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माता अर्थात् राष्ट्रनिर्माता

माता अर्थात् राष्ट्रनिर्माता

by प्रमिला मेंढे
in मार्च २०१६, सामाजिक
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अन्य देशों में एकात्म भावना के संस्कार नहीं होने के कारण क्या हो सकता है यह रूस के उदाहरण से हम देख सकते हैं। प्रतिस्पर्धा की भावना के कारण एवं आधुनिकता की अलग कल्पना के कारण स्त्री घर से इतनी बाहर आई कि घर परिवार के बंधन टूटते गए।

संपूर्ण सृष्टि एक ही ईश्वरीय तत्त्व का प्रकटीकरण है-अतः उसका हर घटक परस्परसंबद्ध है, परस्परावलंबी है, इस इशावास्योपनिषदीय सिद्धान्त पर अटल विश्वास रखनेवाले अर्थात् एकात्म जीवनदर्शन के वर्तमानकालीन पुरोधा, शांत-स्निग्ध, संवेदनशील, समर्पण भावना से ओतप्रोत व्यक्ति अर्थात् पंडित दीनदयाल उपाध्याय।

महिला विषयक उनका चिंतन क्या होगा? बहुत सोचा-खोजा। फिर ध्यान में आया कि उन दिनों में स्वतंत्र घटक का विचार नहीं हुआ होगा परंतु उनके समग्र चिंतन में वह सूचक बिंदु मिलेगा।

एकात्मता का संस्कार

मा. दीनदयाल जी के मन में यह विचार निश्चित था कि इतने विपुल, विविध संसाधनों से संपन्न अपने देश के अनेक घटक अभावग्रस्त हैं, दुर्बल हैं अतः एकात्मता की अनुभूति में कुछ कमी है। इस वेदना के साथ उन्होंने अपने जीवितकार्य के बारे में सोचा, तब ध्यान में आया और ’नए क्षितिज की ओर’ में प्रकट किया कि जब तक हम इन ग्रामाचंलों, वनांचलों में वास करने वाले लोगों को, विशेष रूप से महिलाओं को, बच्चों को अपने जीवनदर्शन का ज्ञान नहीं देंगे तब तक परिस्थिति में सुधार नहीं होगा। उनके महिला विषयक चिंतन का प्रमुख बिंदु उभर कर आया कि समाज में अपने जीवनदर्शन के अनुसार एकात्मता का संस्कार लाना है तो महिलाओं को भी माध्यम बनाना चाहिए।

भारत की रीढ- गृहस्थाश्रम

भारत का सिद्धांत एवं व्यवहार है ‘वसुधैव कुटुंबकम्’। इसी को पुष्ट करने वाली हमारे समाज व्यवस्था की रीढ़ है गृहस्थाश्रम। हमारी परिवार व्यवस्था इसी का संस्कार देने वाली व्यवस्था है। विवाह संस्कार- अति मंगल, पवित्र, सामाजिक दायित्वबोध जगाने वाला यह संस्कार है। इसके माध्यम से स्त्री और पुरुष एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी बनकर नहीं अपितु सहयोगी बनकर भावी पीढ़ी को, अपनी संतानों को भी इस एकात्मभाव के संस्कार देने की शाश्वत प्रक्रिया अपनाएंगे। व्यक्ति, परिवार, समाज, देश, राष्ट्र, विश्व को क्रमशः संस्कारित करते रहने की यह महत्वपूर्ण कर्तव्यभावना है। यहां बालक-बालिका, स्त्री-पुरुष आदि घटकों में ऊंच-नीचता की नहीं अपितु कर्तव्यबोध की भावना जगाएंगे। दोनों में भेद करना अर्थात मानवी देह के विभिन्न अंगों में भेदाभेद करना, सृष्टि की एकात्मता को चुनौती देना साबित होगा।

माता अर्थात् राष्ट्रनिर्माता

इस पारंपारिक जीवन सिद्धांतों के साथ-साथ डॉ. राधाकृष्णन जैसे अनेक चिंतनशील ऋषिसम महानुभावों के साहित्य का चिंतन पंडितजी ने किया। गृहस्थाश्रम में स्त्री-जीवन का अत्यंत महत्व है। ममता, स्नेह, सेवा, समर्पण भाव पुष्ट करने का स्रोत है गृहिणी, माता। माता अर्थात् राष्ट्रनिर्माता। यहीं स्त्री की परम श्रेष्ठ भूमिका है। वह निभाने में सक्षम होनी चाहिए। वह पति की सहधर्मचारिणी है, गृहस्वामिनी है, किल्लेदारिनी भी है, पुरंध्री है। इस भूमिका को साकार करने की क्षमता स्त्री में आनी चाहिए। अपना व्यक्तिगत परिवार ही नहीं अपितु राष्ट्र परिवार को विविध रूपधारी शत्रुओं से बचाना है, देवत्व एवं दिव्यत्व के संस्कार समाजरूप संतानों को देना है, यही उसका जीवितकार्य है।

दोनों अंग सक्षम बनें

पुरुष जैसा स्त्री भी जीवनरथ का एक पहिया है- इतना ही नहीं वं. मौसीजी की संकल्पनानुसार वह जीवनरथ की सारथी भी है। स्त्री समाज पुरुष का अर्धांग है। अतः शरीर के दोनों अंग सक्षम रखना और सभी अंगों को स्वस्थ रखना भी उसका कर्तव्य है। शरीर के महत्वहीन लगने वाले किसी भी अंग की वेदना सारे शरीर को वेदना का अनुभव देती है। उसका कार्य बाधित करती है, वैसी ही बात स्त्री-पुरुष घटकों के बारे में है। किसी एक की क्षीण कर्तव्यभावना दूसरों को प्रभावित करती है, यही भाव व्यक्ति-व्यक्ति में निर्माण करना है।

व्यक्ति स्वतंत्रता, स्वैराचार नहीं है-

अन्य देशों में एकात्म भावना के संस्कार नहीं होने के कारण क्या हो सकता है इसे रूस के उदाहरण से हम देख सकते हैं। प्रतिस्पर्धा की भावना के कारण एवं आधुनिकता की अलग कल्पना के कारण स्त्री घर से इतनी बाहर आई कि घर परिवार के बंधन टूटते गए। परस्पर सामंजस्य समाप्त होने के कारण एक भावनात्मक रिक्तता आई और अंत में रूस के तत्कालीनल अध्यक्ष गोर्बाचौव को यह कहना पड़ा कि हमने विविध कारणों से स्त्री को इतना बाहर निकाला कि उसको अपने निसर्गदत्त दैवी दायित्व से, कर्तव्य से, मातृत्व से दूर रखा गया। उसके लिए उसको समय ही नहीं मिला। परिणामतः अनेक प्रकार के अपराध समाज में बढते गए। इन सभी घटनाओं का विचार करते हुए दीनदयाल शोध संस्थान में समाज शिल्पी योजना के अंतर्गत पति-पत्नी दोनों को एक जीवितकार्य का क्षेत्र उपलब्ध किया गया। सामाजिक एकता- एकात्मता निर्माण करने का एक प्रयोग किया गया। व्यक्ति स्वतंत्रता का अर्थ स्वैराचार नहीं। परिवार व्यवस्था किसी भी प्रकार से कमजोर न हो इसलिए रूस को प्रयत्न करने पड़े। कारण कुटुंब ही सामाजिक परंपराओं को वाहक है। इसका स्पष्ट उल्लेख दीनदयालजी के चिंतन में मिलता है। जिस लक्ष्यपूर्ति के लिए कुटुंब संस्था का शुभारंभ अपने देश में हुआ था उसी पर आधारित कौटुंबिक जीवन की पुनः प्रतिष्ठा होने पर ही युगानुकूल समाज की पुनर्रचना होगी। महिला तथा पुरुष में से किसी की महत्ता न कम है न अधिक। दोनों परस्पर पूरक हैं। यही एकात्म जीवनदर्शन की विशेषता है। परतुं इसका अर्थ यह भी नहीं है कि स्त्री का मातृभाव अपने व्यक्तिगत परिवार तक ही सीमित रहें। वह अपने मातृत्व गुणों के आधार पर समाजरूप विशाल परिवार में एकात्मभाव निर्माण करें जो प्रकट करने हेतु, स्थिर करने हेतु, भावी पीढ़ी में संक्रमित करने हेतु निरंतर प्रयत्नशील रहें। यही पंडितजी की धारणा थी उसको सफल बनाना सभी का कर्तव्य है।
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प्रमिला मेंढे

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