विहिप का आधी सदी का कार्य

हिंदुत्व इस देश का प्राणतत्व है। देश की परंपराओं का जतन करने वाले, देश की अस्मिता के प्रतीक मठ-मंदिरों तथा धर्मस्थान को पूजनीय मानने वाले ही हिंदू कहलाने के अधिकारी हैं। धर्मस्थल मुक्ति आंदोलन के समर्थक हिंदू कहे जा सकते हैं। उसका विरोध करने वाले अन्य सभी हिंदुत्व की राष्ट्रीय परिभाषा में नहीं आते। वे सभी रंग बदलते गिरगिट हैं।

एक अग्रणी वैश्विक संगठन- विश्व हिंदू परिषद- इस वर्ष अपनी स्वर्ण जयंती मना रहा है। वह विश्व की सबसे बड़ी विधायक शक्ति के रूप में कार्यरत है। दुनिया भर में वह हिंदू हित में कार्य करने वाली सर्व स्वीकृत संस्था के रूप में अपना स्थान ग्रहण कर चुका है। विश्व में जहां जहां भी हिंदू हैं, वहां वहां विश्व हिंदू परिषद ने अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराई है। उलेखनीय है कि मात्र धार्मिक क्षेत्र ही नहीं; बल्कि सामाजिक, राजनैतिक, शैक्षणिक एवं आर्थिक क्षेत्र के बारे में भी विश्व हिंदू परिषद का अभिप्राय जानने के लिए सभी उत्सुक रहते हैं।

50 साल की यात्रा पूर्ण करना यह कोई साधारण कार्य नहीं है, समय की गतिशील धारा में अपने आपको क्रियाशील रखना, अपने ध्येय को, उद्देश्य को जरा भी ओझल न करते हुए आगे बढ़ना यह गौरवपूर्ण बात है। आज दुनिया में विश्व स्तरीय केवल दो ही ऐसे संगठन हैं , जिन्होंने इतना लम्बा प्रवास किया है। केवल इतना दीर्घ प्रवास ही नहीं किया अपितु एक सशक्त सामर्थ्य से वे आज गति से आगे बढ़ रहे हैं। इन संगठनों में से एक है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और दूसरा विश्व हिंदू परिषद (विहिप)। संगठन के लिए विचार आवश्यक होता है। इन ध्येय विचारों से व्यक्ति प्रेरित होते हैं और वे संगठन का रूप धारण कर लेते हैं।

विहिप की स्थापना के पीछे ऐसी कौन सी धारणा थी, परिस्थितियां थीं कि उसे संगठन का रूप धारण करना पड़ा, इसका लेखाजोखा करने की आवश्यकता है। देश स्वतंत्र होकर 17 साल हुए थे। देश का स्वतंत्र संविधान हमने बनाया था, उसे भी लगभग उतने ही साल होने जा रहे थे। फिर भी, देश की परिस्थितियां वैसी ही थीं। यही नहीं,उल्टे और बिगड़ती जा रही थीं। आज़ादी के बावजूद परिस्थितियों में कोई खास परिवर्तन दिखाई नहीं दे रहा था। देश के लाखों लोगों ने आज़ादी हेतु अपना पूरा जीवन दिया था। घर परिवार दांव पर लगाया था। दर दर की ठोकरें खाई थीं। जीवन का अधिकतर हिस्सा जेल की कोठरियों में गुजरा था। अपने नेतृत्व पर विश्वास दिखा कर आज़ादी की जंग लड़ी थी। आखिर हमने इस लम्बी जंग में क्या हासिल किया? अंग्रेज अपनी कूट नीति में सफल रहे। हमें खंडित कर हमारा ही एक हिस्सा हमारे पुराने शत्रु के हाथ सौप दिया। यही नहीं, हमें कई हिस्सों में खंडित कर दिया- न धर्म बचा, न राष्ट्र अखंड रहा।

हिंदुस्तान का हर जन मानस आज वही विभाजन पूर्व यातना भोग रहा है। उसके धर्म की, इतिहास की, परम्पराओं की हानि विभाजन पूर्व जितनी नहीं हुई, उससे अधिक आज हुई है। भारत को हिंदू राष्ट्र न बना कर हिंदू विरोधी सेक्युलर राज्य घोषित कर दिया। अल्पसंख्यकों को अनेक सुविधाएं दीं। यहां तक कि संविधान के अनुच्छेद 25. 30 के अंतर्गत मुसलमानों और ईसाइयों को भाषा और आबादी के आधार पर अल्पसंख्यक मान कर अनेक विशेषाधिकार दिए। एक तरफ़ हिंदुओं को सांप्रदायिक होने की गाली देना और दूसरी तरफ़ उन्हें ही दोषी बताने की घृणित मानसिकता से वोट बैंक की राजनीति चल पड़ी है। हज़ारों ईसाई मिशनरियों को ब्रिटिश शासन के साथ भारत छोड़ कर जाना था। उनकी पूरी तैयारी भी थी, पर हमारे नेताओं ने उन्हें अपने दामाद की तरह अपनी छत्रछाया में रखा। देश के पूर्वांचल का हिस्सा पंडित नेहरू ने मिशनरियों को दहेज़ में दे दिया। उनके उस मुक्त संचार से आज वहां का कोई भी व्यक्ति अपने आपको हिंदुस्थानी कहने में गर्व महसूस नहीं करता।

जनसंख्या का चमत्कार क्या होता है, इसे हम यहां देख चुके हैं। भारत में विहिप की स्थापना नहीं होती तो देश अलग मोड़ पर जाता और हमारे नेता भी उसे रोक नहीं सकते थे। उसका एक उदाहरण हम देख सकते हैं। 1964 की ही बात है। मद्रास के कैथलिक लीडर के साप्ताहिक अंक में एक पादरी महाशय ने लिखा कि 20 लाख व्यक्तियों की सेना लेकर हमने यूरोप में विश्व युद्ध जीता है। हमें भारत से क्यों डरना चाहिए? ईसाई राज्य बनाना हमारा कर्तव्य है। उसी साल नवंबर के एक धर्मीय युकोरिष्ठ परिषद का आयोजन मुंबई में होने वाला था। उस परिषद हेतु कैथोलिक धर्म गुरु पोप को आमंत्रित किया गया था। उनके साथ 25000 विदेशी कैथोलिक आने वाले थे और सम्पूर्ण भारत से 5 लाख की संख्या में ख्रिचन धर्म अनुयायी उपस्थित रहने वाले थे। पोप महाशय की उपस्थिति में ही भारत के हज़ारों दलित आदिवासी हिंदू बंधुओं का धर्मांतरण होना तय था। पर जागृत हिंदू महासभा और रा.स्व.संघे के कार्यकर्ताओं के कारण वह परिषद सफल नहीं हो पाई।
कैसी विडम्बना है कि कश्मीर पाकिस्तान को दे दो ऐसा कहने वाले कांग्रेसी देश भक्त होते हैं। पोप के सामने घुटने टेक कर नाक रगड़ने वाले यह लेनिन पुत्र देश भक्त जाने जाते हैें। पर पोप को हिन्दुस्थान में धर्मांतरण नहीं करवाना चाहिए, उसके धर्म प्रचारकों पर रोक लगाओ ये मांग करने वाले हिंदू महासभा ,संघ देश भक्त नहीं हैं। देश की एकता के लिए हिंदू नेताओं ने अपना हिन्दुपन त्याग दिया, हिंदी बनना स्वीकार किया परंतु अन्य धर्मावलंबियों ने द्विराष्ट्रवाद की रट कभी नहीं छोड़ी। वे उसे बार बार दोहराते रहे और अपने लिए एक मुस्लिम राष्ट्र हासिल करके रहे। आज देश का शरीर है, लेकिन उसका प्राणतत्व हिंदुत्व कहां है? देश की परंपरा का जतन करने वाले देश की अस्मिता के प्रतीक मठ-मंदिरों तथा धर्मस्थान को पूजनीय मानने वाले ही हिंदू कहलाने के अधिकारी हैं। धर्मस्थल मुक्ति आंदोलन के समर्थक हिंदू कहे जा सकते हैं। उसका विरोध करने वाले अन्य सभी हिंदुत्व की राष्ट्रीय परिभाषा में नहीं आते। वे सभी रंग बदलते गिरगिट हैं, जो अपने स्वार्थ की खातिर समय समय पर अपना रंग बदलते रहते हैं। इन बहुरुपियों को देश की जनता को पहचानना चाहिए।

हमें प्रांत, भाषा, पंथ, जाति , ऊंच, नीच, स्थान व क्षेत्र के सभी भेदभाव को दूर कर समरस, बलशाली एवं सुदृढ़ समाज का निर्माण करना होगा। ऐसा समाज स्वयं के विकास के साथ साथ विश्व कल्याण और विश्व शांति में कभी रूकावट नहीं बनेगा। परंतु, ऐसा करने के लिए मुख्य आधार हिंदुत्व और उसका संगठन ही हो सकता है। यह गत इतिहास का अनुभव पूज्यनीय श्री गुरुजी को पूर्ण रूप से पता था। हिंदुत्व का मतलब सहनशीलता है, कायरता नहीं। इसी सिद्धांत और साधना के बल पर उन्होंने विहिप की स्थापना की।

परित्राणाय् साधुनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे। इसका अर्थ है कि धर्म और समाज जब जब खतरे में आएगा, उसकी अवनति होगी ,उसे ग्लानि आएगी, शत्रु उसका सर्वनाश करने का विचार करेगा तब तब मैं उसे बचाने हेतु इस धरती पर अवतरित होऊंगा।

भगवान ने उनके वचन का समय समय पर पालन भी किया है। कई रूपों में वे हमारे बीच प्रकट हुए। अपनी शक्ति का स्वरुप हम सब को दिखाया और धर्म की, समाज की, सत्य की रक्षा की। उनका आना कभी व्यक्ति के रूप में रहा, कभी शक्ति के रूप में रहा तो कभी संस्था के रूप में प्रकट हुए। पुराणों में ऐसी कथा है कि संकट समय देवताओं ने ब्रह्मा जी के परामर्श अनुसार देवी को आह्वान किया, तब सभी देवताओं के अंश को समाहित करते हुए मां दुर्गा का प्राकट्य हुआ।

आज़ादी के लगभग 17 साल की देश की परिस्थितयों ने राष्ट्र की संत शक्ति को विहिप के प्रार्दुभाव हेतु विवश कर दिया। विश्व गुरु और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में देश को महान बनाने के लिए एवं हिंदू समाज को उसका खोया हुआ गौरव लौटाने के लिए, 19 अगस्त 1964 को श्री कृष्ण जन्माष्टमी के दिन विहिप का जन्म मुंबई के पवई सांदीपनी साधनालय में हुआ।

उस अधिवेशन में पूजनीय स्वामी चिन्मयानंद जी, पूजनीय राष्ट्रसंत श्री तुकड़ोजी महाराज, अकाली दल के माननीय श्री तारा सिंहजी , जैन मुनि श्री सुशील कुमारजी, माननीय कन्हैयालाल मुंशी, माननीय हनुमान प्रसादजी पोद्दार ( गीता प्रेस वाले), पूजनीय श्री गुरुजी, माननीय दादासाहेब आपटे आदि परिषद के मान्यवर संस्थापक सदस्य हैं। उस स्थापना अधिवेशन में पू. श्री गुरुजी ने मार्गदर्शन पर कहा- हमारा कार्य, हमारा प्रेम तथा हमारे धर्म के प्रति आस्था किसी अंश में प्रतिक्रियात्मक नहीं होनी चाहिए। हमारे कार्य की दृष्टि सकारात्मक होनी चाहिए; न कि नकारात्मक अथवा प्रतिक्रियात्मक। अपनी संस्कृति, धर्म और राष्ट्र के प्रति हमारा प्रेम सकारात्मक हो, समाज को इसी कर्तव्य का बोध कराने तथा परम सुख को प्राप्त करने के मिशन की पूर्ति के लिए ही विश्व हिंदू परिषद का जन्म हुआ है।

मैं यह बताना चाहता हूं कि विहिप की स्थापना के समय एक और महत्वपूर्ण घटना घटी थी। उस घटना के कारण संगठन के कार्य को गति प्रेरणा और प्रोत्साहन मिला। मध्य प्रदेश शासन ने उसी दरम्यान 1957 नियोगी कमीशन की रिपोर्ट को प्रसारित किया, जिसकी वजह से देश में ईसाई मिशनरियों की काली करतूतों का भंड़ाफोड़ हुआ। विदेशी डॉलर की सहायता से देश भर में दलित एवं आदिवासी बंधुओं का धर्मांतरण का जो गोरखधंधा चल रहा था उसका वास्तविक चेहरा समाज के सामने आया। इस पर मा. दादासाहेब आपटे और श्री गुरुजी ने सोचा कि हिंदुओं का एक अंतरराष्ट्रीय संगठन निर्माण होना आवश्यक है। मा. दादा साहेब आपटे ने ‘केसरी’ में अपने विचार प्रकट किए। वे व्यथित होकर लिखते हैं कि हिंदू समाज के राष्ट्र पुरुष राम और कृष्ण अब रहे नहीं। तत्वचिंतक व धर्म मार्गदर्शक सामाजिक आदर्श लुप्त हुए। स्वतंत्रता का अर्थ ही बदल गया है। व्यक्ति अपने आदर्श छोड़ कर पशुता का व्यवहार कर रहा है। ऐसे समाज और हिंदुत्व की रक्षा करना यह समय की मांग है। हिंदुत्व पर होने वाले पराये संस्कार का निर्मूलन कर के उसके अस्तित्व की रक्षा होनी चाहिए। स्वतंत्र भारत के संविधान ने हिन्दुओं की परम्पराओं पर, छुआछूत निवारक मानवतावादी प्रयत्नों पर एक प्रश्नचिह्न खड़ा किया है। दादा साहेब के इय विचार मंथन ने आगे जाकर विहिप संगठन का स्वरूप ले लिया। देश विदेश की संत शक्ति बड़ी संख्या में अपना मान-अपमान छोड़ कर, अपना अस्तित्व भुलाकर समान मंच पर भगवे ध्वज के नीचे एकत्रित हुए।

सम्पूर्ण सृष्टि एक परिवार है और मैं उसका एक अभिन्न अंग हूं इन्ही भावनाओं के साथ जीवन जीना वही हिंदुत्व के सामूहिक सामाजिक संस्कार हैं। इतिहास इस बात का साक्षी है कि हिंदुस्थान ने कभी किसी जाति, देश-प्रदेश पर आक्रमण नहीं किया अथवा साम, दाम, दंड, भेद से अपने हिंदू धर्म का लेशमात्र भी प्रचार-प्रसार नहीं किया। राष्ट्र शक्ति या समाज शक्ति का उपयोग दूसरों के कल्याण के लिए करने की भावना यही हिंदुस्थान की परंपरा है और जीवन पद्धति भी।

आज विहिप की सर्व समावेशक सर्व कल्याणप्रद छवि पर अनेक किंतु-परंतु लगाये जाते रहे हैं, परंतु वह अपने मूल उद्देश्यों पर चलती रही है। विदेश में विहिप का भारत से गए हिन्दुओं के साथ ही स्थानीय गैर हिंदू मतावलम्बियों तथा संबंधित देशों की सरकारों की भी उनके नेतृत्वकारी सेवा भावी तथा प्रखर विचारों के कारण प्रशंसा मिल रही है। भारत में स्थिति थोड़ी भिन्न है। अपनी गर्भनाल से उपजे दिग्भ्रमित केवल नाम से हिंदू विधर्मियों तथा वैश्विक कुशक्तियों का मकड़जाल विहिप का कार्य समाज के सामने नहीं आने दे रहे हैं। परंतु यदि प्रचार को मापदण्ड न बनाया जाए तो हिंदू समाज विहिप की ओर विश्वास भरी नज़रों से देख रहा है।

विचार धारा से समझौता न करते हुए विहिप 45741 शैक्षणिक, 1063 आरोग्य, 1418 स्वावलम्बन, 142 सामाजिक तथा 757 दैवीय आपदा सेवा कार्यों द्वारा (जहां सरकार की पहुंच सीमित है) गिरि-कंदराओं में रहने वाले वनवासी समाज जरूरतमंद हिंदू समाज की सेवा अपने देवदुर्लभ कार्यकर्ताओं के माध्यम से समाज के सहयोग से कर रहा है। 58112 सेवा प्रकल्प विहिप को ईसाई मिशनरियों के बहुप्रचारित सेवा कार्यों से कोसों आगे कर देते हैं। हिन्दवा सोदरः सर्वे, न हिन्दू पतितो भवेत को आत्मसात किए हुए यह सेवा कार्य विहिप के 50 साल का मूल्यांकन का आधार हो सकता है।
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