपूत थे। परंतु उन्हें मुसलमान बनना पड़ा। उनकी सारी धन संपत्ति लुट गई। परंतु मुसलमान होने के बाद भी मन में सदैव यह अभिमान रहा कि हम सूर्यवंशी हैं। 21 दिसम्बर सन 1982 में हफीज़ जालंधरी शांति का संदेश देते हुए और यह कहते हुए पैगंबरवासी हो गये-

‘हफीज’ अपनी बोली मुहब्बत की बोली
न उर्दू, न हिंदी, न हिन्दोस्तानी…।

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