हिंदी विवेक
  • Login
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
हिंदी विवेक
No Result
View All Result
वैदिक विवाह परम्परा की सूत्रधार

वैदिक विवाह परम्परा की सूत्रधार

by वीरेन्द्र याज्ञिक
in मार्च २०१६, सामाजिक
3

घोषा, विश्वबारा और अपाला जैसी मंत्रकारा ऋषियों की परंपरा में सूर्या सावित्री ने 47 मंत्रों के विवाह सूक्त को लिख कर सम्पूर्ण हिंदू समाज को एक उपहार दिया है। यह विवाह सूक्त ऋग्वेद में (10.85) में संकलित हैं और गत 5100 वर्षों से आज तक हिंदू विवाह पद्धति का अभिन्न अंग बन चुका है। इसके बाद सुवर्चला नामक विदुषी ने सूर्या सावित्री द्वारा प्रदत्त विवाह संस्कार का कायाकल्प कर दिया था। विवाह संस्कार को विधिवत स्वरूप देने वाली दोनों महिलाएं ही थीं, यह उल्ल्ेखनीय है।

भारतीय जीवन पद्धति में षोडस संस्कार की शृंखला में सबसे महत्वपूर्ण संस्कार विवाह संस्कार माना गया है। यह संस्कार इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह समाज की निरंतरता तथा उसके अस्तित्व को बनाए रखने की सब से महत्वपूर्ण संस्था है। अत: भारतीय मनीषा और परंपरा ने इस विवाह संस्था को समाज के सुचारु रूप से संचालन के लिए सर्वाधिक महत्व दिया है। तथापि यह देखने में आता है कि जब-जब समाज में आर्थिक समृद्धि और प्रगति होती है, तकनीकी तथा वैज्ञानिक दृष्टि से व्यक्ति अधिक संपन्न होता है, सुविधा और संसाधनों की प्रचुरता से जीवन अधिक भोग और विलास में लिप्त होता है, तब -तब जीवन मूल्यों के प्रति दृष्टिकोण में निर्णायक बदलाव आता है। जिन आचरणों को हम सामाजिक मूल्यों के रूप में मान्यता देते हैं, जिस पर सामाजिक व्यवस्था चलती है, वे भौतिक सुख-सुविधाओं की विपुलता के कारण समाप्त होने लगते हैं और व्यक्ति तथा समाज नितांत स्वार्थी, एकाकी और स्वकेन्द्रित होने लगता है। तब सामाजिक, पारिवारिक सम्बंधों का विघटन होता है, स्त्री पुरुष सम्बंधों में गिरावट आती है और समाज में हिंसा, व्यभिचार, अनाचार की वृद्धि होती है। इसकी परिणति फिर संघर्ष और अंततोगत्वा विनाश में होती है। जिसकी झलक आज से 5000 वर्ष पूर्व महाभारत युद्ध में देखने को मिलती है।

महाभारत के समाज का यदि हम अध्ययन करें तो हमें देखने को मिलता है कि उस समय का समाज टेक्नालाजी तथा विज्ञान की दृष्टि से अत्यधिक समुन्नत था। वैभव चरम शिखर पर था तथा सुख-सुविधाओं की कोई कमी नहीं थी। किन्तु सामाजिक और मानवीय मूल्यों का तिरस्कार था। स्त्री-पुुरुष सम्बंध बेहद निम्न स्तर के थे, विवाह की कौनसी प्रथा थी, अथवा कोई नियमित सामाजिक पद्धति थी भी या नहीं इसका कोई सुनिश्चित उल्लेख नहीं मिलता है। यद्यपि ऐसे आर्थिक दृष्टि से समुन्नत समाज में भौतिक सुख- सुविधाओं का कोई अभाव नहीं था, किन्तु सम्बंधों एवं जीवनमूल्यों की दृष्टि से समाज नितांत उद्दंड एवं उच्छृंखल हो चुका था। उन विपरीत परिस्थितियों में भी महाभारत के समय सत्यवती, अंबा, गांधारी, कुंती और सबसे बढ़ कर याज्ञसेनी द्रौपदी के चरित्र समर्थ नारी के ऐसे प्रतीक बन कर हमारे सामने आते हैं, जिन्होंने तत्कालीन भारतीय समाज में नारी चरित्र के मानदंड स्थापित किए। जिन पर सपूर्ण हिन्दू समाज आज भी गर्व करता है। इन सभी क्रांतिचेता महिलाओं ने अपने प्रखर व्यक्तित्व से समाज की धारा को बदल रख दिया था।

इसी मालिका में महाभारत युद्ध से लगभग 150 वर्ष पहले एक और तेजस्वी एवं विदुषी महिला का उल्लेख आता है, जिसका संपूर्ण हिन्दू समाज को अवदान सदैव स्मरणीय रहेगा। इस महान मंत्रकारा विदुषी का नाम था सूर्या सावित्री (सत्यवान वाली सावित्री नहीं), जिन्होंने तत्कालीन समाज में व्याप्त कुरीतियों और स्त्री-पुरुष सम्बंधों की दयनीय दशा को देखकर अपने तेजस्वी व्यक्तित्व से विवाह संस्था की पुनर्प्रतिष्ठा की। इस युगानृरकारी विदुषी महिला ने स्त्री-पुरुष के दाम्पत्य जीवन को नई परिभाषा दी और इस कार्य के लिए उसने विवाह सूक्त ही रच डाला। घोषा, विश्वबारा और अपाला जैसी मंत्रकारा ऋषियों की परंपरा में सूर्या सावित्री ने 47 मंत्रों के विवाह सूक्त को लिख कर सम्पूर्ण हिंदू समाज को एक ऐसा उपहार दिया है, जिसके लिए हिंदू समाज उस महीयसी के प्रति सदैव ऋणी रहेगा। यह विवाह सूक्त ऋग्वेद में (10.85) में संकलित हैं और गत 5100 वर्षों से आज तक हिंदू विवाह पद्धति का अभिन्न अंग बन चुका है।

यदि 5000 वर्ष पूर्व की विवाह पद्धति और परंपराओं का हम अवलोकन करें तो पाएंगे की उस समय विवाह शर्तों के आधार पर होते थे। ये शर्तें कोई भी निश्चित करता था, ऐसे दाम्पत्य सम्बंधों में शर्तों का बंधन होता था। हृदय का बंधन नहीं होता था, प्रेम और अनुराग विहीन शर्तों से बंधे हुए विवाह के बदले सूर्या सावित्री ने घोषणा की कि कन्या (वधु) शर्तों को पूरा करवा कर विवाह करें, इससे अधिक श्रेष्ठ बात यह होगी कि वह अपने पति के हृदय पर आसीन होकर पतिगृह की स्वामिनी बन कर रहे। उसी भाव से उसने 47 मंत्रों के विवाह सूक्त की रचना की। उन्हीं स्वरचित मंत्रों के घोष के बीच सर्वप्रथम उसने स्वयं का विवाह किया और बाद में वही मंत्र हिंदू विवाह पद्धति के अभिन्न अंग हो गए। आज भी विवाह के समय वे ही मंत्र पढ़े जाते हैं। और उन्हीं मंत्रों से विवाह की विधि पूरी होती है। पाणिग्रहण के समय जब पिता कन्या का हाथ, वर के हाथ में देता है उस समय पति कन्या का वरण करते हुए वचन देता है-

गृहणामि ते सौभगत्वाय हस्तं मया पत्या जरतऽअष्टि: यथा अस:।
भग: अर्यमा सविता पुरंऽधि: मध्य त्वा अदु: गार्हऽपत्याय देवा॥

पति कहता है, तेरे सौभाग्य के लिए तेरा यह हाथ मैं अपने हाथ में लेता हूं। मैं तेरा पति हूं, मेरे साथ ही तू वृद्ध हो। भाग्यपति अर्यमा, सविता, पुरंधि आदि समस्त दिव्य विभूतियों ने तुझे मेरे हाथों में सौंपा है कि मैं गृहस्थ धर्म का पालन कर सकूं। इसके बाद के मंत्र और भी प्रभावी हैं, पाणिग्रहण और विवाह विधि संपन्न होने पर पिता अपनी कन्या से कहता है।

प्र इत: मुंचामि न अमुत: सुबद्धा अमुत: करम् ।
यथ इथं इन्द्र मीढ़व: सुऽपुत्रा सुऽभगा असति॥

इस स्थान से अर्थात पिता के घर से मैं तुझे मुक्त करता हूं, किन्तु उस दूसरे स्थान से तुझे कोई छुट्टी नहीं हैं। मैं तुझे पतिगृह से अच्छी तरह से आबद्ध करता हूं। हे इन्द्र, हे परमेश्वर हे मनोरथवर्षक, इस वधु को सुपुत्रवती एवं सौभाग्यवती बनाना।
ध्यान रहे कि उपयुक्त मंत्रों की रचना किसी पुरुष ने नहीं की, बल्कि एक स्त्री ने की है, जिसका उद्देश्य प्रेमपूर्व पीठिका पर पति-पत्नी सम्बंध को स्थापित करके सुखी और सुसंस्कृत परिवार का निर्माण करना था, जिससे श्रेष्ठ समाज की परंपरा निरंतर चलती रहे। आजकल के संदर्भ में, जबकि ‘लिव इन रिलेशनशिप’ और समलैंगिता पर एक बड़ी बहस छिड़ी हुई है, नारी स्वातंत्रता के नाम पर तथा कथित बुद्धिजीवी विवाह संस्था को अनावश्यक मान कर उसे वैयक्तिक स्वतंत्रता में एक अवरोध के रूप में साबित करने में लगे हुए हैं, उन्हें उपर्युक्त श्लोकों में सामाजिक दायित्व और स्त्री पुरुष सम्बंधों के माधुर्य को देखना चाहिए।

विवाह संस्कार पूर्ण होने पर गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर चुके नवदंपति तब समाज के वृद्धजनों का आशीर्वाद प्राप्त करते और उस आशीर्वाद प्राप्ति का नेतृत्व भी वधु ही करती थी।

सुमंगलीरियं वधू: इमां समेत पश्यत
सौभाग्यं अस्मेदत्वाय अथ अस्तं वि परा इतन

यह वधु उत्तम भाग्य से युक्त है। आओ, इसको पास से आकर देखो और इसे सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद देकर घर जाओ। 47 मंत्रों से रचित वैदिक विवाह सूक्त महीयसी सूर्या सावित्री की हिंदू समाज की विलक्षण देन हैं, जिसने सम्पूर्ण विवाह परंपरा को एक ऐसी धरोहर प्रदान की है, जो आजतक अविरत चली आ रही है, जिसका उद्देश्य एक ऐसे समाज का निर्माण करना था; जहां परस्पर प्रेम और शालीनता का बंधन हो, कोई शर्त न हो बल्कि ममत्व और समत्व का सम्बंध हो और (उनके संयोग से) ऐसी संतति हो जो असामान्य कर्तृत्व सम्पन्न व देवत्व का मार्ग अनुसरण करने वाली बनें और समाज में यशस्वी भूमिका निभाएं। देवानां एति पाथ:। अपनी संतति को देख कर वे कहते हैं प्रजाभिरग्ने अमृतत्वमश्याम्- प्रजा के द्वारा हम अमर हो सकें यह वरदान दें।

महाभारत के शांति पर्व में एक और प्रसंग मिलता है जिसमें प्रेरक अध्याय 220 में विवाह के सम्बंध में नारी के तेजस्वी व्यक्तित्व और उनके चरित्र का पता चलता है। परम विदुषी सुवर्चला महर्षि श्वेतकेतु की पत्नी थी। वे देवक नामक ऋषि की पुत्री थी। ऐसा प्रतीत होता है कि विदुषी सुवर्चला उस समय अत्यंत सुंदर महिला रहीं होगी। तथापि उनकी प्रसिद्धि इसलिए नहीं थी कि वे सुंदर थी, बल्कि अत्यंत प्रतिभावान और मर्मज्ञ थी। उनका काल महाभारत के लगभग डेढ़ सौ:वर्ष बाद का है। सुवर्चला ने सूर्या सावित्री द्वारा प्रदत्त विवाह संस्कार का कायाकल्प कर दिया था। उन्होंने अपने विवाह के लिए अपने पिता के सामने एक विचित्र शर्त रख दी। उन्होंने अपने पिता से कहा कि आप मेरा विवाह उस युवक से करना, जो अंधा भी हो और आंखवाला भी हो।

अन्धाय मा महाप्राज्ञ देअन्धाय वै पित:।
एवं स्मर सदा विद्वान ममेदं प्रार्थित मुने॥

पिताश्री आप मेरी इस प्रार्थना को सदैव स्मरण रखिएगा। सुवर्चला की इस शर्त को पूरा किया था परम विद्वान श्वेतकेतु ने जो महर्षि उव्दालक के सुपुत्र थे, वे महर्षि देवक के घर पधारे। उनके तथा सुवर्चला के बीच संवाद हुआ और वह वार्तालाप बाद में भारतीय संस्कृति, अध्यात्म तथा मनीषा की धरोहर बन गया। सुवर्चला ने पूछा कि बताओ ऋषि तुम अंधे कैसे हो और अंधे होकर भी आंख वाले कैसे हो? श्वेतकेतु उत्तर देते हैं-

येनेदं वीशते नित्यं वृणोति स्पृशतेऽथ वा॥
घ्रायते वक्ति सततं येनेदं रसते पुन: ॥
येनेदं मन्यते तत्वं येन बुध्यति वा पुन:॥
न चशुर्विधते हेतत स वै भूतान्ध उच्यते।

जिस परमात्मा की शक्ति से जीवात्मा सदा सब कुछ देखता है, ग्रहण करता है, स्पर्श करता है, सूंघता है, बोलता है, निरंतर विभिन्न वस्तुओं का स्वाद लेता है, तत्व का मनन करता है और बुद्धि द्वारा निश्चय करता है वह परमात्मा ही चक्षु कहलाता है। चष्टे इति चक्षु- जो देखता है, वह चक्षु है। इस व्युत्पत्ति के सर्वद्रष्टा परमात्मा ही चक्षु पद का वाच्यार्थ है। जो इस चक्षु से रहित है, वह अन्धा है किन्तु परमात्मा रूपी चक्षु से युक्त होने के कारण मैं अनन्ध, नेत्र वाला हूं। साथ ही, भद्रे-

यस्मिन प्रवर्तते चेदं पश्यन् श्रण्वन स्पृशन्नपि॥
जिघ्रंश्च रसयंस्तद्वद वर्तते येन चशु सा।
तन्मे नास्ति ततो वन्धो वृणु भद्रेऽद्य मामत:।

जिस परमात्मा के भीतर ही यह संपूर्ण जगत व्यवहार में प्रवृत्त होता है, यह जगत जिस आंख से देखता, कान से सुनता, त्वचा से स्पर्श करता, नासिका से सूंघता, रसना से रस लेता है एवं जिस लौकिक या भौतिक चक्षु से सारा बर्ताव करता है, उससे मेरा कोई सम्बंध नहीं है, इसलिए मैं नेत्रहीन हूं, अंधा हूं; अत: भद्रे तुम मेरा वरण करो। इसके बाद का संवाद बहुत लम्बा है। किन्तु श्वेतकेतु के प्रत्येक उत्तर से देवी सुवर्चला आनंदित हो उठी, उन्होंने प्रणाम करते हुए कहा-

मनसासि वृतो विद्वन शेषकर्ता पिता मम।
वृणीष्व पितंर मध्यमेष वेद विधिक्रम:।

विद्वन, मैं आपके उत्तर से अत्यंत संतुष्ट हूं, मैंने अपने हृदय से आपका वरण कर लिया है, शास्त्र में कथित शेष कार्य की पूर्ति मेरे पिताश्री करेंगे। आप उनसे मुझे मांग लीजिए। यही वेद विहित मर्यादा है।

इस प्रकार श्वेतकेतु ने सूर्या सावित्री द्वारा निर्मित मंत्रों में घोष के बीच देवी सुवर्चला का वरण किया और विवाह को सामाजिक मान्यता प्रदान की।

यानि चोक्तानि बेदेषु तत् सर्व कुरु शोभिने।
मया सह यथान्यायं सहधर्मचरी मम॥

श्वेतकेतु ने कहा- शोभने, वेदों में जिन शुभ कर्मों का विधान है, मेरे साथ रह कर उन सभी का यथोचित रूप से अनुष्ठान करो और वास्तव में मेरी सहधर्मचरिणी बनो। इस प्रकार सूर्या सावित्री के क्रांतिकारी कदम के लगभग 300 वर्षों के बाद महर्षि श्वेतकेतु सुवर्चला ने विवाह संस्कार की मर्यादा को स्थापित करके एक नए सामाजिक आंदोलन का सूत्रपात किया था। जिसका उद्देश्य समाज में स्त्री-पुरुष सम्बंधों को नई मान्यता देना था और जिसका पुण्य फल आज तक विवाह पद्धति के माध्यम से हिंदू समाज को सामाजिक दृष्टि से संवेदनशील बनाए हुए है और यही कारण है कि हमारी हस्ती अभी तक बरकरार है। “कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी” उसका सबसे बड़ा कारण है हमारी विवाह संस्था का शक्तिशाली होना जिस पर सम्पूर्ण हिंदू समाज अपनी पूरी गरिमा और महिमा के साथ टिका हुआ है।

निष्कर्ष यह है कि किसी भी समाज की भौतिक उन्नति, आर्थिक प्रगति तथा समृद्धि जब शिखर पर होती है, उसका एक परिणाम यह भी होता है कि सामाजिक सम्बंधों और व्यवहार में गिरावट आती है। जिसे आज इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में हम सब अनुभव कर रहे हैंंंंंंं। आज के इस वैज्ञानिक तथा टेक्नालाजी के युग में महिलाओं के प्रति जो दृष्टि पनप रही है, उसका सीधा सम्बंध केवल भोग से है। विवाह संस्था चरमरा रही है। ‘तलाक‘ अथवा ‘डिवोर्स‘ शब्द जो हमारे शब्दकोश में कहीं नहीं थे; उनको सामाजिक मान्यता मिल रही है। स्थिति यह है कि विवाह सम्बंध स्थापित होने से पहले ही सम्बंध विच्छेद हो जाता है। तिलक से पहले तलाक धीरे-धीरे आम होता जा रहा है। एक अध्ययन के अनुसार तलाक में पिछले वर्षों में 30 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। संयुक्त परिवार की बात छोड़ दीजिए, अब तो एकल परिवार भी टूट रहे हैं। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि अधिक समृद्धि के साथ-साथ सामाजिक स्नेह सम्बंधों की सिद्धि के लिए भी लोगों को समय देना होगा और उसके लिए विवाह के प्रति अपने दृष्टिकोण को बदलना होगा और उसके सही अर्थो को आज के संदर्भ में समझना होगा।

कहना नहीं होगा कि आजकल विवाह अपने आर्थिक वैभव के प्रदर्शन की वस्तु बन गया है, जिसमें शेष सबकुछ होता है केवल विवाह नहीं होता है, केवल अनमने मन से विवाह की कुछ रस्में निभाई जाती हैं, जिसका पता न तो वर को होता है, न वधु को, न ही आचार्य को और न ही उनके सगे सम्बंधियों को। व्यक्ति के जीवन के सब से बडे उत्सव में केवल कुछ दिखावे के साथ बिना समझे शामिल होते हैं, जो बाद में दु:ख का कारण बनता है। सबसे बड़ी बात यह है कि आजकल विवाह से पहले ही वर वधु के अत्यंत निजी और वैयक्तिक अनुभवों और सम्बंधों को बड़े-बड़े स्क्रीन लगाकर पहले ही लोगों को दिखा दिया जाता है, जिसका क्या औचित्य और आवश्यकता है यह समझ से परे है। बाद में पता लगता है कि वे ही वर वधु जिनको हमने कुछ दिनों पहले हंसते-गाते, नाचते-कूदते स्क्रीन पर देखा था, वे सम्बंध विच्छेद (तलाक) के लिए अदालत में खड़े हैं। प्रेम विशेष रूप से पति पत्नी सम्बंध नितांत निजी और व्यक्तिगत मामला होता है। उसका सार्वजनिक दृष्टि से, अपने वैभव से जोड़ कर किया गया प्रदर्शन अंततोगत्वा केवल विघटन और विच्छेद की ओर ले जाता है।

‘लिव इन रिलेशनशिप’ तथा समलैंगिकता व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को, हो सकता है पुष्ट करता हो; लेकिन वह समाज में तो विघटन और विषाद के बीज ही बोता है। अतएव यदि समाज में हो रहे सामाजिक अवमूल्यन से हमें बचना है तो पुन: आधुनिक युगबोध की किसी सूर्या सावित्री अथवा सुवर्चला का आवाहन करना होगा।
——-

वीरेन्द्र याज्ञिक

Next Post
महिलाओं का आर्थिक सशक्तिकरण

महिलाओं का आर्थिक सशक्तिकरण

Comments 3

  1. Premlata Nahar says:
    2 years ago

    विवाह और दांपत्य की बहुत ही सुन्दर व्याख्या की है। आज के समय में लड़के और लड़कियों सब को यह बातें सही रूप में समझाना बहुत जरूरी है। आज के माता पिता भी इन बातों की सुखी और सुंदर जीवन के महत्वपूर्ण सूत्रों को नहीं समझते हैं तो बच्चे कैसे समझेंगे!! यह आज के समय की बहुत बड़ी विडंबना है। और यही कारण है कि सुखी परिवार और सुंदर समाज का स्आवरूप आज चकनाचूर हो रहा है। और मनुष्य जीवन मोक्ष की बजाय नरकगामी हो रहा है। इस सम्बंध में आज आमतौर पर सार्वजनिक discussion और debate तथा निष्कर्ष के रूप में कुछ चिंतन सूत्र समाज व जन जन को मिलने चाहिए। केवल संसद में discussion और समय बीतने पर इकतरफा कानून बनने से काम नहीं चलेगा।

    Reply
  2. Mahesh Chandra Pathak says:
    2 years ago

    इस ज्ञानमयी लेख के लिए आभार और सादर प्रणाम

    Reply
  3. Mahesh Chandra Pathak says:
    2 years ago

    इस ज्ञानमयी लेख के लिए आभार और सादर प्रणाम।

    Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी विवेक पंजीयन : यहां आप हिंदी विवेक पत्रिका का पंजीयन शुल्क ऑनलाइन अदा कर सकते हैं..

Facebook Youtube Instagram

समाचार

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लोकसभा चुनाव

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लाइफ स्टाइल

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

ज्योतिष

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

Copyright 2024, hindivivek.com

Facebook X-twitter Instagram Youtube Whatsapp
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वाक
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
  • Privacy Policy
  • Terms and Conditions
  • Disclaimer
  • Shipping Policy
  • Refund and Cancellation Policy

copyright @ hindivivek.org by Hindustan Prakashan Sanstha

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In

Add New Playlist

No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण

© 2024, Vivek Samuh - All Rights Reserved

0