सायबर आतंकवाद

आतंकवादियों के हाथों में ‘डिजीटल अस्त्र’ सब से सस्ता अस्त्र है। इसके लिए कोई निवेश नहीं करना पड़ता, कारखाना नहीं लगाना पड़ता, मारकाट नहीं करनी पड़ती, क्षण में प्रचंड मनोवैज्ञानिक दबाव लाया जा सकता है, यह अस्त्र कहीं से भी कहीं पर भी चलाया जा सकता है, और चलाने वाले का पता तक नहीं चलता। इसे आप ‘सूचनास्त्र’ भी कह सकते हैं; क्योंकि यह जानकारी पर हमला कर उसे तहस-नहस कर देता है।

अब युद्ध का नया तरीका है सायबर युद्ध। इस युद्ध के रणांगण की कोई सीमा नहीं होती। कंप्यूटर रखने वाला हर घर और मोबाइल जैसे साधनों का इस्तेमाल करने वाला हर शख्स इसकी चपेट में आ जाता है। इसलिए यह परमाणु बम से भी खतरनाक यह अस्त्र है। इसे आप ‘डिजीटल अस्त्र’ या ‘सायबर अस्त्र’ कह सकते हैं। अब गोलियों की बनिस्बत दुश्मन पर संख्याओं का वार कर सब कुछ तबाह किया जा सकता है। अंग्रेजी कॉमिक्स में आने वाली ये काल्पनिक कथाएं अब सत्य साबित हो रही हैं। यह अस्त्र अदृश्य होता है और आप स्वयं उसे अपने को घोंपते हैं।

इंटरनेट के जरिए भेजा गया कोई ई-मेले खोलते ही कंप्यूटर में वायसर घुस कर उसे तबाह कर देता है। इस तरह दूसरे के कंप्यूटरों और पूर नेटवर्क को ठप किया जा सकता है। जैसे घरों में सेंधमारी कर चोर माल उड़ा लेता है, वैसे ही हमलावर दूसरों के कंप्यूटरों व संजालों में घुसकर उसे तबाह कर देता है, सूचनाएं चुराता है, गलत सूचनाएं भर देता है। सरकार, प्रशासन, रक्षा, स्वास्थ्य, शिक्षा, अंतरिक्ष विज्ञान, बैंक, उद्योग, बिजली आदि जीवन के सभी क्षेत्रों में कंप्यूटर का उपयोग तेजी से बढ़ा है और यदि वह क्षण में ठप हो जाए तो किस तरह आतंक फैलेगा इसकी कल्पना ही की जा सकती है। इसीलिए अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा कहते हैं, ‘सायबर पर्ल हार्बर’ कभी भी हो सकता है। (दूसरे विश्व युद्ध में जापान ने अमेरिका के पर्ल हार्बर को तबाह कर दिया था और प्रतिशोध के रूप में अमेरिका ने जापान के हीरोशिमा व नागासाकी पर परमाणु बम डालकर युद्ध की दिशा ही बदल दी थी।)

‘सायबर आतंक’ ऐसा युद्ध है जिसमें दुश्मन दिखाई नहीं देता, वह कब और कहां से हमला करेगा यह पता नहीं चलता, हमला किसने किया है इसके सार्वजनिक सबूत पेश करना मुश्किल होता है, जवाबी हमला करना भी उतना ही मुश्किल होता है और पता नहीं होता कि सफल होगा या नहीं। ऐसे हमलों से रक्षा की कोई काट फिलहाल उपलब्ध नहीं है। इन हमलों से जबरदस्त आर्थिक व मनोवैज्ञानिक हानि होती है, जिसका अंदाजा लगाना तक मुश्किल होता है। सम्पूर्ण देश कुछ समय के लिए पंगु हो जाता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऐसे हमलों से कैसे लड़ा जाए इसके कोई पैमाने नहीं है, न ऐसी कोई अंतरराष्ट्रीय संधि अब तक हुई है।

आतंकवादियों के हाथों में यह सब से सस्ता अस्त्र है। इसके लिए कोई निवेश नहीं करना पड़ता, कारखाना नहीं लगाना पड़ता, मारकाट नहीं करनी पड़ती, क्षण में प्रचंड मनोवैज्ञानिक दबाव लाया जा सकता है, यह अस्त्र कहीं से भी कहीं पर भी चलाया जा सकता है, और चलाने वाले का पता तक नहीं चलता। इसे आप ‘सूचनास्त्र’ भी कह सकते हैं; क्योंकि यह जानकारी पर हमला कर उसे तहस-नहस कर देता है। धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक कारणों से विश्व भर में चल रहे भिन्न-भिन्न आंदोलन एवं आतंकवादी संगठन इसका इस्तेमाल धडल्ले से कर रहे हैं।

सब से पहले अमेरिका में ‘व्हाइट सुपरमैसिस्ट मूवमेंट’ने इसका इस्तेमाल किया। 1966 में उसने कंप्यूटर वायरस के जरिए मैसेच्युसेट्स आइएसपी नेटवर्क को क्षति पहुंचाई व उसके रिकार्ड को तहस-नहस कर दिया। 1998 में स्पेन के एक आंदोलनकारी ेहैकर ने इंस्टीट्यूट फॉर ग्लोबल कम्यूनिकेशन्स को ठप कर दिया। इसी वर्ष लिट्टे ने श्रीलंका के दूतावासों के संजाल को निशाना बनाया। दो हफ्तों तक इन दूतावासों को रोज 800 ई-मेल मिला करते थे। इतना बोझ असहनीय होने से कंप्यूटर ठप हो गए। लिट्टे के लोग ‘ब्लैक टाइगर’ के नाम से यह सायबर हमला करते थे।

1999 में मेक्सिको में ‘मेक्सिकन झपाटिस्ट’ संगठन के आंदोलनकारियों ने इस ‘डिजीटल आतंक’ का इस्तेमाल किया। हजारों आंदोलनकारियों ने एक निश्चित समय पर चारों ओर से ई-मेल भेजने शुरू कर दिए और बोझ के कारण सरकारी तंत्र व संजाल उसी क्षण ठप हो गए। जापान में ‘अम शिरिंक्यो’ नामक उग्रवादी संगठन से जुड़े लोगों की कई साफ्टवेयर कम्पनियां थीं। इन कम्पनियों के साफ्टवेयरों का धडल्ले से इस्तेमाल होता था। जापानी गुप्तचर एजेंसियों को बाद में पता चला कि तोक्यो रेल्वे सुरंग में विस्फोट में इन्हीं लोगों ने कराया था। इन कम्पनियों के 100 से अधिक साफ्टवेयर बाद में बदल दिए गए। इन घटनाओं की लम्बी फेहरिस्त है।

अमेरिका के मेरीलैण्ड विश्वविद्यालय की इंस्टीट्यूट फॉर इकोनॉमिक्स एण्ड पीस ने सन 2000 से आतंकवादी घटनाओं के आंकडें इकट्टे करने शुरू किए। इन आंकड़ों में सायबर आतंक की घटनाएं शामिल नहीं हैं। इंस्टीट्यूट का कहना है कि सन 2000 में 1,777 आतंकवादी हमले हुए थे, जिनकी संख्या सन 2013 में 11,952 हुई। अर्थात, पिछले 13 वर्षों में आतंकवादी घटनाएं लगभग 7 गुना बढ़ी हैं। करीब करीब यही स्थिति सायबर आतंक के बारे में भी है। पक्के आंकड़ों के अभाव में यद्यपि कुछ ठोस कह पाना संभव नहीं है, लेकिन यह तो निश्चित है कि ‘डिजीटल आतंक’ बढ़ रहा है।

इस आतंक के प्रायोजक केवल व्यक्ति या संगठन ही नहीं हैं, देश भी हैं। अमेरिकी नेतृत्व वाले नाटो देशों और रूस के नेतृत्व वाले साम्यवादी देशों के बीच भी सायबर युद्ध खेला गया है। दोनों गुटों के बीच शीत युद्ध के दौरान लड़ाई का यह भी एक अस्त्र रहा है। बाल्टिक देश एस्टोनिया और जार्जिया पर सन 2007 व 2008 में हुए सायबर हमले इसके हाल के उदाहरण हैं। ये हमले रूस ने किए थे। 2007 के वसंत में एस्टोनिया में मोबाइल फोन से लेेकर कंप्यूटर तक अचानक ठप हो जाने से सरकारी और निजी कामकाज लगभग तीन हफ्ते तक पूरी तरह रुक गया। कल्पना की जा सकती है कि पूरे एस्टोनिया में किस तरह अफरातफरी मच गई होगी। हुआ यह था कि एस्टोनिया ने दूसरे विश्व युद्ध का एक रूसी स्मारक तोड़ दिया। यह स्मारक राजधानी तालिन में स्थापित एक रूसी सैनिक का कांस्य पुतला था, जिसे रूसी विजय के रूप में वहां लगाया गया था। इस स्मारक को तोड़ने पर रूस व एस्टोनिया में संघर्ष शुरू हो गया। बहाना भले इस स्मारक का हो, लेकिन रूस का गुस्सा एस्टोनिया के सन 2004 में अमेरिका के नेतृत्व वाले नाटों देशों में शामिल होने को लेकर था। जार्जिया पर भी रूस ने इसी तरह सायबर हमला किया, लेकिन उसे जल्दी सुधार लिया गया।

ईरान और उत्तर कोरिया तो इस तरह के हमले करने के लिए बदनाम हैं ही, अमेरिका भी कोई साधु देश नहीं है। ईरान सायबर हमले का इस्तेमाल ‘जिहादी अस्त्र’ के रूप में करता रहा है। मार्च 2013 में ईरान ने अमेरिका की वित्तीय संस्थाओं को निशाना बनाया था और वित्तीय कारोबार ठप हो गया था। इसका असर विश्व के अन्य देशों में भी हुआ था। उसी वर्ष अगस्त में न्यूयार्क टाइम्स, ट्विटर, हफिंग्टन पोस्ट पर सीरिया ने सायबर हमले किए थे और संजाल ध्वस्त कर दिया था। इस ‘युद्ध’ की रणनीति अब इस्लामिक आतंकवादी गुटों के हाथ में पहुंची है। सीरिया में गृह युद्ध आरंभ होने के पूर्व से ‘इसिस’ इसका इस्तेमाल करता है। इराक में अमेरिकी हमले के दौरान इसका अमेरिका ने उपयोग किया था। कुल मिलाकर ‘सायबर आतंक’ वैश्वीक होता जा रहा है।

अमेरिका व उत्तर कोरिया के बीच हाल में सायबर युद्ध खेला गया। हम सब जानते हैं कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद कोरिया के दो टुकड़े हुए और उत्तर व दक्षिण के नाम से दो स्वतंत्र देश बने। उत्तर कोरिया साम्यवादी देश है और दक्षिण कोरिया नाटो समर्थक। दोनों एक दूसरे पर मिसाइलें दागते रहते हैं और जल सीमा में झगड़ते रहते हैं। उनकी पीठ थपथपाते रहते हैं रूस व अमेरिका। उत्तर कोरिया नाम के लिए भले साम्यवादी देश हो; लेकिन वहां किम वंश का शासन चलता है। कम्युनिज्म की तथाकथित ‘समता’ का वहां नामोनिशां नहीं है। अमेरिका व उत्तर कोरिया में हाल में हुए ‘सायबर युद्ध’ की जड़ यही है।

बहाना बनी है एक फिल्म। नाम है ‘इंटरव्यू’। यह फिल्म सोनी पिक्चर्स ने बनाई है। सोनी का कहना है कि यह कामेडी फिल्म है और इसकी कहानी काल्पनिक है। इस फिल्म में उत्तर कोरिया के वर्तमान शासक किम जोंग युंग की हत्या का दृश्य दिखाया गया है और कहानी इस केंद्र मेें ही घूमती है। सोनी कुछ भी कहें, लेकिन इस कहानी का इशारा किम की ओर ही था। किम अर्थात उत्तर कोरिया इसे कैसे सहन करता? उसने सोनी की इस फिल्म पर सायबर प्रहार कर उसे रिलीज होने से रुकवा दिया। सोनी स्टूडियो की दो तिहाई कंप्यूटर प्रणाली और सर्वर तबाह हो गए। यह अमेरिका पर सब से बड़ा ‘सायबर हमला’ है। जाहिर है फिल्म उस दिन कहीं दिखाई नहीं जा सकी।
अमेरिका ने पहली बार सार्वजनिक रूप से उत्तर कोरिया को इसका जिम्मेदार ठहराया और उत्तर कोरिया को चेतावनी जारी कर दी। ‘इंटरव्यू’ ठप हो जाने के कुछ ही दिनों में उत्तर कोरिया का सायबर संजाल ठप हो गया। सार्वजनिक व निजी सारे व्यवहार ठप हो गए। इस तरह दोनों देशों के बीच ‘डिजीटल युद्ध’ का एक दौर हो चुका है। अब शाब्दिक युद्ध चल रहा है। उत्तर कोरिया ने इस फिल्म के रिलीज होने देने के लिए ओबामा को जिम्मेदार ठहराया तथा गालीगलौज़ की भाषा पर उतर आया और ओबामा को ‘बंदर’ तक कह दिया। व्हाइट हाऊस ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।

‘डिजीटल हमले’ की बात कोई स्वीकार नहीं करता। इसका पता लगाना भी मुश्किल काम होता है। जाहिर है कि उत्तर कोरिया व अमेरिका ने इस तरह के किसी हमले से इनकार किया है। यही नहीं, एस्टोनिया-जार्जिया मामले में भी रूस ने ऐसा ही इनकार किया था। ईरान जिस तरह परमाणु हथियारों की बात से इनकार करता रहा है, वैसे सायबर हमलों की भी बात से इनकार करता है। इस्लामिक ब्रदरहुड, अल-कायदा, इसिस, लिट्टे या भारत में इंडियन मुजाहिदीन जैसे आतंकवादी संगठन इसका किसी न किसी रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं और उसे स्वीकार भी करते रहे हैं। फर्क केवल यह है कि देशों के पास जिस तरह का विशाल डिजीटल ढांचा होता है, वैसा इन संगठनों के पास न होने से उनके सायबर हमलों की व्याप्ति दिखाई नहीं देती। लेकिन उनके दूरगामी परिणाम होते हैं।

इन हमलों के बारे में (संदर्भः ईरान व उत्तर कोरिया) न्यूयार्क टाइम्स ने जो कहा है वह आंखों में अंजन डालने वाला है। पत्र कहता है- “The apeal of digital weapons is similar to that of neclear capability. It is a way for an outgunned, outfinanced nation to even pursuing cyber weapons the same way they are pursuing neclear weapons.”
तात्पर्य यह कि परमाणु हथियारों पर खर्च करने की अपेक्षा इस सर्वाधिक सस्ते ‘डिजीटल अस्त्र’ पर देशों का ध्यान जाएगा। आईटी वैज्ञानिक तो यहां तक कहते हैं कि ‘मानवजाति का विनाश करने वाली’ सब से बड़ी 10 घटनाओं में ‘डिजीटल युद्ध’ एक घटना होगी।

विश्व के देश इस बात से अब चिंतित हैं और अपनी-अपनी सायबर सुरक्षा के लिए कदम उठा रहे हैं। अमेरिकी रक्षा मंत्रालय मेें सायबर फौज का एक स्वतंत्र विभाग है। कहते हैं कि इस विभाग ने जवाबी कार्रवाई के अलावा ‘डिजीटल हथियारों का जखीरा’ भी खड़ा किया है। चीनी फौज ने मई 2011 में 30 आईटी विशेषज्ञों का दल गठित किया है। इसे ‘सायबर ब्लू टीम’ अर्थात ‘ब्लू आर्मी’ कहा जाता है। भारत समेत अन्य देशों में भी इस तरह के कदम उठाए जा रहे हैं। सेंटर फॉर स्ट्रेटजिक एण्ड इंटरनेशनल स्टडीज के सायबर विशेषज्ञ जेम्स लुइस की टिप्पणी बहुत कुछ कह जाती है- “Until now, we’ve been pretty at ad hoc in figuring out what’s an annoyance and what’s an attack….. If there is a lession from this (reffering Sony Pictures attack), it’s that we’re overdue (for a national discussion about how to respond to cyber attacks & how to use the US arsenal of digital weaponry)”
तात्पर्य यह कि सायबर हैकिंग को महज सामान्य सायबर सेंधमारी न समझें। इस गुंडागर्दी की व्याप्ति आतंक और छद्म युद्ध तक है और इसके भीषण परिणाम हो सकते हैं।

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