भौं भौं बनाम ट्वीट ट्वीट

दिन भर की भागदौड़ और अपनी व्यस्त जीवनशैली के बाद जब आदमी घर पहुंचता है तो चाहता है कि वह सुकून भरी सांस ले सके। देश और दुनिया में घटने वाली घटनाओं की जानकारी प्राप्त कर सके। लेकिन इसी उद्देश्य से जब वह कोई समाचार चैनल शुरू करता है तो उसे आधे से अधिक चैनलों पर शोरशराबा और चीख-चिल्लाहट ही सुनाई देती है। इसके विपरीत अगर वह व्यक्ति सोशल मीडिया पर एक्टिव है तो उसे पल-पल की खबर शांति से मिल जाती है।

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया- एक ही काम के लिए प्रयुक्त होने वाले ये दोनों माध्यम कई बार एक दूसरे के विपरीत खड़े दिखाई देते हैं। कई बार तो सोशल मीडिया इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर हावी होता दिखाई देता है। बड़े-बड़े ‘मीडिया हाउस’ शोर मचाते रह जाते हैं और छोटा सा पंछी आकर ट्वीट-ट्वीट कर उनके विचारों की धज्जियां उड़ा देता है।

गति

सोशल मीडिया की सबसे बड़ी ताकत उसकी गति है। कोई खबर अखबार या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के दफ्तर में पहुंच कर उसके सही होने के तथ्यों का पता लगा कर, उससे सम्बंधित फोटो या वीडियो डाल कर दर्शकों या पाठकों तक पहुंचने में जितना समय लगता है उतनी देर में सोशल मीडिया घटित घटना का अंतिम सिरा भी लोगों तक पहुंचा चुका होता है। पूरी तरह इंटरनेट पर आधारित सोशल मीडिया की गति अब और अधिक बढ़ जाएगी क्योंकि अब भारत में भी 4जी आ चुका है। कुछ ही दिनों में हमें हमारे मोबाइल पर लाइव वीडियो भी देखने मिल सकते हैं। सोशल मीडिया की गति को भुनाने का काम सबसे अधिक प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 के लोकसभा चुनावों में किया था। जितनी तूफानी चुनावी रैलियां उन्होंने की थीं उतना ही तूफानी चुनाव प्रसार उन्होंने सोशल मीडिया पर किया था। वे आज भी सोशल मीडिया पर उतने ही एक्टिव हैं। टी-20 वर्ल्ड कप में भारत के द्वारा पाकिस्तान को हराए जाने के कुछ ही सेकेण्ड के बाद उनका टीम को बधाई देने वाला ट्वीट आ चुका था।

पहुंच

यह सोशल मीडिया की दूसरी बड़ी ताकत है। भारत सबसे अधिक युवाओं का देश है और ये सभी युवा सोशल मीडिया का भरपूर प्रयोग करते हैं। आजकल स्मार्ट फोन हर किसी के पास है और जिसके पास स्मार्ट फोन है उस तक सोशल मीडिया की पहुंच हैा दोस्तों के द्वारा भेजे गए व्हाट्सएप मैसेज को पढ़ने के बाद व्यक्ति अन्य मैसेज भी पढ़ता ही है। अपने पसंदीदा व्यक्ति को ट्वीट करते समय उस व्यक्ति को मिले नकारात्मक ‘रिस्पॉन्स’ भी अपने आप सामने आ जाते हैं। व्यक्ति चाह कर भी सोशल मीडिया के चंगुल से नहीं छूट पाता। किसी जमाने में बर्फीली वादियों में युद्ध के दौरान जाकर रिपोर्टिंग करने वाली बरखा दत्त को लोगों ने सिर आंखों पर बिठाया था, आज ट्विटर पर उसकी लिखी किताब की तुलना ‘टायलेट पेपर’ से की गई है। लोगों की नजरों में इस कदर गिरने का श्रेय बरखा के ही उन विचारों और वक्तव्यों को जाता है जो वे मोदी सरकार के आने के बाद से निरंतर कर रही हैं। जेएनयू की घटना के समर्थन में उनके विचारों ने इस आग में घी डाल दिया। हालांकि बरखा और उनके समान विचार करने वाले अन्य मीडिया चेहरों को इससे फर्क नहीं पड़ता। अपने-अपने चैनल पर वे अभी भी उसी तरह चिल्लाते रहते हैं।

प्लेटफॉर्म

अभिव्यक्ति की आजादी का फायदा सोशल मीडिया आने के पहले बहुत कम लोग उठाते थे। परंतु अब तो सब को अपने विचार प्रगट करने की आजादी मिल गई है। गली-मुहल्ले में घटी घटनाओं से लेकर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर तक लोग अपना पक्ष रखने लगे हैं। अब पक्ष है तो स्वाभाविक ही विपक्ष भी होगा ही परंतु इसका एक फायदा यह है कि घटना के दोनों पहलू सामने आ जाते हैं। लोग घटना के उस पक्ष से भी रूबरू होते हैं जो किसी कारणवश सामान्य मीडिया में नहीं दिखाए जाते।
कुछ दिनों पूर्व श्रीनगर के महाविद्यालय में पढ़ने वाली लड़की के साथ जो घटना हुई वह सेना के जवानों को बदनाम करने की साजिश थी; परंतु इससे पहले कि मीडिया बहुत ज्यादा हाय-तौबा मचाता सोशल मीडिया ने सच सामने रख दिया। उस लड़की का इंटरव्यू भी वायरल हो गया, जिसमें उसने यह माना कि सेना के जवानों ने कुछ नहीं किया था।

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के अबू धाबी के सुलतान से मिलने की खबर तो कुछ चैनलों ने दिखाई, परंतु सुलतान प्रधान मंत्री के प्रयास का सम्मान करते हुए उन्हें अबू धाबी में मंदिर बनाने हेतु भूमि प्रदान करने की खबर किसी मीडिया ने नहीं दिखाई। (अलबत्ता, अरबी मीडिया ने इसे पहले पन्ने पर छापा था, लेकिन भारतीय मीडिया में कहीं-कहीं स्थान मिला भी, परंतु गौण) परंतु सोशल मीडिया में यह खबर तुरंत वायरल हो गई थी। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने सुलतान और वहां के पुजारियों के साथ ली गई अपनी सेल्फी के साथ इसे ट्वीट किया था।

सोशल मीडिया ने तो नामचीन हस्तियों को भी नहीं छोड़ा। हालांकि वे भी इस देश के आम नागिरिक ही हैं, उन्हें भी अपने विचार रखने का पूरा हक है परंतु उनके चारों ओर एक ‘ग्लैमरस ऑरा’ है। उनको फॉलो करने वाले कई लोग हैं इसलिए उनकी इस मीडिया के प्रति जवाबदेही और बढ़ जाती है। हाल ही में प्रसिद्ध अभिनेता अनुपम खेर ने जेएनयू की घटना और कन्हैया के समर्थन में उतरे लोगों को खूव खरी-खोटी सुनाई थी। वे न्यूज चैनलों और अन्य स्टेज कार्यक्रमों में तो बाद में गए, शुरूआत उन्होंने ट्वीट से ही की थी। उसके बाद तो उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के रिटायर्ड जज और कन्हैया समर्थकों की बोलती बंद कर दी थी।

पक्ष विपक्ष

हर व्यक्ति अपने विचारों के अनुकूल विचारों को सुनने या पढ़ने की इच्छा रखता है। लेकिन सोशल मीडिया में लोग उन लोगों को भी फॉलो करते हैं जिन्हें वे व्यक्तिगत या वैचारिक तौर पर पसंद नहीं करते। जैसे ऊपरोक्त उदाहरण में बरखा दत्त को जिसने रिप्लाय किया वह उनका फैन नहीं है परंतु उन्हें फॉलो कर रहा है जिससे मौका आने पर उन पर तंज कसे जा सकें।
प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी को फॉलो करने करने वालों में भी ऐसे कई लोग होंगे जो केवल इसलिए उन्हें फॉलो कर रहे हैं कि उन पर तथा उनके कामों पर टिप्पणी की जा सके।

हालांकि इसे मीडिया की सकारात्मक भूमिका नहीं कहा जा सकता, परंतु यह टिप्पणी किसी की व्यक्तिगत राय है अत: उस पर प्रश्नचिह्न भी नहीं लगाए जा सकते; क्योंकि अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार हर किसी को है।

वर्तमान परिस्थिति

पहले समाज में दो विचारधाराएं व्याप्त थीं। वामपंथी और …….। आज की मीडिया की स्थिति पर अगर गौर से विचार किया जाए तो वह सीधे-सीधे दो भागों में बंटा दिखता है; मोदी, भाजपा तथा संघ समर्थक और मोदी, भाजपा और संघ विरोधी। दूसरी विचारधारा में कांग्रेसी, वामपंथी आदि सभी लोग आते हैं जो किसी भी कारणवश मोदी भाजपा या संघ को पसंद नहीं करते। अब चूंकि विरोध करना ही इनकी विचारधारा है तो विरोध करने के लिए नए-नए मुद्दे उघेड़ना भी जरूरी है। मोदी सरकार ने भ्रष्टाचार जैसा कोई मुद्दा नहीं दिया तो इन्होंने असहिष्णुता का बवाल मचा दिया। संघ की विचारधारा में कोई खोट नहीं दिखी तो गणवेश परिवर्तन की जुगाली करने लगे और मोदी जी तो इनकी आंख की ऐसी किरकिरी है जो ना निकलती है न चैन लेने देती है अत: उनके विदेश दौरों और विकास के सपनों पर छींटाकशी हो रही है। विरोधियों की इस मनोदशा का भरपूर फायदा वो मीडिया हाउस उठा रहे हैं, जो स्वयं भी इसी मनोविकार से ग्रस्त हैं। हर रात प्राइम टाइम की खबर हो या दिन भर चलने वाली अन्य खबरें वे ऐसी ही खबरें चलाते हैं जिससे किसी तरह मोदी, भाजपा और संघ की छवि धूमिल की जा सके।

इन मीडिया हाउस के सेट पर जाकर तो कोई इनका मुंह बंद नहीं कर सकता, परंतु इनकी सोशल साइट्स फिर वह चाहे चैनल का फेसबुक पेज हो या उनके सम्पादकों/एंकरों के फेसबुक पेज हों या इन दोनों के ट्विटर अकाउंट हों, इन्हें जवाब भी उन्हीं की भाषा में मिलता है। अंतर यह है कि चैनलों पर इनकी आवाज बुलंद होती और इन्हें सोशल मीडिया पर पड़ी मार की आवाज नहीं आती। परंतु उसका असर और प्रसार दोनों अधिक होता है।

अब ये विरोधी भी समझ चुके हैं कि मोदी भाजपा या संघ को हराने के लिए उन्हें भी युवाओं तक पहुंचना होगा। क्योंकि लोकसभा चुनावों में भाजपा तथा मोदी विजय का अधिकतम श्रेय युवाओं को जाता है तथा संघ की दृष्टि तो शुरू से ही युवाओं में देश का भविष्य ढूंढने की रही है। इसलिए विरोधी अब युवाओं को ही निशाना बना रहे हैं। फिर चाहे वो रोहित वेमुला हो या कन्हैया कुमार। युवाओं की ऐसी फौज खड़ी करने की तैयारी हो रही है जो आगे जाकर मोदी समर्थक युवाओं की तोड़ बने।
इस सारे खेल का सशक्त माध्यम है सोशल मीडिया जिससे युवा सबसे अधिक प्रभावित हैं। अत: सोशल मीडिया की गति, पहुंच, उससे लोगों को अपनी बात रखने के लिए मिलने वाला प्लेट्फॉर्म इन सभी का उपयोग अत्यंत सुनियोजित तरीके से करना आवश्यक है। सोशल मीडिया की विश्वसनीयता को कायम रखना भी अत्यंत आवश्यक होगा। क्योंकि तेज दौड़ने वाला घोड़ा भी यथोचित गंतव्य तक तभी पहुंचता है जबकि उसकी लगाम कसने वाला उसे सही मार्ग दिखाए।
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