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पूर्वोत्तर की मातृ सत्ता

पूर्वोत्तर की मातृ सत्ता

by अविनाश बिनीवाले
in नवम्बर २०१५, सामाजिक
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मेघालय के खासी परिवारों में से वर, दूल्हा विवाह होने पर अपनी मां का घर छो़ड, अपने माता-पिता, भाई-बहनों को छो़ड ससुराल में, याने पत्नी के मायके में निवास करने जाता है। पत्नी के माता-पिता हों, तो सास इस परिवार की प्रधान होती है।

परिवार पर जहां मां का भी अधिकार होता है। ऐसी व्यवस्था को मातृ सत्तात्मक परिवार व्यवस्था कहा जाता है। मेघालय की गारो और खासी टोलियों में आज भी मातृ सत्तात्मक प्रणाली का अस्तित्व है। दक्षिण भारत के केरल में भी वह इसी तरह अल्प मात्रा में बनी हुई है। आखिर क्या होती है यह मातृ सत्तात्मक प्रणाली? इन परिवारों में से माता क्या सही माने में अपने अधिकारों का प्रयोग करती है? आज मेघालय में असल में क्या दिखाई देता है?

मेघालय के खासी परिवारों में से वर, दूल्हा विवाह होने पर अपनी मां का घर छो़ड, अपने माता-पिता, भाई-बहनों को छो़ड ससुराल में, याने पत्नी के मायके में निवास करने जाता है। पत्नी के माता-पिता हों, तो सास इस परिवार की प्रधान होती है। वहां के कानूनों के तहत मां की जायदाद की वारिस ल़डकी ही होती है। (ल़डके विवाह के बाद अपनी पत्नी के मायके में जाते हैं।) किसी मां के एक से अधिक ल़डकियां हों, तो उनमें से सबसे छोटी ल़डकी मां की जायदाद की वारिस होती है। इसके बदले में अपने माता-पिता की जिम्मेदारी भी उस छोटी ल़डकी की होती है। (प्रत्यक्ष व्यवहार की दृष्टि से यह उचित ही है, क्योंकि ल़डकियों में से सबसे छोटी ल़डकी अपने माता-पिता की जिम्मेदारी सबसे अधिक अवधि तक निभा सकती है, और तो और यह ल़डकी उम्र में सबसे छोटी होने से माता-पिता की जिम्मेदारी निभाते समय उसका शारीरिक जोश भी ब़डी बहनों की अपेक्षा अधिक होगा। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि छोटी ल़डकी को एकमात्र वारिस कहते समय इस समाज के पुरखों ने काफी कुछ सोचा होगा!)

विवाह करके ससुराल आए हुए दूल्हे को याने पति को आखिर घर के काम करने ही प़डते हैं। पति का एक महत्वपूर्ण काम प्रजोत्पादन में सहायता करना। पति का (मर्द का) और एक महत्वपूर्ण काम याने घर के ताकत लगाकर करने लायक काम करना। इन कामों में पहला होता है लक़डी काटना। औरतें सलाइयां-छ़डें बटोरने का काम करती हैं। मर्दों के लक़डी काटने पर उसे ढोने का काम औरतें, ल़डकियां ही करती हैं। सिर्फ मेघालय में ही नहीं, समूचे पूर्वांचल में ‘झूम’ प्रकार की खेती होती है। झूम की खेती माने पहले जंगल काटकर साफ करते हैं ङ्गिर वहां एक-दो बरस खेती करना। उस जमीन की उर्वरता घटी, तो वह स्थान छो़डकर दूसरा जंगल तो़डकर उसकी सफाई करना… खेत जोतने का काम भी ब़डी मेहनत का होता है। यह काम भी मर्दों के ही जिम्मे होता है। (बेचारे करते हैं आखिर, इनकार करते किससे, क्या कहेंगे? अपने घर लौटने की सुविधा तो होती नहीं।)

लेकिन इन दो कामों के अलवा मर्दों का जीवन वैसे मस्ती भरा ही होता है। वैसे वे भी ब़डी ही मस्ती में रहते हैं। जिनकी अपनी खेती नहीं होती या लक़डी काट लाने का काम ज्यादा नहीं होता और खेत भी जोतना जरूरी नहीं होता, ऐसी जगह प्रजोत्पादन में पत्नी की सहायता करना और फुर्सत के समय धूम्रपान करना, शराब पीना यही दो काम उनके अपने होते हैं। (यह वर्णन सुनकर या प़ढकर महाराष्ट्र में से कितने ही मध्य वर्गीय पुरुष निश्चित रूप में ईर्ष्या करेंगे।) हम अगर खासी होते, तो कैसा ब़िढया होता! ऐसा बार-बार वे सोचेंगे। लेकिन कैसे करें? इस जनम में तो कहीं संभव नहीं। लेकिन अपने यहां के पुरुष अपनी पत्नी को कम से कम एक बार शिलांग-जोवाई तक ले  जाएं और वहां की औरतों के जीवन का दर्शन कराएं। उससे अपने यहां के मध्य वर्गीय मर्द अपनी औरतों-बच्चों के हित में कितना क्या करते हैं, इसका यहां की औरतों को लिहाज हो सकेगा। (इसलिए मेरे पुरुष दोस्तों, अगली छुट्टियों में जरूर-जरूर मेघालय हो आएं!)

यह मामला सही माने में ऐसा अनोखा है कि आज भी मातृ सत्तात्मक परिवार प्रणाली होने वाले इलाकों का चक्कर लगाया तो चकित करने वाली कितनी सारी बातें दिखाई देंगी। शिलांग के साथ सभी ओर पान-तंबाकू की दुकानों पर ल़डकियों की ही भीड़ होती है। मुंह में गिलोरी भरते आते-जाते पीक थूकने वाली औरतें यहां हमेशा ही दिखाई देती हैं। होटलों में, रेस्तराओं में अकेली-अकेली औरतें सभी ओर हम देख सकते हैं। भरपेट खाना खाकर वे पान मुंह में ठूंसती हैं और साथ ही एकाध सिगरेट-बी़डी भी सुलगाती हैं। मंडी में बहुत सारी चीजें बेचने वाली इन औरतों के बर्ताव में कभी भी कुछ नरमाई नहीं होती। इतना ही नहीं किसी हद तक मगरूरी ही होती हैं। अपने समाज में उनका जो ब़ढा-च़ढा स्थान है, उसी में से यह मगरूरी पाती होगी (ग्राहक के साथ झल्लाकर पेश आने वाली औरतें हमें सिर्फ खासी इलाके में ही दिखाई देती हैं।)

आजकल के जमाने में अपने बच्चे क्या करें, इसे तय करने में उसकी भूमिका निर्णायक न हो, तो भी उसे महत्वपूर्ण माना जाता है। हमारे यहां युवक युवतियों से छे़डछा़ड करते हैं। उन्हें लुभाना, घुमाना-फिराना, बन सके तो धोखा देना, ऐसे खेल वे खेलते हैं। लेकिन ऐसी करामातें यहां ल़डकियां ही करती हैं। परिवार में पिता अपने ल़डके को यदि वह जवान है तो गांव की शरारती युवतियों से बचने की सलाह बार-बार देते हैं। (बेचारे!) ‘ल़डकियां पीछा करेंगी, इसलिए अंधेरा होने के पहले (सात बजने के पहले) घर लौट आना।’ ऐसी उनके भले की बातें पिता अपने ल़डकों को मनाते-समझाते रहते हैं।

दोपहर के समय किसी खासी बस्ती में से घूमें तो दिखाई देता है कि सभी काम औरतें ही करती चलती हैं। रास्तों पर, दुकानों में आदि सभी ओर दिखाई देती हैं, वे औरतें, ल़डकियां और छोटे बच्चे! जवान या अधे़ड उम्र के पुरुष कहीं दिखाई ही नहीं देते। (उनके लिए घर में कुछ थो़डे काम होते हैं और काम न हो तो फुर्सत के समय वे धूम्रपान करते या शराब पीते दिखाई देते हैं।)

औरत सारा दिन मेहनत कर रही है, ऐसा चित्र पूर्वांचल में ही नहीं, सारे भारत में चारों ओर दिखाई देता है और तो और यहां मुंबई की भी हालत कुछ अलग नहीं। लेकिन खासी इलाके की खासियत यही है कि  वहां की औरत यह सबकुछ अपने अधिकार में करती हैं। खुद निर्णय  करती है। मर्द को क्या करना चाहिए, उसे कितनी-कैसी छूट दें, यह वही तय करती है। वह परिवार प्रमुख होती है। घर-बार उसका अपना होता है। मर्द का बर्ताव सही न हो, कहते-सुनते भी वह मान न रहा हो तो उसे पहने कप़डों पर ही घर से बाहर करने का उसे अधिकार होता है और खासी औरतें अपनी गरज के मुताबिक उसका प्रयोग भी करती हैं।

नौकरी करने वाले, उच्च शिक्षित खासी युवकों के मन में खासकर पुणे-मुंबई या दिल्ली-चेन्नई क्षेत्र में प़ढाई कर लौटे हुए युवकों के मन में क्या हम औरतों के हाथों की कठपुतली बने रहें, ऐसा सवाल धीरे धीरे ही सही पर निश्चित रूप में उभरने लगा है। मालूम नहीं, कल क्या होगा लेकिन कम से कम आज गारो-खासी क्षेत्र की औरतें सभी अधिकारों का उपयोग कर रही हैं। वहां वह केवल माता नहीं, परिवार प्रमुख भी हैं। उसकी भूमिका निर्णायक होती है। इसके माने यही है कि वहां माता सही माने में ऊंचे स्थान पर है।

अविनाश बिनीवाले

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